Tuesday, 9 June 2020

- सरकारी कार्यवाही और मेरा बचपन -

- सरकारी कार्यवाही और मेरा बचपन -

बचपन की यह बात साझा करने का मकसद सिर्फ इतना ही है कि जब भी आप सरकारी दमन या क्रूरता की कोई घटना आसपास देखें, किसी सरकारी कर्मचारी द्वारा आम लोगों को पीटता देखें, यौन शोषण का मामला देखें या ऐसी ही अन्य कोई अमानवीय घटना देखें और त्वरित प्रतिक्रिया स्वरूप विभागाध्यक्ष द्वारा अमुक सरकारी कर्मचारी को सस्पेंड होता देखें तो यह घटना याद कर लें।

जब मैं बहुत छोटा था तो खूब लडा़ईयाँ करता, मोहल्ले के झगड़ों की वजह से आए दिन मेरे लिए डंडे टूटा करते। पड़ोसी की जब पिटाई होती है, तो अड़ोसी की भी जिम्मेदारी बन जाती है कि वह मामले को शांत करने के लिए उचित प्रतिक्रिया दे। उदाहरण के लिए जैसे मैंने किसी से मारपीट की और घर तक शिकायत आ गई, तो फिर मेरे लिए डंडा टूटता, मार तब तक पड़ती जब तक मेरे आंसू न निकलते। जैसे ही मैं रोने वाला होता कि प्रतिद्वंद्वी लड़के की माता, दीदी, पिता जो कोई भी मेरे प्रतिद्वंद्वी के साथ वहाँ दर्शक के रूप में मौजूद होते, वे इतने भावुक होकर मेरे पिता को रोकते कि - "अरे! बच्चा है कितना ही मारेंगे, रहने दीजिए, बच्चों से गलती हो जाती है।" वे इतना कहकर अपने घरों को लौट जाते‌।

शिकायतकर्ताओं के जाने के बाद मेरे पिता जो कुछ देर पहले मुझे डंडे भांज रहे थे, वही फिर मेरी मरहम पट्टी करते और मेरी मनपसंद चीज मुझे खिलाते, उनका प्रेम पहले से दुगुना हो जाता। और जब कुछ दिनों के बाद मैं मानसिक रूप से तैयार हो जाता तो फिर से प्रतिद्वंद्वी के साथ लड़ाई और फिर से मेरी पिटाई, हिंसा का यह चेन अनवरत चलता रहता।

किसी सरकारी कर्मचारी के सस्पेंड होने और मेरी पिटाई के इस पूरे क्रम में समानता ढूंढिएगा। बच्चे को सरकारी कर्मचारी और पिता को विभागाध्यक्ष मान लीजिएगा। मानता हूं कि यह तुलना भयावह है, लेकिन हकीकत यही है।

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