आप भी तो गोपाल शर्मा हैं!
आप सब जो जनवरी 30 को अनायास ही गाँधी की हत्या याद करने पर उतारू हो जाते हैं, सब गोपाल शर्मा की तरह साम्प्रदायिक और उन्मादी लोग हैं। कल मुर्शिदाबाद में तृणमूल के लोकल नेता तहीरुद्दीन ने सीएए विरोधी भीड़ पर खुलेआम गोली चला दी। 2 लोग मारे भी गए। लेकिन कल तो गोडसे का हल्ला नहीं मचा था। इसके पहले भी दिल्ली में लाइसेंसी बंदूक लहराई गई थी। तब तो देश फासीवादी नहीं हुआ था।
यह गाँधी गोडसे का रोना कब तक चलेगा? एक 78 साल के वृद्ध को राजनीतिक असहमति पर गोली मारने वाला वीर तो नहीं हो सकता। न ही वह किसी चिंतन के ही लायक है। फिर भी 1948 से लेकर आजतक गाँधी के हत्यारे को किसने ज़िन्दा रखा हुआ है? नाथूराम गोडसे की कहानी तो नवंबर 15, 1949 को खत्म हो गई थी। यह कहने का जोखिम कौन उठाएगा कि गाँधी की हत्या के बहाने कांग्रेसी व्यवस्था के अंतर्गत भारतीय राज्य ने गोडसे को ज़िन्दा रखे रखा?
मुझसे पूछिये तो मैं बड़ी सरलता से यह तर्क इतिहास के हवाले कर सकता हूँ कि गाँधी अगर अपनी मौत मरते तो वे अपने जीवन में ही नेहरूवादी राज्य के सबसे बड़े शत्रु बन गए होते। वो जो गाँधी का 125 बरस जीने का सपना था अगर वो पूरा हुआ होता तो गाँधी 1994 तक जीवित रहते। अब समकालीन इतिहास का विद्यार्थी जिसने गाँधी का ग भी पढ़ा है वह यह अटकले लगाता रहे कि गाँधी कहाँ कहाँ सत्याग्रह करते रहते और कितनी ही बार भारत सरकार की जेलों में जाते। मुझसे पूछिये तो गाँधी का 'महात्मा' बनने का रास्ता उनकी हत्या से निकलता है और वहाँ नाथूराम से बातचीत करनी ही पड़ेगी। नेहरू से लेकर मौलाना फलाना सबकी मुश्किलें इस नाथूराम ने आसान कर दी थी।
अब दूसरी बात। गाँधी की हत्या केवल राजनीतिक थी। न वह आखिरी ऐसी घटना थी न ही पहली। हर नाथूराम के लिए आपको इतिहास में कोई अब्दुल रशीद या कोई इलमुद्दीन मिल जाएगा। अब्दुल रशीद और इलमुद्दीन से आप खुद ही जान-पहचान कर लीजिए। दिक्कत है कि राजनीतिक हत्या बस हत्या रहे और हर हत्या निंदनीय हो तब ठीक। आप जैसे किसी गाँधी की जान को किसी श्रद्धानंद की जान से अधिक जरूरी बताने लगते हैं, मुश्किल बढ़ जाती है। साथ ही इलमुद्दीन के हाथों हुई हत्या उसे अलामा इक़बाल की वाहवाही भी तो दिलवा देती है। इस अंतर को समझना होगा।
यह 19 साल का गोपाल अपने किए की भुगतेगा। साथ ही तहीरुद्दीन भी भुगते। शरजील को भी सजा मिले। जो भी 'रूल ऑफ लॉ' के खिलाफ है उसे कानून सजा देती जाती और आप लोग यह एक तरफी हवा नहीं बहाते तो इस ख़बर को कभी सामने न आना पड़ता। फिर आप ही कहते नहीं थकते कि गाँधी ने गोडसे को हरा दिया तो हारे हुए गोडसे से आप इतने क्यों परेशान दिखाई देते हैं। गोडसे को हर बार आप सामने ले आते हैं और फिर हंगामा खुद ही बरपा करते हैं। इस गोपाल के साथ तहीरुद्दीन कि तस्वीर भी लगा दीजिए तो बातों में संतुलन आ जायेगा।
द्वारा - शान कश्यप (जेएनयू)
आप सब जो जनवरी 30 को अनायास ही गाँधी की हत्या याद करने पर उतारू हो जाते हैं, सब गोपाल शर्मा की तरह साम्प्रदायिक और उन्मादी लोग हैं। कल मुर्शिदाबाद में तृणमूल के लोकल नेता तहीरुद्दीन ने सीएए विरोधी भीड़ पर खुलेआम गोली चला दी। 2 लोग मारे भी गए। लेकिन कल तो गोडसे का हल्ला नहीं मचा था। इसके पहले भी दिल्ली में लाइसेंसी बंदूक लहराई गई थी। तब तो देश फासीवादी नहीं हुआ था।
यह गाँधी गोडसे का रोना कब तक चलेगा? एक 78 साल के वृद्ध को राजनीतिक असहमति पर गोली मारने वाला वीर तो नहीं हो सकता। न ही वह किसी चिंतन के ही लायक है। फिर भी 1948 से लेकर आजतक गाँधी के हत्यारे को किसने ज़िन्दा रखा हुआ है? नाथूराम गोडसे की कहानी तो नवंबर 15, 1949 को खत्म हो गई थी। यह कहने का जोखिम कौन उठाएगा कि गाँधी की हत्या के बहाने कांग्रेसी व्यवस्था के अंतर्गत भारतीय राज्य ने गोडसे को ज़िन्दा रखे रखा?
मुझसे पूछिये तो मैं बड़ी सरलता से यह तर्क इतिहास के हवाले कर सकता हूँ कि गाँधी अगर अपनी मौत मरते तो वे अपने जीवन में ही नेहरूवादी राज्य के सबसे बड़े शत्रु बन गए होते। वो जो गाँधी का 125 बरस जीने का सपना था अगर वो पूरा हुआ होता तो गाँधी 1994 तक जीवित रहते। अब समकालीन इतिहास का विद्यार्थी जिसने गाँधी का ग भी पढ़ा है वह यह अटकले लगाता रहे कि गाँधी कहाँ कहाँ सत्याग्रह करते रहते और कितनी ही बार भारत सरकार की जेलों में जाते। मुझसे पूछिये तो गाँधी का 'महात्मा' बनने का रास्ता उनकी हत्या से निकलता है और वहाँ नाथूराम से बातचीत करनी ही पड़ेगी। नेहरू से लेकर मौलाना फलाना सबकी मुश्किलें इस नाथूराम ने आसान कर दी थी।
अब दूसरी बात। गाँधी की हत्या केवल राजनीतिक थी। न वह आखिरी ऐसी घटना थी न ही पहली। हर नाथूराम के लिए आपको इतिहास में कोई अब्दुल रशीद या कोई इलमुद्दीन मिल जाएगा। अब्दुल रशीद और इलमुद्दीन से आप खुद ही जान-पहचान कर लीजिए। दिक्कत है कि राजनीतिक हत्या बस हत्या रहे और हर हत्या निंदनीय हो तब ठीक। आप जैसे किसी गाँधी की जान को किसी श्रद्धानंद की जान से अधिक जरूरी बताने लगते हैं, मुश्किल बढ़ जाती है। साथ ही इलमुद्दीन के हाथों हुई हत्या उसे अलामा इक़बाल की वाहवाही भी तो दिलवा देती है। इस अंतर को समझना होगा।
यह 19 साल का गोपाल अपने किए की भुगतेगा। साथ ही तहीरुद्दीन भी भुगते। शरजील को भी सजा मिले। जो भी 'रूल ऑफ लॉ' के खिलाफ है उसे कानून सजा देती जाती और आप लोग यह एक तरफी हवा नहीं बहाते तो इस ख़बर को कभी सामने न आना पड़ता। फिर आप ही कहते नहीं थकते कि गाँधी ने गोडसे को हरा दिया तो हारे हुए गोडसे से आप इतने क्यों परेशान दिखाई देते हैं। गोडसे को हर बार आप सामने ले आते हैं और फिर हंगामा खुद ही बरपा करते हैं। इस गोपाल के साथ तहीरुद्दीन कि तस्वीर भी लगा दीजिए तो बातों में संतुलन आ जायेगा।
द्वारा - शान कश्यप (जेएनयू)
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