Wednesday, 17 June 2020

मनोरोगियों का समाज और हम - अभय कुमार

साभार - अभय

किसी के द्वारा आत्महत्या या आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाना उसके व्यक्तिगत मसलों से इतर समाज की भूमिका पर भी प्रश्नचिन्ह है। घर-परिवार और समाज से नकल और ढोंग करने की जो कला हमें विरासत में मिलती है उससे पता ही नहीं चलता कब हम ऐसे खेल का हिस्सा बन चुके हैं जिसके पीछे दुनिया पागल है।

नवउदारवादी विकासवाद ने आदमी को भर भर के सपने बेचे हैं और सपनों की दुनिया की धुआंधार मार्केटिंग भी की है। सिनेमा से लेकर साहित्य और समाज को गहरे से प्रभावित करने वाले हर माध्यम का इस्तेमाल उपरोक्त मार्केटिंग के लिए धड़ल्ले से किया गया है। दुनिया भर के सेल्फ हेल्प बुक्स, मोटिवेशनल स्पीचेस की दुकान और सफलता की रातों रात रेडीमेड सर्विस वाले कंटेंट के साथ-साथ चारों ओर सफलता-सफलता वाली चिल्लाहट ने आदमी को एक सेल्फ सेंट्रिक सक्सेस मैनियाक में बदल कर रख दिया है। उसके पास खाली "मैं" और "मेरे" के सिवा और कोई शब्द ही नहीं है। 

दिन-रात सक्सेस स्टोरीज़ के पीछे भागने वाले और दूसरों को प्रेरित करने के नाम पर अपनी दुकान चलाने वालों और उन पर आँख मू्ँद कर विश्वास करने वालों को शायद पता ही नहीं है कि दुनिया महज सफलता-असफलता का जोड़ नहीं है, इस बायनरी के ऊपर और नीचे भी दुनिया है। 

साधारणता को गाली बना देने वाले मार्केट में विशिष्टता की बोली खूब लगती है,इतनी कि खास होना कब आम हो गया पता ही नहीं चला। दुनिया भर के टैलेंट हंट शोज़ और सिविल सर्विसेस जैसी परीक्षाओं के बहाने बाजार ने बड़ी ही खूबसूरती से सफलता और विशिष्टता के नाम पर हिंसात्मक प्रतियोगिताओं की जमकर ब्रांडिंग की है और दुनिया के सामने खुद को साबित करने के नाम पर स्वयं के प्रति हिंसा और पागलपन का गजब का सॉफ्टवेयर आदमी के दिलो-दिमाग में फिट किया हुआ है। बड़े पैमाने पर उपरोक्त सॉफ्टवेयर से संचालित समाज के अधिकतर लोगों की वैचारिकी-टॉप रैंक सिक्योर करने, कोई प्रतिष्ठित एक्जाम क्रैक करने, लाखों के पैकेज पा लेने और तमाम तरह की लक्जरी के ढेर इकट्ठा कर लोगों के सामने गर्व से छाती चौड़ा कर लेने को ही सफलता मान लेने की धारणा पर टिकी होती है। उनके लिए "सेल्फ इज़ ऑल दैट आई शुड केयर" वाली भावना ही सब कुछ है। भले ही दुनिया के सामने खुद के परोपकारी और महान होने के ढोल पीटे जाएं। सच तो ये है कि स्वयं के प्रति हिंसा के फेर में अपने आस-परिवेश की बड़ी से बड़ी हिंसा और त्रासदी से उनको कोई फर्क नहीं पड़ता,फर्क पड़ने और संवेदनशील होने का दिखावा भले लाख कर लिया जाए। 

बात-बात में बुध्द और कलाम की फर्जी मोटिवेशनल लाइनें चिपकाने वाले और बड़ी से बड़ी ट्रेजेडी में भी पॉजिटिविटी खोज लेने वाले इन सफलता-पिपासुओं को लगता है कि दुनिया का सारा कारोबार केवल उन्हीं की सफलता-असफलता पर अटका हुआ है। जो इस रेस में नहीं हैं उन्हें बार-बार ये अहसास दिलाया जाता है कि अचीवमेंट्स के स्तर पर वो हीनतर हैं और जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण निम्नतर है। उन्हें बार-बार नकारात्मक और फ्रस्ट्रेटेड कहकर अपमानित किया जाता है और ऐसे लोगों की खूब खिल्ली उड़ायी जाती है। उनके भीतर की स्वाभाविकता और ईमानदारी का गला घोंटने का हर सम्भव प्रयास भी किया जाता है। ऐसे में कुछ सुविधाओं पर कब्जा कर लेने तथा सामान्य को तिरस्कृत कर विशिष्ट को महिमामण्डित करने की संस्कृति को सफलता कहकर बेशर्मी से प्रचारित करने और बेचने वाले समाज के लिए डिप्रेशन, मेंटल इलनेस, और सुसाईडल टेंडेंसीज़ जैसे बेहद गम्भीर और संवेदनशील मुद्दों को सीधे सीधे आदमी की कमजोरी बताकर अपनी क्रूरता और हिंसा को छुपा ले जाना आम  बात है। एक ऐसे समाज में जहाँ सफलता के उपरोक्त पैमाने पर खरा न उतरने वाले लोग समाज के लिए अछूत की तरह माने जाते हैं तब किसी सामान्य और सहज आदमी के लिए जीना या जी पाने की जद्दोजहद अपने आप में काफी संगीन मामला है। उसके लिए अपनी स्वाभाविकता और सहजता को क्रूर और हिंसक समाज के नुकीले नाखूनों से बचा ले जाना ही बहुत बड़ी चुनौती है। 

जो सुसाईड करते हैं या इस तरह का कोई भी प्रयास करते हैं वो किसी आसमान से नहीं आते,वो भी इसी समाज का हिस्सा है और सबसे कड़वी बात ये कि अधिकतर मामलों में लटकने वाली गर्दन तो उनकी होती है पर गर्दन के चारों तरफ का फंदा समाज और उसके परिवेश के तौर पर हम डिजाईन करते हैं। असल में देखा जाए तो आत्महत्या एक प्रक्रिया है जो आत्महत्या की घटना के बहुत पहले से ही चालू हो जाती है,आत्महत्या का कृत्य उस प्रक्रिया में बस मुहर लगाने का काम करता है और इस पूरी प्रक्रिया में सामाजिक कारकों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ऐसे में किसी की मृत्यु पर "RIP" कहकर अपनी जिम्मेदारी से बेहद चालाकी से बचकर निकल जाने तथा बात-बात में  मोटिवेशन और स्पिरिचुएलिटी की उल्टी करके अपने भीतर की सड़न को देखने तक से इनकार कर देने वाला समाज किसी की मृत्यु से उपजे सामाजिक अपराधबोध से भला कैसे मुक्त हो सकता है; कम से कम इतनी आसानी से तो बिल्कुल भी नहीं। किसी के जीवन की त्रासदी को उसकी व्यक्तिगत कमजोरी और हीनता का मसला बताकर धूर्ततापूर्वक पल्ला झाड़ लेने वाले ऐसे हर समाज को सबसे पहले अपने खून से सने हुए गिरेबान के भीतर झाँकने की सख़्त जरूरत है।

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