Thursday, 30 January 2020

You are also Gopal Sharma

आप भी तो गोपाल शर्मा हैं!

आप सब जो जनवरी 30 को अनायास ही गाँधी की हत्या याद करने पर उतारू हो जाते हैं, सब गोपाल शर्मा की तरह साम्प्रदायिक और उन्मादी लोग हैं। कल मुर्शिदाबाद में तृणमूल के लोकल नेता तहीरुद्दीन ने सीएए विरोधी भीड़ पर खुलेआम गोली चला दी। 2 लोग मारे भी गए। लेकिन कल तो गोडसे का हल्ला नहीं मचा था। इसके पहले भी दिल्ली में लाइसेंसी बंदूक लहराई गई थी। तब तो देश फासीवादी नहीं हुआ था।

 यह गाँधी गोडसे का रोना कब तक चलेगा? एक 78 साल के वृद्ध को राजनीतिक असहमति पर गोली मारने वाला वीर तो नहीं हो सकता। न ही वह किसी चिंतन के ही लायक है। फिर भी 1948 से लेकर आजतक गाँधी के हत्यारे को किसने ज़िन्दा रखा हुआ है? नाथूराम गोडसे की कहानी तो नवंबर 15, 1949 को खत्म हो गई थी। यह कहने का जोखिम कौन उठाएगा कि गाँधी की हत्या के बहाने कांग्रेसी व्यवस्था के अंतर्गत भारतीय राज्य ने गोडसे को ज़िन्दा रखे रखा?

 मुझसे पूछिये तो मैं बड़ी सरलता से यह तर्क इतिहास के हवाले कर सकता हूँ कि गाँधी अगर अपनी मौत मरते तो वे अपने जीवन में ही नेहरूवादी राज्य के सबसे बड़े शत्रु बन गए होते। वो जो गाँधी का 125 बरस जीने का सपना था अगर वो पूरा हुआ होता तो गाँधी 1994 तक जीवित रहते। अब समकालीन इतिहास का विद्यार्थी जिसने गाँधी का ग भी पढ़ा है वह यह अटकले लगाता रहे कि गाँधी कहाँ कहाँ सत्याग्रह करते रहते और कितनी ही बार भारत सरकार की जेलों में जाते। मुझसे पूछिये तो गाँधी का 'महात्मा' बनने का रास्ता उनकी हत्या से निकलता है और वहाँ नाथूराम से बातचीत करनी ही पड़ेगी। नेहरू से लेकर मौलाना फलाना सबकी मुश्किलें इस नाथूराम ने आसान कर दी थी।

 अब दूसरी बात। गाँधी की हत्या केवल राजनीतिक थी। न वह आखिरी ऐसी घटना थी न ही पहली। हर नाथूराम के लिए आपको इतिहास में कोई अब्दुल रशीद या कोई इलमुद्दीन मिल जाएगा। अब्दुल रशीद और इलमुद्दीन से आप खुद ही जान-पहचान कर लीजिए। दिक्कत है कि राजनीतिक हत्या बस हत्या रहे और हर हत्या निंदनीय हो तब ठीक। आप जैसे किसी गाँधी की जान को किसी श्रद्धानंद की जान से अधिक जरूरी बताने लगते हैं, मुश्किल बढ़ जाती है। साथ ही इलमुद्दीन के हाथों हुई हत्या उसे अलामा इक़बाल की वाहवाही भी तो दिलवा देती है। इस अंतर को समझना होगा।

 यह 19 साल का गोपाल अपने किए की भुगतेगा। साथ ही तहीरुद्दीन भी भुगते। शरजील को भी सजा मिले। जो भी 'रूल ऑफ लॉ' के खिलाफ है उसे कानून सजा देती जाती और आप लोग यह एक तरफी हवा नहीं बहाते तो इस ख़बर को कभी सामने न आना पड़ता। फिर आप ही कहते नहीं थकते कि गाँधी ने गोडसे को हरा दिया तो हारे हुए गोडसे से आप इतने क्यों परेशान दिखाई देते हैं। गोडसे को हर बार आप सामने ले आते हैं और फिर हंगामा खुद ही बरपा करते हैं। इस गोपाल के साथ तहीरुद्दीन कि तस्वीर भी लगा दीजिए तो बातों में संतुलन आ जायेगा।

द्वारा - शान कश्यप (जेएनयू)



Wednesday, 29 January 2020

वंचक मंत्रालय और बाबा के मध्य संवाद -

नोट : संस्था, पात्र आदि के नाम काल्पनिक हैं, संवाद में वास्तविकता के तत्व का आँकलन पाठक स्वयं करें।
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इंस्पेक्टर - आप बाबा बोल रहे हैं?

बाबा - जी बोलिए, कौन?

इंस्पेक्टर - बाबा, मैं सब-इंस्पेक्टर, वंचक मंत्रालय के पास के थाने से बोल रहा हूं।

बाबा - मेरा नाम नंबर कैसे पता आपको? किस संदर्भ में फोन किया आपने?

इंस्पेक्टर - बाबा, वंचक मंत्रालय से आपके खिलाफ पांच पेज का चार्जशीट दायर हुआ है, आपने वंचक मंत्रालय की अवमानना की है, अभी कागज मेरे पास है, आगे की कार्यवाई नहीं हुई है। इसी सिलसिले में आपसे बातचीत के लिए फोन किया है।

बाबा - जी, मैं किसी वंचक मंत्रालय को नहीं जानता, मेरा दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं, और आप खुल के बताएँ मैंने कौन सी अवमानना की। आप किस अवमानना की बात कर रहे हैं महोदय।

इंस्पेक्टर - बाबा, आपने वंचक मंत्रालय को इंटरनेट के एक प्लेटफाॅर्म में वेश्यालय कहा है‌। एक बार थाने आ जाएं, आपने और भी बहुत कुछ लिखा है कि यहाँ ऐसा होता , वैसा होता, मैं सब कुछ पढ़कर नहीं बता सकता, आप खुद एक बार आइए, एक बार देखिए, बैठकर बात करते हैं, इसको खत्म करते हैं।

बाबा - साहब, आपकी बातें मेरे सर के ऊपर से जा रही हैं। बोल के बताइए मैंने क्या लिखा है, मैंने किसको चोट पहुँचा दी?

इंस्पेक्टर - बाबा, मैं बोल के नहीं बता सकता, आप एक बार आकर देख लीजिए, इसको रफा दफा कर देते हैं। मुझे भी उधर मंत्रालय से प्रेशर है कि इसको जल्दी से खत्म करें, नहीं तो एफआईआर न हो जाए इसलिए मैं आपके भलाई के लिए कह रहा हूं। आप क्या पहले इस मंत्रालय से जुड़े हैं क्या, आपको इतने भीतर तक की खुफिया जानकारी कैसे मालूम, इसलिए वे बार-बार मुझसे पूछ रहे हैं।

बाबा - साहब, मैं फिर से कहता हूं, आपकी एक भी बात मुझे समझ नहीं आ रही। मैं किसी मंत्रालय को कुछ क्यों बोलूंगा। छोटा आदमी हूं, फलां शहर में रहता हूं, अपना काम करता हूं। मुझे किसी मंत्रालय के बारे में कोई जानकारी नहीं। 

इंस्पेक्टर - अच्छा एक काम करिए एक बार फ्लाइट लेकर ही आ जाइए न, ये क्या है फिर बाद में दिक्कत करेगा न, मैं एयरपोर्ट में ही आपसे मिल लूंगा, इसको खत्म करते हैं।

बाबा - अरे साहब जब मेरा इन सबसे कोई ताल्लुक ही नहीं, ऐसे कैसे आ जाऊं अपना काम धाम छोड़कर, और मैं गरीब आदमी, फ्लाइट का खर्च नहीं उठा सकता, अगर ये सेवा आप मुझे देना चाहें तो शायद एक बार के लिए मैं सोच भी सकता हूं।

इंस्पेक्टर - यार वो मंत्रालय के साहब लोग मेरे को कह रहे हैं, कि ये कौन है साला जो हमारे मंत्रालय के बारे में ऐसी उल्टी सीधी बातें कह रहा है, हमारे मंत्रालय की अपनी साख है, कौन हरामी ऐसा कह रहा है हमें। ये सब बोलके बहुत गुस्सा कर रहे थे। समझो न भाई मेरे ऊपर प्रेशर है।

बाबा - ओ! इंस्पेक्टर साहब गुस्सा वे कर रहे थे या आप कर रहे हैं। और सुनिए कौन है आपका साहब मुझे बताएँ, आप किसकी मुलत्वी कर रहे मैं भी देख लूं, मेरी बात कराएँ, मैं उनका मन शांत कर देता हूं, आप परेशान न होइए। दे दीजिए मेरा नंबर, कह दीजिए कि वे मुझसे संपर्क कर लें।

इंस्पेक्टर - अरे बाबा, ऊपर से आर्डर है, समझो। आपके ही इलाके का हूं मैं भी, इसलिए मैं नहीं चाहता आपको समस्या हो। इसलिए आपके भले के लिए मैं आपसे विनती कर रहा हूं कि एक बार आ जाइए।

बाबा - आ जाइए मतलब, ऐसे कैसे आ जाऊँ। अच्छा साहब ये बताइए, आपके मेरे बीच की बात हुई, ये वंचक मंत्रालय सच में ऐसा है क्या? मुझे तो पता ही नहीं था कि राजकीय मंत्रालयों की स्थिति आजकल ऐसी हो चुकी है। आप ही ने ये दिव्य ज्ञान दिया मुझे। आपके साहब लोगों के गुस्से से तो यही महसूस हो रहा कि स्थिति दयनीय है।

इंस्पेक्टर - मुझे ये सब जानकारी नहीं। मैं बस चार्जशीट से पूछताछ कर रहा हूं। आप मुझे कृपया बता दीजिए कि क्या आप कभी जुड़े रहे हैं वंचक मंत्रालय से। हाईकमान से प्रेशर है बाबा।

बाबा - आपकी पीड़ा समझता हूं इंस्पेक्टर साहब, लेकिन क्या आपको पता है मैंने कौन सी पढ़ाई की है।

इंस्पेक्टर - कौन सी पढ़ाई की है मतलब?

बाबा - मैं अभियांत्रिकी का छात्र रहा हूं, वो भी एक ऐसे काॅलेज से जहाँ लड़कियाँ अपने सलवार में दबा के फर्रा लेकर आ जाती थी। आपातकाल में लड़के शैम्पू से कुल्ला कर लेते, और एक बोतल पानी को फेंकते हुए हमारे शिक्षक हमें जल विज्ञान सीखा देते। हमारे शिक्षकगण हमें अपशब्दों से ही पूरा जीवन दर्शन सीखा देते। मैं ऐसे महान गौरवशाली परंपरा का हिस्सा रहा हूं। आप अंदाजा लगाइए हमारी ट्रेनिंग कैसे रही होगी।

इंस्पेक्टर - देखो बाबा ये सब ज्ञान हमें ना दो। हम भी पुलिस वाले हैं, दुनिया देखी है हमने।

बाबा - ठीक है, सुनिए मैं आपसे बस ये कहना चाह रहा कि ये सब खेल आप हमें ना सीखाएं और दुबारा परेशान मत करिएगा, आपको जिस विभीषण ने मुझे फोन करने के लिए कहा है, उसे कह दीजिएगा कि कोई दूसरा तरीका अपनाए, ये सब यहाँ काम नहीं करेगा।

और फिर इंस्पेक्टर साहब ने बाबा को दुबारा कभी फोन नहीं किया।

नोट : चार्जशीट नेपथ्य में है, विभीषण की तलाश जारी है। 

Stand up comedy vs. We the people

स्टैण्ड-अप काॅमेडी और हम - 

आजकल मेगा सिटीज में स्टैण्ड-अप काॅमेडी की धूम मची हुई है। बुक माई शो में जब टिकट के रेट्स देखे तो पैरों तले जमीन खिसकने जैसी हालत हो गई। 499 रूपए से शुरू होकर 1499 रूपए तक की टिकट हैं। रंगमंच वाले भी डुबने के लिए कोई एकफुटिया नाला न खोज लें, कहता हूं। खैर...
इन काॅमेडियन की बात करें तो इनकी भी अपनी अनेक श्रेणियाँ हैं -
- अर्बन लाइफस्टाइल बेस्ड स्टैण्ड-अप काॅमेडियन,
- प्रेम/रिश्तों आदि पर काम करने वाले स्टैण्ड-अप काॅमेडियन,
- शहरों में आकर नौकरी करने वाले अंग्रेजीदां नौकरों के दर्द को प्रमुखता से पेश करने वाले स्टैण्ड-अप काॅमेडियन,
- स्कूल/काॅलेज की यादों को बांचने वाले स्टैण्ड-अप काॅमेडियन,

और एक बच जाते हैं पाॅलिटिकल स्टैण्ड-अप काॅमेडियन।

अगर एक बार के लिए कंटेंट पर बात ना भी करें तो आप सबको पचा लेंगे लेकिन ये पाॅलिटिकल स्टैण्ड-अप काॅमेडियन की जो कैटेगरी है, इनका उद्देश्य कभी-कभी समझ नहीं आता है कि आखिर ये करना क्या चाहते हैं, बोलना क्या चाहते हैं। इनकी काॅमेडी और जोक की तो परिभाषा ही अलग हो चली है। भाषा का संयम नहीं, लेकिन बदलाव पूरे संसार का चाहिए। हिंसा, व्यभिचार, वैमनस्यता इनकी अभिव्यक्ति का मूल तत्व है। इनमें एक गजब की खूबी यह भी रहती है कि ये कैफे, सेमिनार हाल से लेकर टीवी स्टूडियो और स्टेज में भी शानदार प्रदर्शन करते हैं। हम कारण चाहे जो भी निकाल लें, लेकिन इनकी डिमांड आजकल सबसे ज्यादा है। 

टिकट के रेट्स देखकर आप भी अंदाजा लगाएं कि वे कौन लोग हैं जो इनका लाइव शो देखते हैं।











Tuesday, 28 January 2020

रायचुर की एक शाम

                    बैंगलोर प्रवास के बाद इन पिछले छह महीनों के दौरान कर्नाटक के विभिन्न इलाकों में जाना हुआ। इन अलग-अलग जिलों के भ्रमण के पश्चात् आज रायचुर में हूं। रायचुर में बारिश बहुत कम होती है, पेड़-पौधे ना के बराबर, पूरा पथरीला इलाका है, तेज धूप पड़ती है, लेकिन सबसे अच्छी बात यह है कि हवा खूब बहती है, इसलिए जगह-जगह पवन चक्कियाँ लगी हुई हैं। पथरीला इलाका तो कर्नाटक का कोप्पल जिला भी है लेकिन वहाँ इतनी हवा नहीं बहती है, अगर ऐसा होता तो पवन चक्कियाँ वहाँ भी जरूर होती। खैर....
                     ये सब बताने की असली वजह यह है कि आज इतने महीनों के बाद मुझे ये लग रहा है कि बैंगलोर में वाकई भयंकर वायु प्रदूषण है भले उतना समझ नहीं आता है‌ लेकिन है, व्यक्ति महसूस करना चाहे तो साँस लेते हुए अलग से महसूस होता है। यह फर्क आज इसलिए इतना महसूस हुआ क्योंकि यहाँ रायचुर की हवा बहुत हल्की है, एक अलग सी ताजगी है इस हवा में जो अभी तक कर्नाटक में और कहीं नहीं मिली। मतलब ये कह लो कि बचपन के वे दिन याद आ गये, जब खुली हवा में गर्मी की रातों में तारे देखते हुए सोया करते थे।





Monday, 27 January 2020

भारत का‌ नौकरीपेशा तंत्र


                   सरकारी तंत्र को जितना देखा है, जाना है‌, समझा है, जितना उसके बारे में पता चला है, उससे ये एक बात उभरकर सामने आती है कि वहाँ प्रतिशोध भी आहिस्ते से होता है, लंबे समय तक चलता है। आपकी उमर निकल जाएगी लेकिन आपका विरोधी आपसे बदला लेने के लिए कई बार आपको बहुत लंबा इंतजार करा देता है। 

              जैसे कि अगर कोई व्यक्ति भाग्यवश या चुनाव से ही वरिष्ठता में ऊपर है या कार्यालय में सीनियर है और अगर किसी अधीनस्थ या जूनियर ने कुछ उटपटांग कह दिया या कुछ नोंक-झोंक हो गई तो उसे उस वक्त छोटी सी सीख देकर किनारे कर दिया जाता है, फिर भी उसे हमेशा एक विचित्र किस्म का खतरा महसूस होता रहता है और अगर उसमें थोड़ी बहुत जमीर बची होती है तो वह एक बंद फाइल की तरह घुटन महसूस करने लगता है, क्योंकि मामले को किसी सरकारी फाइल की तरह पूरी तरह रफा-दफा नहीं किया जाता है, भविष्य के लिए संभाल‌कर रखा जाता है, पता नहीं कब कहां कैसे काम आ जाए। 

                  सरकारी विभागों में झगड़ों का निपटान भी चिरकाल तक चलता रहता है, कई दफा ऐसा भी होता है कि आपकी एक छोटी सी चूक को किसी ने सालों तक ह्रदय के किसी कोने में हवा पानी देकर जीवित रखा होता है, और एक दिन आपको अचानक से जबरदस्त झटका लगता है, आप धड़ाम से औंधेमुंह गिरते हैं, आप एक बार के लिए समझ नहीं पाते हैं कि यह कैसे हो गया, क्यों हुआ। इसलिए अधिकतर आप देखेंगे कि सरकारी तंत्र से जुड़ा व्यक्ति कुछ सालों में ही बहुत ही विनम्र और शांतचित्त सा प्रतीत होने लगता है। क्योंकि उसे ऐसा होने के लिए ट्रेन किया जाता है। और शायद सरकारी अमलों में झगड़े इसलिए भी रिटायरमेंट तक बने रहते हैं क्योंकि समय खूब होता है और सही मौके की तलाश कर दे मारते हैं। आज सरकारी तंत्र की इस खूबी का जिक्र इसलिए किया क्योंकि इस खूबी का शिकार भारत में सर्वत्र सभी तंत्र हो चुके है‌ं।

Saturday, 25 January 2020

My one year in Bhubaneswar

                         दो तीन साल तक रूक-रूककर पहाड़ों में बंजारा जीवन जीने के पश्चात (खैर बंजारा जीवन कम और निर्मोही जीवन कहना ज्यादा उचित होगा) जब लंबे समय के लिए मैदान लौटा तो मैदान में हमेशा की तरह निराशा हाथ लगी। घुमन्तु स्वभाव से अलग नयेपन की भूख थी, जीवन में सब किसी भी पहलू के दुहराव ना कर पाने की जिद भी थी। आखिरकार जब नहीं रहा गया और खालीपन घेरने जैसा महसूस होने लगा तो किसी और जगह की तलाश में जुट गया। लेकिन अब समय बदल चुका था, मेरे सामने ऐसी स्थिति आन पड़ी थी कि घर के आसपास कभी-कभी महीने में दर्शन देना भी अत्यावश्यक हो गया था, इसलिए सोचा कि ये एक साल भुवनेश्वर में रहा जाए और फिर जुलाई 2018 को मैं भुवनेश्वर चला गया।

                         इस दौरान ये पूरा साल मैंने आराम में बिताया, इस नये कल्चर को अपनाने में मुझे कोई बहुत ज्यादा समय नहीं लगा। शहर मुझे अपना रहा था और मैं इस सुंदर हरे-भरे शांत शहर को। इस दौरान कुछ अच्छे साथी दोस्त मिल गये, साथ मिलकर कभी मैदान में दौड़ लगाते, थोड़ा बहुत जिम कर लेते, थोड़ा बहुत अपनी मन की कुछ किताबें पढ़ लेते, ग्राउंड बनाकर खेल भी खेलते, अपने मन का खाना खाते और खूब घूमते। पूरा एक साल का ये समय अपने मन और शरीर को दिया, खूब दिया, इतना दिया कि जितना उसको चाहिए, कभी ज्यादा कोई खींचतान नहीं की, न कोई जोर लगाया न कोई तपस्या जैसी चीज रही। खींचतान या तपस्या के नाम‌ पर बस एक चीज यह रही कि कुछ कारणवश ट्रेन का सफर खूब करना पड़ा, संभवत् इस एक साल में अब तक की सर्वाधिक रेलयात्राएँ मैंने की होगी। सामने पूरा एक भविष्य पड़ा हुआ था, क्या आगे करना है से कहीं अधिक क्या क्या जीवन में बिल्कुल नहीं करना है, इन सब चीजों को लेकर गहन मंथन भी इसी दौरान चलता रहा, इसी एक वर्ष से आगे के एक मेरे पूरे जीवन का निर्धारण होना था, इसलिए अपने प्रति सजग भी रहना था और सावधान भी रहना था।
क्या और कौन मेरे लिए प्रेरणादायी हैं, क्या नहीं है?
किन किन तरीकों से मेरा व्यक्तित्व का उत्तरोत्तर विकास हो?
क्या मैं नहीं है और क्या मैं असलियत में हूं?
मेरी अपनी क्षमताएँ और सीमाएँ क्या हैं?
आगे के जीवन में मुझे क्या क्या करना है?

              ऐसे अनगिनत सवालों को लेकर रोज मंथन चलता रहा, रोज रूपरेखा बनती रही, बिगड़ती रही, ये सिलसिला चलता रहा फिर भी इस पूरे समय को मैंने सम्यक् भाव से बिताया, और उसे बिना किसी झोल के संपूर्णता के साथ जिया।
                इस शहर से मुझे एक अलग ही तरह का लगाव हो गया है, जो शायद अब मेरे स्मृतिवन में आजीवन रहे। सचमुच इस शहर ने मुझे बड़े मन से स्वीकारा, खूब प्रेम दिया। अंत में जब इस शहर को छोड़कर जब मैं अपने नये सफर पर निकलने वाला था, तो इस शहर ने मई 2019 में विध्वंसकारी साइक्लोन फनी झेला, सब कुछ कुछ घंटों में तबाह हो गया था, लाखों पेड़ टूटकर गिर चुके थे, खूब नुकसान हुआ, चारों ओर त्राहिमाम जैसी स्थिति हो गई थी, इन सब का मैं भी भागी रहा। वैसे तो दो दिन पहले शहर खाली करने का लिखित नोटिस आ गया था, फिर भी मैंने सोचा कि इतने लोग तो अभी भी हैं, वे कहाँ जाएंगे, सब यहीं तो रहेंगे, बस इस एक बात ने रोक लिया। बिना बिजली, पानी के सप्ताह के सप्ताह जीवन कैसे जिया जाता है, लोगों की स्थिति कैसी हो जाती है, यह खुद वहाँ रहकर भोगा, देखा, जाना, समझा। वहाँ की यादों के नाम पर तो मेरे पास बहुत कुछ है, लेकिन सब कुछ लिखकर बता दिया जाए ऐसा भी कई बार संभव नहीं होता है इसीलिए तस्वीरों के माध्यम से इस यात्रा को समेट कर आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं।



पिंक हाउस, पुरी


चक्रतीर्थ रोड, पुरी



फ्रेंड्स कैफे


चंद्रभागा की एक शाम


रोड ट्रिप, मरीन रोड, कोणार्क


चंद्रभागा


डिकॅथलान, भुवनेश्वर


मेरे द्वारा पहल हुई और बैडमिंटन कोर्ट बना था


हमसफर एक्सप्रेस


वाइल्डलाइफ रेस्तरां, पुरी


साइक्लिंग


एस्काॅन मंदिर, भुवनेश्वर


अपना कैब


Ekamra Park, Nayapalli


जनता मैदान, भुवनेश्वर



Eram rooftop, जयदेव विहार


हुक्का, नाइटलाइफ


पुरी भुवनेश्वर के बीच कहीं रात 3 बजे रोड ट्रिप के दौरान


रेल्वे स्टेशन, भुवनेश्वर


फोरम माॅल



साइक्लोन के समय की लिखित प्रतिलिपि


Odishi bhel


Veg thali only at 50 rupees


Chicken gupchup


Odisha's famous dahi vada


Macha thali means fish thali


Tandoori momos


Dahi pakhala


Sarbat at CRPF Square


Ram bhai's famous lemon tea, CRP Square


Thursday, 23 January 2020

यादों के‌ झरोखे से - भाग-२

                         आज से ठीक 10 साल पहले इन घरों को, इन ईमारतों को, ये सुंदर तालाब और उनके किनारे सजी तरह-तरह की दुकानें, ये गलियाँ, ये चौबारे, इस पूरे शहर को मैं जिस नजर से देखा करता था, लगता है अब वह नजर कहीं खो सी गई है। सब कुछ जानने समझने के दंभ और चाह की वजह से शायद हम छोटी-छोटी खुशियों को जीना ही भूल गये हैं। आज ऐसा लगता है जैसे इस शहर में कुछ नयापन कुछ ताजगी है ही नहीं, या कहीं ऐसा तो नहीं कि आंखों के सामने सब कुछ धुंधला सा हो गया हो, या दिखना ही बंद हो गया हो। क्योंकि दस साल पहले तो इतनी समझ भी नहीं थी, शायद इसलिए भी एक अलग तरह की ताजगी थी उस दरम्यान। किन-किन शब्दों से बयां किया जाए आखिर उस अहसास को, जो पहली बार एक बड़े शहर में कदम रखने पर मिलता है, कांच की खिड़की नीचे कर बारिश की हल्की फुहारों के बीच बाहर ताकते हुए, उस शहर को देखते हुए मानो एक अलग ही किस्म की रचनात्मकता मन में हिलोरें मार रही होती है। ठीक कुछ वैसी ही जैसे पहली बार साइकिल में पैडल जमाना सीख लेना, या फिर बाइक में संतुलन बना लेना, या फिर वो पहली दफा पानी में हाथ-पाँव मारते तैराकी सीखना। कुछ ऐसी ही सृजनात्मकता महसूस होती है। 


यादों के‌ झरोखे से - भाग-१

‌              मार्केट का उपभोक्ता बनकर कुछ चीजें बस यूं ही इसलिए भी खरीद लेता हूं क्योंकि ये छोटी-छोटी दैनिक जरूरत की चीजें सिर्फ मेरे लिए एक वस्तु न होकर यादों का एक पुलिंदा होती हैं। इनमें छिपी सुगंध कई वर्ष पीछे ले जाकर स्मृतियों से रूबरू कराती हैं, लोगों से बातें कराती हैं, घरों से, उन गलियों से मिलवाती हैं, जिन्हें दशकों पहले छोड़ आए थे। उन गानों की याद दिलाती हैं जो सालों पहले चबूतरे में बैठकर सुना करते थे या फिर खान-पान के वे‌‌ तरीके जिसे हमारी जिव्हा कब का छोड़ चुकी होती है। सहेजने वाले लोग क्या-क्या नहीं सहेजते हैं, कितनी वस्तुएँ इकट्ठा कर लेते हैं, अपनी यादों के झरोखों से एक पूरा कमरा भर लेते हैं और शायद मैं ऐसा कभी नहीं कर पाता हूं इसलिए भी एक निकृष्ट सी वस्तु की थोड़ी सी स्निगधता से पूरे एक समयकाल को संजोने की उधेड़बुन में जुट जाता हूं।

Wednesday, 22 January 2020

लोकतांत्रिक प्रेमिका

वह बोलती बहुत कम है,
इतना कम कि प्रेम शब्द भी खुद को सूखे से प्रभावित हुआ महसूस करने लगता है,
इस शब्द का जिक्र भी तो वह महीने साल में कभी करती है,
जब जब करती है, पूरा वातावरण भारीपन लिए हो जाता है। 
फिर भी इस बात में कोई शक नहीं कि वह पूरी जीवंतता के साथ प्रेम से भरी हुई लड़की‌ है।
वह खुद कहती है मुझे इन शब्दों से जुड़े लतीफे बार-बार दुहाराना नहीं पसंद आता है, 
मुझे हमेशा तुममें अपने होने की उपस्थिति इस तरीके से देना कुछ ठीक नहीं लगता है।
वह स्वतंत्रता की भूखी है, और सामने वाले को देकर बदले में भी वही पा लेना चाहती है।
वह प्रेम के साथ समस्त जीवन मूल्यों को जीती है,
कम बोलकर भी बहुत कुछ बोल जाती है, 
बहुत कुछ छुपा लेती है, बहुत कुछ अलग कर लेती है, 
लेकिन अपनी खुशी अपनी स्वतंत्रता को हमेशा आगे रखती है
और बाकी सब पीछे कहीं छोड़ कर आगे निकल जाती है।
सच्चे मायनों में वह एक लोकतंत्रिक प्रेमिका है।


Towards the end of Achievement -

तुम अविचल अविरल यूं ही आगे बढ़ते रहना,
मुझे पता है तुम कहाँ आकर थम जाओगे,
मैं जानता हूं कि वहाँ से आगे भी नहीं बढ़ पाओगे,
रोओगे, चिल्लाओगे, निराश हो जाओगे
फिर भी कोई सुनने वाला न होगा।
मैंने उस ऊँचाई का प्रताप देखा है,
जहाँ से नीचे सब साफ दिखाई देता है,
और जहाँ सिर्फ विरले ही जा पाते हैं।
इसलिए फिर कहता हूं अंधाधुंध बढ़े चलो,
तुम्हारी नियति में यहीं तक का सफर लिखा है।
जिसे तुम अंत समझते हो, वह मेरी शुरूआत है।
मैं पूरी सरलता से यहाँ तक आया हूं,
और तुम अनगिनत जटिलताओं के साथ।
इसलिए हो सके तो मुझे क्षमा करना,
और अपने दुःखों का पहाड़ मुझे मत बताना।



Tuesday, 21 January 2020

Crying of lost lamps in the dark


फिर वही रोना अँधेरे में गुम चिरागों का
वही कालिख का है दावा कि रोशनाई है ।। 
(लिखते लिखते थक गया, आप पढ़ कर बेहोश होने से बचें) 

यह जो पूरे देश में मुस्लिम बहुल इलाकों में और संस्थाओं में आंदोलन चल रहा है वह पार्टीशन के पहले के उपद्रवों से अधिक व्यापक है। मैंने उसे भी देखा था, इसे भी देख रहा हूँ। पहले मुसलमानों की अतिभावुकता के कारण देश बँटा था। अब उसी के कारण दिल और दिमाग बँटने जा रहा है। पहले से किसी का लाभ नहीं हुआ समस्याएं अधिक बढ़ीं, दूसरे से वे महामारी का रूप ले जा रही हैं

बँटवारा जल्दबाजी में, बिना अग्रिम तैयारी के, इतने दबाव में किया गया था, कि किसी विफलता के लिए किसी किसी त्रासदी के लिए किसी को दोष नहीं दिया जा सकता। ऐसी स्थितियों में भाग्य को दोष देने की इस देश में लंबी परंपरा है। उसे ही दोष देना होगा। भाग्य से ऐसा वाइसराय मिला जिसने फौजी होने के कारण फौजी ढंग से, आनन-फानन में फैसले लिए। भाग्य की बात है, उसी अवसर पर उसने अपनी इज्जत परोसते हुए किसी को विधुरता की पीड़ा से बचा लिया और भारत की स्वाधीनता के लिए 15 अगस्त की वही तिथि तय की जिस दिन उसने जापानियों पर विजय प्राप्त की थी, पहली अंग्रेजों से लड़ने वालों पर विजय। दूसरी ब्रिटिश राज्य से द्रोह करके स्वतंत्र होने वालों को टुकडे टुकड़े करने की विजय। भाग्य में यह भी बदा था कि स्वाधीन पहले पाकिस्तान हुआ था, भारत को प्रतीकात्मक रूप से ही सही, उसके बाद स्वाधीनता मिली थी साथ ही भारत को स्वाधीनता कुछ शर्तों के साथ मिली थी जिन को मानने से पाकिस्तान जिन्ना ने इन्कार कर दिया था जिनमें से एक महारानी की अधीनता अर्थात् कॉमनवेल्थ का हिस्सा बनना और अंतिम वायसराय को प्रथम गवर्नर जनरल बनाकर समय भारत को कुछ और बर्बाद करने के लिए रखना था। 1 दिन पहले पाकिस्तान पूरा स्वाधीन हुआ था, भारत में अधूरा सत्ता परिवर्तन हुआ था। चर्चिल ने कहा था माउंटबेटन वह कुशल कूटविद है जो शिकार पर चोंच मारने वाले बाज को भी पीछे हटा सकता है असंभव को संभव बनाने की योग्यता वाले माउंटबेटन ने भारत का गवर्नर जनरल रहते हुए यथाशक्ति पाकिस्तान के हितों की रक्षा की और भारतीय समस्याओं के हल में रुकावट डालता रहा। भाग्य मे बचा था तो किया क्या जा सकता। 

बंदा जो भी रहो हो, समुचित प्रबंध किए बिना, जो कुछ हुआ था वह मैदानी युद्धों से अधिक भयानक, अधिक बीभत्स, अधिक हाहाकारी, अधिक संहारकारी था। 

हिंदुओं ने इसकी मांग नहीं की थी। नहीं कहा था कि मुसलमानों के साथ शांति से नहीं रहा जा सकता। एक हिंदू संगठन ने आसन्न बँटवारे को देख कर पृथकतावादी घोषणाएँ की थीं। परंतु उस समय उसकी औकात क्या थी। पटेल ने इसी संदर्भ में कहा था, किसके लिए, याद नहीं, कि गाड़ी के नीचे चलने वाला कुत्ता समझता है सारा बोझ वही ढो रहा है। टिप्पणी कम्युनिस्ट पार्टी के विषय में रही हो या संघ के विषय में, यह उनकी औकात सिद्ध करता है इसलिए जिस कथन को बार-बार उद्धृत किया जाता है, वह आर्तनाद से अधिक कुछ नहीं था। जो लोग अपनी जिम्मेदारी से भागने के लिए सारा इल्जाम उस वाक्य पर थोपना चाहते हैं, वे अनर्थ को घटित होने की जिम्मेदारी से नहीं बच सकते, न ही संघ या उससे समर्थित दल यह दावा कर सकते हैं, कि उनका संगठन जिस के आदर्शों पर चला था, उसके दुष्कृत्यों के सामने आने के बाद उसने अपना चरित्र बदल लिया। 

परंतु सत्ता में पहुँचने वालों ने कभी नैतिकता का निर्वाह नहीं किया है। इसलिए आप उसे कोस सकते हैं, परंतु जो रूपक पटेल ने खड़ा करते हुए किसी को गाड़ी के नीचे चलने वाला कुत्ता कहा था, उसके विषय में आज सोचने का दिन आ गया है कि की गाड़ी कौन खींच रहा है और गाड़ी के नीचे कितने कुत्ते चल रहे हैं और दावा करते हैं कि गाड़ी चला रहे हैं। इस परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कौन है। 

प्राचीन भारत का वह कलुषित इतिहास, वह वंशाधिकार जिसके विरुद्ध, सुगबुगाहट आरंभ हुई थी, उसके लिए जिम्मेदार कौन है, जिसने महाज्वाला का रूप ले कर उन्हें राख कर दिया। समय होश में आने का है, होश खोने का नहीं, इसलिए मैं यह भी याद नहीं दिलाऊंगा किआजादी मिलने के बाद देश को बांटने वाले देश के भीतर ही क्यों रह गए, क्यों जिस तरह राष्ट्रवादी हिंदुओं ने संकीर्णता वादी राजनीति करने वाले हिंदुओं को लगातार अलग-अलग मौकों पर याद दिला कर नंगा करने का लगातार प्रयत्न किया वैसे ही उंगली पर गिने जाने वाले राष्ट्रवादी मुसलमानों ने उनके ऊपर उँगली कभी भी क्यों नहीं उठाई जिन्होंने देश को बांटा भी था और यही रह गए और रातों-रात लिबास बदल दिया कुर्बानी देने वालों से अधिक ऊंची आवाज में इस बात का डंका पीटते रहे कि बलिदान उन्होने दिया है और साथ ही परदे के पीछे से ही लड़के लिया है पाकिस्तान हँस कर लेंगे हिंदुस्तान, उसी नेहरू के शासनकाल में नारे भी लगवाते रहे, भारत और पाकिस्तान के क्रिकेट मैचों में पाकिस्तान की जीत पर जलसे मनाते रहे और नेहरू को यह पता चला भी हो कि उन पर छींटाकशी की जा रही है, तो भी उन्हें इस कड़वे घूँट पीते हुए भी उन सभी के प्रवेश से फुल कर अंतर व्याधि से ग्रस्त कांग्रेस का हिस्सा बनाना ही था।

आदर्शों की दुनिया में आदर्शों का मोल होता है। ऐसी दुनिया आपके ख्यालों में और किताबों में होती है जमीन पर नहीं। यथार्थ की दुनिया में उसके नियमों के अनुसार चला जाता है खयालों के अनुसार यथार्थ को ढालने का प्रयत्न अवश्य किया जाता है, पर ख्वाब से नहीं, यथार्थ के नियम से।

पहले जो कुछ मुसलमानों की असहिष्णुता और कम्युनिस्टों के अदूरदर्शी सहयोग से हुआ था, इस बार भी दोनों के सहयोग से हो रहा है, जिसमें अंगरेजों की भूमिका में ईसायत-नियंत्रित कांग्रेस है। जो इस नंगी सच्चाई को नहीं जानता या जानते हुए नहीं मानना चाहता उससे मेरी कोई बहस नहीं। 

आज जब सत्ता और विपक्ष एक दूसरे को देश को बाँटने वाला बता रहे हैं, दोनों में कौन सही है कौन गलत इसके निर्णय की योग्यता मेरे पास नहीं है। एक आशंका अवश्य है कि एक बार यह वादा करने के बाद कि राष्ट्रीय नागरिकता सूची अभी नहीं लाई जाएगी, और संसद से पास नागरिकता संशोधन कानून नागरिकता देने के लिए है, किसी की नागरिकता लेने के लिए नहीं , यह यदि चालाकी से भी कहा जा रहा हो तो भी यह राजनीति करने वालों के लिए नई बात नहीं है। न तो चालाकी से पहले कोई न बाज आया है न आएगा न किसी को रामनामी देकर राजनीति करने का उपदेश दिया जा सकता है, इसलिए ध्यान इस पर दिया जाना चाहिए कि समाज में इसका संदेश क्या जा रहा है। और उसका फायदा किसको मिलने जा रहा है, विरोध जरूरी है तो भी संवैधानिक तरीके उपलब्ध होते हुए रास्तारोकू आंदोलन का रूप देने से लाभ किसे हो रहा है? जिसके विरुद्ध आंदोलन किया जा रहा है इसका पता जरूर होना चाहिए।
बयान कोई कुछ भी दे, आंदोलन में भाग मुख्यत: मुस्लिम महिलाओं को इस योजना के तहत खड़ा किया गया है कि उनके सामने पुलिस को पसीने आ जाएँगे। अर्थात् यह इंजीनियर्ड आन्दोलन है जिसमें सबको अपना डायलाग ही याद नहीं है, सभी अपना चेहरा दिखाने के लिए बेताब भी हैं। याद किसी को सिर्फ यह नहीं है कि इसके परिणाम क्या होने वाले और समाज में किन प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने वाले हैं। 

पढ़े लिखे लोग जितने अधिक प्रचंड ज्ञानी होते हैं उतनी ही प्रचंड मूर्खताएँ करते हैं और इसका दुहरा नुकसान होता है क्योंकि कम पढ़े लिखे लोग गलत को गलत मानने में बहुत लंबा समय लगा देते हैं, वे सोच ही नहीं पाते कि इतना बढ़ा विद्वान भी गलती कर सकता है जबकि वह विद्वान आदमी सामान्य व्यवहार के मामले में अनपढ़ व्यक्ति की अपेक्षा कम समझदार होता है। उसे किताबी जुमलों, किसी अन्य देश-काल में एक भिन्न समाज द्वारा आजमाए गए तरीकों का पता होता है और उन्हें वह अपनी वर्तमान समस्या पर लागू करके सुलझाने का प्रयत्न करता है। इतिहास लौटता नहीं है, प्रत्येक देश और काल की परिस्थितियां अलग होती हैं, एक के औजार दूसरे के काम नहीं आते। विद्वान को अपने विषय की बातों के अलावा दूसरी चीजों का - यहां तक कि जिस चावल दाल सब्जी को रोज खाता है उसके भाव तक का तब तक पता नहीं होता जब तक वह छप न जाए। वह अपनी रोटी तक नहीं सेंक सकता, अपने विषय को छोड़कर लगातार गफलत में रहता है. और इसी मामले में जीवन व्यवहार की समस्याओं के समाधान में प्रतिभा में समान पर कम पढ़े लिखे लोग उससे अधिक सही और दूरदर्शी निर्णय कर लिया करते हैं। इस दुर्भाग्य को समझना चाहिए। मीडिया के व्यावसायिक हितों और सदिच्छा के बीच के संतुलन - असंतुलन पर भी, विद्वानों की हितबद्धता और विवेक, राजनीतिज्ञों के सिद्धान्त और सत्तालोभ और बुद्धिजीवियों के व्यावहारिक ज्ञान और दंभ के भीतरी तारों की बनावट को भी समझा जाना चाहिए। भरोसा इनमें से किसी पर नहीं किया जा सकता पर सारा खेल राजनीतिक दलों की घबराहट और इनकी सहभागिता से चल रहा है। 

अपने को ज्ञानी समझने वालों और किताबों की सड़ी जानकारी पर भारोसा करने वालों के कारण बार-बार धोखा खाने के बाद भी उनके अड़ियलपन का दुष्परिणाम पूरे देश को भोगना पड़ा है। इसके बाद भी उनकी महानता के गीत गाते हुए गलतियों को सुधारने का प्रयत्न नहीं किया गया है। उनसे छोटी हैसियत के लोग उनकी गलतियों को दुरुस्त कैसे कर सकते हैं, उसके लिए उससे भी बड़े विद्वान, अधिक अव्यावहारिक व्यक्ति की तलाश करनी होगी जो उन गलतियों को दूना कर सके, परंतु किसी एक का भी समाधान न कर सके। ऐसे लोगों के दुर्भाग्य से लोगों को विश्वास है कि कई गलतियों का इलाज हुआ है।

दुनिया के योग्यतम शासक जमीनी यथार्थ से परिचित होने के कारण अपेक्षाकृत कम शिक्षित होने पर भी अधिक सफल शासक सिद्ध हुए हैं। नामावली आप तैयार कर सकते हैं। मध्यकाल में मोहम्मद बिन तुगलक [1] दाराशुकोह और बहादुरशाह जफर सबसे अधिक विद्वान थे, अपने आदर्शों के कारण सत्ता के मामले में सबसे असफल। अलाउद्दीन, शेरशाह, अकबर, गुरिल्ला युद्ध के जनक राणाप्रता, शिवाजी और हैदर अली के बारे में कुछ नहीं कहना। औरंगजेब भी खासा पढ़ा लिखा था, लिखा था। उसने सत्ता सँभालने पर उस्ताद का वजीफा कम कर दिया। उस्ताद को लगा कहीं चूक हुुई हुई है, तलब तो अब दूनी होनी चाहिए। मिलने पहुंचे तो लंबी इंतजार के बाद बड़ी मुश्किल से मुलाकात के बाद औरंगजेब की फटकार कि तुमने हमारा जीवन खराब कर दिया, बेकार की चीजे सिखाने पर समय बर्बाद कर दिया, जिनका एक बादशाह के लिए कोई उपयोग नहीं। एक बादशाह को देश दुनिया की जो चीज है जाननी चाहिए उसका कुछ जानने नहीं दिया। रहा सहा वजीफा भी बन्द। 

दो बातें और। औरंगजेब को सिपहसालार बना कर युद्ध पर भेजते हुए शाहजहां ने उसके दो बेटों को बंधक बनाकर रखा कि वह किसी तरह की शरारत न करने पाए। औरंगजेब ने अपने विद्रोही बेटे को लम्बी तलाश के बाद मरवा दिया। नेहरू की जगह दूसरा कोई नेता होता तो अपनी और अपने निर्णयों के शिकार लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सही तरीका अपनाता। दोनों देशों में या कहें तीनों देशों में किसी को कोई नुकसान नहीं होता। सभी आराम से रहते। कोई समस्या नहीं खड़ी होती। लड़ाई झगड़े नहीं होते। लगातार तनाव और युद्ध की तैयारी पर आज खर्च की जाने वाली दौलत शिक्षा और आर्थिक विकास पर खर्च होती। प्रतिस्पर्धा युद्ध की नहीं आर्थिक दृष्टि से एक दूसरे से आगे बढ़ने की होती। पूरा भारत बँटने के बाद भी आज की अपेक्षा बहुत तेजी से विकसित हो रहा होता और दूसरे देशों का नेतृत्व करता, जिनमें इस्लामी देश ही नहीं, दक्षिण पूर्वी एशिया के भी देश आते हैं। एक नया जागरण देश से परे पूरे क्षेत्र का होता जहां भारतीय संस्कृति का कभी प्रवेश था पूरी तरह सुरक्षित रहते, हवाई आदर्श से समाधान तलाशने के कारण नेहरू ने, अधिक गलतियां की, गलत परंपराएँ डालीं। लाल बहादुर शास्त्री के दौर का ढाई साल के भीतर लोग नेहरू को भूल गए। 

तुलनात्मक रूप में देखें तो नेहरू के समय में देश पीएल 480 का जानवरों के चारे जैसा गेहूँ खाता रहा और अमेरिका की इस सलाह को सत्य मानता रहा कि उसकी सहायता के बिना भारत भूखों मर जाएगा। ढाई साल में देश खाद्य के मामले मे आत्मनिर्भर हो गया, सीमाएं सुरक्षित हो गई। जीत दर्ज की गई और इसके बदले में जहर देकर उनकी हत्या कर दी गई। उनके नीले चेहरे को मैंने देखा था और आशंकित हुआ था। 

यहां में किसी की बड़ाई नहीं कर रहा हूं। किताबी आदमी और व्यावहारिक आदमी के अंतर की बात कर रहा हूं। उस जमाने से कुछ लेना-देना नहीं। उसके अनुभव से आज की परिस्थितियों में निर्णय लेने की शक्ति जिनके पास है उनके इरादे जानने की योग्यता नहीं,. पर दक्षता में उन्होंने अधिक परिपक्वता दिखाई है। वे सारे आप्शन खत्म करते हुए लोगों को इस बात के लिए बेसब्र कर देते हैं कि अब तो कोई कठोर कदम उठाना ही चाहिए।

आज दावा किया जा रहा है समाज को संप्रदायिक आधार पर बांटा जा रहा है। इनके शासन में क्या अब तक भारत के नागरिक किसी भी हिंदू या मुसलमान या ईसाई के प्रति भेदभाव से व्यवहार किया गया है? 2014 से पहले भारत की परिसंपत्तियों पर अल्पसंख्यकों का अधिकार था। वह अधिकार अवश्य समाप्त हुआ है। केवल मुसलमान गरीबों को 5 या 15 लाख तक का ऋण मिल सकता था, अब जो भी मिलना है सबको मिलेगा। कर्ज का एकाधिकार अवश्य कम हो गया। बहुसंख्यक (हिंदू) और अल्पसंख्यक (मुसलमान और ईसाई) के बीच में यदि किसी तरह का फसाद हुआ हिंदू को अपराधी मानकर उसके विरुद्ध कार्यवाही की जाएगी, यह कानून आते आते रह गया। ये अन्याय तो हुए जिससे दोनों असुरक्षित अनुभव करने लगे, और इस नए कानून से अल्पसंख्यकों को कोई नुकसान नहीं, पर मुस्लिम देशों से प्रताड़ित या भयभीत हो कर आए और नरक की जिंदगी जीने वाले हिंदुओं को राहत मिल सकती है, इससे आतंकित हो कर इतने बड़े पैमाने पर यातायात को अवरुद्ध करके आम हिंदुओं के भीतर आतंक और उपद्रव से सरकार बदलने का प्रयत्न कर रहे हैं तो समाज को यदि वे बाँटना चाहते हैं तो उन्हें आप जैसे सहायकों की जरूरत है जो जनता के धैर्य को चुका कर उसके मन में यह विश्वास पक्का कर दें कि दूसरे सभी दल उपद्रवियों के साथ हैं, हमारी रक्षा केवल भाजपा ही कर सकती है। उसका संभावित नारा अबकी बार 400 पार। 

मैंने कहा था परिभाषाएं सही कर देने से ही बहुत सी समस्याओं का जवाब तैयार हो जाता है। मैंने एक तुकबंदी जड़ी, कहा आप को इस देश ने जो दिया है वह कोई मुस्लिम देश भी अपने नागरिकों को नहीं दे सकता। ऊपर की फेहरिश्त के अलावा वोट के लिए मुल्ला बनने वाले और निहत्थों पर गोली चलाने वाले समाजवादी, गाडृी के आगे चटाई बिछाकर नमाज पूरी होने से पहले गाड़ी सहित इंतजार करने वाले यात्री और ड्राइवर, रस्सी से घेर कर नमाज के लिए सुरक्षित प्लेटफार्म, सड़क रोक कर नमाज अदायगी की जगह, अब लोगों गुजरने का अधिकार छीन कर अनन्त काल तक चलने वाला प्रदर्शन, तुमने समस्याये दी हैं, समाधान नहीं। पहला मौका है अनाथ की जिन्दगी वर्षों से जी रहे लोगों को नागरिक बन कर जीने के अधिकार में तो बाधक न बनो तो इसका इशारा तक लोगों की समझ में नहीं आया। कहने लगे अभी तो कुछ दिया नहीं, अभी बहुत कुछ देना होगा।

देश को बाँटने वाले यदि वे हैं जो इतना सहते हैं जो कोई मुस्लिम देश नहीं झेल सकता और जोड़ने वाले आप हैं तो बाँटने वालों के सबसे बड़े मददगार कौन हैं? और जिस फासिज्म का खतरा बता कर कल तक लोगों को डराने का प्रयत्न किया जा रहा था उसका रास्ता कौन तैयार कर रहा है, हिंदुत्व को अजेय कौन बना रहा है ,इसका निर्णय मैं नहीं करना चाहता। अगले चुनाव तक पता नहीं क्या क्या देखना बचा है।

द्वारा - भगवान सिंह

Monday, 20 January 2020

Yoga Experiences


E1- एक घंटे तक वह ध्यानावस्था में था। ध्यान के ठीक पहले उसने जंगल का फल खाया था और ध्यान के ठीक बाद उसने उसी फल को खाया, उसे स्वाद में परिवर्तन महसूस हुआ। फल तो वही था, लेकिन बदलाव जिव्हा ने महसूस किया। घंटे भर में हवा बदल चुकी थी।

E2- उस दिन उसने दोपहर में आधे घंटे ध्यान किया, इसके पश्चात् वह बच्चों के साथ खेलने लग गया, बच्चों के साथ बिताया गया पंद्रह मिनट उसे आधे घंटे के ध्यान से कहीं अधिक कीमती महसूस हुआ।

E3- उसने एक दिन पंद्रह से सोलह मिनट ध्यान किया, उसे लगा कि शायद वह योगारूढ़ तो नहीं है, क्योंकि दसवें मिनट से ही पद्मासन में बैठने के बावजूद उसके पाँव तेजी से ऊपर उठने लगे थे और वह पंद्रहवें मिनट में पीछे पीठ के बल गिर चुका था।

E4 - घंटों इस तरह बैठने के बाद उसकी समझ बनी कि ध्यान एक अलग ही चीज है, उसका संबंध सिर्फ आसन में बैठने से नहीं है, ध्यान कहीं भी कभी भी कैसे भी संभव है। चित्त की स्थिरता भर के लिए आसन में बैठने वाला व्यक्ति भी क्रूर घातक हिंसक हो सकता है, इसलिए ध्यान की संपूर्णता सिर्फ आसन में नहीं वरन् शीलपूर्वक किए गये आत्म अनुशासन में है।

We the people ( Priority Matters ) By Himanshu Kulkarni


Currently, due to some incidents, people from all walks of life are coming together for or against any issue. But my question is – Do these things really matter? Do we discuss the issues of unemployment, environment, etc. How many of us read newspaper reports, research findings, watch quality panel discussions? Basically, what are our priorities?

The working of the Government is merely a reflection of our actions. If we are not conscious of our surroundings then how can we expect that Government should be? Government is a body of elected people like you and me. Do we all vote at the time of Elections? What is our criterion while voting? Which of the following things do we consider – Candidate, Party, Religion, Caste, Manifesto, Ideology or Cash? The criteria applied by us define the results we are going to receive from the Government.

Let us assume that we want our government and expect it to frame policies, laws on real issues. For example, we want the Government to address the Environmental crisis. The Government declined to extend the date for rolling out new vehicles and fuel which are BS-6 compliant and are more 8environmentally friendly. Both the industry and the people opposed this. Some industrialists came forward to say that they are ready to comply with the law. This triggered the sale of BS-3, BS-4 vehicles at huge discounted rates like a clearance sale. The effect was that the objective behind the rule was dishonoured. But who were the buyers? Again, you and Me. It is very natural to buy goods under offers.  Some people might say that we were not the buyers. But we cannot deny that directly or indirectly through our relatives, family, friends we are all part of it. 

Even if the Government tries to implement some sound policies they are either criticized or the purpose fails. Then how can we expect that the Government must bring sound policies in the future? Democratic Governments run on the will of the people. Politicians and Parties know the price they will have to pay for going against people’s will.

Now, what is our opinion or will? How do we form it? Are they on the basis of unverified messages forwarded on social media (Whatsapp University Students) and Youtube videos? Do we form them by reading extremely biased newspapers and magazines? Or from the social media handle of a particular ideology? Do you think really think that the information feeded to people now-a-days is totally trustworthy?

People following a particular media are not ready to see the other side or perspective of the issue. Are we ready to see beyond our set of thoughts and beliefs? Knowledge and opinion of one side of the issue doesn’t make full sense. We need to go further and understand other side of the issue. This not only improves our insight but also has positive impact on the Government. If we are fully aware about our surroundings then we engage our Government to act upon real issues. When Government knows that people are asking questions about Rights, Economy, Agriculture, Development which are the issues affecting our lives directly, it is left with no choice but to deliver.

Unless we give priority to these issues, the government will not. We need to go beyond Mandir-Masjid, Hindu-Muslim, Right-Left. While we fight on this, whichever party is in power will keep on inventing non-issues to fool us.

By - Himanshu Kulkarni