Tuesday, 23 June 2020

Reality of Marriage in a Result Oriented Society

भारत जैसे देश में शादी, शादी न होकर एक उत्सव की तरह होता है। सात जन्मों के फेर, कुण्डली के मेल इन सभी पवित्र कही जा रही खोखली प्रक्रियाओं से गुजरते हुए इन सब में एक स्वार्थ जो प्रमुखता से छिपी होती है वो यह है कि भारतीय समाज हमेशा से "रिजल्ट ओरिएंटेड समाज" रहा है। जैसे उसे स्कूल में पढ़ रहे अपने बच्चे से स्कूल भेजने के बदले अच्छे नंबर की उम्मीद होती है, जैसे कोचिंग के लिए पैसे देकर अच्छी नौकरी की उम्मीद रहती है‌, ठीक उसी तरह शादी के बाद भी माता-पिता को रिजल्ट की उम्मीद रहती है। इसलिए तो शादी के पहले दिन से ही अखाड़ा तैयार कर दिया जाता है ताकि रिजल्ट की आस रखने वाले समाज की भूख शांत हो सके। गुलाब की पंखड़ियों के साथ सफेद चादर इसलिए बिछा दी जाती है ताकि परीक्षा में पास फेल निर्धारण करने में आसानी हो सके। रिजल्ट की अपेक्षा रखने वाला यह समाज बचपन से कभी भी अपने बच्चों में इन सब ढकोसलों से अलग स्वस्थ सोच का विकास होने ही नहीं देता है। बच्चा वैसे ही ढोंगी की तरह जीवन जीता है, जैसे उसके माता-पिता जीते आए हैं, उसी पैटर्न में जीते हुए बच्चे के भीतर जो नयी संभावानाओं का भ्रूण पैदा होना होता है वह तो उसके पैदा होने के पहले दिन से दम तोड़ना शुरू कर देता है। हर कोई अपने हिसाब से उसे खांचे में ढालना शुरू कर देते हैं। अपवाद स्वरूप अगर कोई बच्चा थोड़ी बहुत जिद से अगर वह अपनी मर्जी से भी शादी कर लेता है तो भी वह वैसा ही जीवन जीता है, जैसा बाकी लोग जीते हैं, कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं रहता है, बस तरीके का फर्क है। वैसे ही भोगी की तरह अपनी स्त्री को भोगता है, बच्चे पैदा करता है। क्योंकि जिस समाज में वह रहता है, उस समाज ने स्त्री को योनि और सेक्स से अलग कभी देखा ही नहीं, उस समाज के लिए स्त्री एक भोग की वस्तु के अलावा और कुछ भी नहीं। ऐसे समाजों में ही सेक्स एक उपलब्धि होती है, बच्चे पैदा कर माता-पिता बन जाना लाइफटाइम एचीवमेंट होता है।

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