Sunday, 31 May 2020

बहरूपिया मास्टर -

एक मास्साब रहे, बड़े निराले थे, उतने विनम्र मास्साब मैंने शायद ही अपने पूरे जीवन में देखा होगा।
मास्साब की एक बढ़िया चीज यह रही कि गाना गाने में और प्रवचन देने में नंबर वन थे। लड़कियों की तारीफों के बीच घिरे रहना उनका प्रिय शगल हुआ करता। मास्साब का व्यक्तित्व ऐसा कि अच्छे अच्छे बहरूपिए भी धोखा खा जाएं, उनका चोगा अभेद्य था, लेकिन फिर भी जुबान ऐसी चीज है, लाख विनम्रता, सहजता ओढ़ लीजिए, कभी-कभी हवा ऐसी चलती है कि असल रूप कुछ सेकेण्ड के लिए अपनी झलक दिखा जाता है। ठीक ऐसा मास्साब के साथ भी हो जाता था, फिर वे सचेत हो जाते थे‌।

एक बार वे ऐसे ही बताने लगे कि उनकी डाइट बढ़िया है और उन्हें भयंकर भूख लगती है। कुल मिलाकर यह समझा जाए कि मास्साब भयंकर पेटू सरीखे आदमी थे, खुलकर कह भी लेते थे। इतना कुछ खुलकर कहने के बाद उन्होंने एक दिन छात्रों को विपश्यना का ज्ञान देना शुरू किया, कहने लगे 10 दिन का पैकेज ही लेना, बहुत फायदा करता है, 3 दिन वाला पैकेज शायद बंद हो गया है और कुछ खास फायदा नहीं होता है, आगे उन्होंने बताया कि उन्होंने खुद एक बार 3 दिन वाला पैक लिया था और भूख के मारे कुलबुला गये थे। इतना बताने के बाद ही अचानक उन्होंने विषयांतर कर लिया।

ऐसे ही एक बार एक छात्र को शिक्षा संबंधी प्रयोगों के बारे में चर्चा करते हुए बताने लगे कि तुम्हारा विचार तो अच्छा है लेकिन इसको संकुचित मत होने दो, खूब किताब चाटो और आंदोलन कर डालो। जब छात्र पूछते कि मास्साब आप तो चक्रवर्ती आदमी, इतनी पहुंच है आपकी, आपने क्यों आंदोलन न किया तो वे बात पलट देते। और कहने लगते कुछ अलग करो दोस्तों ये रूटिन तरीके से पढ़ाई नौकरी ये सब तो हर कोई कर ही रहा है। कुछ इस तरह खुद मासूम की तरह किनारे में बैठ कर मजा लेते और जनता से खूब फर्जी क्रांति करवाते रहते, छात्र भी चौड़े हो जाते कि मास्साब वाजिब बात कह रहे।

एक दिन स्वच्छता की बात करते हुए उन्होंने बताया कि वे अपने पढ़ाई के दिनों में महीनों तक नहीं नहाते थे, तो कपड़े भी धोने का टंटा खत्म, कई-कई दिन तक ब्रश भी नहीं करते थे, इन सबका उन्होंने गणित लगाकर फायदा बताया कि महीने भर में कितना अधिक समय बच जाता है। दूसरा फायदा यह रहा कि शरीर से बदबू आती थी और फिर उन्होंने बताया कि बदबू की वजह से उनके बहुत कम दोस्त बने, कोई उनके पास बात करने तक नहीं आता था जिससे पढ़ाई में किसी प्रकार का व्यवधान नहीं होता था। 

इतना कुछ मास्साब बता जाते थे फिर भी चोगे से बाहर कभी नहीं आते थे। एक बार तो कह भी गये कि बचपन में उन्हें भयंकर कुंठा होती थी कि दूसरे जात के लोगों की नौकरी लग गई और उनकी जाति के लोगों की नौकरी नहीं हो पा रही है। आगे रविश कुमार स्टाइल में कहते - "मेरी जाति बताऊंगा तो आप यकीन नहीं करेंगे"। हम भी दाँतों तले ऊंगली दबा लेते कि मास्साब तो भई गुरू आदमी हैं।

किसी को कुछ समझ आया मास्साब के बारे में? नहीं न? अरे जब हमको नहीं आया तो तुमको क्या समझ आएगा। एक लाइन में समझिए कि मास्साब बहरूपियों के भीष्म पितामह थे, बस।

Thursday, 28 May 2020

उस टाइप की?

A - यार, वो उस के टाइप की है।
B - उस के टाइप की मतलब?
A - वो थी न यार, उसी के टाइप की।
B - कैसे टाइप की थी वो?
A - अरे मतलब, उसी टाइप की यार।
B - उस टाइप के लोगों में अलग क्या होता है?
A - अब आप समझ जाओ यार।
B - नहीं बताओ, उसी टाइप की क्या सिर्फ लड़की होती है?
A - ना यार, लेकिन बहुतों के साथ हुआ उसका।
B - लड़कों का नहीं होता?
A - मतलब बहुत सैटिंग हुई उसकी।
B - बढ़िया है, उसकी पसंद हुई यार।
A - फिर भी यार।
B - फिर भी क्या, बर्दाश्त नहीं होता क्या?
A - ना यार, ऐसी बात नहीं है।
B - तो फिर कैसी बात है?
A - अब ये सब तो गलत हुआ न यार?
B - गलत सही का निर्धारण करने वाले हम कौन?
A - उसका बहुत जुगाड़ हुआ बल।
B - लड़कों का नहीं होता जुगाड़?
A - हाँ, लड़कों का भी होता है।
B - फिर तो ठीक ही हुआ।
A- उसका तो भयंकर चलने वाला हुआ यार कांड।
B - लड़के नहीं करते कांड?
A - लड़के भी करते हैं।
B - तो इसमें अलग क्या है?
A - लड़कों का पता नहीं चल पाता।
B - मतलब जो है, लड़कों का पता चलना चाहिए फिर।
A - नहीं यार, मतलब लड़कियों का ज्यादा फैलने वाला हुआ।
B - फिर तो लड़कों का भी फैलना चाहिए।
A - लड़कियों के ही चरित्र पर बात आने वाली हुई भाई।
B - लड़कों के चरित्र पर क्यों बात नहीं आती?
A - लड़कों पर कहाँ बात आएगी यार।
B - क्यों?
A - उनका कहाँ चरित्र का फर्क पड़ने वाला हुआ।
B - ये सही बात कही भाई आपने।

Friday, 22 May 2020

आखिरी सफर तक - लाश ढोने की कहानी

- आखिरी सफर तक -

लाशों को ढोती जिंदा लाशें -
द्वारा - अंशु कुमार गुप्ता

मैं लाशों के साथ सोती हूं, लाश तंग नहीं करती, करवट भी नहीं बदलती। - सात वर्षीया बानो।
डर कैसा? अब्बा बताते हैं, किनारे पर लाश पड़ी थी, मेरी माँ ने वहीं मुझे जन्म दिया था- कनीज बानो, उम्र 20 वर्ष। सच मानें तो मुझे लाशों से मोहब्बत है, पिछले चालीस सालों से इन्हीं की रोटी खा रहा हूं - 65 वर्षीय हबीब।


दिल्ली के एक प्रमुख जय प्रकाश नारायण अस्पताल के बाहर फुटपाथ पर बसे एक परिवार के सदस्य सिर्फ लाशों की बात करते हैं। सात वर्षीया बानो से लेकर 65 वर्षीय हबीब तक। इतना ही नहीं कनीज बानो (20 वर्ष) की डेढ़-दो वर्षीया बच्ची भी यदि सवारी पर निकलती है तो 'लावारिस फुटपाथ पर पड़ी लाश' लिखे एक रिक्शा पर।

परिवार के मुखिया हबीब पिछले लगभग आधे दशक से फुटपाथ पर पड़ी लावारिस लाशों को उठाते हैं, और श्मशान तक ले जाते हैं। इतने लम्बे अर्से में कितनी लाशें ढोई हैं, इसका उन्हें अनुमान भी नहीं है, हंसते हुए कहते हैं- 'सैकड़ों की बात भूल जाईये, हजारों ढोई है।'

एक अंधी पत्नी, एक शादीशुदा लड़की, लाशों की खबर लेकर आने वाली 6 वर्षीया बानो और एक दामाद, यही है हबीब का परिवार।सब फुटपाथ पर रहते हैं। कमाई का और कोई साधन नहीं है। एक लाश ढोने के 20 रूपए मिलते हैं। सारा परिवार यही कमाई खाता है।

हबीब ने दिल्ली पुलिस का काम भले ही कितना भी हल्का कर दिया हो, एक पुलिस आॅफिसर की सिफारिश पर पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री राजीव गाँधी ने भले ही हबीब को 2 हजार रूपए दिए हों, लेकिन अब भी एक छप्पर हबीब का सपना है।

मुश्किल से 15 वर्ष के रहे होंगे हबीब, जब उन्हें रोजी-रोटी की तलाश में सड़क पर आना पड़ा था। माँ का निधन हो गया था। सौतेली माँ से बात नहीं बनी, हबीब को घर से निकाल दिया गया, बरेली की सड़कों पर भीख मांगले लगे। उस समय अंग्रेजों का जमाना था, लोग भिखारियों को परेशान किया करते थे, गंदी नजरों से देखते थे, हबीब ने भीख छोड़ रिक्शा चलाना शुरू किया। एक बार एक लाश ढोने के एवज में सही पैसा मिला तो हबीब ने सोचा क्यों न सिर्फ लाशें ही ढोई जाएं।

हबीब उस समय रेल्वे लाइन से लाशें उठाकर लाते थे, ट्रेन के आगे कटी-फटी लाशें ढोने से शुरूआत हुई तो लाशों से डर चला गया, कैसी भी हो, कहीं भी हो, हबीब ढोने पहुंच जाते थे। एक बार किसी महिला की लाश उठा रहे थे, रेल से कटकर महिला ने आत्महत्या की थी, वहाँ पर उनकी मुलाकात दिल्ली पुलिस के एक अधिकारी से हो गई, जो किसी सिलसिले में वहां खोजबीन कर रहे थे। पुलिस अधिकारी ने कहा - 'दिल्ली चलोगे, इसी काम का अच्छा पैसा मिलेगा।' हबीब ने हामी भर दी और इस तरह हबीब दिल्ली आ गए।

सरकारी गाड़ियों की जगह हबीब का ठेलेनुमा रिक्शा लाशें ढोने लगा। आज दिल्ली पुलिस की ओर से हबीब को खाकी रंग की वर्दी दी गई है, लाशें ढोने के लिए एक रिक्शा दिया गया है। जिस पर हबीब ने बड़े-बड़े शब्दों में लाल रंग से लिख दिया है - 'लावारिस फुटपाथ पर पड़ी लाश, दिल्ली पुलिस की गाड़ी'।

इतना ही नहीं हबीब को दिल्ली पुलिस की ओर से एक परिचय पत्र भी दिया गया है, जिसमें 'पद' के आगे लिखा है - 'दिल्ली पुलिस का लावारिस लाश उठाने वाला'।

इस सबके बावजूद यह सोचना गलत होगा कि हबीब दिल्ली पुलिस का एक हिस्सा हैं, या उन्हें भी महीने में तनख्वाह मिलती है। हकीकत यह है कि कई दिन ऐसे ही गुजरते हैं, जब लाशें न मिलने पर हबीब के परिवार के पास खाने के लिए भी कुछ नहीं बचता।

एक निश्चित प्रक्रिया के तहत, पुलिस की पी.सी.आर. या सिपाही आकर हबीब को सूचना देते हैं कि फलां जगह एक लावारिस लाश पड़ी है, हबीब तुरंत अपने रिक्शे पर पीछे अपनी अंधी पत्नी आमना बेगम को बैठाते हैं और उस स्थल तक पहुंच जाते हैं। आमना अंधी होने के बावजूद लाशें उठाने की अभ्यस्त हो चुकी है। दोनों मिलकर लाश उठाकर रिक्शा पर लाद देते हैं। पुलिस के सिपाही हबीब के हाथों में 20 का नोट रखते हैं और 2 मीटर सफेद कपड़ा। कपड़ा लाश पर लपेट दिया जाता है और यह बीस रूपए पारिश्रमिक है हबीब का, जिसमें वो और उनकी पत्नी, या लड़की लाश को उठाते हैं, विद्युत शवदाह गृह तक ले जाते हैं। लाश फूंकने वाले को दस रूपए प्रति शव के हिसाब से अलग मिलते हैं।

बहुत ही कम ऐसा होता है कि हबीब को मृतकों के कपड़ों से कुछ मिल जाए। हबीब कहते भी हैं - 'सिर्फ 20 रूपए ही मिलते हैं, ऊपरी कमाई की बात छोड़िए, दिन में यदि 5 लाशें ढोता हूं तो चार तो भिखारियों की होती हैं।'

हबीब सिर्फ उन्हीं मृतकों के जिम्मेदार हैं जो फुटपाथ पर भूख, उम्र या बीमारी से मरे हों। हबीब ऐसा लाश को हाथ नहीं लगाते जिसका पोस्टमार्टम होना हो।

हबीब को लाशों की खबर भले ही आधिकारिक तौर पर दिल्ली पुलिस की ओर से दी जाती हो, लेकिन अधिकतर लोग ही आकर उन्हें बता जाते हैं। खासतौर पर उनकी सात वर्षीय बेटी इस काम में बहुत माहिर हो चली है।

हबीब की पत्नी आमना कहती है कि सुबह 6 बजे ही बेटी आमना खेलने निकल जाती है, बच्चों में खेलते-खेलते ही उसे पता चलता है कि फलां जगह कोई मर गया है, बानो खेल बीच में ही छोड़ कर फुटपाथ पर पीपल के नीचे बैठे अपने परिवार को खबर करती है, हबीब के परिवार को लगता है कि 'आज रोटी मिल जाएगी।' बाद में हबीब सरकारी सूचना पर मृतक को ठिकाने लगा कर आते हैं।

हबीब के परिवार में किसी को इस काम से नफरत नहीं है। हबीब इसे समाज सेवा कहते हैं तो उनकी पत्नी यह कहती है कि 'हम पुण्य का काम करते हैं।'

हबीब के पड़ोसी चाय वाले, आॅटो चालक व अन्य फुटपाथी हैं, किसी को हबीब से गिला-शिकवा नहीं है। हबीब के बच्चे अन्य बच्चों के साथ खेलते हैं, लेकिन इस बात को हबीब का परिवार भी महसूस करता है कि उनका काम आम कामों से बिल्कुल अलग है, समाज में लोग उन्हें घृणा से तो देखते ही हैं।

हबीब का परिवार फुटपाथ पर ही जिंदगी काट रहा है, पुलिसवालों से लेकर स्थानीय नेताओं, अधिकारियों तक ने उन्हें एक झोपड़ी का आश्वासन दिया है, लेकिन अब तक यह कोरा आश्वासन ही है।

आमना बातचीत के दौरान सिर्फ यह बात ही दोहराती है- 'मुझे थोड़ी सी जगह चाहिए रहने के लिए। एक ठिकाना मिल जाए, तो बाकी जिंदगी कट जाए।'

लोग भले ही हबीब के काम को 'समाज सेवा' करार देते हों, लेकिन इस बात में कोई शक नहीं है कि समाज इसे जीवनयापन के एक साधन के रूप में मान्यता नहीं देता।

यही वजह है कि हबीब कहते हैं- 'मैंने कभी नहीं सोचा था कि कभी मेरा भी परिवार होगा।' पर हबीब की किस्मत में कुछ इस तरह होता चला गया कि आज उनका एक भरा-पूरा परिवार है।

आमना से उनकी शादी ठीक फिल्मी अंदाज में हुई। आमना अपनी कहानी भी कुछ इसी तरह बताती है कि फिल्मों के डायलाग का आभास होता है।

आमना अंधी है, गोंडा में घर है, सौतली मां ने उन्हें घर से निकाल दिया। आमना एक ट्रेन में सवार हो गई, बीच में कहीं गाड़ी रूकी तो वह उतर गई। दुर्भाग्य से प्लेटफॉर्म की ओर न उतरकर पटरियों की ओर। यह स्टेशन मुरादाबाद था, बीच में कुछ समय के लिए हबीब यहां भी लाशें उठाते थे।

पटरियों पर उस समय हबीब कोई लाश को उठा रहे थे, उनकी नजर अचानक तेजी से आती तूफान मेल और पटरी पर चल रही आमना पर पड़ी। हबीब तुरंत उधर भागे और आमना को एक ओर खींच लिया। आगे की कहानी आमना बताती है - "मैं बहुत रोयी, मैं मरना चाहती थी। मुल्ला जी(हबीब) ने मुझे समझाया, पूछा- मुझसे शादी करोगी? मैं पटरियों से लाशें उठाता हूं।' मुझे क्या? हर काम‌ पुण्य का काम है, मैं बोली - 'मुझे धंधे से क्या लेना, जो प्यार से रखेगा, दो रोटी इज्जत की देगा, उससे शादी करूंगी।'

इस तरह ठेठ हिंदी फिल्मी अंदाज में हबीब और आमना मिले और उनकी शादी हो गई। आमना भी हबीब का हाथ बंटाने लगी। आमना के अंधे होने से हबीब को कोई दिक्कत नहीं है। हबीब कहते हैं - 'जब मैं लाशों को इतना प्यार करता हूं तो ये तो जिंदा है, मेरी किस्मत में ही होगी जो उस दिन बच गई।

हबीब और आमना की संतान कनीज बानो, 10-12 साल जी उम्र से लापता थी। पता चला की वहीं का कोई आदमी चाय में कुछ मिला कर कनीज को भगा ले गया है। हबीब ने कनीज को ढूंढने में कोई कसर नहीं छोड़ी, सारी कमाई खर्च कर दी, कनीज नहीं मिली। बाद में कहीं से खबर मिली कि कनीज और उस आदमी ने शादी कर ली है। एक बच्ची भी है। सात साल बाद वे लौटे, इस बीच कनीज को पेट पालने के लिए बहुत कुछ करना पड़ा था, इसके बावजूद हबीब ने उसे स्वीकार कर लिया। अपने दामाद और नाती को भी साथ रख लिया।

हबीब के परिवार की कहानी का यही अंत नहीं है। 6-7 वर्षीया जो नन्हीं सी बच्ची बातचीत के दौरान दिल्ली गेट पर एक मृतक की खबर ले कर आई थी, उसे भी हबीब पाल रहे हैं। यह उनकी अपनी संतान नहीं है, उसके बावजूद बोलते हैं - थोड़ी और बड़ी हो जाये, तो इसे बोर्डिंग में डाल दूंगा। पढ़-लिख जाएगी, तो अच्छे घर में चली जाएगी।

इतना प्यारा सा सपना जिस बच्ची के लिए देख रहे हैं, हबीब को वह बच्ची, एक पुलिस अधिकारी ने दी थी।

बच्ची के जन्म के तुरंत बाद मां-बाप ट्रेन से कट गए थे। जो पुलिस अधिकारी छानबीन कर रहे थे, उन्होंने पास पड़ी नन्हीं बच्ची को उठाया, और हबीब को दे दिया।

हबीब भले ही तंगी में गुजर बसर कर रहे थे, लेकिन उन्हें उस नन्हीं जान पर तरस आ गया, आमना भी अपनी लड़की कनीज को खोने से दु:खी थी। दोनों से उस बच्ची को स्वीकार लिया और पाला।

आज यह बच्ची उनके परिवार का अंग है, लाशों के बीच ही पली है। कई बार जब मजबूरीवश मृतक को श्मशान तक नहीं पहुंचाया जाता, तो रिक्शा को वहीं रख दिया जाता है, बच्ची मृतक से ही खेलती रहती है।

मृतक उसके लिए कोई अलग चीज नहीं है। यह पूछने पर कि 'बेटा, आपको लाशों से डर नहीं लगता' जवाब मिलता है, 'डर कैसा? जाड़ों में जब मुझे ठंड लगती है तो मैं इससे चिपक कर सो जाती हूं। मेरी ठंड दूर हो जाती है।

'हबीब बच्ची की बात पर हामी भरते हैं- 'इसे क्या पता, मरना क्या होता है? इसके लिए तो खिलौना है ये, बचपन से देख रही है।

कभी शाम को कोई शाम मिलती है तो उसे श्मशान तक नहीं ले जा पाते, मजबूरी में लाश को रिक्शा में डालकर पास ही रखना पड़ता है, पूरी रात उसके साथ काट कर सुबह उसे श्मशान ले जाते हैं। हबीब के परिवार के लिये तो यह नयी बात नहीं है लेकिन हबीब के पड़ोसियों को विशेषकर महिलाओं और बच्चों को इससे काफी परेशानी होती है। बरसातें भी हबीब के लिए एक समस्या होती है।

दिल्ली पुलिस ने मृतकों को ले जाने के लिए जो गाड़ी दी है, वह ठेलेनुमा रिक्शा है, ऊपर से खुला। हबीब बताते हैं कि मृतक को श्मशान तक ले जाने में जो रास्ता तय करते हैं, उसमें भी लोगों को काफी परेशानी होती है।

जीवन यापन के इस अनोखे तरीके का एक घृणित पक्ष भी सामने आया। छानबीन पर पता चला कि आसपास के अस्पतालों से मानसिक रूप से विक्षिप्त लावारिस बच्चों को हबीब के पास भेज दिया जाता है कि- 'इसे पालो'। हबीब इतना भार उठाने में अक्षम हैं। परिणामस्वरूप इन लोगों को सड़कों पर लावारिस छोड़ दिया जाता है, 5-6 दिन में भूख-प्यास से इनकी मौत हो जाती है, तो पुलिस की गाड़ी हबीब को सूचना देती है, और हबीब उसे भी श्मशान पहुंचा आते हैं।

पिछले लंबे अरसे से एक मृतक पर उन्हें 20 रूपए की राशि दी जा रही है। हबीब का परिवार पूरी तरह इसी बात पर निर्भर है कि दिन में कितने भिखारियों या लावारिस लोगों की मौत हुई है? सुबह 6 बजे से देर रात तक हबीब का परिवार किसी मृतक की सूचना का इंतजार करता है, एक लाश की खबर मिलते ही तैयारियां शुरू हो जाती हैं, अंधी आमना को हबीब ने इस काम का अभ्यस्त बना दिया है, मृतक को रिक्शे तक लाने के लिए एक ओर से यदि हबीब पकड़ते हैं तो दूसरी ओर से आमना।

पिछले लगभग पचास वर्षों से जिंदगी इसी तरह चल रही है। पुलिस हबीब को खुश रखने का पूरा प्रयत्न करती है। हबीब अपने काम से संतुष्ट हैं, बाकी जिंदगी भी यूं ही गुजारना चाहते हैं।

उनके पड़ोसी स्वीकारते हैं कि 'यह बहुत बड़ी समाज सेवा है।' पुलिस स्वीकारती है कि हबीब ने उनका काम बहुत हल्का कर दिया है।

इसके बावजूद हबीब का परिवार खुले में गुजर-बसर कर रहा है। हबीब फिर भी यही कर संतुष्ट हैं - लावारिसों को उठाते हैं, यहां जगह भले ही न मिले, पर स्वर्ग में तो मिलेगी।'

प्रस्तुति : अंशु कुमार गुप्ता


Monday, 18 May 2020

The aftermath of Cyclone Fani


3 मई 2019, इसी दिन उड़ीसा में साइक्लोन फनी आया था। भुवनेश्वर में जहाँ हम थे वहाँ 150 किमी/घंटा की रफ्तार से हवा चली थी, पुरी और गंजम जिले के तटीय इलाकों में तो हवा की रफ्तार 200 किमी/घंटा के आसपास थी। ये तस्वीर तूफान के ठीक एक दिन बाद भुवनेश्वर रेल्वे स्टेशन की है। पूरे प्लेटफॉर्म में एक भी पंखे की पत्तियाँ नहीं बची थी, तस्वीर में आप देख सकते हैं कि फनी ने प्लेटफॉर्म में लगे लोहे की छत तक को भी नहीं छोड़ा, ये 150 किमी/घंटे की बात बता रहा हूं, 200 किमी/घंटे से जहाँ हवा चली होगी, वहाँ क्या हाल हुआ होगा, आप अंदाजा लगा सकते हैं।

साइक्लोन आने के 48 घंटे पहले वैसे तो हमें प्रशासन की ओर से नोटिस मिल गया था कि भुवनेश्वर के स्थानीय लोगों को छोड़ अन्य बाहर के लोग अपने-अपने घरों को चले जाएं। बाध्यता नहीं थी, बस कहा गया कि बेहतर हो कि असुविधा से बचने के लिए अपने घर चले जाएं। अधिकांशतः चले भी गये, हम रूक गये, बस यह सोचकर कि इतने लोग तो हैं, हम भी रूक जाते हैं। उन 48 घंटों में मोबाइल दुकानों में पाॅवरबैंक लेने के लिए भयंकर भीड़ लगी थी, ये छोटी-छोटी चीजें इसलिए बता रहा हूं क्योंकि साइक्लोन के दिन से ही हम सबका फोन डेड हो चुका था।

जिस दिन तूफान आया उस दिन तो हम हवा की गति का आनंद लेते रहे, पेड़ों को टूटता देखते रहे, गिरे हुए नारियल और आम खाकर हमने जैसे तैसे दिन काट लिया, चूंकि उस दिन तूफान के साथ बारिश भी हुई थी तो गर्मी का पता भी नहीं चला। जितना पानी हमने स्टोर करके रखा था, रात तक खत्म होने की स्थिति में आ चुका था। हमारी असली परीक्षा तो अगले दिन सुबह होनी थी। सुबह उठते ही हमने जो भयावह मंजर देखा, भुवनेश्वर में चूंकि पेड़-पौधे बहुत हैं तो चारों ओर पेड़ ही पेड़ गिरे थे, कुछ-कुछ जगह सड़क तो दिख ही नहीं रही थी, ये हाल था, जगह-जगह रोड ब्लाॅक। बिजली तो एक दिन पहले से नहीं थी, और आगे भी कुछ दिनों तक बिजली आएगी, इसके आसार कम ही दिख रहे थे। बताता चलूं कि भुवनेश्वर जो कि राजधानी है, वहाँ बिजली बहाल होने में पूरे 10 दिन लगे थे। बाकी तटवर्ती इलाकों‌ का अंदाजा लगा लिया जाए।

4 मई को हम सुबह से पानी की तलाश में निकल गये। कहते हैं कि बिना खाने के इंसान महीने भर जीवित रह सकता है और बिना पानी पिए इंसान फलां दिन जीवित रहता है, लेकिन हमारे साथ एक अलग ही समस्या थी वो यह कि बिना टायलेट किए इंसान कितने समय तक खुद को कंट्रोल कर सकता है, है ना अजीब। हमने भी कभी नहीं सोचा था कि ऐसा कुछ कभी देखना पड़ेगा। आपदा के समय कई ऐसी चीजें हो जाती है जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। सुबह 8 बजे की बात होगी, हमने आसपास के सारे सुलभ शौचालय नाप लिए, सब तालाबंद, कहीं भी एक बूंद पानी नहीं। नजदीक कहीं तालाब मिल जाए, इसका पता लगाया तो पता चला कि 12 किलोमीटर दूर एक तालाब है जो कि जलकुंभी से लदा हुआ है। आप यह सब पढ़ते हुए तरह तरह के ख्याल दिमाग में ला सकते हैं कि इस तरीके से मैने‌ज कर लेते, ऐसे पानी इकट्ठा कर लेते, फलाना ढिमकाना, ये वो, लेकिन वो समय ऐसा रहता है, कोई भी हो, प्रकृति जब कड़ी परीक्षा लेती है, तो अच्छे अच्छे निपट जाते हैं। तो फिर पानी की बोतलों से लैस भटकते हुए हमें एक किसी ने बताया कि पास के एक मंदिर के नल में पानी आ रहा, हमने तुरंत वहाँ से सारे बोतलों में पानी भरा, और वापस अपने घर आए। हमने उन बोतलों का पानी पीने के लिए इस्तेमाल किया या फिर टायलेट में, इतनी गहराई में नहीं जाते हैं, बस यह समझिए कि आपदा के समय बुध्दि उल्टी हो जाती है।

उस दिन खूब गर्मी पड़ रही थी, जैसे-तैसे हमने दोपहर को कुछ खाने-पीने का बंदोबस्त कर लिया। अब सब अपने-अपने घरों को जाने की फिराक में थे, किसी को होश नहीं रहा कि किसके जेब में कितने पैसे हैं, क्योंकि हममें से अधिकांश लोग कभी कैश नहीं रखने वालों में से थे, पेटीएम,गूगल पे से ही जो काम चल जाता था। मतलब अजीब आपाधापी मची हुई थी, सुलभ की तलाश में भटकने के बाद बस स्टेशन भी गये, पता चला कि जहाँ मुझे जाना है, उस रूट में फिलहाल कोई बस नहीं चल रही है। यह सब इसलिए बता रहा हूं कि मेरी बाइक का पेट्रोल भी खत्म हो रहा था, मैंने यह फैसला किया कि जैसे-तैसे बाइक से ही अकेले भुवनेश्वर से रायपुर चला जाऊंगा, और मैंने आनन-फानन में 400 रूपए का पेट्रोल यह सोचकर डलवा लिया कि आगे तो एटीएम मिल जाएगा, उधर ही पैसे निकाल लूंगा। बताता चलूं कि भुवनेश्वर में बिजली एक दिन पहले जा चुकी थी तो सारे एटीएम ठप हो चुके थे। पानी की बोतलें महंगी हो गई थी, खाने-पीने की वस्तुएँ भी दुगुने दाम में मिलने लगी थी।

स्थिति ऐसी थी अपने भाई जैसे दोस्तों के साथ छोटी-छोटी बातों को लेकर बहस तक होने लग गई। एक-दूसरे से चिढ़ने लगे थे, बुरा भी लगता था लेकिन समझ भी नहीं आ रहा था कि कैसे ही बर्ताव किया जाए। ये साइक्लोन का असली आॅफ्टर इफैक्ट था, हम पशोपेश में थे। पगला गये थे हम।

मैंने अपना बैगपैक टाँगा और निकल गया बाइक में। भुवनेश्वर से कटक तक भी जा नहीं पाया, 20 किलोमीटर तक चलाने के बाद रोड की हालत देखकर मैं समझ गया था कि अब मैं रोड से नहीं जा पाऊंगा, जगह-जगह इतने पेड़ गिरे थे कि संभव ही नहीं था कि बाहर निकल पाऊं एक तो दोपहर के दो बज चुके थे, रास्ते में सिमलीपाल का पूरा जंगल पार करना था, दूर-दूर तक कोई इंसानी बसाहट भी नहीं। यह सब सोचते हुए मैं वापस लौट आया। कमरे में बैठे मेरे दोस्त मुझे देखकर और पागल हो गये। चूंकि वे सभी उड़ीसा के ही थे इसलिए उन्हें अपने गंतव्य तक जाने के लिए रात की बस मिल चुकी थी। वे इंतजार कर रहे थे। अब मेरे पास दो रास्ते थे, पहला ये कि या तो अकेले रूक जाता, या फिर दूसरा ये कि उसी दिन ट्रेन से निकल जाता। बताता चलूं कि उस रूट की सारी ट्रेनें पहले ही रद्द हो चुकी थी।

पता चला कि रायपुर के लिए जो इंटरसिटी जाती है वह किसी दूसरे ट्रेन नंबर और नाम से चल रही है, वह आज ही रात को जाएगी लेकिन आधे दूर तक ही जाएगी। मैं इस आस में स्टेशन चला गया कि कम‌ से कम यहाँ से बाहर तो निकल जाऊंगा। स्टेशन पहुंचा तो देखा कि कुछ पहचान में ही नहीं आ रहा था, पूरा सब तहस नहस हो चुका था‌। उस वक्त मेरे पास पानी की बोतल के अलावा कुछ भी नहीं था, न ही पैसा, ना ही खाना, मेरा सारा पैसा तो पहले ही पेट्रोल में चला गया था‌। आप चाहें तो इस मूर्खता के लिए खूब सारा ज्ञान, प्रवचन दे सकते हैं या मनचाहे गरिया सकते हैं या फिर अप्रत्यक्ष तरीके से शब्दजाल बुनकर अपमानित भी कर सकते हैं, लेकिन उस समय को याद करता हूं तो समझ ही नहीं आता है कि ऐसी भूल हम कैसे कर लेते हैं, प्रकृति के प्रकोप के सामने हम कितने बौने हैं, हमारी सारी बुध्दि, क्षमता, चेतना ये सब ऐसे समय में कहाँ चली जाती है।

मैं स्टेशन शाम को चार बजे पहुंचा था, अब चूंकि पैसे नहीं थे तो बाकी लोगों की तरह मैं भी जनरल बोगी में बैठा था, जो ट्रेन रात को 8 बजे चलने वाली थी, वह अगले दिन सुबह छ:ह बजे चली। तब तक मैं अपनी सीट में पड़ा रहा, एक तो इतने पेड़ तहस-नहस हो चुके थे तो गर्मी और उमस इतनी कि सो भी नहीं पाया, भूख भी नींद न आने की एक बड़ी वजह थी। ट्रेन पहले ही 9 घंटे लेट हो चुकी थी। अब चूंकि बिजली नहीं थी, इसलिए आगे के स्टेशन से सिग्नल तो मिलने से रहा, यूं समझिए कि आटोमैक्टिक मोड में नहीं चल सकता था तो जैसे हम गाड़ी चलाते हैं वैसे ही उस ट्रेन को मैन्यूइल मोड में चलाया जा रहा था, यकीन मानिए ट्रेन की गति साइकिल जैसी थी। ट्रेन ने अंगुल तक की 100 किलोमीटर की दूरी को तय करने में ही 8-9 घंटे लगा दिए, जिसे सामान्य दिनों में 2 घंटे लगते हैं। यह ट्रेन जो रायपुर होते हुए दुर्ग तक की दूरी तय करती थी, उस ट्रेन ने उस दिन सिर्फ संबलपुर तक का ही सफर तय किया। ट्रेन संबलपुर रात के 9 बजे पहुंची। पहले तो मैंने स्टेशन में स्नान किया फिर खाना खाया। खाना खाने के लिए जैसे ही बैठा, भावशून्य होकर एक मिनट तक खाने को देखता रहा, फिर खाया। लगभग 30 घंटे के बाद जो खाना नसीब हुआ था। उस दिन तो चेहरा ऐसा हो गया था कि अपना ही चेहरा देखकर डर सा लग जाए कि यह कौन है। खैर.. वहाँ से मैंने रात को बस पकड़ ली और अगले दिन सुबह सकुशल अपने घर पहुँच गया। अगले दिन घर पहुँच कर बैग से जब गंदे कपड़े निकाल रहा था तो एक पेंट से 350 रूपए निकले, उन पैसों को उस समय देखकर बस मुस्कुरा ही सकता था, 30 घंटे की वो भूख, वो बैचेनी, वो अजीब किस्म की बेहोशी, कैसे भी करके वो घर पहुँच जाने के उस पागलपन को फनी साइक्लोन ने मानों चारों खाने चित्त कर दिया था।

यह सब लिखकर बताने का थोड़ा भी मन नहीं था, बिल्कुल भी नहीं। क्योंकि इस सामान्य सी आपबीती से भी कहीं बहुत अधिक कष्ट में लोग खप जाते हैं, गुमनामी के साए में दफन हो जाते हैं, कहानी तक नहीं बन पाते हैं, नाम तक नहीं आता है, डेटा तक नहीं बन पाते हैं। तो बताने की वजह बस यह सोचिए कि इसलिए बता रहा हूं ताकि इसी बहाने कोरोना वायरस की विभीषिका को समझने का एक प्रयास किया जाए। मानता हूं कि यह अलग ही तरह की समस्या है, लेकिन कुछ चीजें हैं जिन्हें देखा जा सकता है, समझने की ईमानदार कोशिश की जा सकती है, जैसे जो लोग घर वापस लौट रहे हैं, उनमें सबसे बड़ी बात ये कि वे भी हमारी आपकी तरह इंसान हैं, उन्हें पहले हम इंसान तो समझें, फिर वर्गीकरण बाद में कर लेंगे कि वे कौन हैं, क्या हैं। जो पैदल लौट रहे हैं वो सिर्फ शरीर से नहीं थके हैं, वे मन से भी थक चुके हैं, टूट चुके हैं। ऐसे समय में उनसे हम यह सवाल कैसे कर सकते हैं कि कि पटरी में ही क्यों सोया, थोड़ा साइड में सो लेता तो जान बच जाती। समय की विभीषिका को समझिए। बार-बार उन्हें अनपढ़, मूर्ख, अनुशासनहीन कहकर उन्हें कोरोना के लिए जिम्मेदार बनाने वाली लाॅबी से बस इतना ही कहना है कि कभी तो अपने एजेंडे को किनारे कर लीजिए, पता है आप नहीं कर पाएँगे, आपकी तथाकथित संवेदनशीलता का भी क्लास है, एक वर्ग है, श्रम का अपमान करना तो वैसे भी आपके डीएनए में है। नीच, बेशर्मों की तरह ही पूरा जीवन जीना है तो फिर आपसे उम्मीद ही क्या की जाए। सनद रहे कि कोरोना फैलाने के लिए उनसे कहीं ज्यादा जिम्मेदार आप हैं और रहेंगे। युध्दबंदी या किसी दास या गुलाम की तरह ट्रक में बंधी रस्सियों के सहारे खड़े होकर हजारों किलोमीटर का सफर तय करते हुए लोगों में कैसे भाव उमड़ रहे होंगे, क्या कुछ वे झेल रहे होंगे, कैसी उनकी मनोस्थिति होगी, ये सब कुछ शायद न्यूज आर्टिकल और टीवी चैनल से नहीं समझ आएगा। जो पीड़ित लोग आज घर लौट रहे हैं उनमें कितना अधिक अविश्वास घर कर गया है इसकी आप और हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। इसलिए अगर संवेदनशीलता भीतर नहीं है तो चुप भी रहा जा सकता है, बार-बार बोलकर, नामकरण कर, वर्गीकरण कर अपने ही लोगों का तिरस्कार करना बंद कर दीजिए, अपने भीतर के संक्रमणकर्ता को संभालिए और कहिए कि कुछ दिन आराम कर ले।



Simplifying Yoga

अंधेरे में चलना,
उजाले को देखना,
बारिश में भीगना,
मौन रह जाना,
योग को महसूसना।
शरीर से चिपके कपड़ों से,
मन से चिपके विचारों से,
खुद को अलग करना,
और योग को महसूसना।
किसी को हँसते देखना,
किसी को रोते देखना,
किसी का गुस्सा देखना,
तो किसी का विलाप देखना,
योग को महसूसना।
कभी अपनी प्रतिक्रिया,
तो कभी अपना रोष,
कभी अपना उत्साह,
तो कभी अपनी बैचेनी देखना,
योग को महसूसना।
बंद करना चाहो,
तो सिर्फ आँखें नहीं,
पूरा मन शरीर बंद करना,
और फिर से शुरू करना,
इसी बीच कहीं,
योग को महसूसना।
योग व्यायाम नहीं,
योग कोई आसन नहीं,
योग इन सबसे अलग है,
योग स्थिर बैठना नहीं है,
योग अवलोकन है,
योग देखना है,
योग समझना है,
योग अपनाना है,
योग महसूसना है,
योग जोड़ते जाना है,
अपनी क्षमताओं को,
सही अनुपात में,
और बढ़ते जाना है।
योग घटाना भी है,
अपनी अयोग्यताओं को।
तुम कोई पेड़ नहीं,
तुम्हारी कोई जड़ें नहीं,
इसलिए तुम्हारा योग,
जड़/स्थिर रहने से नहीं,
आगे बढ़ते रहने से है।


Saturday, 16 May 2020

कोरोना काल में मानसिक उठापटक -

जैसे लोग यह नहीं समझ पा रहे कि मुझे कैसे कोरोना हो जाएगा ठीक उसी तरह लोग इस बात को भी नहीं समझ पा रहे हैं कि दिन गुजरने के साथ उनमें गजब का मानसिक परिवर्तन होता जा रहा है। पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया में लगातार एक्टिव रहकर समय देने के बाद बहुत सी चीजें खुलकर सामने आई जो कि शायद सामान्य दिनों में कभी बाहर निकलकर नहीं आ पाती है। जो हिंसा, जो मानसिक संक्रमण अभी देखने मिल रहा है, वो सालों साल सामान्य दिनों में देखने को नहीं मिलता है। आप भी अपने आसपास नजर तेज रखिए, बस चुपचाप लोगों को देखते रहिए। इस गलतफहमी में न रहें कि दिमागी रूप से लड़खड़ाने वाले ऐसे लोग सिर्फ मेरे जैसे किसी एक के ही आसपास हैं, सबके आसपास ऐसे लोग होते हैं, हर कोई खोद के निकालता फिरे, ऐसा सुयोग सबके साथ नहीं होता है। यूं भी कह सकते हैं कि अभिव्यक्ति के अलग-अलग तरीकों से बहुत से लोगों का संक्रमण बाहर खिल के आ रहा है। किसी एक व्यक्ति विशेष की बात नहीं है, एक पूरी भीड़, एक मानसिकता के साथ यह समस्या है। देखने वाला अगर चाहे तो थोड़ी सी वस्तुनिष्ठता से चीजें स्पष्ट अब दिखने लगी हैं। शायद आने वाले एक महीने में स्थिति और खराब होनी शुरू जाएगी, और सबसे बड़ी समस्या यह कि लोग ऐसे बेहोश हैं कि उनके साथ मानसिक स्तर पर चीजें घटित होनी शुरू हो चुकी है, लेकिन या तो वे दबा रहे हैं, या फिर जाहिर भी कर रहे हैं तो समझ नहीं पा रहे हैं कि उनके भीतर का असली चरित्र बाहर आने लगा है। यह अब हो रहा है, बड़े स्तर पर हो रहा है। और इन सब से खुद को बचा ले जाने की जरूरत है।

एक प्रयोग के तौर पर यह करके देखा जाए -
जैसे उदाहरण के लिए एक कोई सरकारी कर्मचारी है, आॅफिस से लेकर घर तक उसके पूरे रुटीन की पड़ताल करते हैं। वह व्यक्ति आॅफिस लेवल में अपने सहकर्मियों से अच्छा व्यवहार कर रहा है, अपना काम ठीक ढंग से कर रहा है, तो इसका तार कहीं न कहीं उसके परिवार से भी जुड़ा होता है, ऐसे लोग निस्संदेह अपनी पत्नी से, बच्चों से, माता-पिता के साथ भी बढ़िया व्यवहार रखते हैं। या इसे ऐसे भी देख सकते हैं कि जो पारिवारिक संबंधों में सफल रहता है, वह कार्यस्थल पर भी किसी को नुकसान नहीं पहुंचाता है। और इसके ठीक उलट जैसे अगर कोई आॅफिस और अपने काम के प्रति जवाबदेही नहीं दिखाता है तो आप देखिएगा कि उनके घरेलू जीवन में बहुत कुछ ठीक नहीं चल रहा होता है। ये दोनों चीजें एक दूसरे से गहरे जुड़ी हुई हैं।



Friday, 15 May 2020

Facebook feeds - april and may 2020

कोई बताए ये कोरोना जागरूकता वाले गाने किनके लिए बनाए जा रहे हैं?

Essential Services की जिम्मेदारी पाल लो,
20 लाख करोड़ वापस अपनी झोली में डाल लो।

"सड़क को लंबा होने का घमंड था, मजदूरों के हौसले ने पैदल नाप लिया।"

इस वाक्य‌ में संवेदनशीलता और हिंसा/क्रूरता का प्रतिशत बताइए?

20 लाख करोड़ का पैकेज सिर्फ उन्हें दिख रहा है, जिनका उस पैसे से हिस्सा बँधा हुआ है।

सबके अकाउंट में 15 लाख, स्वदेशी और ये 20 लाख करोड़ का पैकेज,ये सब नशे की गोलियाँ हैं।

प्रतिरोध वाले कहाँ है आजकल?
आपद धर्म निभाना भूल गये क्या?

सेवक जी- 20 लाख करोड़ का पैकेज।
मजदूर- इतना भी मजाक ना बनाओ कि हम चैन से मर ना पाएँ।

सेवक जी- 20 लाख करोड़ का पैकेज।
मजदूर- मेरी पहचान छीन लो और एक दिन के लिए भात दे दो।

सेवक जी - 20 लाख करोड़ का पैकेज।
मजदूर - मेरा सब कुछ लूट लो, बस घर पहुँचा दो।

पटरी में सोएंगे तो मरेंगे ही =< मुझे बहुत दु:ख पहुँचा है।

पैदल चलकर घर लौटने वालों की पूरी जिंदगी essential service जुटाने में ही निकल जाती है।

ट्रक भरकर सामान शिफ्ट करने वाले झोला लेकर पैदल चलने वालों का दर्द कहाँ समझ पाएँगे।

छत्तीसगढ़ में अब सिर्फ सप्ताह के पाँच दिन ही कोरोना फैलाने की अनुमति रहेगी। शनिवार रविवार कम्पलीट लाॅकडाउन।

बचपन में जब लाल,नारंगी और हरे रंग को मिलाते थे,गाढ़ा लाल रंग ही बन जाता था।
#lockdown

गाँव वालों को जो टोनही भूत मसान पकड़ देता था, शहरों में उसे ही "पैनिक अटैक" कहते हैं।

हे! लाल फीतों, अगर शर्म बची है तो 72 घंटे के कम्पलीट लाॅकडाउन की नौटंकी बंद कर दो।

कोरोना वाॅरियर्स पर जो पुष्पवर्षा होती है, क्या उन फूलों को सेनेटाइज किया जा रहा है?

भारत में अधिकतर लोग बस इसी एक धारणा को लेकर मस्त हैं कि उन्हें कैसे कोरोना हो जाएगा।

सरकारी तंत्र आए दिन लोगों को तमाचा मार रही, लोगों में असर नहीं, वो अलग चीज है।

हमें इस बात को स्वीकार लेना चाहिए कि पीड़ितों का दर्द हम घर बैठे नहीं समझ सकते हैं।

असभ्य - कुछ लोगों की वजह से जाति/धर्म/देश को बदनाम करना बंद कीजिए।

सभ्य - कुछ लोगों की वजह से मैं शर्मिंदा हूं।

हजारों किमी पैदल चलकर घर लौट रहे पीड़ितों को श्रमवीर की उपाधि मध्यवर्ग ही दे सकता है।

भारतीय दर्शन में सबसे मजेदार चीज पता है क्या है। कहीं भी श्रम शब्द का उल्लेख नहीं है।

वो कोरोना 3rd स्टेज का क्या हुआ?
अभी तक भारत में आया है या नहीं?

श्रमिक ट्रेनें लेट नहीं हो रही हैं। असल में नवतप्पे की वजह से ट्रेन चालक की आँखों में पराबैंगनी किरणें इतने जबरदस्त तरीके से प्रहार कर रही हैं कि उन्हें चलती ट्रेन के सामने पटरी में ही रेगिस्तान जैसी मृग मरीचिका होने का आभास हो रहा है फलस्वरूप उन्हें औरांगाबाद में ट्रेन से कुचले हुए लोग अचानक से बार-बार पटरी पर सोए हुए दिखाई दे रहे हैं, इसीलिए वे क्रुध्द होकर ट्रेन को एक दूसरी ही दिशा में ले जा रहे हैं, दूसरे शहर क्या सीधे 500-1000 किलोमीटर दूर दूसरे राज्य में ले जाकर ट्रेन को खड़ा कर रहे हैं ताकि मृतकों का साया उन्हें परेशान ना कर पाए।

नर सेवा के साथ नारायण सेवा जोड़ने की धूर्तता करने वाला समाज ही विश्वगुरू बनने का ढोंग कर सकता है।

ध्यान रहे, "अतिथि देवो भव:" में भी अतिथि को एक साधारण मनुष्य मानने की छूट नहीं है।

खान-पान से लेकर रहन-सहन तक, झाड़ू पोछे से लेकर युध्द करने तक, पारिवारिक रिश्तों से लेकर पर्व त्यौहारों तक, हर जगह इन वेद पुराण रचने वाले बागड़बिल्लों ने बड़े शातिराना तरीके से धर्म, दर्शन और अध्यात्म की एक अभेद्य मोटी परत चढ़ा रखी है।

मजदूर काम की थकान से नहीं बल्कि शोषण की थकान से तंग आकर नशे का सहारा लेते हैं।

शोषण के उपरांत टीवी,सिनेमा शोषितों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है। 

14 दिन के क्वारंटीन के बाद 15वें दिन कोरोना उड़नछू हो जाता है। 

Lockdown S01 E05 is now Unlock S01 E01. #vishwagurukehardcorechutiyaape  

पहले कोरोना दिन में फैलता था, अब से रात में फैलेगा। #Lockdown5 #Unlock1 

सोनू सूद की बसें घर तक, कांग्रेस की बसें बार्डर तक। #खेलयेबड़ागंदाहैप्रिये

कुछ लोग कभी आॅब्जेक्टिव हो ही नहीं सकते -

               मुझे याद नहीं आता है कि आखिरी बार कब मैंने देश के प्रधानमंत्री या किसी विपक्षी पार्टी के नेता का नाम अपने फेसबुक पर लिखा हो, या व्यक्तिगत होकर उनके नाम पर कुछ चर्चा की हो। या फिर कभी किसी पार्टी, पक्ष या वाद का समर्थन या विरोध किया हो। फिर भी कुछ लोग हमेशा घेरेबंदी करने में लगे रहते हैं, एक खेमे में ढकेलने की कोशिश करते रहते हैं। असल में ऐसे लोग इतने कमजोर होते हैं कि उन्हें हमेशा एक कोना चाहिए होता है, वे अपने लाइक कमेंट से इस बात को बखूबी बताते रहते हैं कि मेरा कोना यही है। जब आप उस कोने के बारे में लिख देते हैं, वे चौड़े होकर स्वागत करते हैं, और जब आप उस कोने की खामियाँ गिनाने लगते हैं तो वे बड़ी मासूमियत से चुपचाप किनारे हो जाते हैं। मेरी प्रोफाइल में आधे लोग ऐसे ही हैं, भले ही वे स्वीकार ना कर पाएं, लेकिन यही हकीकत है। इनकी वजह से जो सचमुच वस्तुनिष्ठता से जीवन जी रहे होते हैं, उनके लिए ये लोग व्यवधान पैदा करते रहते हैं, वास्तव में ऐसे लोग बहुत ही अधिक हिंसक प्रवृति के होते हैं। 

                 उदाहरण के लिए जैसे अभी कुछ महीने पहले देश में एक कानून को लेकर प्रोटेस्ट चल रहे थे, पूरा आर्गनाइज तरीके से देश भर में नौटंकियों का दौर चला। तब मुझे उस कानून का विरोध ना करने पर एक खेमे का भक्त तक घोषित किया गया, तब तो मेरी प्रोफाइल में खफा होने वालों का मौन हिंसक विरोध देखते ही बनता था और आज देखिए वही लोग, आज उनका मौन विरोध उग्र समर्थन में तब्दील हो गया है, क्योंकि उनको यह खुशफहमी होगी कि मैं जो आजकल आए रोज पोस्ट लिख रहा हूं वो देश के एक नेता को, एक पार्टी को कोस रहा हूं, हँसी आती है ऐसे लोगों पर, ऐसी मानसिकता पर। इसके ठीक उलट जो दूसरा धड़ा है वो भी क्या कम है, जो उस समय घोर समर्थक रहे, वे आज मुझे प्रतिरोध वाले खेमे का साथी समझ बैठे हैं, ये लोग पूरी बेशर्मी के साथ मुखर होकर कुतर्क कर रहे हैं कि चलिए आप फायरबाॅल हैं, सकारात्मक होकर आप ही कोई बेहतर उपाय बता दीजिए कि कोरोना से कैसे लड़ें।

Wednesday, 13 May 2020

मुलम्मा चढ़ाया जाएगा, कतारें देखी जाएँगी....

एक चैन है...
काम खत्म हुआ..
ठेकेदार के पास पैसा भी खत्म हुआ...
दोनों ओर से विश्वास खत्म हुआ..
मजदूर घरों को लौटने लगे...
सरकार नदारद थी, नदारद रही...
अब नहीं रोक सकता कोई...
उन्हें घर लौटने से..
क्योंकि रोकने वालों के पास कोई वजह नहीं है।
मजदूरों के पैरों का सम्मान करता यह चप्पल वितरण कार्यक्रम..
उनके आगे के सफर के लिए एक प्रोत्साहन राशि की तरह है।
मजदूर, प्रवासी मजदूर ये शब्द हमारे चिकने गालों पर..
अब एक नया तमाचा हैं।
या तो हम तमाचा खा लें,
या बचाव के लिए इन शब्दों को ही अपशब्द बना लें।




Sunday, 10 May 2020

Tribal village and tamarind tree

आदिवासी इलाके में भ्रमण करते हुए महीना भर हो चुका था। कोल, खड़िया और संथाली समुदायों की जीवनशैली देखकर आए रोज अपने छोटेपन का अहसास हो रहा था। इस दौरान एक चीज देखने को मिली‌ कि माता-पिता अपने छोटे-छोटे बच्चों को बुरी तरीके से मारते हैं। 
एक बार कुछ ऐसा ही हुआ, एक पिता अपने बच्चे को डंडे से पीट रहा था, इतना पीटने लग गया कि मुझसे रहा नहीं गया, फिर मेरे कहने पर उन्होंने उस बच्चे को मारना छोड़ दिया। बाद में वजह पूछने पर पता चला कि वह पिता अपने बच्चे को इसलिए मार रहा था क्योंकि उस बच्चे में स्कूल जाने की रूचि नहीं है। पता नहीं क्यों उनकी यह बात सुनकर एक पल के लिए मन मसोस कर रह गया। वह बच्चा असल में स्कूल से डर कर भाग आता है, और चोरी छिपे माँ के साथ जंगल चला जाता है, माँ खुश रहती है कि बेटा पत्तियाँ तोड़ने या लकड़ी लाने में मदद कर रहा है, लेकिन शायद बाप की चिंता यह रहती है कि बेटा भी हमारी तरह अनपढ़ रहा तो निकट भविष्य में सरकारी दफ्तरों में हमारी तरह ठोकरें ही खाता फिरेगा, यह एक बड़ा स्वार्थ मालूम पड़ा जिसकी वजह से आदिवासी अपना सर्वस्व होम कर अपने बच्चों को शिक्षा देना चाहते हैं। 
मैंने उस बच्चे के पिता से यहीं ईमली के पेड़ के नीचे खाट में बैठकर आधे घंटे तक बात थी। ईमली का पेड़ ईमली से लदा हुआ था, मैंने उस आदमी से पूछा, इस पेड़ से कोई ईमली तोड़ता नहीं है क्या? उसने कहा - अभी देवी पूजा नहीं हुई है, पूजा के बाद ही पेड़ों की पत्तियों और फलों को छू सकते हैं या तोड़ सकते हैं, उसके पहले छूना या तोड़कर खाना पाप माना जाता है।
मैंने उससे पूछा - आपने कुछ पढ़ाई की है?
उसने कहा - नहीं।
मैंने कहा - पता है, आपमें और मुझमें फर्क क्या है?
उसने कहा - क्या?
मैंने कहा - मैं इस ईमली के पेड़ से जब चाहूं ईमली तोड़ सकता हूं, आप नहीं तोड़ सकते हैं। मेरे शिक्षित होने का नुकसान यह है कि मैं आपके ये जंगल‌ के नियमों का पालन करने के लिए बाध्य नहीं हूं। इसलिए अगली बार जब भी अपने बच्चे को स्कूल न जाने की वजह से डंडे से मारने का मन करे तो इस एक नुकसान को याद जरूर कर लेना।
अब वह आदमी एकटक उस ईमली के पेड़ को देखने लग गया।

Somewhere in odisha...


Friday, 8 May 2020

My take on Aurangabad Train Incident


                 कहीं गलती से रास्ता न भटक जाएँ और किसी ट्रेन में लटककर कुछ दूर चले जाएँ इसी उम्मीद में पटरी के सहारे भूखे प्यासे सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने के बाद बेसुध वहीं सो रहे लोगों से ये यह भी उम्मीद करेंगे कि पटरी पर आखिर क्यों सोया। थोड़ा किनारे सो जाना था। इनकी सोच यह तक कहती होगी कि पटरी पर सोया भी तो ठीक बीच में उल्टे मुंह सो जाना था ताकि मरने से बच जाते। सरकार को बदनाम करने के लिए इनको पटरी ही मिला था क्या।

                आप अपने आसपास ऐसे सवाल करने वालों को देखिए, देखिए इस मानसिकता को, देखिए इस नयी किस्म की हिंसा को। और उन्हें जाकर यह भी कहिए कि अगर इतना ही सवाल करने का मन है तो चले जाएँ उन पटरियों पर और पूछ आएँ अनगिनत सवाल मरने वालों की छिन्न-भिन्न हुई अतड़ियों से, खून से सने कपड़ों से, बिखरी रोटियों से। इतना सवाल करने को कहिए कि मरने वालों की आत्मा चिथड़ों से बाहर निकल आए और सरकार से माफी माँग ले।


Monday, 4 May 2020

कोरोनाकाल में मदिरालय -

वर्तमान में जब कोरोना वैश्विक महामारी ने विकराल रूप धर‌‌ चारों ओर तांडव मचाया हुआ है तो मदिरालय का खुलना कितना आवश्यक?

पूरा देश विषम परिस्थितियों का सामना कर रहा है और जान‌ है तो जहान है कि सोच में आम से खास सभी ने अपनी रोजी-रोटी का कार्य बंद कर दिया है ऐसे में अपने राजस्व प्राप्ति की व्यवस्था के लिए लाखों/करोड़ों परिवारों की जान जोखिम में डालना कहाँ तक सही साबित होगा?

अर्थव्यवस्था को पटरी पर आने के लिए छोटे-बड़े कदम बढ़ाने निश्चित ही आवश्यक है,परंतु किसी अन्य विकल्प को‌ टटोलने के बजाय क्या मदिरालय‌ का‌ चयन सरल विकल्प दिखाई देता है। मुझमें अर्थव्यवस्था की समझ में कमी हो सकती है परंतु जान बचाने के लिए घर में अर्थ की कमी के बावजूद भी व्यवस्था बनाए रखने और घर में रहने की हिदायत भी शासन‌ ने ही दी थी।

यदि शासन/प्रशासन सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कराते हुए मदिरालय में वितरण करता है तो क्या खरीदी के पश्चात मदिरा सेवन की भी व्यवस्था की जाएगी और यदि नहीं तो खरीदने पश्चात उसके सेवन के लिए सेवनकर्ता कहां जाएगा। वह अकेला ही कहीं सेवन करें तो बाहर ‌लोगो‌ की भीड़ कहां तक जाएंगे और यदि समूह में करें तो लॉक डाउन कितना सफल हो पाएगा। क्या ऐसे में महामारी के फैलने की संभावना बढ़ नहीं जाएगी और यदि प्रशासन लॉक डाउन का पालन करवा कर उन्हें बाहर सेवन की अनुमति नहीं देते तो क्या सेवन कर्ता अपने घर आकर सेवन करेगा। ऐसे में उनके परिवार की मानसिक स्थिति कहां तक सही होगी।जिन्होंने कल तक उन्हें सेवन करने पश्चात देखा था,आज वह उसका सेवन करते हुए देखेंगे(बेटा-मां के सामने,पिता-पुत्र/पुत्री के सामने, भाई-बहन के सामने,पति-पत्नी के सामने) इसका उन‌ पर क्या प्रभाव होगा।क्या सामाजिक सीमा का उल्लंघन नहीं होगा। क्या परिवार की स्थिति इसके पश्चात कभी पूर्व की तरह हो पाएगी।और यदि social distancing का पालन कराते हुए सेवन की व्यवस्था की जाती है तो भी नशे में व्यक्ति सफाई या किसी भी सुरक्षा का ध्यान रख पाएगा?

मदिरा की डिलीवरी घर तक देना कहां तक सही दिखाई पड़ता है।अभी जब कई घरों में आवश्यक सामग्री की पूर्ति मे भी कठिनाई हो रही ऐसे में जिसे मदिरा की लत हो वह कहां तक खुद को रोक पाएगा।मरता क्या नहीं करता ‌की परिस्थितियों में क्या(गहनों या अन्य सामग्रियों की बिक्री से) घरेलू हिंसा बढ़ती हुई नजर नहीं आएगी।पूर्व में ही परेशानी झेल रहे परिवार जन इस नई परेशानी का सामना करने में कैसे समर्थ होंगे। ऐसी स्थिति में अपराधों का बढ़ना सहज है।

चुनाव के समय शराबबंदी जैसे वादे करते हुए भविष्य में आने वाली सरकार को चाहिए की वह पूर्व में ही उससे हो रही राजस्व की समीक्षा कर ले क्योंकि चुनाव जीत जाने के पश्चात उसको बढ़ावा देना‌‌ जनता को प्रत्यक्ष छलने‌ जैसा है यह जनता में सरकार के प्रति रोष को बढ़ावा देती है और नवीन सरकार के प्रति विश्वास में कमी लाती है। नहीं तो चुनाव आयोग को‌ सफलतापूर्वक चुनाव संपन्न कराने के साथ-साथ सरकार की घोषणा पत्र पूर्व में ही समीक्षा करें और यदि वह सही प्राप्त होता है तभी उस घोषणापत्र को जारी किया जाए एवं शपथ की तिथि से आधिकारिक तौर पर मान्य करने के आदेश दिया जाए। जिससे चुनाव में भाग लेने वाली सभी पार्टियां पूरी जागरूकता के साथ घोषणा पत्र जारी करें और वादों की गरिमा बनी रहे।

सभी परिस्थितियों के बीच यदि इसकी वजह(मदिरालय) से महामारी बढ़ने का खतरा 1% भी बढ़ता है तो क्या सही है और यदि अनुमान सत्य सिद्ध हुआ तो इसकी जिम्मेदारी क्या शासन लेगा?

"मंदिरों मस्जिदों में कोरोना फैल जाएगा परंतु मदिरालय का खुलना जरूरी है।"

- आकांक्षा ठाकुर

Sunday, 3 May 2020

आजादी के मायने -

                   सन् 2009 की बात है, 12th खत्म करने के बाद हम छोटे कस्बेनुमा शहर से निकले आधे दर्जन लड़कों का एक जत्था एजुकेशन हब कहे जाने वाले शहर भिलाई को चला गया। हम निकले तो थे एक महीने का क्रैश कोर्स करने, ताकि किसी अच्छे इंजीनियरिंग काॅलेज में एडमिशन के लायक रैंक मिल जाए, लेकिन यह एक महीना हमारे लिए किसी टूर की तरह ही था। शुरूआती कुछ दिन अच्छे बच्चों की तरह सुबह उठ कर क्लास गये, उसके बाद फिर जाना ही बंद हो गया। अच्छी बात यह भी थी कि हममें से एक भी किसी लड़के ने कभी न तो पढ़ने का ढोंग किया न ही पढ़ाकू होने का अभिनय किया हम पिकनिक मनाने आए थे तो बस आए थे और इस सच्चाई को हम लोगों ने पूरी ईमानदारी के साथ जिया। तो हमारा क्लास जाना वैसे भी बंद हो गया था, तो हमने सुबह उठना भी बंद कर दिया था। तो अब उठते ही नित्यकर्म के बाद हमने मनोरमा वाली कहानियाँ पढ़नी शुरू कर दी। हममें से सब के पास नोकिया का सामान्य सा फोन था लेकिन एक लड़के के पास मल्टीमीडिया फोन था, उसी के फोन में नेट का रिचार्ज करवाया करते थे। तब एयरटेल का दस रूपए वाला मोबाइल आफिस पैक प्रचलन में था। हम तो दिन रात पागलों की तरह कहानियाँ ही पढ़ने लगे, खाने के पहले, खाने के बाद, सोने के पहले, उठने के बाद। बस यही चलता रहा। शाम को रोज घूमने चले जाते बाकी दिन भर गोल्लर की तरह कमरे में पड़े रहते। मकान मालिक और बाजू के कमरे में रह रहे पढ़ाकू लड़कों की नजर में हम सब की छवि ऐसी बन चुकी थी कि हम बस महीने भर के लिए घूमने आए हैं, हमने भी कभी पढ़ने की नौटंकी नहीं की। 

                    हमारा कमरा असल में ऐसा था कि बाकी अन्य कमरों के लिए जो रास्ता था हमारे कमरे से होकर ही जाता था, जब भी बाकी लड़के गुजरते थे उन्होंने कभी हमें किताबों के साथ नहीं देखा। हम थे भी बेशर्म, हमको घंटा फर्क नहीं पड़ता था, उल्टे दाँत दिखा के उन्हीं की बेइज्जती कर देते थे, वे भी हमसे घबराते थे। तो इसी बीच एक और मजेदार वाकया हुआ। उस घर में इंजीनियरिंग करने वाला एक लड़का भी किराए में रहा करता था, जो कि एक आदर्श बालक की तरह था, असल में था महाचूतिया वो चीज हम उस उम्र में ही समझ गये थे लेकिन अगला हमारे साथ अलग ही खेल गया। उसने जब देखा कि हमारी पढ़ाई में बिल्कुल रूचि नहीं तो वह हमें एक दिन घुमाने के बहाने ओम शांति वाले केन्द्र ब्रम्हाकुमारी ले गया। हममें से कुछ लोग लहालोट हो गये, उनमें मैं भी एक था, ब्रम्हाकुमारी जाने के बाद जो सबसे खराब चीज हमारे साथ हुई, वो यह थी कि हमने गाली-गलौच एकदम से कम कर दिया था, कुछ दिनों के लिए तो नाॅनवेज खाना भी बंद कर दिया था, दिन रात सरस सलिल टाइप की सैकड़ों कहानियाँ यूँ निपटाने वाले हम लोगों ने अब सत्य अहिंसा की राह पकड़ ली थी, सुविचार की बातें करने लग गये थे। वो तो अच्छा हुआ कि महीने भर बाद हम वापिस अपने घर आ गये वरना उस मोहपाश में तो हम उस इंजीनियरिंग वाले लड़के की तरह श्वेत वस्त्र धारण करने ही वाले थे।

                    हमने महीने भर के लिए दो वक्त का खाना एक टिफिन वाले से बँधवा लिया था। वो इतना घटिया खाना देता था कि हममें से कोई भी एक तिहाई से ज्यादा खाना खा नहीं पाता था, लेकिन हमारे बीच एक अपवाद था वही मल्टीमीडिया फोन वाला लड़का, वो बैल सबके हिस्से का खाना ठूँस लेता था। 

                    सब तो खाली ही थे तो हमने एक और काम शुरू कर दिया था। दोपहर भर जम के सोने के बाद हम शाम से इधर-उधर बेफिजूल लोगों को फोन करना शुरू कर देते थे, फोन क्या करते थे, तंग करते थे, क्या डीएसपी, क्या टीआई, सबको फोन कर धमकाते रहते थे, उस समय काॅल ट्रैकिंग जैसी नौटंकी नहीं होती थी, इस बात की हमें बखूबी जानकारी थी‌। तो हम बेफिक्र होकर आए रोज दस रूपए का स्क्रैच कूपन पाॅकेट से निकालते, सिक्के से खुरचते, रिचार्ज करते, दस में से नौ रूपए मिलते, उसमें नौ मिनट ही बात हो पाती, हम 59 सेकेंड का टाइमर सेट करते, और धुआंधार चालू फिर। हमने कितने लोगों को गाली की होगी, कितनों से लड़ाई की होगी, अपने ही कितने दोस्तों से लड़की की आवाज में बात की होगी, हमें भी नहीं पाता, तब हम क्यों ऐसा करते थे पता नहीं, बस हमारे लिए वो एक अलग ही किस्म का मनोरंजन था, उसका सुख सिर्फ हम ही समझ सकते थे। वो एक महीना हमने जो जिया, उसमें जितना हम हँसे, वैसे पागलों की तरह शायद ही हम जीवन में दुबारा कभी उतना हँस पाएं। 

                   चलो ये तो हँसी मजाक वाली बातें हो गई, अब आपको एक असल चीज बताता हूं, जिसकी वजह से आज मुझे ये सब लिखने का मन कर गया। हम जिस घर में किराए लेकर रहते थे, उस घर के मालिक यानि पति-पत्नी दोनों अच्छी सरकारी नौकरी में थे। मकान मालकिन बहुत ही अधिक हिंसक प्रवृति की महिला थी, उतनी हिंसक महिला मैंने अभी तक के अपने जीवन में नहीं देखा है। उनके पतिदेव तुलनात्मक रूप से भले मानुष मालूम होते थे। उस महिला ने पूरे महीने कभी हमसे सीधे मुँह बात नहीं की, खैर ये कोई बड़ा मुद्दा नहीं था। बड़ा मुद्दा यह था कि उनका जो एकलौता बेटा था, उसे एक तरह से गुलाम की तरह घर में बंद रखा जाता था, उनके यहाँ एक पालतू कुत्ता भी था, सच कहूं तो उनके पूरे घर में उस काले धूसर कुत्ते को उस लड़के से कहीं अधिक आजादी थी। अपने बेटे को वह आंटी जानवरों की तरह घर में बंद करके मारती थी, कभी-कभी सहयोगी के रूप में उसका बाप भी हाथ साफ करता था लेकिन मुख्य भूमिका में माँ ही थी, वह लड़का खूब रोता था, गश खाकर बंद घर में पड़ा रहता था। एक चीज मैंने भारत में देखी है, जहाँ कहीं माता-पिता दोनों सरकारी नौकरी या किसी हनक वाले पद में होते हैं, तो या तो बच्चा खुला सांड बन जाता है या फिर इस बच्चे की तरह वह नजरबंद हो जाता है, शोषण का शिकार हो जाता है, अधिकांशत: मैंने अभी तक यही होते देखा है।

                       वह निर्दयी आंटी अपनी सारी कुंठा रोज अपने बच्चे पर निकालती थी, उनमें मानों अपनी जीवन भर की तमाम असफलताओं का बोझ उस बच्चे पर लादने का एक तरह से भूत सवार था। वह लड़का लगभग 15 साल का होगा, स्कूल भी जाता था। लेकिन उसकी स्थिति ऐसी थी कि हमने जब शुरू में देखा तो हम उसके हावभाव चलने-फिरने के तरीके से उसे पागल, खिसका हुआ या मानसिक रूप से कमजोर समझते थे, वह ऐसा दिखने भी लगा था, लेकिन ऐसा नहीं था। असली पागल तो उसकी माँ थी, जिसने मार-मार कर उस बच्चे का ये हाल कर दिया था, पता नहीं कितने सालों से वह ऐसा कर रही होंगी। उस बच्चे को उसके माँ बाप रोज शाम को टहलाने के लिए इस तरह ले जाते मानो वो कोई पालतू कुत्ता हो, बस उसके गले में एक पट्टा बाँधने की देरी थी। हम भी उस लड़के को देखने के लिए बाहर निकल आते कि आज भाई दर्शन दिया है, कम से कम घूमने के लिए निकला है। हमसे पहले से वहाँ रह रहे पड़ोस के कमरे के लड़कों से पूछताछ करी तो पता चला कि वह लड़का बहुत समझदार है, एकदम नाॅर्मल है, माँ-बाप की बहुत इज्जत करता है, खूब डरता भी है, बहुत कम और धीमी आवाज में बात करता है और उसे बस इसलिए घर से बाहर नहीं जाने दिया जाता कि वह बाकी लड़कों की संगत में बिगड़ैल हो जाएगा और पढ़ाई में ध्यान नहीं दे पाएगा। उसे फुटबाल की तरह मार-मार के घर में बंद करके जबरदस्ती पढ़ने के लिए दबाव डाला जाता था। उसका आत्मविश्वास तो पूरा मर चुका था, तब तो यही समझ आता था, पता नहीं वह इन सब से ऊबर पाया होगा भी या नहीं, आज वह लड़का किस हाल में होगा कह नहीं सकता लेकिन एक माँ अपने बच्चे के लिए इस स्तर तक हिंसक हो सकती है, यह मैंने उसी समय पहली बार अपने जीवन में देखा था। 


In Picture - यह अभी दो दिन पहले की तस्वीर है, यहीं पास में ही हम कभी रहा करते थे।

Role of left in the time of corona

                          भारत में लेफ्ट के साथ सबसे बड़ी समस्या यही है कि इस समय जब पूरा देश एक विकराल समस्या से जूझ रहा हो, उसमें भी जो सबसे अधिक प्रभावित हैं, जिसे इनकी परिभाषा में सर्वहारा कहा जाता है, जिसके लिए यूटोपियन संसार के कसीदे पढ़े जाते हों, वो घुट-घुट कर मर रहा हो, और तो और सरकारी नीतियों की वजह से मर रहा हो, ऐसे समय में तो कायदे से इन्हें खुलकर सामने आना चाहिए। अरे भई जब एक किसी काॅलेज के फीस बढ़ाने के मुद्दे, और एक सरकारी कानून के विरोध में आप राष्ट्रव्यापी धरने के आयोजन‌ पर निकल पड़ते हैं, सोशल मीडिया, प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक हर तरफ कुकुरमुत्ते की तरह फैल जाते हैं। अब ऐसे समय में जब पूरे देश के लोग सचमुच परेशान हैं, तब आपकी बुध्दि को क्या लकवा मार जाता है क्या?

                           जब सरकारी तंत्र बहुत से फ्रंट में बैकफुट पर आ गई हो, तब इनकी तरफ से प्रतिरोध, प्रतिवाद, प्रतिक्रिया आदि आदि की आप उम्मीद भी नहीं कर सकते हैं। अभी इनके द्वारा कोई आंदोलन, विरोध प्रदर्शन (रोड पर नहीं, मीडिया माध्यमों पर ही सही) कुछ भी नहीं दिखेगा, ऐसे मौकों पर तो उल्टे सरकार से सवाल दागने चाहिए, अभी तक तो एक पूरी मुहिम खड़ी कर देनी चाहिए थी, लेकिन नहीं, आपको कहीं नहीं दिखेगा, इसलिए नहीं दिखेगा क्योंकि ऐसे मुद्दों पर इन्हें कभी अपार जन-समर्थन का चूतियापा नहीं मिलेगा, क्योंकि इस आपदा से एक बहुत बड़ा तबका प्रभावित है, जिसकी कोई क्लास आइडेंटिटी भी नहीं है। ऊपर से सीधे पेल दिए जाने की संभावना भी है, इसलिए भयाक्रांत होकर पड़े हुए हैं। कालांतर में इन्होंने इनके आकाओं ने खुद ही अपनी बर्बादी के लिए कब्र खोद रखी है तो ये बेचारे तथाकथित क्रांतिकारी पिछलग्गू क्या ही करेंगे।


Saturday, 2 May 2020

Book Review - Twelfth Fail by Anurag Pathak

                 यह उपन्यास एक बारहवीं फेल लड़के के जीवन के बारे में है जो हजारों लाखों युवाओं की तरह कलेक्टर बनने के लिए अपने छोटे से शहर ग्वालियर से दिल्ली तक का सफर तय करता है‌। पिता आदर्शवादी सरकारी नौकर हैं, जिनका स्वयंभू आदर्शवाद उनके परिवार के लिए किसी आपदा से कम नहीं। फिर भी अपने दो बेटों को वो जैसे-तैसे अच्छे से पढ़ा लेते हैं।

                किताब का कथानक गजब का है, खासकर ग्वालियर मुरैना भिंड की ठेठ लट्ठमार बोली का खड़ी बोली हिन्दी के साथ जो सम्मिश्रण है, वह अद्भुत है, यह निस्संदेह पाठकों को बाँधकर रखती है। भारत में आंचलिकता का पुट हमेशा से भाषायी सौंदर्य का एक प्रमुख अंग रहा है।इस किताब में प्रेम से जुड़े कुछ एक पंचलाइन बहुत शानदार हैं, गूढ़ भाव लिए हुए हैं। लेकिन उपन्यास के मुख्य पात्र का जो नाम है "मनोज" वह उपन्यास की नायिका "श्रध्दा" के नाम के साथ बिल्कुल भी फिट नहीं बैठ रहा है। शायद इसमें कुछ सुधार हो सकता था, ऐसा मुझे लगा। वैसे भी उपन्यास लिखते वक्त नामकरण एक बहुत पेंचीदा काम होता है। लेकिन मुख्य पात्रों को लेकर इतनी संजीदगी बरती जा सकती थी। और अल्मोड़ा यानि पहाड़ से आने वाली लड़की का नाम श्रध्दा, यह भी अपने आप में किसी आश्चर्य से कम नहीं था। अब इस आश्चर्य के पीछे भी गजब कहानी है, आज पता चलता है कि यह तो उपन्यास और जीवनी का सम्मिश्रण है क्योंकि इसके सारे पात्र हूबहू उसी नाम से जीवित हैं नौकरी कर रहे हैं, एक तो इस कहानी के पात्र हमारे एक मास्साब भी निकल‌ गये। शायद यह भारत में अपनी तरह का पहला ऐसा उपन्यास है जिसमें जीवंत किरदारों की जीवनी को रेखांकित किया गया है।

                उपन्यास में एक जगह मनोज और उसके रूम पार्टनर पाण्डे में नोंक-झोंक चल रही कि मनोज श्रध्दा से दूर रहे ताकि उसकी पढ़ाई में कोई व्यवधान न हो। वही मनोज जिससे श्रध्दा ढंग से बात तक नहीं करती है, बस पढ़ाई और काम की बातों तक ही सीमित रहती है, और वे लोग मिलने के नाम पर पार्क और कोचिंग में ही मिलते हैं। अचानक से पाण्डे का यह कहना कि "अगर श्रध्दा इस कमरे में आई तो मैं आपका रूम पार्टनर नहीं रह सकता।" यह एक वाक्य उपन्यास के प्रवाह को धीमा तो करता है साथ ही धाराप्रवाह की दिशा भी बदल देता है, पूर्व में कही गई प्रेमादर्श की तमाम बातों को एक झटके में उलट-पलट कर रख देता है।

                 उपन्यास में एक तरफ लड़की को उच्च आदर्शों ये युक्त दर्शाना और तिस पर लड़के का लपलपाते हुए निरंतर लगे रहना, खैर। भारत जैसे देश में एक लड़के और एक लड़की के बीच प्रेम कहानी बुनना वाकई अपने आप में एक टेढ़ी खीर है, खूब सावधानी बरतनी पड़ती है, कब कथानक हाइ पीच पर है, कब लो पीच पर है, इन सब का पाठक पर बहुत असर होता है। प्रेमचंद की बहुधा रचनाओं को पढ़ कर मैंने इस बात को बखूबी समझा है। 

                 लड़के द्वारा पैसों की कमी होने पर कुत्ते घुमाने वाली बात और उसमें उसकी प्रेमिका का भी रोज साथ-साथ घूमने जाना। यह सब कुछ थोड़ा ओवररेटेड सा लगा, सच भी हो सकता है क्या मालूम। खैर सफलता की कहानी और खासकर सरकारी नौकर बन जाने और उसमें भी कलेक्टर की हनक पाने की दास्तान अगर लिखी जा रही है तो उसमें कुत्ता घुमाना क्या रिक्शा चलाना भी जायज है, भीख माँगना भी तर्कसंगत है। क्योंकि जिस देश की परंपरा में ही श्रम का निरंतर अपमान होता आया हो वहाँ ऐसी सामान्य चीजें एक बड़ा फैशन होती है, जो कि उल्टे युवाओं के लिए मोटिवेशन की तरह काम करती हैं।

                 एक ऐसे देश में जिसने लम्बे समय तक परतंत्रता झेली हो, वहाँ की युवापीढ़ी के लिए सफलता और संघर्ष के मायने बहुत-बहुत अलग होते हैं, उसके लिए सुविधाएँ और हनक अर्जित कर लेना ही सम्मान का पर्याय हो जाता है, और इस पूरी प्रक्रिया में उसे पता ही नहीं चल पाता है कि वह खोखलेपन में आकंठ डूब चुका है। ऐसे में निरंतर वर्षों तक घिसकर सरकारी नौकरी पा लेना ही सफलता  है, और यह प्रक्रिया ही संघर्ष है, इसके अलावा और कोई दूसरा संघर्ष इसके समकक्ष टिक ही नहीं पाता है क्योंकि समाज का पैटर्न ही ऐसा है कि इसके अलावा भी जीवन में और संघर्ष हो सकते हैं, इसकी संभावना ही मर जाती है। सब कुछ इस प्रचलित फैशनेबल संघर्षगाथा के सामने गौण हो जाते हैं, इसलिए सफलता की एक वृहद परिभाषा भी सीमित होकर रह जाती है। इस एक भाव को ऐसी किताबें पुरजोर तरीके से भुनाती हैं।

                  अंत में कहानी का सार यह है कि नायक मनोज भयंकर संघर्ष कर आईपीएस बन जाता है और श्रध्दा को उत्तराखण्ड में उप जिलाधीश का पद मिल जाता है। लेकिन मनोज के द्वारा डी. पी. अग्रवाल के बोर्ड में आईएएस इंटरव्यू में जाते-जाते कहा गया आखिरी जवाब सोचने पर विवश करता है। जब उससे पूछा जाता है कि यह आखिरी अटेम्प्ट है, नहीं हुआ तो? इस पर वह कहता है कि यह जीवन का कोई एकमात्र लक्ष्य नहीं, इसमें चयन नहीं भी हुआ तो वह देश की सेवा जारी रखेगा। पता नहीं क्यों आज भी देश सेवा वाली बात सुनते ही दिमाग चक्कर खाने लगता है, मनोज के नीयत पर शक नहीं है लेकिन एक बात समझ नहीं आती कि भारत में हर किसी को आखिर क्यों इतनी देश सेवा करने की पड़ी है, और जब इतने अधिक मात्रा में लोग देशसेवा को लेकर तत्पर हैं, तो देश की इतनी माली हालत क्यों है? खैर वास्तविकता और जमीनी यथार्थ से कोसों दूर यह वाक्य आज भी कई सरकारी प्राइवेट नौकरियों को पाने का मूलमंत्र है, और यह खोखला आदर्शवाद तब तक जारी रहेगा जब तक भारत में ढोंग है, श्रृंखलाबध्द तरीके से शोषण है, जातिवाद है, धार्मिक जड़ता है, मानसिक परतंत्रता है, सामाजिक पिछड़ापन है।


Friday, 1 May 2020

- ये हौसला कैसे झुके -

                        पिछले कुछ दिनों से कुछ मित्रों से बातचीत और सोशल मीडिया से मिले फीडबैक से यह निष्कर्ष निकल कर आया कि अभी हाल फिलहाल की मेरी फेसबुक फीड्स में हौसला, उदारता, प्रेम, कोमल भावनाओं आदि की घोर कमी है, जिसकी अभी के समय में बहुत आवश्यकता है, वो इसलिए क्योंकि लोग भयभीत हो चुके हैं, अब हद से ज्यादा डरने लगे हैं। मैंने भी पुनर्विचार किया तो यह पाया कि बात तो उनकी भी सही है। लेकिन मैं पूरी आशावादिता के साथ यह भी मानता हूं कि मेरे मित्रता सूची में कम से कम डरपोक लोग तो नहीं है, घाघ तो भरे पड़े हैं, लेकिन जो खासकर कुछ पढ़ने वाले हैं, वे थोड़े ही सही लेकिन तार्किक हैं, वस्तुस्थिति की समझ रखने वाले लोग हैं, अगर कहीं भाषा थोड़ी तल्ख भी हो तो, तो उनके हित के लिए ही है और वे उसके पीछे की नेकनीयत पहचानने वाले लोग हैं।

मान लीजिए एक अगर कोई आपको कहता है 
- " ग्रीन जोन हो गया, अब ज्यादा परेशानी नहीं है " 
और दूसरा कोई कहता है
- " सुनिए कोरोना से खतरा टला नहीं है, सतर्क रहिए। "

अब आप ही मुझे समझाइए कि इसमें पहले वाले वाक्य से डरने की जरूरत है या फिर दूसरे वाक्य से? सोच कर देखिए की खतरा कहाँ ज्यादा है और अगर आपको फिर भी पहले वाले वाक्य से हौसला मिलता है तो आप हौसला लेते रहें, दूसरों को भी बाँटे, क्योंकि मैं दूसरे वाक्य पर विश्वास करता हूं और करता रहूंगा।

कभी-कभी समझ नहीं आता है कि अगर कोई साफ नियत से आपकी चिंता कर आपके सामने सही चीजें प्रस्तुत करने का छोटा प्रयास कर रहा है वह नकारात्मक, निराशावादी या निष्ठुर कैसे हो जाता है?

                 सरकार क्या कितना कर रही है नहीं कर रही है उसे एक बार के लिए भूल जाते हैं। अभी हम क्या कर सकते हैं, वह ज्यादा जरूरी है। और सरकार के हद से अधिक हौसला देने वाले रवैये से यह स्पष्ट भी है कि स्थिति बहुत कुछ ठीक नहीं है, लेकिन सरकार और करे भी तो क्या। ग्रीन, आॅरेंज, रेड जोन को भले चलिए आप और हम बकवास कह दें, जो कि बकवास है भी, लेकिन इसके अलावा और करने के लिए अब बचा भी क्या है, इसलिए जो है उसी से मन की तसल्ली कर ली जाए।

                वर्तमान लाॅकडाउन को पूरी तरह खत्म होने के दो दिन पहले ही गृह मंत्रालय द्वारा बढ़ा दिया गया। क्योंकि अब शायद प्रधानमंत्री जी की भी ऐसी हालत नहीं रही कि आकर भाषण दें और लाॅकडाउन बढ़ाने का उद्घोष करें। वैसे भी प्रधानमंत्री जी वन‌-वे कम्युनिकेशन करते हैं, तो ऐसा कम्युनिकेशन फिर चाहे ट्विटर से होकर आए, मंत्रालय से होकर आए या फिर मन की बात से होकर आए, कोई खास अंतर नहीं रह जाता है।

                 स्थिति उनके भी हाथ से धीरे-धीरे निकल रही है और ये बात तभी स्पष्ट हो गयी थी जब केन्द्र ने सारी जिम्मेदारी राज्यों पर मढ़ दी थी, भले ही आज वे कितना भी लोगों को दिलासा दे दें लेकिन स्थिति आने वाले दिनों में गंभीर होने वाली है। अरे भई अब देश के प्रधानमंत्री हैं और उनसे यह उम्मीद भी नहीं की जा सकती कि वे लोगों को सीधे आकर यह कह दें कि आने वाले छ:ह महीने से साल भर तक खतरा हो सकता है, सतर्क रहने की जरूरत है। ऐसी घोषणा अगर वे कर दें फिर तो त्राहिमाम न हो जाए। इसलिए वे सेफ खेलते हैं, भले कुछ हजार लाख लोगों की जान जाए, लेकिन सकारात्मकता और हौसला आफजाई में कोई कमी नहीं होनी चाहिए, सरकारें ऐसी ही चलती हैं। क्या आज उनको कोरोना संबंधित हकीकत नहीं पता है, वे जानकर भी नहीं कहेंगे क्योंकि वे भी भारत की जनता की समझ रखते हैं, वे जानते हैं कि जिस जाति, धर्म और गुलामी के दंश से इस देश के लोग निरंतर पीड़ित रहे हैं, उसे सिर्फ और सिर्फ भावुकता से ही संचालित किया जा सकता है, कोमल प्रेमजड़ित भावनाओं से ही उसकी घेरेबंदी की जा सकती है। अंतत: यही कहूंगा कि इस घेरेबंदी से इतर हमें हौसला बनाकर रखना है, अधपके अधकचरे तथ्यों के लिए भावुक और सकारात्मक होने के बजाय असल तथ्यों के प्रति सजग रहना है और हो सके तो उन तथ्यों के लिए भावुक हो जाना है ताकि इसका कुछ लाभ भी मिले। चेतावनी और डर में फर्क करना सीखते हुए कोरोना को मिलकर हराना है।

वचन बध्दता


सिर्फ माँ सीता ने नहीं दी थी अग्नि परीक्षा,
कभी यहाँ नदियों को माँ बनना पड़ता है,
तो कभी पूरा एक पर्वत इष्टदेव बन जाता है।
कुछ इसी तरह,
साबित करने के लिए अपनी पवित्रता,
पेड़ों को भी निरंतर बोझ लादना पड़ता है।
इस माटी के मूल में ही वचन, परीक्षाएँ रही हैं,
जिसका प्रकोप हर किसी को झेलना पड़ता है।