साभार - अभय कुमार
भाषा या अभिव्यक्ति के पॉपुलर माध्यम पर आपका अधिकार आपको विशेष या प्रिविलेज्ड होने की छूट नहीं देता, हाँ विशेष होने या प्रिविलेज्ड होने का भ्रम पैदा कर दे इसकी तगड़ी सम्भावना है।पॉपुलर गद्य या पद्य की कुछ या अधिक लाइनें लिखकर, पढ़कर या उनको पढ़े-लिखे होने का दावा पेश करके हालांकि यह खुशफहमी जरूर पाली जा सकती है कि आप औरों से ज्यादा बुद्धिमान या विशेष हैं,पर दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है।
खैर,भाषायी चातुर्य के सामने चमत्कृत हो जाना हमारे डी एन ए में तो वैसे भी है, शायद इसीलिए स्कूली जीवन से ही रटने-रटाने और चीजों को मेमोरी में ठूँस लेने,लिख लेने और बोल लेने के हुनर को इतनी तरजीह दी गयी। भाषा और सूचना पर जिसका जितना ज्यादा अधिकार वो उतना ही श्रेष्ठ। ये बात हमें शुरू से ही समझा दी गयी कि अच्छी भाषा बोलने और लिखने-पढ़ने वाले तथा मानसिक कवायद करने वाले सामान्यतः आदर के पात्र होते हैं।बौद्धिकता का भी अपना अहंकार होता है क्योंकि भाषा ज्ञान को हमारी परम्परा में बौद्धिकता मान लेने की बीमारी है। कुल मिलाकर बचपन से ही हमारे दिमाग के पिछले दरवाजे ये बात ठोक पीटकर बैठा दी गयी कि दिमागी काम करने वाले शारीरिक काम करने वालों से कहीं बेहतर होते हैं। थोड़ा गहराई में जाएँ तो शारीरिक श्रम के प्रति अप्रत्यक्ष घृणा और समाज में शारीरिक श्रम के जरिए जीविका चलाने वालों के लिए कमतरी के भाव के पीछे बचपन से मिली यही ट्रेनिंग काम करती है।
कविता,कहानी,तुकबंदी,दर्द भरी शायरी या इसी तरह के तमाम भाषायी कौशल पर मुग्ध हो जाना और बात है और ये मान लेना कि इनको लिखकर या बोलकर अभिव्यक्त करने वाला या इनको समझने का दावा करने वाला अनिवार्य रूप से संवेदनशील और भीतर से ईमानदार हो ये दीगर बात है। किसी संस्थान में सम्बंधित विषयों से इतर साहित्य की क्लास सिर्फ इसलिए ली जाती थी क्योंकि साहित्य पढ़ाने वाले या जबर्दस्ती पढ़वाने वाले साहब का मानना था कि हफ्ते में एक- दो दिन साहित्य की क्लास लेने से लोग अपने कार्यक्षेत्र में अधिक संवेदनशील होंगे और उनके भीतर संवेदनाओं का ज्वालामुखी या झरना एक साथ फूट पड़ेगा। खैर, उन साहब का यह पक्का विश्वास था या साहित्य पढ़ाने की उनकी परशुरामी जिद इस राज से कभी पर्दा उठ नहीं पाया। मजबूरी में कितनों को छाती पर पत्थर रखकर साहित्य पर उनके अद्भुत व्याख्यान सुनने पड़े ये भी अच्छी खासी मजेदारी वाली बात हो सकती है।
बहरहाल,अच्छी भाषा और साहित्य का संवेदना और भीतर की ईमानदारी से कितना रिश्ता होता है ये अपने आप में बहसतलब मुद्दा है। आँख खोलकर देखेंगे तो आसपास के जीवन में बहुत से ऐसे लोग मिल जाएंगे जो इस खेल के बहुत माहिर खिलाड़ी हैं पर अपने निजी जीवन में उतने ही धूर्त,मक्कार और हिंसक हैं;शारीरिक हिंसा में भले ही कमतर हों पर भाषिक और मानसिक हिंसा में अव्वल हैं,दुनिया भर की ग्रन्थियों और श्रेष्ठताबोध के शिकार हैं। ये बात अलग है कि वो सार्वजनिक जीवन में संवेदनशीलता,विनम्रता और दिखावे के खेल के उस्ताद हों।
कला की अन्य विधाओं के सन्दर्भ में भी कमोबेश यही सब बातें मोटे तौर पर दोहरायी जा सकती हैं। पॉपुलर कल्चर में एक समय बाद कला,कला न होकर तकनीक या हाथ की सफाई बन जाती है।जितनी ज्यादा हाथ की सफाई उतनी ज्यादा कलाकारी। पॉपुलैरिटी की धुन में कला का कलाकारी में तब्दील होता जाना भी दिलचस्प बात है। कला और कलाकारी का अंतर समझना हो तो एक ही समय में अब्बास कियारोस्तामी और मार्टिन स्कोरसीज़ की फिल्में एक साथ देखी जाएँ या इसी तरह का कुछ प्रयोग करके देख सकते हैं।
भाषा,साहित्य या कला की किसी भी विधा का काम आदमी को मुक्त करना है। कला,तभी तक कला है जब तक वो आपके भीतर सहजता पैदा करे,एक प्रिविलेज के तौर पर कला पर का दावा विशुद्ध धूर्तता या एस्थेटिक करप्शन के सिवा कुछ नहीं।चीजों को छोड़कर ही आप चीजों को पा सकते हैं। ये भी याद रखा जाना चाहिए कि आपकी बौद्धिक या कलात्मक विलासिता के तमाम महल जाने-अनजाने किसी के पसीने और गाढ़े श्रम की जमीन पर ही खड़े हैं और इसमें गर्व करने या मुग्ध होने जैसा कुछ भी नहीं है। इसलिए संयोग से मिले अपने बौद्धिक या कलात्मक प्रिविलेज के लिए आत्ममुग्ध होने की जगह हम कृतज्ञ और विनीत हो सकें इतनी भीतरी ईमानदारी तो होनी ही चाहिए।
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