Tuesday, 30 June 2020

टिकटाॅक, एप्प बैन और डेटा चोरी -

इस पोस्ट का एप्प बैन के समर्थन या विरोध से कोई लेना देना नहीं है, इसलिए समर्थन या विरोध का डंडा चलाने वाले यहीं से पढ़ना बंद कर सकते हैं।
एप्प बैन में बाकी बैन हुए एप्स का पता नहीं, लेकिन खासकर टिकटाॅक जैसे पाॅपुलर एप्प का बंद होना राष्ट्रीय मुद्दा बनना ही था‌। हम इस टेक्निकल चीज पर नहीं जाते हैं कि जब टिकटाॅक या अन्य चाइनिज एप्प से डेटा चोरी होता है तो यह सब अभी क्यों सरकार को याद आया आदि आदि। ये काम समर्थन विरोध करने वालों पर छोड़ देते हैं। हम जमीनी बात करने की कोशिश करके देखते हैं। 

वास्तव में देखा जाए तो इस भीषण महामारी के दौर में भी जहाँ हमारे सामने समस्याओं का पहाड़ खड़ा है, ऐसे समय में इन मुद्दों का राष्ट्रीय महत्व का बन जाना ही हमारे लिए एक बड़े शर्म की बात है। अब इस पर न उलझिएगा कि सरकार ने किया, मीडिया ने किया, अरे भाई हम सब ने किया, सबका बराबर योगदान होता है ट्रेंड करने में। सरकार मीडिया उत्प्रेरण का कार्य करती है‌।

आप यह भी देखेंगे कि इस मुद्दे में हर कोई अपने हिसाब से तेल गरम कर रहा है, मौज ले रहा है लेकिन शायद बहुत कम लोग, थोड़े ही लोग इस बात को देख पा रहे होंगे कि टिकटाॅक एक ऐसा एप्प बन चुका था जिसने मनोरंजन के सहारे ही सही बहुत लोगों के लिए राहत का काम किया, एक बहुत बड़ी आबादी को शांत किया, प्रफ्फुलित किया, उमंगों को मधुर बनाया। मनोरंजन से काफी आगे निकल चुका था यह एप्प, ऐसा मुझे कहीं कहीं लगता है। उन युवाओं की बात नहीं कर रहा जो फूहड़पने पर उतारू रहे, ऐसे लोग कहाँ नहीं है, लेकिन इनके अलावा भी टिकटाॅक में एक बड़ी आबादी उनकी रही जो अपने मानसिक संतुलन के लिए किसी बाबा या आश्रम की चौखट में जाया करते थे। आप छंटनी करना शुरू कीजिए कि वे कौन लोग हैं जो टिकटाॅक चलाते हैं, बहुत कुछ समझ आ जाएगा। मुट्ठी भर बदमाशी कर रहे युवाओं के हिसाब से राय मत बनाइए। ऐसे लोग हर जगह भरे पड़े हैं। 

आप अपने आस पास देखना शुरू करेंगे तो आपको समझ आएगा कि टिकटाॅक जैसे एप्प बहुत सी ऐसी महिलाओं के लिए वरदान का काम कर रहे थे जो तलाकशुदा हैं, लगातार घरेलू हिंसा झेलती हैं या अन्य किसी तरीके से आए दिन शोषण का शिकार होती हैं, इनके लिए टिकटाॅक हँसकर सब कुछ भुला देने का एक प्रभावी माध्यम बन चुका था। आप कंटेंट, गाने, संगीत, वीडियो इन सब में उलझे रहेंगे तो आपको मेरी यह बात वैसे भी समझ नहीं आएगी। आप सामने वाले की हँसी और आनंद के पीछे वर्षों से चले आ रहे मानसिक सामाजिक शोषण को कुचलता नहीं देख पाते हैं तो यह आपकी समस्या है। 

अब डेटा चोरी पर आते हैं जिसे आधार बनाकर एप्प बैन की ये नौटंकी की गई है। यानि यह कितना बड़ा विरोधाभास है कि जिस देश के लोगों को सरकार ने कभी महज एक डेटा से ज्यादा कुछ समझा नहीं, आज उसी सरकार को उन्हीं लोगों का डेटा चोरी हो जाने की सबसे अधिक चिंता है।

डेटा चोरी का अभी तक का सबसे वीभत्स उदाहरण आधार कार्ड है। हैकर जूलियन असांजे ने तो भारत में आधार कार्ड लांच होने के दो साल पहले ही कह दिया था कि भारत अपने लोगों की निजता पर हमला करने के लिए जल्द ही कुछ पहचान पत्र जैसा तरीका अपनाएगी और हुआ भी यही। इस पर नहीं जाते हैं कि आधार कार्ड का अर्थ कैसे डेटा चोरी हो गया। अभी हाल फिलहाल का उदाहरण लेते हैं, आरोग्य सेतु एप्प, डेटा चोरी का इससे बढ़िया मासूम उदाहरण और क्या लेंगे। फ्रेंच हैकर एलिएट एल्डरसन ने तो मानो पूरी खोलकर रख दी कि कैसे सरकार इस महामारी में, इस व्यापक आपदा के समय में भी डेटा चोरी का काम धड़ल्ले से कर रही है। 

चलिए इन दोनों उदाहरणों को छोड़ देते हैं, बहुत टेक्निकल चीजें हैं। एक आसान सा उदाहरण लेते हैं, आपमें से अधिकतर युवा राज्य स्तर, केन्द्रीय स्तर की अलग-अलग प्रतियोगी परीक्षाओं का हिस्सा बने होंगे, बैंकिंग, रेल्वे, व्यापंम, एसएससी, पीसीएस, सिविल‌ सेवा आदि। आपने कभी ध्यान दिया कि परीक्षा समाप्ति के पश्चात, परीक्षा में अनुपस्थित युवाओं को एक दो दिन के पश्चात् लाॅटरी या कार जीतने वाले फोन कहाँ से आते हैं, फोन करने का यह ठेका किस बीपीओ को मिलता है। या फिर जिस दिन परीक्षा परिणाम आते हैं तो जिनका चयन नहीं हो पाता है, उन घायल क्षुब्ध लोगों के नाम का डेटा लीक कौन करता है, उन्हें लाॅटरी वाले फोन कहाँ से आते हैं। कभी आपने सोचा है कि कौन हैं वे लोग जो आपको झूठे सपने बेचने का काम करते हैं, आपको बोलरो, स्काॅर्पियो जीतने का बम्पर आॅफर देते हैं और बदले में 5000-10000 रूपए के अग्रिम भुगतान की माँग करते है। सरकार के अघोषित तथाकथित चाटुकार सरीखे आरटीआई कार्यकर्ताओं की गर्दन पकड़ के आप पूछिएगा कि क्यों वे लोग चयन आयोगों से यह नहीं पूछते हैं कि छात्रों का डेटा लीक आखिर कौन करता है? पता करवाइएगा कि निजता का हनन कर लाखों करोड़ों रूपए का यह डेटा बेचने का कारोबार आखिर किनके रहम-ओ-करम पर होता है। चीन को हम बाद में संभाल लेंगे, पहले घर का मामला ठीक कर लिया जाए।

Sunday, 28 June 2020

Review of current chhattisgarh Government


पद धारण करने के पश्चात व्यक्ति, व्यक्ति कम और पद से अधिक जाना जाता है। पद की माँग भी न्यूनतम होती है कि व्यक्ति समयानुसार उस पदभार के साथ सहज होना सीख जाए। फर्क एक मर्यादाविहिन और मर्यादित का ही तो है। अगर एक मुख्यमंत्री के कार्यकाल में रहते हुए ही बिना किसी विशिष्ट घटना के बावजूद ही जनता का मोह भंग होने लगे और जनमानस पुराने मुख्यमंत्री को, उसकी व्यवहारकुशलता को याद करने लग जाए तो तत्कालीन मुख्यमंत्री और उनसे संबध्द हितसमूहों के लिए यह एक सोचनीय विषय है। भ्रष्टाचार ठीक है, हर कोई करे, कोई समस्या नहीं, लेकिन बदमाशी और लंपटगिरी की कोई एक सीमा भी तो हो। गुंडे मवालियों के भी अपने कुछ सिध्दांत संस्कार होते हैं, उनसे आप एक बार उम्मीद रख भी सकते हैं लेकिन इन तथाकथित आकाओं से नहीं। न तो भाटगिरी कर रहे मरगिल्ले पत्रकारों से उम्मीद कर सकते हैं कि इन हुक्मरानों के लिए दो शब्द बोल लें, उनके कुशासन पर कुछ लिख मारें। मूल बात यह है कि राज्य बहुत पीछे जा रहा है, दृष्टिबाधित लोग खुद तो दृष्टिबाधित होते हैं, अपने आसपास के सभी लोगों को वैसा बनाने लगते हैं, ताकत उनके पंजों में रहती है तो सब उनके मुताबिक होने भी लगता है। बात किसी पार्टी की नहीं है, राज्य को पीछे ले जाने वाले अड़ियल सिरफिरे लोगों को इससे फर्क ही नहीं पड़ेगा कि राज्य पीछे जाए या आगे, क्योंकि इनके पास नियत ही नहीं है। नीचता की हद तक असंवेदनशील लोगों की मानो एक पूरी फौज बैठी हुई है। स्थिति को बयां करने के लिए शब्द वाक्य सब कम‌ पड़ रहे हैं। अंत में बस यही कि डाकुओं और माफियाओं में एक चीज बराबर रहती है और वह है उनकी मर्यादा। जिसकी वे आजीवन पालना करते हैं।

#Chhattisgarh

Tuesday, 23 June 2020

Reality of Marriage in a Result Oriented Society

भारत जैसे देश में शादी, शादी न होकर एक उत्सव की तरह होता है। सात जन्मों के फेर, कुण्डली के मेल इन सभी पवित्र कही जा रही खोखली प्रक्रियाओं से गुजरते हुए इन सब में एक स्वार्थ जो प्रमुखता से छिपी होती है वो यह है कि भारतीय समाज हमेशा से "रिजल्ट ओरिएंटेड समाज" रहा है। जैसे उसे स्कूल में पढ़ रहे अपने बच्चे से स्कूल भेजने के बदले अच्छे नंबर की उम्मीद होती है, जैसे कोचिंग के लिए पैसे देकर अच्छी नौकरी की उम्मीद रहती है‌, ठीक उसी तरह शादी के बाद भी माता-पिता को रिजल्ट की उम्मीद रहती है। इसलिए तो शादी के पहले दिन से ही अखाड़ा तैयार कर दिया जाता है ताकि रिजल्ट की आस रखने वाले समाज की भूख शांत हो सके। गुलाब की पंखड़ियों के साथ सफेद चादर इसलिए बिछा दी जाती है ताकि परीक्षा में पास फेल निर्धारण करने में आसानी हो सके। रिजल्ट की अपेक्षा रखने वाला यह समाज बचपन से कभी भी अपने बच्चों में इन सब ढकोसलों से अलग स्वस्थ सोच का विकास होने ही नहीं देता है। बच्चा वैसे ही ढोंगी की तरह जीवन जीता है, जैसे उसके माता-पिता जीते आए हैं, उसी पैटर्न में जीते हुए बच्चे के भीतर जो नयी संभावानाओं का भ्रूण पैदा होना होता है वह तो उसके पैदा होने के पहले दिन से दम तोड़ना शुरू कर देता है। हर कोई अपने हिसाब से उसे खांचे में ढालना शुरू कर देते हैं। अपवाद स्वरूप अगर कोई बच्चा थोड़ी बहुत जिद से अगर वह अपनी मर्जी से भी शादी कर लेता है तो भी वह वैसा ही जीवन जीता है, जैसा बाकी लोग जीते हैं, कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं रहता है, बस तरीके का फर्क है। वैसे ही भोगी की तरह अपनी स्त्री को भोगता है, बच्चे पैदा करता है। क्योंकि जिस समाज में वह रहता है, उस समाज ने स्त्री को योनि और सेक्स से अलग कभी देखा ही नहीं, उस समाज के लिए स्त्री एक भोग की वस्तु के अलावा और कुछ भी नहीं। ऐसे समाजों में ही सेक्स एक उपलब्धि होती है, बच्चे पैदा कर माता-पिता बन जाना लाइफटाइम एचीवमेंट होता है।

Paranoia in Language, Art and Culture

साभार - अभय कुमार

भाषा या अभिव्यक्ति के पॉपुलर माध्यम पर आपका अधिकार आपको विशेष या प्रिविलेज्ड होने की छूट नहीं देता, हाँ विशेष होने या प्रिविलेज्ड होने का भ्रम पैदा कर दे इसकी तगड़ी सम्भावना है।पॉपुलर गद्य या पद्य की कुछ या अधिक लाइनें लिखकर, पढ़कर या उनको पढ़े-लिखे होने का दावा पेश करके हालांकि यह खुशफहमी जरूर पाली जा सकती है कि आप औरों से ज्यादा बुद्धिमान या विशेष हैं,पर दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है।

खैर,भाषायी चातुर्य के सामने चमत्कृत हो जाना हमारे डी एन ए में तो वैसे भी है, शायद इसीलिए स्कूली जीवन से ही रटने-रटाने और चीजों को मेमोरी में ठूँस लेने,लिख लेने और बोल लेने के हुनर को इतनी तरजीह दी गयी। भाषा और सूचना पर जिसका जितना ज्यादा अधिकार वो उतना ही श्रेष्ठ। ये बात हमें शुरू से ही समझा दी गयी कि अच्छी भाषा बोलने और लिखने-पढ़ने वाले तथा मानसिक कवायद करने वाले सामान्यतः आदर के पात्र होते हैं।बौद्धिकता का भी अपना अहंकार होता है क्योंकि भाषा ज्ञान को हमारी परम्परा में बौद्धिकता मान लेने की बीमारी है। कुल मिलाकर बचपन से ही हमारे दिमाग के पिछले दरवाजे ये बात ठोक पीटकर बैठा दी गयी कि दिमागी काम करने वाले शारीरिक काम करने वालों से कहीं बेहतर होते हैं। थोड़ा गहराई में जाएँ तो शारीरिक श्रम के प्रति अप्रत्यक्ष घृणा और समाज में शारीरिक श्रम के जरिए जीविका चलाने वालों के लिए कमतरी के भाव के पीछे बचपन से मिली यही ट्रेनिंग काम करती है।

कविता,कहानी,तुकबंदी,दर्द भरी शायरी या इसी तरह के तमाम भाषायी कौशल पर मुग्ध हो जाना और बात है और ये मान लेना कि इनको लिखकर या बोलकर अभिव्यक्त करने वाला या इनको समझने का दावा करने वाला अनिवार्य रूप से संवेदनशील और भीतर से ईमानदार हो ये दीगर बात है। किसी संस्थान में सम्बंधित विषयों से इतर साहित्य की क्लास सिर्फ इसलिए ली जाती थी क्योंकि साहित्य पढ़ाने वाले या जबर्दस्ती पढ़वाने वाले साहब का मानना था कि हफ्ते में एक- दो दिन साहित्य की क्लास लेने से लोग अपने कार्यक्षेत्र में अधिक संवेदनशील होंगे और उनके भीतर संवेदनाओं का ज्वालामुखी या झरना एक साथ फूट पड़ेगा। खैर, उन साहब का यह पक्का विश्वास था या साहित्य पढ़ाने की उनकी परशुरामी जिद इस राज से कभी पर्दा उठ नहीं पाया। मजबूरी में कितनों को छाती पर पत्थर रखकर साहित्य पर उनके अद्भुत व्याख्यान सुनने पड़े ये भी अच्छी खासी मजेदारी वाली बात हो सकती है।

बहरहाल,अच्छी भाषा और साहित्य का संवेदना और भीतर की ईमानदारी से कितना रिश्ता होता है ये अपने आप में बहसतलब मुद्दा है। आँख खोलकर देखेंगे तो आसपास के जीवन में बहुत से ऐसे लोग मिल जाएंगे जो इस खेल के बहुत माहिर खिलाड़ी हैं पर अपने निजी जीवन में उतने ही धूर्त,मक्कार और हिंसक हैं;शारीरिक हिंसा में भले ही कमतर हों पर भाषिक और मानसिक हिंसा में अव्वल हैं,दुनिया भर की ग्रन्थियों और श्रेष्ठताबोध के शिकार हैं। ये बात अलग है कि वो सार्वजनिक जीवन में संवेदनशीलता,विनम्रता और दिखावे के खेल के उस्ताद हों।

कला की अन्य विधाओं के  सन्दर्भ में भी कमोबेश यही सब बातें मोटे तौर पर दोहरायी जा सकती हैं। पॉपुलर कल्चर में एक समय बाद कला,कला न होकर तकनीक या हाथ की सफाई बन जाती है।जितनी ज्यादा हाथ की सफाई उतनी ज्यादा कलाकारी। पॉपुलैरिटी की धुन में कला का कलाकारी में तब्दील होता जाना भी दिलचस्प बात है। कला और कलाकारी का अंतर समझना हो तो एक ही समय में अब्बास कियारोस्तामी और मार्टिन स्कोरसीज़ की फिल्में एक साथ देखी जाएँ या इसी तरह का कुछ प्रयोग करके देख सकते हैं।

भाषा,साहित्य या कला की किसी भी विधा का काम आदमी को मुक्त करना है। कला,तभी तक कला है जब तक वो आपके भीतर सहजता पैदा करे,एक प्रिविलेज के तौर पर कला पर का दावा विशुद्ध धूर्तता या एस्थेटिक करप्शन के सिवा कुछ नहीं।चीजों को छोड़कर ही आप चीजों को पा सकते हैं। ये भी याद रखा जाना चाहिए कि आपकी बौद्धिक या कलात्मक विलासिता के तमाम महल जाने-अनजाने किसी के पसीने और गाढ़े श्रम की जमीन पर ही खड़े  हैं और इसमें गर्व करने या मुग्ध होने जैसा कुछ भी नहीं है। इसलिए संयोग से मिले अपने बौद्धिक या कलात्मक प्रिविलेज के लिए आत्ममुग्ध होने की जगह हम कृतज्ञ और विनीत हो सकें इतनी भीतरी ईमानदारी तो होनी ही चाहिए।

सुसाइड -

A - यार बहुत हैवी हो रहा अब।
B - क्या हो गया?
A - तू तो जानता ही है प्राॅब्लम।
B - हाँ। 
A - लग रहा अब नहीं बर्दाश्त होगा।
B - क्या चल‌ रहा है दिमाग में?
A - सोचती हूं सुसाइड कर लूं।
B - पागल है क्या।
A - यार ऐसे जीने का क्या फायदा।
B - पहले भी अटेम्ट कर चुकी है अब डरा मत तू।
A - अब अटेम्ट नहीं करूंगी। आर या पार।
B - यार, मत बोल मुझे ये सब।
A - मैं सच में कर लूंगी यार। मजाक मत समझ।
B - मजाक में नहीं ले रहा हूं।
A - नहीं, बस बता रही।
B - क्या बोलूं अब, मैं तो कुछ नहीं करता इसमें।
A - वो भी है।
B - एक बात बोलूं?
A - बोल..
B - ऐसा करना, जब लगे कि अब नहीं जिया जा रहा तो कर लेना।

1 साल बाद -

A - साले! तेरे सुसाइड कर लेने वाले कांसेप्ट ने बचा लिया मुझे।
B - हाहाहा, बचा लिया मतलब?
A - जी रही हूं, खुशी नहीं है तुझे?
B - बिल्कुल है, मजा आ रहा होगा अब?
A - क्या जीने में?
B - हाँ जीने में ही ? क्यों अभी जिंदगी नहीं जी रही क्या?
A - जी रही हूं, मजे का नहीं पता लेकिन अब सब बढ़िया है।
B - फिर कभी मन कर गया तो? मतलब सुसाइड का?
A - सोच रही हूं कुछ रूककर मरूं।
B - जीने की वजह खोज ली क्या?
A - तो क्या।
B - और मरने की?
A - नहीं, फिलहाल जिंदगी जीने में ही व्यस्त हूं। 

Monday, 22 June 2020

धमकी भरे फोन -


आपने बहुत से लोगों को देखा होगा जो लगातार फेसबुक में कुछ न कुछ लिखते रहते हैं। यह भी देखा होगा कि कई बार ये लोग पोस्ट लिखकर बताते फिरते हैं कि ये लिखा तो ऐसा हुआ, मुझे धमकियाँ मिली। मुझे यह सब देखकर पहले खूब हँसी आती थी, मैं सोचता था यह सब पब्लिक डोमेन में बताने की क्या ही जरूरत है। मुझे तो कई बार यह सब पब्लिसिटी स्टंट भी लगता था, अक्सर कुछ लोग ऐसा कर भी जाते होंगे लेकिन आज लगता है कि भारत में अधिकतर लोग वास्तव में ऐसे हमलों के शिकार होते हैं।

तो हुआ यूं कि मुझे भी एक फोन आया, बिल्कुल अलग ही तरह का मामला था, मतलब धमकी जैसा तो नहीं था लेकिन किसी की अभिव्यक्ति पर साफ साफ हमला कह सकते हैं। मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा था कि कभी ऐसा फोन आ सकता है, क्योंकि मैंने तो कभी किसी पक्ष वाद आदि के लिए कभी कुछ उलूल जूलूल बातें वैसे भी नहीं कही है। लेकिन फिर भी मेरे साथ ये अलग सा मामला हो गया। जैसे अधिकांश: लोगों के साथ क्या होता है कि राजनीति आदि पर लिखते रहते हैं तो उन्हें स्पष्ट रहता है कि फलां राजनीतिक पक्ष से संबंधित व्यक्ति ने ही फोन लगवाया होगा। उन्हें फोन करने वाले के बारे में एक स्पष्टता रहती है लेकिन मेरे साथ अलग ही समस्या हो गई, क्योंकि मुझे समस्या भी तो अलग-अलग तरह के लोगों से रहती है, कभी हिमालय और नदियों को बेचने वालों से समस्या हो जाती है, तो कभी गरीबों का खून चूसने वाले कुख्यात डाकूसरीखे वंचक अधिकारियों से, तो कभी सरकारी तंत्र से, कभी गैर-सरकारी तंत्र से, कभी मरगिल्ले समाजसेवियों से तो कभी डाॅक्टर इंजीनियर से, कभी फर्जी मास्टरों से तो कभी फर्जी साहित्यकारों से। मतलब यूं समझिए कि समस्या का क्षेत्र व्यापक होता रहा, अनवरत तरीके से सबको सूतियाना जारी रहा। अब इस प्रक्रिया में कितने अलग-अलग लोगों को नाराजगी होती होगी, यह फिर पता करना असंभव हो जाता है, एक अबूझ पहेली सी बन जाती है, अभी भी वह पहेली बनी ही हुई है, शायद कभी पता भी न चले कि मुझे मिलने वाली उस एकमात्र विचित्र सी धमकी के पीछे आखिर कौन होगा। 

बाप दिवस पर बाप से चर्चा -

पुत्र - उस गाँव के लोग आपको याद करते हुए रूआंसे से हो रहे थे।
पिता - अच्छा, क्या कह रहे थे?
पुत्र - वही कि आजकल के बच्चे पैसे लेकर भी ढंग से काम नहीं करते, ठीक से बात भी नहीं करते।
पिता - बेटा, मैंने नौकरी में रहते कभी किसी का अहित न किया।
पुत्र - तभी लोगों के स्मरण में चीजें हैं।
पिता - मैंने आजीवन ईमानदारी से अपना काम किया।
पुत्र - नहीं, ऐसा नहीं है।
पिता - मतलब?
पुत्र - आप तुलनात्मक रूप से कम खराब रहे।
पिता(कुछ सेंकेंड सोचने के बाद) - बिल्कुल सही।

Sunday, 21 June 2020

सुसाइड पर चर्चा -

A - कैसे कर लेते होंगे लोग सुसाइड?
B - फिजूल की बातें ना‌ करो तुम..
A - नहीं मतलब, डर भी कोई चीज हुई।
B - करने वाले को कैसा डर..
A - यार! एक कपड़ा कैसे वजन संभालता होगा?
B - पगला गई हो क्या?
A - बस पूछ रही, कैसे गाँठ बाँधना सीख जाते होंगे?
B - मत लाओ ऐसे सवाल दिमाग में..
A - बस एक आखिरी सवाल..
B - हुह, बोलो..
A - पंखे इतने मजबूत होते होंगे क्या?
B - नहीं, ऐसा करने वालों के इरादे मजबूत होते हैं।

Saturday, 20 June 2020

बच्चों की मारपीट और मेरा बचपन

बचपन में लड़ाई करने की वजह से मेरे लिए खूब डंडे टूटा करते थे। 
असल में इसके दो मूल कारण रहे -

पहला यह कि मेरे पिता ने उसी तरीके से मेरी बदमाशियों को हैंडल किया, जिस तरीके से उनके पिता ने उन्हें हैंडल किया, दादाजी से जैसा उन्होंने सीखा वही उन्होंने मुझ पर आजमाया कि बच्चों को तो इसी तरीके से संभाला जाता है, बड़ा किया जाता है।

दूसरा यह रहा कि बचपन में जब पड़ोसी बच्चे खेलकूद में कुछ तिगड़म कर जाते तो मैं खीज से या गुस्से से सीधे मारपीट ही कर जाता, उनके माता-पिता की शिकायत को शांत करने के लिए भी मेरे पिता मुझे मारते। अगर मेरे साथ खेलने वाले बच्चे तिगड़म करते नहीं, तो न तो मैं गुस्से से मारपीट करता, न ही मेरे पिता को सामाजिक दबाव की वजह से मुझे मारना पड़ता। 
जैसे कुछ लोग कहते हैं न कि उन्होंने कभी अपने माता-पिता से मार नहीं खाई, उनके माता-पिता विनम्र रहे आदि आदि तो उनकी तरह शायद मैं भी बच जाता। लेकिन इन सबसे यह बात नहीं छुप सकती कि मेरे पिता जैसे अनेक लोग अपने पिता से मिली हिंसा को झेलते हुए ही बड़े होते हैं, किसी को उस विरासत को अलग-अलग रूपों में आगे बढ़ाने का एक अनुकूल अवसर मिल जाता है, किसी को नहीं मिल पाता है।

मुझे तो यह भी लगता है कि मेरे पिता तुलनात्मक रूप से ईमानदार जैसे कुछ निकल आए इसलिए बचपन में मुझे पीट कर भीतर का सारा कुछ शांत कर जाते थे क्योंकि उसके अलावा तो आजतक उन्होंने मेरे जिंदगी जीने के तौर-तरीकों पर कभी ऊंगली नहीं उठाई।

कुछ माता-पिता तो ऐसे भी होते हैं जो भले बच्चों पर शारीरिक हिंसा ना कर पाते हों क्योंकि इनमें से अधिकतर लोग सौम्यता और विनम्रता का चोगा ओढ़ते हुए जी रहे होते हैं, सामाजिक प्रतिष्ठा के पैरोकार भी होते हैं लेकिन यही लोग भलाई के नाम पर, भलाई को एक टूल की तरह इस्तेमाल कर आजीवन मानसिक हिंसा करते हैं। अपने बच्चों की पढ़ाई, नौकरी, शादी और यहाँ तक बच्चे होने के बाद भी उनका मानसिक शोषण करते रहते हैं। जब बच्चों के शोषण के लिए भलाई, परंपरा, परिवार, समाज, संस्कृति इन टूल्स का इस्तेमाल नहीं कर पाते है तो ये एक आखिरी दाँव आजमाते हैं और फिर बात-बात पर माँ-बाप हैं, तुमको पैदा किए हैं, तुम्हारी भी कोई जिम्मेदारी है, यही कहते हुए, पैदा कर धरती में अवतरित कर देने के इस महान कार्य को ही टूल बनाते हुए बच्चों पर इतना दबाव बना डालते हैं कि उसकी कोई सीमा नहीं है। ऐसे लोग तो और अधिक हिंसक हैं, खतरनाक हैं, भले ही ऐसे लोग आसानी से दिखाई न देते हों, विनम्रता की आड़ लिए छुपे रहते हों लेकिन असली विदूषक तो यही लोग होते हैं जो बच्चों को एक मशीन की तरह अपनी मर्जी के अनुसार आजीवन संचालित करते रहते हैं और उनको पूरी तरह खोखला कर देते हैं और उन्हें यह आजीवन महसूस भी नहीं हो पाता है कि उन्होंने अपने बच्चे को पूरी तरह खोखला कर दिया है।

Friday, 19 June 2020

- वन संरक्षक -

A - वन संरक्षक की वेकैंसी आई है।
B - तो?
A - भर लो, तुम भी भर लो।
B - क्यों ही करना ये सब?
A - कुछ तो करना ही है।
B - तो फिर कुछ भी कर लें हम।
A - मैं कहा, क्या पता हो जाए।
B - ऐसे कैसे हो जाएगा?
A - लोगों का तो होता है।
B - होने दो उनका।
A - तुम्हें नहीं होना?
B - जरूरत ही नहीं।
A - बढ़िया नौकरी है।
B - ये नशा तुम्हें मुबारक।
A - खूब आराम है।
B - अच्छा..
A - कुछ खास काम नहीं होता।
B - अच्छा जी...
A - मोटी कमाई है।
B - कैसे?
A - जंगल बेच डालते हैं।
B - ओह! कैसे?
A - लकड़ी, वनोपज नाम की भी चीज है‌।
B - वाह, क्या बात है।
A - अपने को क्या इन सबसे।
B - लेकिन पद का नाम थोड़ा अटपटा नहीं है..
A - ठीक तो है, वन संरक्षक।
B - कायदे से तो वन भक्षक होना चाहिए।
A - ऐ! तुम हमेशा नेगेटिव बात ही करोगे।
B - ठीक है, कुछ ना बोल रहा।
A - पाॅजिटिव सोचा करो यार।
B - जो आज्ञा प्रभु।

Thursday, 18 June 2020

संवेदनशीलता का व्यापार

             असंवेदनशील, असभ्य, अमानवीय, खोखले और मृतप्राय समाजों का संवेदनशीलता के नाम पर चटकारे लेना हमेशा से प्रिय शगल रहा है, इन्हें हर महीने, तिमाही, छमाही में संवेदनशीलता नामक अटैक आता रहता है। ये अपनी संवेदनशीलता का सर्टिफिकेट दिखाने के लिए हमेशा उछलकूद करते रहते हैं, पुचकारते हैं। जैसा स्वांग जैसी मार्केटिंग खोखली डिग्री, उपाधियों, नौकरियों आदि के नाम पर होती है, वैसी मार्केटिंग मानवीय मूल्यों की भी होती है। तभी तो ये संवेदनशीलता का स्वांग भरते फिरते हैं। इन्हें लंबे समय से स्थापित एक समस्या के लिए भी एक नई विचित्र किस्म की घटना चाहिए होती है ताकि इनकी सोई हुई संवेदनशीलता कुछ पल के लिए जाग सके‌ और आवश्यक कूतियापा फैलाकर शांति से सो जाए।

                उदाहरण के लिए कभी इन्हें जातिवाद के नाम पर अटैक आता है, तो कभी इन्हें भ्रष्टाचार के विरोध में मुहिम चलानी है, कभी इन्हें रेप केस के लिए फाँसी माँगना है, तो कभी आपदा पीड़ितों के लिए घड़ियाली आँसू बहाने है तो कभी किसी जानवर की मृत्यु को राष्ट्रीय महत्व की घटना बनाकर पर्यावरण की क्षति के प्रति रोष जताना है, तो कभी किसी फिल्मी सितारे की तेरहवीं से पहले ही भाईवाद, पितावाद, दादावाद करना है। तो कभी किसी लिचलिचे जोजियाए कुकुर की तरह पड़ोसी देशों का विरोध करते हुए राष्ट्रीय चेतना जगाने का मुजाहिरा भी करना है। जब आडम्बर और दिखावा असभ्य समाजों के नसों में प्रवेश कर जाए तो यह जीवनशैली में भी परिलक्षित होने लगता है। इसलिए आप पाएंगे कि प्रतिक्रिया में इसका वीभत्स रूप किसी गंदे नाले के पानी की तरह झाग फेंकते बाहर आता रहता है।

Wednesday, 17 June 2020

मनोरोगियों का समाज और हम - अभय कुमार

साभार - अभय

किसी के द्वारा आत्महत्या या आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाना उसके व्यक्तिगत मसलों से इतर समाज की भूमिका पर भी प्रश्नचिन्ह है। घर-परिवार और समाज से नकल और ढोंग करने की जो कला हमें विरासत में मिलती है उससे पता ही नहीं चलता कब हम ऐसे खेल का हिस्सा बन चुके हैं जिसके पीछे दुनिया पागल है।

नवउदारवादी विकासवाद ने आदमी को भर भर के सपने बेचे हैं और सपनों की दुनिया की धुआंधार मार्केटिंग भी की है। सिनेमा से लेकर साहित्य और समाज को गहरे से प्रभावित करने वाले हर माध्यम का इस्तेमाल उपरोक्त मार्केटिंग के लिए धड़ल्ले से किया गया है। दुनिया भर के सेल्फ हेल्प बुक्स, मोटिवेशनल स्पीचेस की दुकान और सफलता की रातों रात रेडीमेड सर्विस वाले कंटेंट के साथ-साथ चारों ओर सफलता-सफलता वाली चिल्लाहट ने आदमी को एक सेल्फ सेंट्रिक सक्सेस मैनियाक में बदल कर रख दिया है। उसके पास खाली "मैं" और "मेरे" के सिवा और कोई शब्द ही नहीं है। 

दिन-रात सक्सेस स्टोरीज़ के पीछे भागने वाले और दूसरों को प्रेरित करने के नाम पर अपनी दुकान चलाने वालों और उन पर आँख मू्ँद कर विश्वास करने वालों को शायद पता ही नहीं है कि दुनिया महज सफलता-असफलता का जोड़ नहीं है, इस बायनरी के ऊपर और नीचे भी दुनिया है। 

साधारणता को गाली बना देने वाले मार्केट में विशिष्टता की बोली खूब लगती है,इतनी कि खास होना कब आम हो गया पता ही नहीं चला। दुनिया भर के टैलेंट हंट शोज़ और सिविल सर्विसेस जैसी परीक्षाओं के बहाने बाजार ने बड़ी ही खूबसूरती से सफलता और विशिष्टता के नाम पर हिंसात्मक प्रतियोगिताओं की जमकर ब्रांडिंग की है और दुनिया के सामने खुद को साबित करने के नाम पर स्वयं के प्रति हिंसा और पागलपन का गजब का सॉफ्टवेयर आदमी के दिलो-दिमाग में फिट किया हुआ है। बड़े पैमाने पर उपरोक्त सॉफ्टवेयर से संचालित समाज के अधिकतर लोगों की वैचारिकी-टॉप रैंक सिक्योर करने, कोई प्रतिष्ठित एक्जाम क्रैक करने, लाखों के पैकेज पा लेने और तमाम तरह की लक्जरी के ढेर इकट्ठा कर लोगों के सामने गर्व से छाती चौड़ा कर लेने को ही सफलता मान लेने की धारणा पर टिकी होती है। उनके लिए "सेल्फ इज़ ऑल दैट आई शुड केयर" वाली भावना ही सब कुछ है। भले ही दुनिया के सामने खुद के परोपकारी और महान होने के ढोल पीटे जाएं। सच तो ये है कि स्वयं के प्रति हिंसा के फेर में अपने आस-परिवेश की बड़ी से बड़ी हिंसा और त्रासदी से उनको कोई फर्क नहीं पड़ता,फर्क पड़ने और संवेदनशील होने का दिखावा भले लाख कर लिया जाए। 

बात-बात में बुध्द और कलाम की फर्जी मोटिवेशनल लाइनें चिपकाने वाले और बड़ी से बड़ी ट्रेजेडी में भी पॉजिटिविटी खोज लेने वाले इन सफलता-पिपासुओं को लगता है कि दुनिया का सारा कारोबार केवल उन्हीं की सफलता-असफलता पर अटका हुआ है। जो इस रेस में नहीं हैं उन्हें बार-बार ये अहसास दिलाया जाता है कि अचीवमेंट्स के स्तर पर वो हीनतर हैं और जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण निम्नतर है। उन्हें बार-बार नकारात्मक और फ्रस्ट्रेटेड कहकर अपमानित किया जाता है और ऐसे लोगों की खूब खिल्ली उड़ायी जाती है। उनके भीतर की स्वाभाविकता और ईमानदारी का गला घोंटने का हर सम्भव प्रयास भी किया जाता है। ऐसे में कुछ सुविधाओं पर कब्जा कर लेने तथा सामान्य को तिरस्कृत कर विशिष्ट को महिमामण्डित करने की संस्कृति को सफलता कहकर बेशर्मी से प्रचारित करने और बेचने वाले समाज के लिए डिप्रेशन, मेंटल इलनेस, और सुसाईडल टेंडेंसीज़ जैसे बेहद गम्भीर और संवेदनशील मुद्दों को सीधे सीधे आदमी की कमजोरी बताकर अपनी क्रूरता और हिंसा को छुपा ले जाना आम  बात है। एक ऐसे समाज में जहाँ सफलता के उपरोक्त पैमाने पर खरा न उतरने वाले लोग समाज के लिए अछूत की तरह माने जाते हैं तब किसी सामान्य और सहज आदमी के लिए जीना या जी पाने की जद्दोजहद अपने आप में काफी संगीन मामला है। उसके लिए अपनी स्वाभाविकता और सहजता को क्रूर और हिंसक समाज के नुकीले नाखूनों से बचा ले जाना ही बहुत बड़ी चुनौती है। 

जो सुसाईड करते हैं या इस तरह का कोई भी प्रयास करते हैं वो किसी आसमान से नहीं आते,वो भी इसी समाज का हिस्सा है और सबसे कड़वी बात ये कि अधिकतर मामलों में लटकने वाली गर्दन तो उनकी होती है पर गर्दन के चारों तरफ का फंदा समाज और उसके परिवेश के तौर पर हम डिजाईन करते हैं। असल में देखा जाए तो आत्महत्या एक प्रक्रिया है जो आत्महत्या की घटना के बहुत पहले से ही चालू हो जाती है,आत्महत्या का कृत्य उस प्रक्रिया में बस मुहर लगाने का काम करता है और इस पूरी प्रक्रिया में सामाजिक कारकों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ऐसे में किसी की मृत्यु पर "RIP" कहकर अपनी जिम्मेदारी से बेहद चालाकी से बचकर निकल जाने तथा बात-बात में  मोटिवेशन और स्पिरिचुएलिटी की उल्टी करके अपने भीतर की सड़न को देखने तक से इनकार कर देने वाला समाज किसी की मृत्यु से उपजे सामाजिक अपराधबोध से भला कैसे मुक्त हो सकता है; कम से कम इतनी आसानी से तो बिल्कुल भी नहीं। किसी के जीवन की त्रासदी को उसकी व्यक्तिगत कमजोरी और हीनता का मसला बताकर धूर्ततापूर्वक पल्ला झाड़ लेने वाले ऐसे हर समाज को सबसे पहले अपने खून से सने हुए गिरेबान के भीतर झाँकने की सख़्त जरूरत है।

Tuesday, 9 June 2020

- सरकारी कार्यवाही और मेरा बचपन -

- सरकारी कार्यवाही और मेरा बचपन -

बचपन की यह बात साझा करने का मकसद सिर्फ इतना ही है कि जब भी आप सरकारी दमन या क्रूरता की कोई घटना आसपास देखें, किसी सरकारी कर्मचारी द्वारा आम लोगों को पीटता देखें, यौन शोषण का मामला देखें या ऐसी ही अन्य कोई अमानवीय घटना देखें और त्वरित प्रतिक्रिया स्वरूप विभागाध्यक्ष द्वारा अमुक सरकारी कर्मचारी को सस्पेंड होता देखें तो यह घटना याद कर लें।

जब मैं बहुत छोटा था तो खूब लडा़ईयाँ करता, मोहल्ले के झगड़ों की वजह से आए दिन मेरे लिए डंडे टूटा करते। पड़ोसी की जब पिटाई होती है, तो अड़ोसी की भी जिम्मेदारी बन जाती है कि वह मामले को शांत करने के लिए उचित प्रतिक्रिया दे। उदाहरण के लिए जैसे मैंने किसी से मारपीट की और घर तक शिकायत आ गई, तो फिर मेरे लिए डंडा टूटता, मार तब तक पड़ती जब तक मेरे आंसू न निकलते। जैसे ही मैं रोने वाला होता कि प्रतिद्वंद्वी लड़के की माता, दीदी, पिता जो कोई भी मेरे प्रतिद्वंद्वी के साथ वहाँ दर्शक के रूप में मौजूद होते, वे इतने भावुक होकर मेरे पिता को रोकते कि - "अरे! बच्चा है कितना ही मारेंगे, रहने दीजिए, बच्चों से गलती हो जाती है।" वे इतना कहकर अपने घरों को लौट जाते‌।

शिकायतकर्ताओं के जाने के बाद मेरे पिता जो कुछ देर पहले मुझे डंडे भांज रहे थे, वही फिर मेरी मरहम पट्टी करते और मेरी मनपसंद चीज मुझे खिलाते, उनका प्रेम पहले से दुगुना हो जाता। और जब कुछ दिनों के बाद मैं मानसिक रूप से तैयार हो जाता तो फिर से प्रतिद्वंद्वी के साथ लड़ाई और फिर से मेरी पिटाई, हिंसा का यह चेन अनवरत चलता रहता।

किसी सरकारी कर्मचारी के सस्पेंड होने और मेरी पिटाई के इस पूरे क्रम में समानता ढूंढिएगा। बच्चे को सरकारी कर्मचारी और पिता को विभागाध्यक्ष मान लीजिएगा। मानता हूं कि यह तुलना भयावह है, लेकिन हकीकत यही है।

Sunday, 7 June 2020

शाश्वत रिश्ते -

A - हमें यकीन नहीं हो रहा, तुम्हें सुन रहे।
B - कर लो यकीन।
A - पहले लगा था, बात करते करते रो देंगे।
B - अरे!
A - अब देखो हँस रहे, स्माइल जा नहीं रही चेहरे से।
B - चलो मैं लोगों को हंसाना सीख गया इन गुजरते सालों में।
A - हां, तुम कैसे हो?
B - मैं बिल्कुल ठीक हूं, आप?
A - मैं भी ठीक हूं, और क्या बात करें?
B - मुझे भी समझ नहीं आ रहा।
A - स्माइल ही आ रही।
B - मुझे यकीन ही नहीं हो रहा कि आप से ही बात हो रही।
A - बातें करना सीख गये हो।
B - कुछ शब्द जुड़ गये हैं, बाकी वही सब पुराना है।
A - हाँ वो पता है मुझे।
B - मुझे लगा था कि अब कभी बात नहीं होगी।
A - भूल गये थे?
B - नहीं, याद करता था, लेकिन आप तो गायब थे।
A - हां, क्या करूं।
B - एक अरसा हो गया, इतना लंबा समय।
A - मैं भी सोचती थी, तुम कब कांटेक्ट करोगे?
B - लो आज कर ही लिया।
A - हाँ, कब ठीक होगा ये सब रे?
B - लग जाएंगे दो ती‌न साल..
A - अरे मारेगो क्या तुम मेरे को..
B - कोरोना के लिए कहा..
A - अरे हाँ, फिर ठीक है, मैं समझ नहीं पाई।
B - या शायद मैं नहीं समझ पाया।
A - पागल।
B - क्या बोलूं और? आप ही बोल दो कुछ।
A - हम समझ नहीं पा रहे, क्या कहें।
B - काश पहले ही याद कर लेता, जल्दी सब ठीक हो जाता है न?
A - हां न।
B - मैं बहुत खोजा, आप मिले नहीं। संपर्क नहीं हो पाया।
A - हाँ ये तो है। क्या करती।
B - कभी-कभी याद करता था फिर खामोश सा हो जाता था।
A - अरे क्यों?
B - पता नहीं, ऐसे ही।
A - नटखट बच्चा।
B - बेटा नहीं बुलाओगे?
A - बुलाएंगे न...क्यों नहीं बुलाएंगे
B - इतने सालों से सुना नहीं।
A - अब सुनोगे।
B - ...
A - कुछ लोग फोन करते थे
B - अच्छा
A - मैं सोचती थी, बेटा भूल गया?
B - लो आज याद कर लिया।
A - क्या नया हुआ इस बीच?
B - दो किताबों में नाम छपा इस अभागे का?
A - हट, अभागा नहीं बोलते..
B - बस जो कह के सुनाता था, वो कागजों में है।
A - हमें कब दोगे किताब, बताओ?
B - जब आप चाहें, बस ये सब सामान्य हो जाए।
A - हम अब पढ़ तो नहीं पाते, हाँ लेकिन तुम्हें जरुर पढ़ेगें।
B - 😊

Saturday, 6 June 2020

Jio Addiction

जियो का नशा -

जियो ने सबसे पहले बहुत से सरकारी संस्थानों, पार्क आदि में जियोफाई बनने का काम किया, सिम तो बाजार में बाद में आया। शायद जियोफाई, जियो के सिम को लाने के लिए एक ट्रायल रहा होगा। क्योंकि जियोफाई की स्पीड इतनी जबरदस्त रही कि पार्क आदि में घंटों बस उस स्पीड का आनंद लेने के लिए लोगों की भीड़ देखते बनती थी। "इंटरनेट का लुफ्त उठाते युवा" बकायदा ऐसी न्यूज बनती थी वो भी धड़ल्ले से, क्यों ये सब होता था, समझदार के लिए इशारा काफी है। इस देश में जनगणना सर्वे के अलावा भी हजारों ऐसे सर्वे होते रहते हैं जो बड़ी मासूमियत से आपकी निजता को दीमक की तरह खोखला कर रहे होते हैं। लोकतंत्र के समस्त स्तंभों की क्रूरता समझने के लिए यह एक बहुत बढ़िया उदाहरण है। मदारी, नायक, गंगाजल, रेड, स्पेशल 26, जाॅली एलएलबी जैसी भ्रष्टाचार आधारित कबाड़ फिल्में इस क्रूरता को छिपाने के लिए एंटीडोट की तरह काम करती हैं।

एक दिन फिर मार्केट में जियो का सिम आता है, टेक्नोलॉजी के कीड़े जिन लोगों ने शुरुआत में सिम लिया, उन्होंने बताया कि काल इंटरनेट सब कुछ फ्री है, सिम भी फ्री है, अनलिमिटेट इंटरनेट है, धासू स्पीड है, लोग पागल हुए जा रहे थे, मुझे यह सब देखकर भयंकर हंसी आ रही थी और साथ ही उस फोकटछाप डेटा वितरण के पीछे की खतरनाक मंशा भी साफ दिखाई दे रही थी, तब हँस ही सकते थे। अंबानी रातों रात इंटरनेट के कीड़ों के भगवान बन चुके थे। एक ने बताया कि उसने एक दिन में 50 GB से अधिक की फिल्में आदि डाउनलोड कर ली। यहाँ तक सब कुछ अनलिमिटेड ही रहा, फिर दिखना शुरू हुआ जियो के नशे का असली स्वरूप। अब एक दिन में अनलिमिटेड डाउनलोड की लिमिट 30 GB कर दी गई, फिर 10 GB कर दी गई, फिर 4 GB और फिर शायद 2 GB में आकर मामला रूक गया। तब तक जियो के सिम का नशा मार्केट में फैल चुका था, बाकी सारी सिम कंपनियां प्रतिस्पर्धा से बाहर। और फिर जब सबको नशे की लत लगा दी तब जियो ने वापस अपने पैसे वसूलने शुरू कर दिये।


Thursday, 4 June 2020

एक प्रतियोगी परीक्षा के छात्र की गाथा -

अगर पाठक भावुक कर देने वाले किसी लेख की उम्मीद में हैं तो आपको इस लेख का पहला पैराग्राफ ही निराश कर सकता है, इसलिए आप यहीं से पढ़ना बंद कर सकते हैं।
एक प्रतियोगी परीक्षा का छात्र ग्रेजुएट होने के बाद जिस दिन सरकारी नौकरी की चाह में कोंचिग/ट्यूशन लेना शुरू करता है। पहले दिन से ही उसके भीतर की अभूतपूर्व संभावनाओं का ह्रास होना शुरू हो जाता है। प्रतियोगिता शब्द का महत्व उसे पहले दिन से ही समझा दिया जाता है कि यह एक ऐसी लंबी रेस है, जिसमें पूरी सहजता से, विनम्रता से अपने आसपास के वातावरण को, उसमें उपस्थित सभी तत्वों को नजरअंदाज करते हुए आगे बढ़ना है। उतना ही देखना सुनना जानना है जितना आपकी इस रेस के लिए आवश्यक है। इसके अलावा आपको निरंतर छंटनी करने की प्रक्रिया से गुजरना है। 

आगे बढ़ने की इस कसौटी में आपको सबसे पहले अपनी सामाजिकता गिरवीं रखनी होती है। परिवार, मित्र, समाज इन सबको कुछ समय के लिए किनारे रखना होता है, क्योंकि इस अंधी रेस में अमूमन माना‌ यह जाता है कि आप जिस समाज का हिस्सा हैं वह इतना असंवेदनशील है कि वहाँ ये तत्व आपकी बेशकीमती पढ़ाई में आवश्यक व्यवधान पैदा करने के लिए ही बने हुए हैं। यह मानते हुए भी छात्र समाजशास्त्र का क,ख,ग समझ लेता है। पढ़ाई के दौरान ऐसे विरोधाभास आपको हर शास्त्र में मिलते हैं चाहे वह भौतिकशास्त्र हो, खगोलशास्त्र हो, राजनीति शास्त्र हो, अर्थशास्त्र हो या फिर दर्शनशास्त्र। आप इन विरोधाभासों के बीच बुरी तरीके से उलझते जाते हैं, लेकिन आपको इसका इंच मात्र भी आभास नहीं होने दिया जाता है क्योंकि नौकरी पा लेने की महत्वाकांक्षा को आपके मस्तिष्क में एक ऐसे चिप की भांति फिट कर दिया जाता है जो समय-समय पर आपके लिए खाद पानी का काम करता है, लेकिन उसकी भी एक सीमा होती है। आपके भीतर जो संभावनाओं के भ्रूण पैदा हो सकते थे, वे जन्म से पूर्व ही मृत्यु को प्यारे हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में अपने भीतर की संभावनाओं को मूर्त रूप में बचाना ठीक कुछ वैसा ही है कि पानी में आप तैर भी रहे हैं और अपने शरीर में आपको पानी की बूंदों का स्पर्श तक नहीं चाहिए।

एक प्रतियोगी छात्र अपने पूरी तैयारी के दौरान अगर किसी शब्द से सबसे ज्यादा मुखातिब होता है तो वह है "वस्तुनिष्ठ" या "आॅब्जेक्टिव" । मूलमंत्र यह है कि जितना वह वस्तुनिष्ठ प्रश्नों से धींगामुस्ती करेगा, उसके प्रमेय को समझेगा, उतनी शीघ्रता से वह कुछ हासिल कर जाएगा। लेकिन इसमें भी आप विडम्बना देखें कि वह आजीवन इस शब्द का का मर्म ही समझ नहीं पाता है। क्योंकि संभावनाओं के समुद्र को सोखने की तैयारी पहले दिन से ही शुरू हो जाती है।

उदाहरण के लिए देखें कि एक प्रतियोगी छात्र के सम्मुख किताबों के बाद दूसरी सबसे जरूरी चीज न्यूजपेपर होती है। न्यूजपेपर पढ़ने की भी उसे कला बताई जाती है, यहाँ भी उसे नजरबंद किया जाता है, जैसे आपको सिर्फ रूटिन तरीके से संपादकीय ही पढ़ना है और इसके अलावा देश-विदेश, खेल और अर्थशास्त्र से जुड़ी कुछ छुटपुट खबरें। इसके अलावा आपको देश, समाज, मोहल्ले की तमाम घटनाओं को पढ़ना छोड़िए, उनके प्रति उपेक्षा रखनी होती है, प्रतिक्रिया देना तो दूर की बात हो गई, आपको सोचने की भी मनाही होती है, क्योंकि इससे आपके मशीन बनने का कोई खास संबंध नहीं होता है। वास्तव में होना यह चाहिए कि आपको दृष्टा भाव से वस्तुनिष्ठता के साथ घटनाओं को देखना सीखाना चाहिए लेकिन होता इसका उल्टा है आपको सबजेक्टिव बनाया जाता है, गलती से कहीं आप सबजेक्ट से अलग भटकने का प्रयास भी करते हैं तो आपको उलाहना दी जाती है, ताकि आप सीधे से लाइन पर आ जाएं। यहीं से आपकी ऑब्जेक्टिविटी की धज्जियाँ उड़नी शुरू हो जाती है।

वस्तुनिष्ठता को लेकर अभी हाल-फिलहाल का एक उदाहरण देता हूं-
मेरा एक बचपन का मित्र है, मित्र कम भाई ज्यादा है, रेल्वे में कार्यरत है, अभी जब ट्रेन में हो रही अव्यवस्थाओं की वजह से सैकड़ों मजदूरों की मौत हुई, तो उस पेपर कटिंग को मैंने सोशल मीडिया में अपलोड किया, मेरे मित्र की प्रतिक्रिया यह रही - "हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, हमें स्याह पहलू को हटाकर, उस अच्छे पहलू को भी देखना चाहिए कि लाखों मजदूर घर भी तो पहुंचे हैं।" मैं अपने मित्र की इस प्रतिक्रिया से अवाक रह गया। मैंने जवाब में कहा - कहो तो घर पहुंचने वाले लोगों की संख्या से मौतों की संख्या को भाग देकर प्रतिशत निकालें। सीधी सपाट चीज है, हम ऐसे क्यों हो गये हैं कि एक इंसान की मृत्यु भी हमें दिखाई नहीं देती है, मृत्यु मृत्यु है बस, अब हम इसमें भी ऐसे सिक्के पहलू जैसे बेफिजूल के तर्क घुसेड़ेंगे क्या। मित्र ने फिर कहा - रेल्वे की जो क्षमता है वह उस हिसाब से अपना बेस्ट दे रही है। मित्र के इस जवाब के बाद मेरे पास अब बोलने के लिए कुछ नहीं रह गया था। गलती मेरे मित्र की भी नहीं है, वह सिस्टम का हिस्सा बन चुका है, वह उतना ही सोच पाता है, जितना उसे सोचने के लिए कहा जाता है, सोच के स्तर पर भी वह सीमा नहीं लांघ पाता है। अन्यथा एक रेल्वे कर्मचारी से इतर उसके भीतर का एक आम इंसान यह कहता कि इतने लोगों की मौत एक बहुत बड़ी मानवीय चूक है, रेल्वे के लिए यह शर्मिंदगी का विषय है, रेल्वे को इसके लिए बकायदा माफी माँगनी चाहिए। वह शोक जताता, पीड़ा होती उसे, यह पीड़ा उसके शब्दों से उभर कर आती, एक रेल्वे कर्मचारी होने के नाते वह ग्लानि से भर जाता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, उल्टे उसने जस्टिफाई किया, क्योंकि चीजों को जस का तस देखने के विरूध्द जो आवश्यक प्रतिबंध होते हैं वह व्यवस्था ने बहुत पहले ही उस पर लगा दिए हैं। दोष उसका नहीं है, उसकी ट्रेनिंग ही ऐसी हुई है। इसलिए वह चाहकर भी आॅब्जेक्टिव नहीं हो पाता है, शायद सबजेक्टिव होना ही उसकी नियति में है।

वास्तव में देखा जाए तो सही को सही और गलत को गलत देखना एक प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे छात्र की डिक्शनरी में होता ही नहीं है, भले वह इनके होने करने का प्रपंच कर सकता है, लेकिन धरातल में ऐसा कुछ नहीं होता है। असल में उसकी डिक्शनरी में होती है विवेचना, समालोचना, चैक एंड बैलेंस, योग्यता, सफलता और इस जैसी ढेरों लोकलुभावन शब्दावलियाँ, जो आगे जाकर उसे मशीनरी में फिट करती हैं, जिसकी वह आजीवन पालना करता है।

जिजीविषा से भरे, कुछ विरले, कुछ एक अपवाद स्वरूप मेरे मित्र हैं, जो सरकारी नौकरी में हैं, वे बार-बार कहते हैं हमारी ट्रेनिंग में ही हमें शोषणकारी तंत्र की पृष्ठभूमि समझा दी जाती है, असल‌ में प्रबंधन के नाम पर हम कुप्रबंधन के विशेषज्ञ होते हैं। हमें ईशारों में ही समझा दिया जाता है कि व्यवस्था के नाम पर हमें निरंतर अव्यवस्था को सुचारू रूप से संभालना है। हमें वस्तुस्थिति को "दृष्टा भाव" से नहीं वरन् "समता भाव" से देखना होता है, ट्रेनिंग के दौरान ही जब हमें यही सब सिखाया जाता है तो आगे जाकर हममें से अधिकांश लोग दफ्तर या फील्ड में क्या क्या करते होंगे अंदाजा लगा लीजिए। मैं उनकी इस बात पर असहमति जताते हुए इतना ही कहूंगा कि "आपकी ट्रेनिंग उसी दिन से शुरू हो जाती है जब आप सरकारी नौकरी की तैयारी के इस दलदल में कूदते हैं, ट्रेनिंग ऐसा औपचारिक पड़ाव है, जहाँ आपके व्यक्तित्व का अंतिम प्रमाणीकरण होता है।"

- एक भूतपूर्व प्रतियोगी छात्र 

Wednesday, 3 June 2020

The Magical Abbas Kiarostami

It takes me almost half an hour just to understand the depth of work behind this five minute footage..while watching the movie, its very intriguing and confusing too whether to focus on the beautiful conversation between these two gems or the jaw dropping camera work within the surface of a car glass in which one can witness the raw beauty of the countryside.