आज से ठीक 10 साल पहले इन घरों को, इन ईमारतों को, ये सुंदर तालाब और उनके किनारे सजी तरह-तरह की दुकानें, ये गलियाँ, ये चौबारे, इस पूरे शहर को मैं जिस नजर से देखा करता था, लगता है अब वह नजर कहीं खो सी गई है। सब कुछ जानने समझने के दंभ और चाह की वजह से शायद हम छोटी-छोटी खुशियों को जीना ही भूल गये हैं। आज ऐसा लगता है जैसे इस शहर में कुछ नयापन कुछ ताजगी है ही नहीं, या कहीं ऐसा तो नहीं कि आंखों के सामने सब कुछ धुंधला सा हो गया हो, या दिखना ही बंद हो गया हो। क्योंकि दस साल पहले तो इतनी समझ भी नहीं थी, शायद इसलिए भी एक अलग तरह की ताजगी थी उस दरम्यान। किन-किन शब्दों से बयां किया जाए आखिर उस अहसास को, जो पहली बार एक बड़े शहर में कदम रखने पर मिलता है, कांच की खिड़की नीचे कर बारिश की हल्की फुहारों के बीच बाहर ताकते हुए, उस शहर को देखते हुए मानो एक अलग ही किस्म की रचनात्मकता मन में हिलोरें मार रही होती है। ठीक कुछ वैसी ही जैसे पहली बार साइकिल में पैडल जमाना सीख लेना, या फिर बाइक में संतुलन बना लेना, या फिर वो पहली दफा पानी में हाथ-पाँव मारते तैराकी सीखना। कुछ ऐसी ही सृजनात्मकता महसूस होती है।
No comments:
Post a Comment