असंवेदनशील, असभ्य, अमानवीय, खोखले और मृतप्राय समाजों का संवेदनशीलता के नाम पर चटकारे लेना हमेशा से प्रिय शगल रहा है, इन्हें हर महीने, तिमाही, छमाही में संवेदनशीलता नामक अटैक आता रहता है। ये अपनी संवेदनशीलता का सर्टिफिकेट दिखाने के लिए हमेशा उछलकूद करते रहते हैं, पुचकारते हैं। जैसा स्वांग जैसी मार्केटिंग खोखली डिग्री, उपाधियों, नौकरियों आदि के नाम पर होती है, वैसी मार्केटिंग मानवीय मूल्यों की भी होती है। तभी तो ये संवेदनशीलता का स्वांग भरते फिरते हैं। इन्हें लंबे समय से स्थापित एक समस्या के लिए भी एक नई विचित्र किस्म की घटना चाहिए होती है ताकि इनकी सोई हुई संवेदनशीलता कुछ पल के लिए जाग सके और आवश्यक कूतियापा फैलाकर शांति से सो जाए।
उदाहरण के लिए कभी इन्हें जातिवाद के नाम पर अटैक आता है, तो कभी इन्हें भ्रष्टाचार के विरोध में मुहिम चलानी है, कभी इन्हें रेप केस के लिए फाँसी माँगना है, तो कभी आपदा पीड़ितों के लिए घड़ियाली आँसू बहाने है तो कभी किसी जानवर की मृत्यु को राष्ट्रीय महत्व की घटना बनाकर पर्यावरण की क्षति के प्रति रोष जताना है, तो कभी किसी फिल्मी सितारे की तेरहवीं से पहले ही भाईवाद, पितावाद, दादावाद करना है। तो कभी किसी लिचलिचे जोजियाए कुकुर की तरह पड़ोसी देशों का विरोध करते हुए राष्ट्रीय चेतना जगाने का मुजाहिरा भी करना है। जब आडम्बर और दिखावा असभ्य समाजों के नसों में प्रवेश कर जाए तो यह जीवनशैली में भी परिलक्षित होने लगता है। इसलिए आप पाएंगे कि प्रतिक्रिया में इसका वीभत्स रूप किसी गंदे नाले के पानी की तरह झाग फेंकते बाहर आता रहता है।
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