Thursday, 30 May 2024

एक बीजेपी समर्थक व्यापारी दोस्त की जुबानी -

मैं वर्तमान सरकार का समर्थक हूं। मेरी यह इच्छा है कि इस बार भी केन्द्र में सरकार बने और बनेगी भी, मुझे इस बात को लेकर पूरा विश्वास है। लेकिन मेरी एक समस्या यह है कि किसी भी हाल में मोदी-शाह के हाथों सत्ता नहीं जानी चाहिए। आप कहेंगे कि मैं खुद उस व्यापारी बिरादरी का हूं फिर भी अपने बिरादरी के लोगों के खिलाफ कैसे बात कह रहा हूं। असल में बात ऐसी है कि हम व्यापारी लोग भले कहीं भी पहुंच जाएं, कितने भी बड़े नेता अधिकारी हो जाएं, हम लाभ हानि से आगे नहीं सोच पाते हैं। हमारा जीवन इसी के ईर्द-गिर्द होता है। हमारी बचपन से जो परवरिश होती है, परिवार में जो हमें सिखाया जाता है, उसका सार यह है कि अगर आपके पास पैसा नहीं है, आप आर्थिक रूप से भयानक मजबूत नहीं है तो आपका बाप भी आपका सगा नहीं है, हमारे यहां ऐसा ही होता है साहब। बाकी समाजों में बच्चों की अलग-अलग तरीके से ट्रेनिंग होती होगी, लेकिन हम बचपन से लाभ हानि ही सीखते हैं, हम कहीं भी चले जाएं ये तत्व हमारे खून में हमारे डीएनए में होता है। हममें एक ही जगह लंबे समय तक बैठने का हुनर है, आप इसे इस तरह से भी देख सकते हैं कि एक ही जगह घुन की तरह बैठने का काम हमारे ही हिस्से आता है। हमारे डीएनए में खेती बाड़ी नहीं है, हम एक जगह बैठकर काम करना ज्यादा पसंद करते हैं, हम यहां जोखिम उठाते हैं। सबके अपने-अपने जोखिम हैं, सबका अपना-अपना संघर्ष हैं। हमारे व्यापारियों में भी आप देखेंगे तो दिल्ली में खत्री हैं, राजस्थान में मारवाड़ी हैं, कुछ क्षेत्रों में कम अधिक संख्या में सिंधी जैन आदि हैं, लेकिन इनमें जो सबसे क्रूर आपको मिलेंगे वे गुजरात के लोग मिलेंगे। इनमें मुद्रा को लेकर जो भयावह किस्म का सनकीपन आपको दिखेगा, ये और कहीं न मिलेगा। नीरव मोदी से लेकर हर्षद मेहता और ऐसे न जाने कितने नाम है, सब के सब गुजराती, पैसे को लेकर एक अजीब का वहशीपन। एक तरह से आप ये कह सकते हैं कि जो मैंने कहा कि पैसे के लिए बाप बेटे का सगा नहीं, वह इन पर ही सबसे ज्यादा लागू होता है। क्या नैतिकता, क्या मानवीयता, क्या परिवार, क्या लोक-कल्याण, इनके लिए यह सब फालतू चीज हुई। बाकी जगह आपको ये तत्व मिल जाएंगे लेकिन गुजरात का व्यापारी वर्ग अलग ही खून का है। अब इसे इत्तफाक कहिए या दुर्भाग्य कहिए कि इस देश के राष्ट्रपिता का तमगा भी एक गुजराती के हिस्से है। और अब सत्ता में भी वही एक गुजराती है जो दिन रात अपने गुजरातीपने को दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ता है।

कहा जाता है कि हमारे देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था है। लेकिन अगर आप ध्यान से पिछले 10 साल को देखेंगे तो आप पाएंगे कि देश की अर्थव्यवस्था मिश्रित नहीं बल्कि पूरी तरह से गुजरात माॅडल पर चल रही है। देश न भाजपा के सिध्दांतों पर चल रहा है न ही संघ के सिध्दांतों पर चल रहा है, यह सिर्फ और सिर्फ लाभ-हानि के सिध्दांत पर चल रहा है। और इसका सबसे ज्यादा नुकसान तो हम छोटे मझौले व्यापारी झेल रहे हैं, हम अपना दुःख दर्द किसी को बता ही नहीं सकते कि हमारा कैसे चौतरफा शोषण हो रहा है। यूं समझिए कि गुजरातियों में emotional quotient सबसे कम होता है और व्यापार सबसे ज्यादा। इन सब कारणों की वजह से मैं दिल से चाहता हूं कि देश कभी भी गुजरातियों को नहीं चलाना चाहिए क्योंकि ये लाभ हानि से आगे चीजों को देख ही नहीं पाते हैं और देश लाभ हानि के सिध्दांत पर नहीं चलता है, देश परचून की दुकान नहीं है। 



Wednesday, 29 May 2024

Workoholic People Symptoms -

1. वर्कोहाॅलिक व्यक्ति आत्ममुग्धता से ग्रसित होते हैं।
2. ये अपने को श्रेष्ठ और सारी दुनिया को परले दर्जे का मूर्ख समझते हैं।
3. इनके व्यक्तिगत जीवन में भयानक उतार-चढ़ाव होता है, जिसकी भरपाई ये काम करते हुए करने की कोशिश करते हैं।
4. पारिवारिक जीवन में बहुत समस्याएं होती हैं, इस कारण से जबरन काम करते रहना ही इनका इष्ट बन जाता है।
5. ये खुद जान बूझकर अतिरिक्त काम करते हैं या ऐसा करने का दिखावा करते हैं जिसकी कभी आवश्यकता नहीं होती है।
6. जरूरत से अधिक काम करते हुए दूसरों के लिए समस्या पैदा करना इनका प्रिय शगल होता है। 
7. ये अजीब किस्म के सिरफिरे होते हैं, इन्हें लगता है यही दुनिया में सही हैं, इस कारण से दूसरों का दुःख दर्द ये कभी नहीं देख पाते हैं।
8. ये जहां भी रहते हैं, वहां ये सबसे बड़े चाटुकार होते हैं। इस मामले में कोई इनके पासंग नहीं होता है।
9. इस तरह के लोगों से समाज को लाभ कम और नुकसान अधिक होता है। 
10. चूंकि ये काम कम और काम करते रहने का दिखावा अधिक करते हैं इस वजह से ये अपने सहकर्मियों को अनावश्यक प्रताड़ित करते रहते हैं।
11. ये एक अच्छे चाटुकार होने की सभी आवश्यक शर्तों को पूरा करते हैं।
12. इनके लिए क्या दिन क्या रात, हमेशा वर्क मोड में ये आपको मिलेंगे, क्योंकि इसके अलावा इनके जीवन में कोई दूसरी बेहतर चीज होती ही नहीं है।
13. इस तरह के लोगों का व्यक्तिगत जीवन इतना चौपट होता है कि ये पांच मिनट भी अकेले शांति से बिता नहीं सकते। इन्हें बैचेनी होने लगती है।
14. किसी एक बीमारी की तरह काम को ही जीवन मरण का प्रश्न बना देने वाले इन‌ लोगों का पुरजोर इस्तेमाल किया जाता है, इन्हें इसमें मजा भी आता है।
15. ये भयानक कमजोर, डरपोक और हल्के किस्म के होते हैं। तभी वर्कोहाॅलिक बनकर श्रेष्ठताबोध को जीने की कोशिश करते हैं। 
16. इनके दोस्त यार करीबी कोई होते ही नहीं है, कोई ऐसा नहीं होता जो दुःखहर्ता की तरह इनका हाथ थाम ले और गले लगाकर कहे कि सब ठीक है, क्योंकि इनमें इंसानी रिश्तों की रत्ती भर समझ नहीं होती है। 
17. इनका मन अधिकांशतः अशांत ही होता है, इसलिए ये दूसरों को भी तोहफे में यही दे रहे होते हैं। 
18. ये लोग न अपना भला करते हैं, न दूसरे का भला करते हैं, जहां रहते हैं, बस लोगों को सिवाय बैचेनी और तनाव के और कुछ नहीं देते। क्योंकि खुद उसी में आकंठ डूबे रहते हैं। 
19. अमूमन देखने में आता है कि ये भाषाई दरिद्रता के धनी लोग होते हैं। 
20. ये आजीवन इसी भ्रम में जीते हैं कि ये अपने काम‌ को लेकर बहुत जुनूनी किस्म के‌ हैं, जबकि वास्तव में ये अपने भीतर की असुरक्षा को जी रहे होते हैं। 

सामान्य मनुष्यों को चाहिए कि अपने बेहतर स्वास्थ्य के लिए इस बीमार प्रजाति से हमेशा एक निश्चित दूरी बनाकर रखें।

Sunday, 26 May 2024

राम भरोसे सारंगढ़ -

छत्तीसगढ़ का यह एक छोटा सा शहर है। शहर की अपनी सबसे बड़ी पहचान यह कि यहां के जो राजपरिवार के एक राजा हुए वे अविभाजित मध्यप्रदेश के एकलौते आदिवासी मुख्यमंत्री रहे, भले कुल जमा 13 दिन के लिए मुख्यमंत्री रहे लेकिन इतने में ही क्षेत्र को ठीक-ठाक पहचान मिल गई। रियासतों के दिन लदने वाले थे और अब लोगों के पास लोकतंत्र नामक व्यवस्था थी। वैसे यह लोकतंत्र की खूबसूरती ही कही जाएगी कि राजा होने से बड़ी पहचान इलाके से निकले मुख्यमंत्री के होने पर होती है। 

दूसरी एक पहचान यहां का एक सांस्कृतिक कार्यक्रम गढ़ विच्छेदन है। रियासतकाल से ही (लगभग 200 वर्षों से) विजयदशमी पर्व पर होने वाला यह कार्यक्रम जारी है। मिट्टी का एक टीला/गढ़ बनता है, उस पर लोग चढ़ाई करते हैं, ऊपर खड़े रक्षक चढ़ने नहीं देते, जो इन बाधाओं को पार कर ऊपर चढ़ जाता है, वह विजयी घोषित होता है, एक बार तो यह देखा ही जाना चाहिए। बाकी यहां के स्थानीय लोग खूब पूजा-पाठ करते हैं, छोटे से कस्बे में अलग-अलग तरह के ढेर सारे मठ-मंदिर हैं, यहां की अपनी एक अलग सांस्कृतिक आबोहवा तो है ही।‌ 

इतिहास और संस्कृति की इन बातों को किनारे कर वर्तमान को देखा जाए तो राष्ट्रीय राजमार्ग से पांच किलोमीटर अंदर बसा यह छोटा सा कस्बा अपने अतीत को लेकर ही लहालोट होता रहता है, सपने बुनता रहता है, कभी-कभी चीखता है, नाराज भी होता है, लेकिन इसके हिस्से कुछ खास आता नहीं है, अभी हाल फिलहाल में सरकार बहादुर ने इलाके को जिले का तमगा दे दिया गया है। सारंगढ़-बिलाईगढ़ नाम से बना यह‌ जिला प्रदेश का एकलौता ऐसा जिला है जो न सिर्फ दो जिलों ( रायगढ़ और बलौदाबाजार-भाटापारा ) से अलग होकर बना है बल्कि दो संभागों ( रायपुर और बिलासपुर ) से भी अलग हुआ है। 

जबसे यह क्षेत्र जिले के रूप में अस्तित्व में आया तो कोई खुश हो न हो इसके दोनों मातृ जिले बेहद खुश हैं। वहां के लोगों को, खासकर बड़े अधिकारियों को इस बात की बड़ी खुशी रहती है कि पीछा छूटा इस समस्या से। बलौदाबाजार के बाशिंदे बिलाईगढ़ को एक गले की हड्डी की तरह मानते रहे हैं और रायगढ़ वासियों के लिए सारंगढ़ गले की हड्डी था। दो गले की हड्डियां एक हो गई और जिले का स्वरूप दे दिया गया। मातृ जिले के लोग कहते हैं कि हम जमीन आसमान एक कर लेंगे लेकिन इन‌ इलाकों में कभी कुछ ढंग का काम कराया ही नहीं जा सकता है, ये हमेशा रिजल्ट खराब करने वाले इलाके हुए। खैर, मेरी इस बात से पूरी सहमति नहीं है क्योंकि आंचलिकता, भूगोल, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, सिविक सेंस और ऐसी बहुत सी चीजें होती है, जिनका ध्यान रखकर चीजों को साधना होता है। गले की हड्डी का तमगा देने से बेहतर आश्रित जिले का तमगा जरुर देना चाहिए क्योंकि इस जिले को दो मोटे डीएमएफधारी जिलों की विशेष कृपा पर छोड़ दिया गया है। इस कारण से मातृ जिले आज भी इस नए जिले से कम अधिक सौतेला व्यवहार ही करते हैं, शायद नियति को भी यही मंजूर है। 

भारत के बहुत से इलाकों में संबोधन में राम-राम चलता है लेकिन यहां पालागी खूब चलता है। यहां के बोलचाल में अपनी बात की पुष्टि करने के लिए अंत में " कि " जोड़ना नहीं भूलते। और जैसे आपको 5 या 10 रुपए सिक्कों के रूप में कोई लौटा रहा है तो यहां 1-2 रुपए के सिक्कों को टेप से चिपकाकर 5-10 के गुच्छे बनाकर दिया जाता है। ऐसा प्रयोग सिर्फ इसी क्षेत्र में मिलेगा। 

मानचित्र में जिले के रूप में अपनी पहचान बना चुके इस क्षेत्र के पास जिला बनने के बाद एक बड़ी पहचान जो मिली, जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता है, वो यह है कि पूरे देश में कुष्ठ रोग के मरीजों में यह अव्वल नंबर पर है, पहले प्रदेश में अव्वल नंबर पर आता था और देश में चौथे पांचवें स्थान पर था, लेकिन अभी फिलहाल देश का टाॅपर यही है। दुनिया कहां आगे बढ़ गई है, हार्ट अटैक कैंसर तक पहुंच चुकी है, कुष्ठ तो कहिए बीते जमाने की बातें हो गई लेकिन जिले ने अपनी पुरानी विरासत को अभी तक छोड़ा नहीं है। कुछ पुराने विशेषज्ञ डाॅक्टरों से बात करने पर पता चला कि इसका मूल कारण पानी और हाइजिन है। 

उन विशेषज्ञ डाॅक्टर की पानी वाली बात से एक बात याद आई कि आप पाएंगे कि कुछ इलाके ऐसे होते हैं जहां का पानी बहुत गड़बड़ होता है। उदाहरण के लिए जैसे आप हिमालयी क्षेत्र के पहाड़ों में जाते हैं, और वही मैगी वहां जाकर खाते हैं तो अलग स्वाद आता है तो स्वाद के इस अंतर का बहुत बड़ा कारण पानी होता है, वहां के ताजे पानी में पैदा हुई मिर्च प्याज टमाटर आदि होता है। ठीक उसी तरह कुछ इलाकों का पानी ऐसा होता है कि वहां खाना जल्दी नहीं पकता है या स्वाद नहीं आता है, इस पूरे इलाके के साथ भी कुछ ऐसा है, आप दुनिया के किसी भी इलाके से सब्जी दाल लाइए और यहां‌ के पानी में पकाइए, आपको वैसा स्वाद नहीं मिलना है। यह सब एक करीबी मित्र द्वारा ही किया गया प्रयोग है। एक दूसरा पक्ष यह भी सुनने में आता है कि यहां के तालाब ऐसे रहे, पानी इतना साफ था कि आप नीचे तलहटी तक देख सकते थे और स्थानीय लोग उसी पानी से खाना पकाया करते। अब इस बात में कितनी सत्यता रही होगी यह पुराने लोग ही जाने बाकि वर्तमान तो बहुत कुछ ठीक नहीं है। 

दूसरी एक समस्या जो मुझे यहां दिखी कि मैंने भारत के लगभग 80% इलाके में मोटरसाइकिल से यात्राएं की है, अच्छी बुरी हर तरह की सड़कें नापी है। खराब सड़कें भी कई प्रकार की होती हैं, जैसे अगर आप दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में है तो हर बार नदी नाले के बहाव की वजह से पथरीली सड़कें होती है, दूसरा औद्योगिक क्षेत्रों में भारी मालवाहक गाड़ियों की लगातार आवाजाही की वजह से सड़कें खराब स्थिति में होती हैं, लेकिन सारंगढ़ को आप लें, है बहुत छोटा सा कस्बा लेकिन 5 किलोमीटर त्रिज्या में इतनी खराब सड़कें हैं कि आपको इनोवा में भी बैठे-बैठे झटके महसूस होंगे, जबकि न कोई औद्योगिक क्षेत्र है न ही कुछ और विशेष समस्या है। मतलब ऐसी खराब सड़कें मैंने भारत में बहुत कम ही जगहों में देखी है, ऐसा नहीं है कि सड़क में गड्ढे हैं, असल में सड़क पत्थर हो चुका है, न जाने कितने वर्षों से सिलसिलेवार तरीके से इतना बेहूदा पैच वर्क होता आया है कि सड़क ठोस चट्टान में तब्दील हो गया है। अब इसके लिए आप किसे दोष देना चाहेंगे - यहां के हुक्मरानों को, यहां की जनता को या फिर किसी और को? 
जनता भी अपनी खुमारी में मस्त है, वह इन्हीं खड्ढों में आए दिन हिचकोले खाते अपनी संस्कृति का गौरवगान करते हुए कहती फिरती है - "पान पानी पालगी की नगरी सारंगढ़ में आपका स्वागत है।"
नेशनल हाईवे के इंजीनियर से बात हुई तो वह कहता है कि साहब यह तो पूरा बर्बाद है, इसमें कोई स्कोप नहीं, इसे पूरा उखाड़ना होगा और नये सिरे से सड़क बनाना होगा, यही इसका इलाज हुआ। एक बार इस इलाके को लेकर जिले‌ में आए एक बड़े अधिकारी से चर्चा हुई तो उन्होंने बातचीत के अंत में बस यही कहा था - " राम भरोसे सारंगढ़ "।




Thursday, 23 May 2024

Honey singh and 440 Hertz

हनी सिंह ने एक लंबे अरसे के बाद संगीत की दुनिया में वापस कदम रखा है। शराब ड्रग्स और तमाम तरह के सूखे नशे की चपेट में रहने वाला हनी सिंह आज बार-बार लोगों को कहता फिरता है कि ठीक है कभी कभार शराब पी लो, लेकि‌न सूखे नशे मत करो, वह आपको पूरा बर्बाद कर देता है। अपने इतने लंबे समय के संक्रमण काल से बाहर निकला हनी सिंह अब फिर से संगीत बनाने लगा है। आते ही उसने kaalastar गाना दिया था जिसने मौजूदा वायरल होने वाले सारे रिकाॅर्ड एक दिन में ही तोड़ दिए। अब फिर से वह नये नये गानों के साथ अपनी मौजूदगी दिखा रहा है। अभी हाल फिलहाल में Vigdiyan Heeran लेकर आया है, जिसने फिर से धूम मचा दी है।

हनी सिंह का गाना एक बार सुनने के बाद आपके भीतर रह जाता है, जैसे एक दो बार कोई व्यक्ति नशा करता है, तो वह नशा उसकी स्मृति में रह जाता है, जिस शराब सिगरेट को बचपन में वह खराब वस्तु मानता था, अब उसके प्रति एक सकारात्मक छवि अवचेतन मन में गहरे से पैठ बना लेती है। हनी सिंह का संगीत भी उस किसी नशे की तरह ही है। 

हनी सिंह के गाने के बोल आप छोड़ दीजिए, वह संगीत में खेलता है। वह खुद कहता है - विजुअल इंटरनेशनल लेवल का होना चाहिए, बीट्स पर बढ़िया से काम हो, गाने तो वही आलू भिण्डी वगैरह लुंगी डांस यही सब लिख के ही मैं खेल जाऊंगा। 

लेकिन हनी सिंह आखिर खेल खेलता कहां है। वह खेल खेलता है बीट्स में फ्रीक्वेंसी में। हनी सिंह के सारे गाने 440 हर्टज में ही रिकाॅर्ड किए जाते हैं। ये ऐसी फ्रीक्वेंसी है, जिस पर बढ़िया बीट्स के साथ बने गाने सुनने से आपकी ह्रदयगति बढ़ती है, यह मस्तिष्क के बाएं हिस्से को उत्तेजित करती है, खून के प्रवाह को बढ़ाती है। एक तरह से ऐसा संगीत आपको किसी नशे की तरह झंकृत कर देता है, और फिर आपको उस गाने को सुनके मजा आने लगता है, ऐसा नहीं है कि गाने के बोल से आपके साथ ऐसा होता है, असल में साला खेल म्यूजिक का होता है, म्यूजिक की बीट्स पर ही कभी आपको बहुत भीतर तक सुकून मिल जाता है तो कभी आपको नाचने का मन करने लगता है तो कभी आप खो से जाते हैं। 

फूड पैकेट्स में जिस तरह आर्टिफिशियल फ्लेवर की धूम है ठीक उसी तरह नाजियों के समय से जब रेडियो में लोगों को मानसिक रूप से अपने पक्ष में करने के लिए नये नये तरीके इजात किए जा रहे थे, तब सबसे पहले जोसेफ गोयबल्स ने डेविड राॅकफेलर को 440 हर्टज के फ्रीक्वेंसी का इस्तेमाल कर लोगों को नियंत्रित करने के लिए कहा था, अब गाने भी उसी में बनते हैं।

हनी सिंह के ही कहे अनुसार 440 हर्टज असल में जादू है, जैसे आप एक छड़ी घुमाते हैं तो हवा से टकराकर जो सरसराहट की आवाज आती है, ठीक उसी तरह पृथ्वी के घूमने की गति है, पुराने लोग कहते हैं कि धरती 440 हर्टज की फ्रीक्वेंसी में ही प्रतिध्वनि करते हुए घूमती है, हनी सिंह उसी फ्रीक्वेंसी में ही संगीत बांचता है और सलीके से बांचता है। पाॅप संगीत में अभी तो यही दौर चल रहा है, तो अभी के लिए Vigdiyan Heeran अगर न सुना हो तो सुन लिया जाए और इस संगीत रूपी नशे का भोग किया जाए।



Life in Delhi

जब कभी दिल्ली का नाम सुनने में आता है तो सबसे पहले एक ही वाक्य दिमाग में आता है और वह है " दिलवालों की दिल्ली "। और इस वाक्य को मैंने चरितार्थ होते भी देखा है, यह शहर आज भी सचमुच दिलवालों की है। दस साल पहले सरकारी पेपरों की टेस्ट सीरीज के नाम पर यहां जाना हुआ था, और पहली बार में ही इस शहर ने मुझे अपना लिया और मैंने इस शहर को। थोड़े समय में ही ऐसा गहरा लगाव हो गया कि वह आज भी बना हुआ है। 

किसी भी शहर को अपनाने के लिए जो सबसे बड़ा तत्व होता है, वह वहां के लोग होते हैं, उनसे की गई बातचीत ही आपका दिन बनाती है, आपको ऊर्जा देती है। इसके बाद वहां के खान-पान की बारी आती है जो कि दूसरी बड़ी भूमिका निभाती है। बस यह समझिए कि पूरे भारत भर का स्वाद सारी डिशेज आपको गुणवत्ता के साथ और बहुत ही कम रुपयों में यहां मिल जाती है, घर से निकलते ही गली में ही आपको मनपसंद की चीजें मिलने लगेंगी, चाहे बेकरी की चीजें या गरमा गरम बिस्किट, चाट का तो क्या कहूं मुगलकाल से ही इसके उद्भव का विशद इतिहास है। इतने तरह-तरह के जूस आसानी से मिल जाएंगे, क्या ही कहने। चाहे नार्थ ईस्ट की डिश हो या साउथ इंडियन, सब कुछ दिल्ली में जबरदस्त मिलता है। इस शहर के खान-पान के बारे में अगर लिखने लगूं तो शायद अलग से कुछ पेज जोड़ने पड़ेंगे, इसलिए इसे यहीं विराम देते हैं। 

मुझे बाकी लोगों का नहीं पता, लेकिन यहां के लोग, यहां की बोली भाषा यहां के लोगों का तेवर, सब कुछ मुझे बेहद पसंद है। लोग बेझिझक खुलकर बात करते हैं, ऊंचा बोलते हैं। आप किसी छोटे से ठेले चौपाटी कहीं भी कुछ खाइए, आप जैसे अतिरिक्त चटनी या कुछ मांगेंगे आपको इतना दे दिया जाएगा कि आपको मना करना पड़ेगा। इतने मन से खिलाते हैं कि दिन बन जाता है। दिल्ली में रहते जब पहली बार आटो में सफर करना हुआ तो रास्ते में बैठने वाली एक सवारी ने जो 40°C की गर्मी की शाम में मोमो की प्लेट लेकर चढ़ रहा था, दिन भर का काम निपटाकर आफिस से लौटता वह नौजवान उस चलते आटो में बाजू में बैठे मुझ अनजान को कहने लगा कि लो भाई साहब आप भी खाओ। ये मेरे लिए बहुत अलग अनुभव था। मतलब मौज में कोई कमी नहीं होनी चाहिए। ये वाला पागलपन आपको सिर्फ और सिर्फ दिल्ली में ही मिल सकता है, कुछ लोगों को शायद यह सब से असहजता हो जाएगी लेकिन मैं तो इसमें इस शहर से पैदा हुए अपनेपन को महसूस करता हूं। एक रिक्शेवाला भी 20-30 रुपये में कुछ किलोमीटर जब आपको ले जाएगा, वह आपसे खुले दिल से बात करेगा, आपको शहर के वर्तमान और इतिहास से जुड़ी कुछ बातें बताने लग जाएगा, आप एकदम ही शांतचित्त किस्म के हों तो बात अलग है, वरना उससे बात करते-करते आप इस शहर को महसूस कर लेंगे। एक बार पटेल नगर चौराहे में एक रिक्शावाला अचानक गिर गया, मिर्गी के दौरे से छटपटाने लगा, मैं यह सब दूर से देख रहा था, जैसे ही पास पहुंचा, एक जवान लड़का जो दौड़ते वहां‌ पहुंचा था, उसे तुरंत कंधे में उठाकर एक दूसरे आटो में बैठाया और पास के सरकारी अस्पताल में छोड़ आया, सब कुछ मिनट भर के अंदर हो गया। जवान लड़का मेरे यहां के मकान मालिक का ही बेटा था। इस तरह का वाकया मैंने किसी और शहर में अभी तक नहीं देखा है। ऐसे न जाने कितने अनुभवों की एक लंबी फेहरिस्त है। 

दिल्ली का आदमी अपने आज को संपूर्णता में जीता है। कल जो होगा देखा जाएगा, वह अपने आज में बिल्कुल भी समझौता नहीं करता है, तनाव चीज क्या होती है, दिल्ली का आदमी नहीं जानता है, छोले कुलछे और कचौरी समझ कर वह रोज तनाव का भोग कर बड़ी आसानी से पचा लेता है। ऐसा स्किल आपको भारत में किसी और शहर के लोगों में नहीं मिलेगा। दिल्ली के लोगों के तनाव झेलने की क्षमता का कोई सानी नहीं है। एक दिल्लीवाला यही मानता है कि जीवन की सबसे बड़ी लक्जरी यही है कि तमाम विद्रूपताओं के बावजूद इंसान अपना आज पूरी जीवटता से जिए। एक वाक्य में कहें तो यह शहर चलते-फिरते डोपामाइन की खान है। आप कितने भी निराश उदास हों, आपको यह शहर ऊर्जावान करते हुए एक गति दे जाता है। दिल्ली की तासीर कुछ ऐसी ही है।

दिल्ली में बहुत से बाहरी लोग आकर काम करते हैं। उनके लिए कहा जाता है कि दिल्ली में काम करने वालों का पैसा दिल्ली में ही रह जाता है। यह बिल्कुल सही बात है, आप इस बात की गहराई में जाएंगे तो आपको सहज ही इसमें दिल्ली की खूबसूरती समझ में आ जाएगी। बाकी शहरों में यह होता है कि लोग किसी शहर में एक मजदूर की भांति जाते हैं, काम करते हैं, सेविंग करते हैं और लौट आते हैं। लेकिन दिल्ली के साथ यह ऐसा नहीं है। यहां लोग इस शहर की अपनी धुन के साथ कदमताल करते हुए जी भरके लुटाते हैं और जीवन को संपूर्णता में जीते हैं, इतने खुशमिजाज लोग आपको भारत के और किसी महानगर में नहीं मिलेंगे। तपती गर्मी में रेहड़ी खिंचते व्यक्ति के चेहरे में भी आपको एक अलग ही किस्म की जिंदादिली देखने को मिलेगी, जीवन के प्रति एक आग्रह देखने को मिलेगा। 

दिल्ली में साल भर बहुत अलग-अलग तरह के मेले लगते हैं, उनमें एक प्रसिध्द विश्व पुस्तक मेला भी है। वैसे तो पुस्तक मेले देश के और भी महानगरों में लगते हैं लेकिन जो बात दिल्ली में है, वो कहीं और कहां। इसमें कहीं से भी अतिशंयोक्ति नहीं है, आप जाएंगे, आपको खुद अंतर महसूस होगा।

यहां जैसे किसी बच्चे का जन्म होता है या जैसे किसी की मौत भी होती है, तो इस अवसर पर उस परिवार के लोग आपको सड़क किनारे कहीं भंडारा खिलाते मिल जाएंगे। ये वाली संस्कृति दिल्ली में खूब चलती है। एक शहर के न जाने कितने ऐसे रंग होते हैं। 

इतनी बातें हो गई अब मौसम की बात कर लेते हैं। चूंकि यह दिलवालों की दिल्ली है तो यहां सब कुछ एक्सट्रीम होता है। ठंड के मौसम में ठंड ऐसी कि हड्डियां गला दे और गर्मी के मौसम में वैसे ही प्रचण्ड गर्मी, बारिश में कई जगह मीटर पार पानी भर जाता है, तो दिल्लीवासी उसमें भी बोटिंग करने निकल जाते हैं। एक कुत्ता जिस बेरहमी से हड्डियां चबाता है, कुछ उसी तरह दिल्ली का आदमी तनाव को चबा के फेंक देता है। आपको यहां अतिवादिता महसूस होगी, लेकिन यहां का तो यही फ्लेवर है, और इसी आनंद में यह शहर जीता है। हर बार मौसमी तूफान भी खूब इस शहर के हिस्से आता है, और तो और साल में एक दो भूकंप भी यह झेल लेता है। लेकिन इस शहर के लोगों की जिजीविषा ऐसी है कि ये सब कुछ पूरी मौज के साथ झेल जाते हैं। चाहे कुछ भी हो जाए इनका तेवर, इनकी मौज, इनकी खुमारी बरकरार रहती है। 

आप इतना पढ़ने के बाद कहीं न कहीं यह सोच रहे होंगे कि यह तो नाइंसाफी है, दिवाली में इतना प्रदूषण और रेप जैसे विवादित मामलों से इतर दिल्ली के प्रति इतनी सदाशयता, सब कुछ मानो चासनी में लपेटकर पेश किया गया है। नहीं, ऐसा नहीं है। असल में सबका अपना नजरिया होता है, हमारी अपनी पृष्ठभूमि का भी अहम रोल होता है कि हम चीजों को कैसे देखते हैं, मुझे तो दिल्ली ऐसा ही दिखता है, प्रदूषण आज कम अधिक हर शहर में एक जैसा ही है, पानी की समस्या यहां भी खूब है। लेकिन इससे मेरी स्मृति में जो दिल्ली है, उस पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है, पता नहीं क्यों मुझे यह शहर जीवन के प्रति एक अलग ही रोमांच से भर देता है, यहां की आबोहवा, यहां का मेट्रो, यहां के लोग, यहां का खाना-पीना सब कुछ जुदा है। इतना लिखने के बावजूद बार-बार ऐसा लग रहा है कि कितना कम लिखा है, मानो बहुत कुछ छूट रहा हो। अंत में यही कि यह शहर कम और कला का एक बेजोड़ नमूना अधिक है, इसलिए आप देखेंगे कि जो एक बार दिल्ली आता है, वह हमेशा के लिए दिल्ली का होकर रह जाता है, यह शहर उसके भीतर रच बस जाता है।




Life in Mumbai

हर शहर की अपनी कुछ पहचान होती है। इस शहर की भी है। शेयर बाजार को आज भी मुंबई नियंत्रित करता है। महाराष्ट्र दिवस हो या जैसे कल का दिन था, चुनाव था तो शेयर बाजार बंद था, इस मामले में तो देश की इस व्यवसायिक राजधानी का दबदबा है। मुंबई मां है, जी हां, इसे ऐसे ही पुकारा जाता है, क्योंकि मां कभी किसी को भूखा नहीं रखती, यहां का यही है, सबको यहां कुछ न कुछ रोजगार मिल जाता है।

सबसे पहले बात यहां के भूगोल की करते हैं, समुद्र किनारे होने की वजह से एक अजीब सी उमस साल भर रहती है। यानि ठंड के महीने में भी हवा में अजीब सी उमस बनी रहती है। मैं जब भी गया हूं, यहां की उमस को लेकर बड़ा परेशान हुआ हूं, कभी लंबा रूकने का मन ही न हुआ, जब जाता दुआ करता, कि कभी रोजगार या अन्य किसी कारण से यहां कभी लंबा रहना न पड़े तो ही बेहतर है। मुझे खुद से कहीं अधिक चिंता उन बाॅलीवुड सेलिब्रिटियों की भी होती है जो ऐसे मौसम में रहते हैं। ठीक है मान लिया दिन रात एसी में सुविधाओं में रहते हैं लेकिन खुली हवा में तो हर कोई कुछ देर के लिए ही सही रहता ही होगा। अंबानी या इस जैसे और लोग भी ये उमस झेलता होगा, क्या ही जीवन हुआ ये। इस बात में कोई दो राय नहीं कि उमस की वजह से स्किनटोन बड़ी सही रहती है, लेकिन ये क्या कि हमेशा साल भर पसीने से भीगते रहना। दस कदम चलते ही पसीना आने लगता है। गजब ही शहर है। खैर इस मामले में चेन्नई का हाल तो इससे भी बुरा है। 

मुंबई की एक बड़ी अच्छी चीज यह है कि यहां लोग चलते खूब हैं, और क्या तेज चलते हैं, बस भागते रहते हैं। यहां रात भर मार्केट लगा रहता है। सही ही कहा है किसी ने कि ये शहर सोता नहीं है। सही भी है न, उमस तो दिन रात रहती है तो हर कोई क्यों रात को सोएगा, तो शहर के हिस्से निशाचर का तमगा लगना तो लाजिमी है। 

खाने-पीने के मामले में ठीक है, लेकिन रहने का मामला गड़बड़ है, पूरे देश में सबसे महंगा किराया आपको यहीं मिलना है, बाकी फिल्मी सितारों तक को आसानी से ढंग का घर नहीं मिल पाता है‌ जो कि ठीक भी है। मेरे दोस्तों में ही कुछ लोग ऐसे रहे हैं जो बड़े वाले बैंगलोर प्रेमी रहे हैं, ठीक वैसे ही कुछ लोगों को इस शहर से भी बड़ा प्रेम है। मुझे तो दोनों समझ नहीं आए कि रोजगार के अलावा खास शहर के प्रति ये प्रेम आता कहां से है। 

मुंबई लोकल शहर की जान है। लोकल में जाने का थंब रूल ये है कि कभी आप अपना काॅलेज बैग पीछे मत टांगिए‌, सामने टांगिए। मैं अपने दोस्त के साथ गया था तो उसने भी मुझे कहा कि सामने रख लूं, चोरी होती है। मैंने कहा कि ऐसा कुछ खास है भी नहीं, मैं पीछे ही टांग लेता हूं। जैसे ही लोकल में चढ़ा, मेरा बैग एक छोटे कद के लड़के के मुंह में लग गया, उसने सीधे मुझे कहा कि भाई क्या यार, पहली बार आया है क्या मुंबई में। मैंने भी त्यौरियां चढ़ाते हुए कह दिया कि हां पहली बार। फिर वह चुप हो गया। तब मुझे बैग सामने रखने की अहमियत समझ आई। लोकल ट्रेन वैसे भी खचाखच भरी हुई चलती है इस लिहाज से भी दूसरों के लिए जगह बन जाए, इसलिए बैग सामने टांग लेना ही बेहतर है। 

ट्रैफिक जाम की बात करें तो यह शहर बैंगलोर को कांपीटिशन देने की भरसक तैयारी कर रहा है लेकिन थोड़ी चौड़ी सड़कें बनी हुई हैं इसलिए ऐसा कर नहीं पा रहा है। आॅटो में आप सफर करेंगे तो ऐसा लगेगा कि आप मुंबई में नहीं यूपी में है, पूर्वांचल का लोग भरा हुआ है। अधिकतर यही लोग मुझे मिले, बाकी बिहार के लोग भी हैं। बाकी बाहरी लोगों से चिढ़ के मामले में मराठी लोग आज भी अपना भरपूर योगदान दे रहे हैं, यहां भी मामला संस्कृति रक्षा से कहीं अधिक पैसे का है। 

रहने की बात करें तो एक बार मैं विवश होकर बैंगलोर जैसे मृत शहर में कूट्टू परोठा और उडूपी रेस्तरां चैन के सहारे कुछ महीने रह जाऊंगा लेकिन ये मुंबई की उमस इतनी ज्यादा खराब है कि यहां कुछ दिन से ज्यादा रहने का मन ही नहीं करता है, पता नहीं कैसे यहां लोग रहते हैं, कुछ चीजें मुझ नासमझ को समझ आती ही नहीं है। 



Saturday, 18 May 2024

- आखिर लोग कार क्यों खरीदने लगे हैं -

जब भी हमारे यहां कार खरीदने की बात आती है तो इसे अमूमन एक स्टेटस सिंबल के तौर पर देखा जाता है। कुछ हद तक यह बात सही भी है लेकिन क्या यह एकलौता कारण है जिस वजह से लोग कार खरीद रहे हैं, नहीं ऐसा नहीं है। असल में लोग कार इसलिए खरीदते हैं ताकि वे अपमान से बच सकें, तनाव से बच सकें। अब आप पूछेंगे कि कैसा अपमान, कैसा तनाव?

अभी के समय में भले पब्लिक ट्रांसपोर्ट का जाल विस्तृत हुआ है लेकिन अब सुविधाओं के नाम पर अनावश्यक सिरदर्दी ज्यादा है। पहले बड़ी संख्या में एक आबादी जिसे 300-400 किलोमीटर का सफर तय करना होता, इस सफर को तय करने में 10-12 घंटे लगते, इसे लोग 3rd AC ट्रेन में बड़ी आसानी से कर लेते थे, लेकिन आज यह संख्या घटी है, ट्रेन में सुविधाओं की गुणवत्ता की क्या स्थिति है, यह किसी से छुपा नहीं है। मुझे आजतक यह समझ नहीं आया कि ट्रेन में इतना खराब इतना स्वादहीन खाना आखिर कैसे ये पैसेंजर को देते हैं, सिविक सेंस की बात है। एक शताब्दी जैसी ट्रेन में थोड़ा ढंग का नाश्ता मिल जाता है, उसकी भी आज वर्तमान में क्या स्थिति होगी, कह नहीं सकता। बाकी राजधानी जैसी प्रीमियम ट्रेन जो सभी राज्यों को दिल्ली से जोड़ती है, जिसमें टिकट के साथ खाना साथ में जुड़ा होता है, उसमें भी आजकल एकदम ही निचले दर्जे का खाना परोसा जाता है। और ये पिछले दशक भर में चीजें और खराब हो गई हैं, इसके लिए मैं किसी सरकार या पार्टी को दोष नहीं दे रहा हूं। ट्रेन का फेयर थोड़ा महंगा हुआ है, ये चलो कोई समस्या की बात नहीं, लेकिन अगर आप टिकट कैंसल करते हैं, उसकी पेनाल्टी बढ़ी है, जिससे लोगों का अब भारतीय रेल से मोह भंग हो रहा है। कोई मुझे कहे तो आज के समय में तो ट्रेन का सफर करने से मैं परहेज ही करूंगा। वैसे भी लोग आजकल अपने विचारों को लेकर बहुत ज्यादा कठोर और एकपक्षीय होने लगे हैं, ऐसे में एक भीड़ वाली बोगी में सफर करना आपके अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए कहीं से भी ठीक नहीं है। 

अब फिर से उस बात पर आते हैं कि जो लोग 300-400 किलोमीटर कभी महीने दो महीने में ट्रेन से सफर करते थे इनके पास क्या विकल्प बचता है कि या तो वे फ्लाइट ले लें। लेकिन पिछले तीन सालों में खासकर कोरोना के बाद से जहां फ्लाइट्स की संख्या बढ़ी है, वहीं फ्लाइट के रेट्स भी बहुत ज्यादा बढ़े हैं, भले लोग जो 2nd AC ट्रेन तक में सफर करते थे, वे सब अब फ्लाइट में शिफ्ट हुए हैं। लेकिन इन दो तीन सालों में ही झटके से 1000-1500 रूपया बढ़ा दिया गया है, पैर रखने तक का स्पेस ना के बराबर रहता है, एकदम खटारा सरकारी बस में जैसे ठूंस ठूंस के भरा जाता है, वैसा कर दिया गया है, इसमें भी आपको थोड़ा बैठने लायक आरामदायक जगह चाहिए तो आप 2 से 3 हजार रूपये अतिरिक्त दीजिए, मतलब गजब ही लूट मची है। लक्जरी के नाम पर नागरिक सुविधाओं का भूसा बना दिया गया है। 

अब पब्लिक ट्रांसपोर्ट के सबसे छोटे स्तर के विकल्प पर आते हैं जो कि बस है। वैसे तो अमूमन बस में लंबा सफर करना हर किसी को पसंद नहीं होता है लेकिन जिस तरह से सड़कों का जाल बिछा है, उसमें आज के समय में अगर आप किसी अच्छे बस में लंबे सफर पर जाते हैं तो आपको एक अच्छी कीमत पर ठीक-ठाक सुविधाएं मिल जाती हैं,  दक्षिण भारत में तो बसों का जाल बहुत ही बढ़िया है, बाकी राज्यों में भी अब बस की सुविधाओं में विस्तार हुआ है जो कि नागरिकों के लिए एक शुभ संकेत है। पहले बस की सुविधाएं इतनी अच्छी नहीं थी तो लोग ट्रेन में ही सफर करते थे, आज यह उल्टा हुआ है। ट्रेन में सफर करने वाले वे तमाम लोग जो किसी कारणवश फ्लाइट नहीं ले पाते हैं, वे बसों की ओर शिफ्ट हुए हैं। 

लेकिन बात वहीं रुकी हुई है कि एक परिवार जिसे 300-400 किलोमीटर जाना है, उसके पास क्या बेहतर विकल्प है, आज के समय में जहां सबके पास तेजी से पैसा आया है, मुद्रा हावी हुई है और हमें चौतरफा संचालित कर रही है, ऐसे में कोई नहीं चाहता है कि वह सफर के नाम पर suffer करे। वह इतने लंबे सफर के लिए नहीं चाहता कि सपरिवार बस से जाए, ट्रेन में अलग भसड़ मची हुई है, फ्लाइट से जाएगा तो उसे बहुत महंगा पड़ेगा। तो ऊपर लिखे गये इन सब विकल्पों से दो चार होने के बाद व्यक्ति सोचता है कि भले थोड़े पैसे लगेंगे लेकिन मैं तनावमुक्त होकर अपनी खुद की कार से जाना पसंद करूंगा। उसके पास व्यवस्था ने और विकल्प ही क्या छोड़ा है। लोग इसीलिए भी आजकल कार खरीदने लगे हैं, और सरकार को खूब सारा रोड टैक्स और टोल दे रहे हैं, सार यही है कि लोग सरकार की वजह से कार खरीद रहे हैं। सरकार ने बड़ी मासूमियत से सभी को कार वाला बना दिया है। वैसे हम फिलहाल बाइकर ही ठीक हैं, क्रूज कंट्रोल लग जाए फिर इसमें जो सुकून है, जो स्वतंत्रता है वह तो प्राइवेट जेट में भी नहीं है। 

इति।

Thursday, 16 May 2024

Life in Bangalore

मुझे अगर किसी शहर के लिए भड़ास निकालने को कहा जाए तो मैं इस एक शहर के लिए एक पूरी किताब लिख सकता हूं, इतना‌ मेरे पास इस शहर की मनहूसियत को लेकर कंटेंट भरा पड़ा है। 

सबसे पहले इस शहर के भूगोल की बात करते हैं। असल में बैंगलोर की अपनी भौगोलिक अवस्था की वजह से इस पूरे क्षेत्र में साल भर खुशनुमा मौसम रहता है जो आपको इतना सुस्त कर देता है कि आपको कहीं और रहने लायक नहीं छोड़ता, असल में इसके पीछे प्रदूषण भी बड़ा कारण है। पिछले कुछ सालों में कांक्रीटीकरण और तमाम तरह के प्रदूषण आदि की वजह से थोड़ी सी गर्मी यहां भी बढ़ी है लेकिन बाकी अन्य बड़े महानगरों की तुलना में मौसम सुहाना ही रहता है। आईटी कंपनी का हब होने की वजह से पैसे का फ्लो जमकर यहां आया। और पैसे का फ्लो आया तो शेष भारत के अलग-अलग हिस्सों से भी लोग पहुंचने लगे। जो उस रोजगार के माॅडल के हिसाब से योग्य था उसने अपने हिस्से का रोजगार लपक लिया। और यहां के स्थानीय लोग जिनको आज भी बाहरी लोगों से भाषा संस्कृति आदि को लेकर समस्या है, उनके पेट में मरोड़ होने लगी, वैसे इसका मूल कारण असल में संस्कृति से कहीं अधिक मुझे रोजगार लगा या यूं कह सकते हैं कि सारा मसला पैसे का ही है। लालच किनमें नहीं होता, लेकिन यहां के स्थानीय लोगों में यह अलग ही निम्न स्तर पर आपको दिखाई देगा। तभी आप पाएंगे कि पूरे भारत में यही एकलौता शहर है जहां अगर आप 10-15 हजार रूपये का कमरा भी किराए पर लेते हैं तो आपको सिक्योरिटी मनी के रूप में अधिकतम 1 लाख रूपये तक जमा करना होता है। बाकी पूरे देश में कहीं आपको ऐसा नहीं मिलेगा। अधिक से अधिक आपको यही देखने को मिलेगा कि दो महीने का किराया आप एडवांस में दे दीजिए बस। लेकिन चूंकि यह नम्मा बैंगलोर है, जैसा कि इसे चाहने वाले लोग कहते हैं तो यहां कुछ भी नौटंकी जायज है। 

बैंगलोर में एक और चीज जो बड़ी विचित्र है वो यह है कि यहां इस शहर के पास अपना पानी ही नहीं है। आपको पीने, नहाने, धोने हर चीज के लिए पानी खरीदना होता है। आप अपने घर में पानी स्टोर करने के लिए बड़ी 1000-2000 लीटर की टंकी बनवाइए और उसमें टैंकर मंगवा के पानी स्टोर करिए। छी छी, ये भी कैसा जीवन हुआ। भले आप कितना भी कमाते हों, लेकिन आपका कमाई का एक बड़ा हिस्सा तो पानी में ही चला जाता है। 

आरटीओ की बात कर लेते हैं। पूरे देश में सबसे ज्यादा टैक्स यहीं है।‌ आपको कोई भी नई कार या बाइक लेनी है तो पूरे देश में आपको यहां सबसे महंगा मिलेगा। जब मैं पहली बार बैंगलोर पहुंचा तो मैंने अपने सर से ऐसे बात-बात में बैंगलोर की महंगाई को लेकर बात छेड़ी तो उन्होंने कहा कि कभी भी यहां के पुलिस के हाथ मत लगना, पूरे देश के सबसे करप्ट पुलिस वाले यहीं मिलेंगे। यहां की पूरी प्रशासनिक व्यवस्था पूरे देश के सबसे भ्रष्टतम व्यवस्था में से एक मानी जाती है। धीरे-धीरे मुझे कारण समझ आ रहा था। यह भी समझ आ रहा था कि मेरे सर जो हिन्दी बेल्ट के थे उन्होंने यहां रहते हुए धाराप्रवाह कन्नड़ बोलना क्यों सीखा, ताकि कुछ तो राहत मिले, नब्ज पकड़ में आए, खेल समझ आए। 

अब ट्रैफिक की बात कर लेते हैं। पूरे देश में सबसे घटिया ट्रैफिक जाम अगर कहीं का है तो वह बैंगलोर का ही है। शहर बन गया है, लोगों का दबाव बढ़ा है, लेकिन सड़कों का‌ जाल वैसा है ही नहीं। भयानक जाम लगता है। एक औसत बैंगलोर वासी का तो रोज का कम‌ से कम दो से तीन घंटा जाम में ही बीत जाता है। एक मेरे आईटी कंपनी वाले दोस्त ने दोपहर से रात 10 बजे वाला टाइम स्लाॅट बस इसलिए ले रखा था क्योंकि दोपहर में जाते वक्त और रात को लौटते वक्त अपेक्षाकृत कम ट्रैफिक होता है जिससे समय की बचत हो जाती थी, तनाव कम महसूस होता था। ट्रैफिक जाम की बात निकली है तो लगे हाथ एयरपोर्ट की बात कर लेते हैं, शहर से 45 किलोमीटर दूर में स्थित है, आप शहर के किसी भी कोने से जाइए आपको कम से कम 2-3 घंटे लगेंगे ही लगेंगे। यानि आपको अगर कोई कार से ड्राॅप करने जाता है तो उसके वापस घर पहुंचने से पहले आप फ्लाइट से अपने गंतव्य तक पहुंच जाते हैं। 

अब खान-पान पर आते हैं। एक उत्तर या मध्य भारतीय के लिए तो यहां खाना पीना महंगा ही कहा जाएगा, आपको ढंग के रेस्तरां नहीं मिलेंगे, न ही रोटी या पराठे या वैसा स्ट्रीट फूड का अच्छा कल्चर मिलेगा जैसा हिन्दी बेल्ट वाले शहरों में आपको मिलता है। इस बात से पूरी सहमति है कि साउथ इंडियन फूड हेल्दी होता है, लेकिन इडली दोसा सांभर और मोटे चावल से भी आगे की दुनिया है, एक समय के बाद रोटी पराठा दाल फ्राई ये सब चाहिए होता है। ऐसा नहीं है कि बैंगलोर इतना बड़ा शहर है तो यहां ये सब नहीं मिलता है, मिलता सब है लेकिन आपको बहुत इसके लिए मेहनत करनी पड़ेगी, खोजना पड़ेगा और अपेक्षाकृत महंगा मिलेगा। वैसे यह भी एक विडंबना ही कहिए कि आपको देश के बढ़िया पब और रेस्तरां यहीं मिलेंगे, भले बाकी शहरों से महंगे हैं, लेकिन एक क्लास बना रखा है। 

जब भी किसी शहर को जीने और महसूस करने की बात आती है तो उसके कुछ पैमाने होते हैं। शहर को आप चौक चौबारों में, पान की गुमटी में, ठेलों रेहड़ियों में, फल सब्जी के बाजार में, नुक्कड़ चौपाटी में, परचून की दुकान में, अलग-अलग शापिंग काॅम्पलेक्स में, उसकी ट्रैफिक और शोर कोलाहल में, लोगों के चेहरों में और उनकी भाव-भंगिमा में, लोकव्यवहार के तरीकों में और उनके पहनावे में, आटो टैक्सी और बस में सफर करते फ्लाईओवर से लेकर अंडरब्रिज में या पार्क गार्डन में टहलते हुए पेड़ पौधों और फूलों तक में महसूस करते हैं। मोटा-मोटा यही तरीका होता है। शहर आपसे बातें करता है, आपसे कुछ पूछता है, आपमें कौतूहल पैदा करता है और अपने बारे में भी बताता है, लेकिन यह शहर न कुछ पूछता है न बताता है। यहां आपको सिवाय हाय पैसा के कुछ भी महसूस ही नहीं होता है। 

अंत में यही कि अधिकतर देखने में आता है कि इस शहर में लोगों को वाइब महसूस होती रहती है, मुझे तो साल भर में एक दिन भी महसूस नहीं हुई, साल भर रहते हुए भी मुझ जैसा घूमने फिरने वाला व्यक्ति एक दिन भी कहीं अलग से नहीं गया। मरूस्थल की भांति सूखा व्यवहार करने वाला शहर, इतने कठोर और शुष्क से लोग, क्या सिर्फ भाषा संस्कृति अलग-अलग होना इतना बड़ा अंतर पैदा कर सकती है या फिर मुद्रा का खेल है, जो भी हो लानत पहुंचे ऐसी सूखी नफरती संस्कृति पर। असल में देखा जाए तो इस शहर की अपनी कोई आबोहवा ही नहीं है, यहां लोग मिलते-जुलते नहीं है, मेल-जोल के नाम पर सिर्फ लेन-देन करते हैं, यह शहर न आपका हाल-चाल पूछता है, न अपना हाल-चाल बताता है, यह शहर किसी एक बैंक की तरह सुबह से शाम बस ट्रांजेक्शन और डिपाॅजिट करने वाले मोड में ही रहता है। ( दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे शहरों में ये चीज इतनी ज्यादा नहीं है ) संवेदना रहित इस शहर में सिर्फ शनिवार और रविवार को लोग जी भरकर वाइब महसूस करते हैं, और मोटे पैसे देकर किसी पब में जाकर नम्मा बैंगलोर कहकर इस शहर का गौरवगान करते हैं। 

Saturday, 11 May 2024

गर्मियों की शादियां, कीर्तन-भजन और आत्महत्याएं

गर्मियों की शादियों को अपने खराब मौसम, मसालों वाले भोज्य पदार्थों के प्रति इस मौसम‌ में अरूचि, सफर करने में आने वाली समस्या और अन्य ऐसे कारणों की वजह से कभी सही नहीं पाया। जो सही पाते हैं उनके द्वारा तर्क यह दिया जाता है कि लगन मूहूर्त इसी समय होते हैं, खेती किसानी से जुड़ा समाज रहा है तो इस दरम्यान खेती किसानी के कार्य भी अपेक्षाकृत उतने नहीं होते हैं, इसलिए भी शादी जैसे आयोजनों के लिए पर्याप्त समय रहता है। दूसरा तर्क यह रहता है कि ठंड में गद्दे चादर की व्यवस्था करनी पड़ती है, उसकी तुलना में गर्मी में आराम रहता है। ऐसे न जाने कितने कारण है, वर्तमान एक इसमें यह भी जोड़ दिया जाता है कि स्कूली बच्चों की छुट्टियां रहती हैं। 

ऐसे तमाम कारणों को एक दफा अस्वीकार कर भी दिया जाए तो एक दो ठोस कारण ऐसे हैं जिससे मुझे गर्मी की शादियां अब एक बड़े परिप्रेक्ष्य में सही लगने लगी है। ध्यान रहे कि इसके पहले मैं गर्मी में होने वाली शादियों का धूर विरोधी रहा हूं। गर्मियों में अमूमन यह देखने में आता है कि चूंकि दिन का अहसास बहुत बड़ा होता है और रात छोटी होती है, व्यक्ति अपना एक बहुत बड़ा समय गर्म मौसम के कारण घर में ही बिताता है। ऐसे में मनोरंजन के कितने भी विकल्प व्यक्ति के पास हों, वह बाकी मौसमों की तुलना में बहुत जल्दी अकेलापन महसूस करता है। यह मौसम वैसे भी अपने में अकेलापन लिए होता है। इसे आप उन लोगों को कभी नहीं समझा सकते जो खुद इस अकेलेपन की वजह से तनावग्रस्त हो जाते हैं। 

भारत में ज्ञात आंकड़ों के आधार पर ही देखा जाए तो जितने भी सुसाइड होते हैं उनमें सर्वाधिक इसी गर्मी महीने में ही होते हैं क्योंकि व्यक्ति बहुत जल्द ही टूटा हुआ महसूस करता है, पहाड़ों के लिए यह उल्टा है क्योंकि तब ठंड और बर्फबारी में इंसान घर में बंद हो जाता है। चूंकि मैं मैदानी इलाके का हूं तो मैंने खुद अपने अभी तक के व्यक्तिगत जीवन में अपने आसपास जितने भी लोगों को सुसाइड करते देखा है उनमें से अधिकतर लोगों ने गर्मी के मौसम में ही सुसाइड किया है। शायद पुराने लोगों को इस बात की गहरी समझ होगी इसलिए आप देखेंगे कि इसी मौसम में शादियों का दौर चलता है। कथा, भजन-कीर्तन की रेल लगी होती है। व्यक्ति इस मौसम में शायद ही एक पूरे दिन घर में खाना पकाता हो, व्यस्त रहने की और सामाजिक समागम की पूरी व्यवस्था रहती है, जीवन में जीने का एक उत्साह बना रहता है। आज भी मैदानी इलाकों के भारत के गांवों में यही संस्कृति चली आ रही है, आप थोड़े भी सामाजिक हैं, आपका मेलजोल है, हर दूसरे दिन शादी या किसी आयोजन में आप सम्मिलित हो लेंगे, यह न भी हो तो पालियों में हर दिन किसी न किसी गांव में भजन कीर्तन का आयोजन लगातार चल रहा होता है। आप भक्ति या कर्मकांड न भी मानते हों, इसके बावजूद भी आपके व्यस्त रहने, सामाजिक मेलजोल बनाए रखने और कुछ इस तरह मन को स्थिर रखने तक की व्यवस्था हो ही जाती है। शहर में रहने वाले के पास भी आजकल कथा वगैरह का विकल्प खुल गया है, आए दिन मोटे पैसे वाले बाबाओं का कथावाचन होता रहता है, शहरों में तो आजकल यह साल भर होने लगा है, लोग ये पिछले कुछ सालों में थोड़े ज्यादा ही आध्यात्मिक जो हो गये हैं तो उनके लिए बाजार व्यवस्था कर दे रहा है, नहीं तो पहले लोग विभिन्न प्रकार के समर क्लासेस तक ही सीमित थे। अंततः हर समयकाल में इंसान के लिए जीने लायक सबसे बड़ी चुनौती यही रही है कि वह कैसे खुद को व्यस्त रखे, आज के सुविधाभोगी समाज में तो इसकी जरूरत और बढ़ गई है। 

इति।

Wednesday, 8 May 2024

मतदान - एक इवेंट

आजकल चहुंओर मतदान नामक इवेंट की बाहर है। चुनाव के दिन, आप एक नागरिक को उसकी मूर्खता के चरम सीमा पर पाओगे। #VoteforDemocracy या ऊंगली के साथ सेल्फी, जैसे वोट डालकर राष्ट्र के निर्माण में बहुत बड़ा तीर मार दिया हो। असल में आजादी के बाद का सबसे बड़ा scam है ये Democracy पर, लोग भोले हैं उनको लगता है ये लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए है। इसलिए वह एक दिन वोट डालकर पांच साल तक लाइन लगाते रहने और बेतरतीब टैक्स देने की गारंटी ले लेता है, और एक निशान के रूप में दुनिया के सामने ऊंगली दिखाकर इसका प्रदर्शन करता है।

पहली बात तो अधिसंख्य जनता मूर्ख है, दोगली है। उसे कुछ पता ही नहीं है। उसी जनता के जेब से लाखों करोड़ों खर्च करके विज्ञापन और प्रोपेगेंडा से न्यूज और सोशल मीडिया से ब्रेनवाॅश करके किसी पार्टी के लिए वोट डलवाया जाता है, धर्म और जाति के नाम पर लड़वाया जाता है। जनता हाथों हाथ इसे उठा लेती है।

जब बीजेपी या कांग्रेस की सरकार बनती है तो लोग ऐसे खुश होते है जैसे उनके बाप का राज़ आ गया हो, फिर वही लोग 100₹ की पेट्रोल में 60-70₹ टैक्स देंगे। ट्रेन की टिकट से लेकर अस्पताल में इलाज करने के लिए लंबी लाइन में लगेंगे। हर जगह टैक्स भरेंगे सड़क में टोल से लेकर चड्डी खरीदने तक। फिर गड्डे से भरे सड़क में एक्सीडेंट होकर मर जायेंगे। अंधे लोगो को ये नहीं दिखता की सरकार उनसे कितना चूसती और बदले में कोई सुविधा तो छोड़ो, आप एक जमीन/मकान खरीदने से लेकर मृत्यु प्रमाणपत्र बिना असुविधा या घूस के नहीं बना सकते। आप सरकार के सभी नियमों का पालन करो, कभी आधार कॉर्ड बनवाओ तो कभी नोट बदलवाओ। वहीं एक रेपिस्ट मर्डर करने वाला चुनाव जीतकर राज़ करता है हमारे ऊपर, और उसके बच्चे विदेश में पढ़ते हैं।

अमीर शहरी आदमी वोट डालने कभी नहीं जाता क्योंकि उसे पता है उसे किसी सरकार से कुछ मिलने वाला नही हैं। गरीब ही बस 1 घंटे लाइन में लगकर धूप में वोट देने जाता है। क्योंकि उसे इसकी आदत है। उसे सारा राशन पानी लाइन लगे बिना कभी मिला ही नहीं।

जो तंत्र मुझे पीने के लिए साफ पानी और सांस लेने के लिए साफ हवा भी ना दे पाए उससे मैं क्या ही उम्मीद रखूं। ऐसे लोकतंत्र पर थू है मेरा।

क्या इस राष्ट्र का अपने नागरिक के लिए कोई कर्तव्य नही है?

मुझे लोकतंत्र पर कोई भरोसा नहीं है। मुझे किसी सरकार से कभी भी कोई लेना देना न रहा है, न कभी रहेगा, और ना ही मैं कोई उम्मीद रखता हूं। इसलिए मेरे लिए वोट देने का कोई महत्व नहीं है। आपको यह लोकतंत्र मुबारक हो, आपको यह नागरिकता मुबारक हो।

Contributed By - abhinav

Tuesday, 7 May 2024

आइसक्रीम और हम

हमारे सामने इंसानी खोज और आविष्कारों की एक लंबी फेहरिस्त है, उसमें भोजन के प्रयोगों में मुझे व्यक्तिगत रूप से आइसक्रीम की खोज सबसे बेहतरीन आविष्कारों में से एक लगती है। भारत में खासकर गर्मी के महीने में ही लोग आइसक्रीम को याद करते हैं, इसका स्वाद लेते हैं। लेकिन मेरे साथ उल्टा है, आइसक्रीम का असली सुख तो माइनस डिग्री की ठंड में आता है, आप आइसक्रीम के सहारे उस ठंडे मौसम को अपने भीतर आत्मसात कर रहे होते हैं, वो एक ऐसा अहसास है, जो आपको किसी और मौसम में मिल ही नहीं सकता है। वह एक ऐसा सुख है जिसे ठीक-ठीक शब्दों में बयां करना आसान नहीं है, महसूस करने वाली चीज है, यूं समझिए कि इसके सामने बरसात में गरमा गरम पकोड़े खाने का अहसास भी फीका है। मैंने तो अपने जीवन का 80% आइसक्रीम ठंड के महीनों में ही खाया होगा। 

भारत के अलग-अलग कोनों में घूमते हुए लगभग हर तरह की आइसक्रीम खाई है, लगभग सारे तरह के कसाटा खाए हैं, मतलब शायद ही कोई फ्लेवर छूटा हो, गाड़ी का पेट्रोल जलाने के बाद शायद जीवन का दूसरा बड़ा खर्च भोजन के नाम‌ पर यही माना जाएगा। ठंडा गरम हर तरीके का आइसक्रीम खाया है, चाहे वो नेचुरल हो, पैरानेचुरल हो सब हर तरह का स्वाद चखा है। नेचुरल आइसक्रीम इतना ज्यादा नेचुरल हो जाता है कि उसमें आइसक्रीम वाला अहसास ही नहीं मिल पाता, पैरानेचुरल आइसक्रीम की बात करें तो आजकल अब मिलता ही नहीं है, बचपन में कटोरे में चावल के बदले चार-पांच रंग बिरंगे आइसक्रीम मिल जाते थे, दूध रहित उन आइसक्रीम का जिसे हम बर्फ कहा करते, उसका अपना अलग ही सुख था। वैसे भारत घूमते हुए मुझे बहुत से फर्जी आइसक्रीम प्रेमी भी मिले, उनमें आइसक्रीम के प्रति वैसा लगाव वैसी सनक देखने को नहीं मिली। एक अच्छा आइसक्रीम प्रेमी होने के लिए जरूरी शर्त यह है कि वह हर तरह के आइसक्रीम के प्रति लगाव रखे।

चाहे वो लोहे के रोलर में घुमाकर बनाने वाला आइसक्रीम हो या फिर आजकल वो चाकू आरी से काट काटकर रोल बनाने वाला आइसक्रीम, मैंने सबका स्वाद चखा है। पता नहीं क्यों स्वाद और प्रक्रिया दोनों में ही रोलर वाला ज्यादा बेहतर लगा, ये कसाईबाज आइसक्रीम ओवररेटेड है, फलों का भला ऐसा पोस्टमार्टम कौन करता है, बनने की प्रक्रिया में अजीब तरह की हिंसा है, इनके बड़े बड़े आउटलेट हैं, कंपनीबाजी ज्यादा है, जबरन महंगा और स्वाद भी उतना कुछ खास नहीं रहता है। एक पहाड़ों में साॅफ्टी मिलती है, वो तो सीधे सीधे आइसक्रीम का अपमान है, आइसक्रीम के नाम पर उसमें अहसास कम और धोखा ज्यादा है। एक बार अहमदाबाद में अपने एक दोस्त के स्टार्टअप में नमक वाली आइसक्रीम भी खाई है, फिर पता चला कि सेनफ्रांसिस्को में एक जगह लहसुन की आइसक्रीम भी मिलती है, मुझ लहसुन प्रेमी को एक बार वहां इसलिए भी जाने की इच्छा है। 

हर किसी का अपना अलग टेस्ट होता है। किसी को ब्लैक करेंट पसंद आता है तो किसी को तिरामिसु, कोई चाकलेट पसंद करता है तो कोई ड्रायफ्रूट के कसे हुए फ्लेवर(काजू, बादाम), कोई राजभोग प्रेमी है तो कोई कुछ चुनिंदा फलों ( स्ट्राबेरी, आम, संतरा) के फ्लेवर चखने वाला। लेकिन मुझे पता नहीं क्यों केसर पिस्ता दुनिया की सबसे बेहतरीन चीज लगती है। पिछले 15-20 सालों में इतने फ्लेवर चख लिए लेकिन इसके बराबरी का कोई दूसरा मुझे नहीं मिला। भले इतने सालों में स्वाद और गुणवत्ता में थोड़ा अंतर आया है, लेकिन अहसास वही है। 

आइसक्रीम के नाम‌ पर हर राज्य में अलग-अलग कंपनियां चलती है, कहीं अमूल है तो कहीं मदर डेयरी, कहीं क्वालिटी वाल्स तो कहीं टाॅप एंड टाउन, 90's के बच्चों को वनीला स्ट्राबेरी खिलाने वाली कंपनी दिनशाॅ तो अब गायब ही हो गई है, बाकी अभी वादीलाल कंपनी के फ्लेवर बड़े सही आ रहे हैं। तस्वीर भी उसी कंपनी के आइसक्रीम की है और फ्लेवर है - केसर पिस्ता। 



Thursday, 2 May 2024

मरने की तैयारी -

है जीने लायक तमाम व्यवस्थाएं,
लेकिन रोज करता हूं मरने की तैयारी।
हैं जरूरत के साजो सामान,
लेकिन अब जीने की तैयारियों से ऊब होती है।
लिख दिए हैं कागज की एक डायरी में,
सारी डिजिटल तिजोरियों के पासवर्ड।
जिसमें मिलेंगी कुछ लंबी यात्राओं की झलक,
मिलेंगे नदी, पहाड़, विस्तृत मैदान और चंद इंसानी रिश्ते,
कुछ अनुभव, दो-चार कहानियाँ और मुट्ठी भर कविताएं।
क्योंकि इंसान कितना भी ऊंचा हो जाए, 
अपने पीछे कम अधिक इतना ही छोड़ जाता है।