पिछले कुछ दिनों से कुछ मित्रों से बातचीत और सोशल मीडिया से मिले फीडबैक से यह निष्कर्ष निकल कर आया कि अभी हाल फिलहाल की मेरी फेसबुक फीड्स में हौसला, उदारता, प्रेम, कोमल भावनाओं आदि की घोर कमी है, जिसकी अभी के समय में बहुत आवश्यकता है, वो इसलिए क्योंकि लोग भयभीत हो चुके हैं, अब हद से ज्यादा डरने लगे हैं। मैंने भी पुनर्विचार किया तो यह पाया कि बात तो उनकी भी सही है। लेकिन मैं पूरी आशावादिता के साथ यह भी मानता हूं कि मेरे मित्रता सूची में कम से कम डरपोक लोग तो नहीं है, घाघ तो भरे पड़े हैं, लेकिन जो खासकर कुछ पढ़ने वाले हैं, वे थोड़े ही सही लेकिन तार्किक हैं, वस्तुस्थिति की समझ रखने वाले लोग हैं, अगर कहीं भाषा थोड़ी तल्ख भी हो तो, तो उनके हित के लिए ही है और वे उसके पीछे की नेकनीयत पहचानने वाले लोग हैं।
मान लीजिए एक अगर कोई आपको कहता है
- " ग्रीन जोन हो गया, अब ज्यादा परेशानी नहीं है "
और दूसरा कोई कहता है
- " सुनिए कोरोना से खतरा टला नहीं है, सतर्क रहिए। "
अब आप ही मुझे समझाइए कि इसमें पहले वाले वाक्य से डरने की जरूरत है या फिर दूसरे वाक्य से? सोच कर देखिए की खतरा कहाँ ज्यादा है और अगर आपको फिर भी पहले वाले वाक्य से हौसला मिलता है तो आप हौसला लेते रहें, दूसरों को भी बाँटे, क्योंकि मैं दूसरे वाक्य पर विश्वास करता हूं और करता रहूंगा।
कभी-कभी समझ नहीं आता है कि अगर कोई साफ नियत से आपकी चिंता कर आपके सामने सही चीजें प्रस्तुत करने का छोटा प्रयास कर रहा है वह नकारात्मक, निराशावादी या निष्ठुर कैसे हो जाता है?
सरकार क्या कितना कर रही है नहीं कर रही है उसे एक बार के लिए भूल जाते हैं। अभी हम क्या कर सकते हैं, वह ज्यादा जरूरी है। और सरकार के हद से अधिक हौसला देने वाले रवैये से यह स्पष्ट भी है कि स्थिति बहुत कुछ ठीक नहीं है, लेकिन सरकार और करे भी तो क्या। ग्रीन, आॅरेंज, रेड जोन को भले चलिए आप और हम बकवास कह दें, जो कि बकवास है भी, लेकिन इसके अलावा और करने के लिए अब बचा भी क्या है, इसलिए जो है उसी से मन की तसल्ली कर ली जाए।
वर्तमान लाॅकडाउन को पूरी तरह खत्म होने के दो दिन पहले ही गृह मंत्रालय द्वारा बढ़ा दिया गया। क्योंकि अब शायद प्रधानमंत्री जी की भी ऐसी हालत नहीं रही कि आकर भाषण दें और लाॅकडाउन बढ़ाने का उद्घोष करें। वैसे भी प्रधानमंत्री जी वन-वे कम्युनिकेशन करते हैं, तो ऐसा कम्युनिकेशन फिर चाहे ट्विटर से होकर आए, मंत्रालय से होकर आए या फिर मन की बात से होकर आए, कोई खास अंतर नहीं रह जाता है।
स्थिति उनके भी हाथ से धीरे-धीरे निकल रही है और ये बात तभी स्पष्ट हो गयी थी जब केन्द्र ने सारी जिम्मेदारी राज्यों पर मढ़ दी थी, भले ही आज वे कितना भी लोगों को दिलासा दे दें लेकिन स्थिति आने वाले दिनों में गंभीर होने वाली है। अरे भई अब देश के प्रधानमंत्री हैं और उनसे यह उम्मीद भी नहीं की जा सकती कि वे लोगों को सीधे आकर यह कह दें कि आने वाले छ:ह महीने से साल भर तक खतरा हो सकता है, सतर्क रहने की जरूरत है। ऐसी घोषणा अगर वे कर दें फिर तो त्राहिमाम न हो जाए। इसलिए वे सेफ खेलते हैं, भले कुछ हजार लाख लोगों की जान जाए, लेकिन सकारात्मकता और हौसला आफजाई में कोई कमी नहीं होनी चाहिए, सरकारें ऐसी ही चलती हैं। क्या आज उनको कोरोना संबंधित हकीकत नहीं पता है, वे जानकर भी नहीं कहेंगे क्योंकि वे भी भारत की जनता की समझ रखते हैं, वे जानते हैं कि जिस जाति, धर्म और गुलामी के दंश से इस देश के लोग निरंतर पीड़ित रहे हैं, उसे सिर्फ और सिर्फ भावुकता से ही संचालित किया जा सकता है, कोमल प्रेमजड़ित भावनाओं से ही उसकी घेरेबंदी की जा सकती है। अंतत: यही कहूंगा कि इस घेरेबंदी से इतर हमें हौसला बनाकर रखना है, अधपके अधकचरे तथ्यों के लिए भावुक और सकारात्मक होने के बजाय असल तथ्यों के प्रति सजग रहना है और हो सके तो उन तथ्यों के लिए भावुक हो जाना है ताकि इसका कुछ लाभ भी मिले। चेतावनी और डर में फर्क करना सीखते हुए कोरोना को मिलकर हराना है।
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