बचपन में लड़ाई करने की वजह से मेरे लिए खूब डंडे टूटा करते थे।
असल में इसके दो मूल कारण रहे -
पहला यह कि मेरे पिता ने उसी तरीके से मेरी बदमाशियों को हैंडल किया, जिस तरीके से उनके पिता ने उन्हें हैंडल किया, दादाजी से जैसा उन्होंने सीखा वही उन्होंने मुझ पर आजमाया कि बच्चों को तो इसी तरीके से संभाला जाता है, बड़ा किया जाता है।
दूसरा यह रहा कि बचपन में जब पड़ोसी बच्चे खेलकूद में कुछ तिगड़म कर जाते तो मैं खीज से या गुस्से से सीधे मारपीट ही कर जाता, उनके माता-पिता की शिकायत को शांत करने के लिए भी मेरे पिता मुझे मारते। अगर मेरे साथ खेलने वाले बच्चे तिगड़म करते नहीं, तो न तो मैं गुस्से से मारपीट करता, न ही मेरे पिता को सामाजिक दबाव की वजह से मुझे मारना पड़ता।
जैसे कुछ लोग कहते हैं न कि उन्होंने कभी अपने माता-पिता से मार नहीं खाई, उनके माता-पिता विनम्र रहे आदि आदि तो उनकी तरह शायद मैं भी बच जाता। लेकिन इन सबसे यह बात नहीं छुप सकती कि मेरे पिता जैसे अनेक लोग अपने पिता से मिली हिंसा को झेलते हुए ही बड़े होते हैं, किसी को उस विरासत को अलग-अलग रूपों में आगे बढ़ाने का एक अनुकूल अवसर मिल जाता है, किसी को नहीं मिल पाता है।
मुझे तो यह भी लगता है कि मेरे पिता तुलनात्मक रूप से ईमानदार जैसे कुछ निकल आए इसलिए बचपन में मुझे पीट कर भीतर का सारा कुछ शांत कर जाते थे क्योंकि उसके अलावा तो आजतक उन्होंने मेरे जिंदगी जीने के तौर-तरीकों पर कभी ऊंगली नहीं उठाई।
कुछ माता-पिता तो ऐसे भी होते हैं जो भले बच्चों पर शारीरिक हिंसा ना कर पाते हों क्योंकि इनमें से अधिकतर लोग सौम्यता और विनम्रता का चोगा ओढ़ते हुए जी रहे होते हैं, सामाजिक प्रतिष्ठा के पैरोकार भी होते हैं लेकिन यही लोग भलाई के नाम पर, भलाई को एक टूल की तरह इस्तेमाल कर आजीवन मानसिक हिंसा करते हैं। अपने बच्चों की पढ़ाई, नौकरी, शादी और यहाँ तक बच्चे होने के बाद भी उनका मानसिक शोषण करते रहते हैं। जब बच्चों के शोषण के लिए भलाई, परंपरा, परिवार, समाज, संस्कृति इन टूल्स का इस्तेमाल नहीं कर पाते है तो ये एक आखिरी दाँव आजमाते हैं और फिर बात-बात पर माँ-बाप हैं, तुमको पैदा किए हैं, तुम्हारी भी कोई जिम्मेदारी है, यही कहते हुए, पैदा कर धरती में अवतरित कर देने के इस महान कार्य को ही टूल बनाते हुए बच्चों पर इतना दबाव बना डालते हैं कि उसकी कोई सीमा नहीं है। ऐसे लोग तो और अधिक हिंसक हैं, खतरनाक हैं, भले ही ऐसे लोग आसानी से दिखाई न देते हों, विनम्रता की आड़ लिए छुपे रहते हों लेकिन असली विदूषक तो यही लोग होते हैं जो बच्चों को एक मशीन की तरह अपनी मर्जी के अनुसार आजीवन संचालित करते रहते हैं और उनको पूरी तरह खोखला कर देते हैं और उन्हें यह आजीवन महसूस भी नहीं हो पाता है कि उन्होंने अपने बच्चे को पूरी तरह खोखला कर दिया है।
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