'हवा मिट्टी पानी और अखिलेश'
लेकिन ये चारों कितने साल बाद मिल रहे हैं। शायद इन्हें भी अच्छे से नहीं पता। कितने दशक बीत गए होंगे और आज जब चारों व्यास नदी के तट पर मिल रहे हैं तो उत्सव सा माहौल है। सबके पास बताने के लिए कितना कुछ है। सब एक-दूसरे को देखते हैं, हाल-चाल पूछते हैं और फिर चारों की बातें शुरू हो जाती है।
हवा- तुम इतने साल कहां थे अखिलेश, इतनी देर कैसे लगा दी आने में। और ये क्या हाल बना रखा है, तुम्हारे चेहरे का रंग गायब है।
अखिलेश- एक स्कूल करके जगह होती है, तेरह साल मैं वहां रहा, फिर चार साल कालेज। और उसके बाद फिर कुछ साल एक विशेष पढ़ाई पढ़ ली,दो-तीन साल उसमें लग गए। इसलिए आने में इतनी देर हो गई। और तुम कहां थे, तुम क्या मुझे बुला नहीं सकते थे। इतने साल अकेला रहा मैं, मेरे दोस्त यार छूटते गए, कोई भी नहीं बचा। अब जबकि सब पीछे छूट गए तो तुमने मुझे बुलाया है। मेरे लिए ये कितने दुःख की बात है कि तुम तीनों के अलावा मेरे पास और कुछ नहीं बचा है। मन को सुकून पहुंचाने के लिए तरह-तरह की बातें हैं और तरह-तरह के लोग, लेकिन कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे मैं अपना कह सकूं।
मिट्टी- तुम अपनी पढ़ाई, अपने भविष्य और अपने दोस्तों के बीच मस्त थे इसलिए हमने तुम्हारी जिंदगी में दखल नहीं दिया। हमें विश्वास तो था कि देर-सबेर तुम आओगे जरूर। खैर इसे देखो, हवा कितनी नाराज है तुमसे, यही तुम्हें सबसे ज्यादा याद करती थी।
हवा- मैं न याद करूं इसे। ये तो इतने साल मेरे जहरीले रूप को ही ग्रहण करके खुश था। मेरे लिए कुछ किया भी है इसने वहां रहकर, मुझे तो इसने कहीं का नहीं छोड़ा, मुझे लोगों का दुश्मन बना दिया, और अब यहां थोड़ी साफ-सुथरी बची हुई हूं तो बुलाते ही यहां दौड़ा चला आया है।
अखिलेश- देखो मैंने कोशिश की थी कि मैं अपने बिरादरी में जाकर तुम्हारे महत्व को समझाऊँ। लेकिन तुम्हें क्या पता कि बदले में लोगों ने मुझे कितना जलील किया है। हर जगह ठोकर ही खाया हूं। हां मैं हार गया, मैं नहीं रख पाया तुम्हारा ख्याल, अब ये मेरे बस की बात नहीं है, मुझसे न होगा ये, हो सके तो मुझे माफ कर देना।
पानी- किसने जलील किया तुम्हें। कुछ बातें सुनाई होंगी ज्यादा से ज्यादा। तुम किस्मत वाले हो कि बस जलील होकर आए, यहां तो मेरा पूरा शरीर, अणु अणु नोच-नोच कर गंदा किया जा रहा है। रोज कहीं न कहीं मेरी मौत होती है। मेरे हर रूप को या तो छोटा किया जा रहा है। या तो जान से मार दिया जा रहा है। तुम मुझे जीवनदायिनी पुकारते थे न, मैं पानी भी नहीं रही, अब तो मैं एक व्यापार हूं। प्लास्टिक की थैलियों और बोतलों में बिकने लगी हूं।
मिट्टी- क्या कहा अखिलेश तुमने। नहीं रख पाओगे ख्याल। बोल कैसे दिया तुमने ऐसा। अब की बार ऐसा कहा तो कसम लेती हूं तुम्हें यहीं कहीं दफना कर ही दम लूंगी। तुम क्या जानो लोग जब मेरे देह पर तरह तरह के जहरीले रसायन डालते हैं तो मुझे कितनी तकलीफ होती है। मेरी त्वचा देखो, परत दर परत पूरी छिल चुकी है, आये दिन कितनी जलन होती है ये मैं ही जानती हूं। अब उन्हें मैं कैसे समझाऊं कि उनका पालन-पोषण मैं करती हूं, खाद्यान्नों से उनकी झोली भरती हूं और वही आज मुझसे दुश्मन की तरह बर्ताव कर रहे हैं।
अखिलेश- पानी! तुम हमेशा जीवनदायिनी हो, मैं तुम्हें जीवनदायिनी ही पुकारूंगा। तुम्हारी मौत के जिम्मेदार जो भी लोग हैं उन्हें आज नहीं तो कल होश आएगा, वे फिर से तुम्हें सीचेंगे। अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया तो इसकी सजा उन्हें एक दिन जरूर मिलेगी।
मिट्टी! अब मैं पूरी कोशिश करूंगा कि तुम पर कोई जहर न डाला जाए। मुझे थोड़ा तो दो ताकि सब ठीक करने के लिए कुछ पहल हो सके।
हवा- अखिलेश, तुम मिट्टी और पानी की बातों का बुरा मत मानना। मैं तो बस नाराज थी लेकिन ये दोनों गुस्से में हैं। इनका गुस्सा जायज है। अब तुम हमारे सुख-दुख के साथी हो। तुम्हारे सामने हाथ फैलाने के अलावा और हमारा पास रास्ता ही क्या है। और मैं क्या बोलूं, क्या मैं अपनी अहमियत गिनाने लगूं कि मेरे बिना तुम एक मिनट भी जिंदा नहीं रह सकते। और तुम वहां जो पुस्तकें पढ़ते हो क्या वो भी हमारे बारे में नहीं बताती। नहीं बताती होगी तभी तुम प्रदूषित हवा में सांस लेकर भी मदमस्त थे। और तुम्हारे उस शहर में ऐसे कितने लोग बचे हैं जो मुझे प्राणवायु पुकारते हैं। शायद कोई भी नहीं।
अखिलेश- ऐसा नहीं है, पुस्तकों में तुम सब का महत्व दिया गया है। लेकिन समय के साथ सब फीका हो गया है। अब उस रास्ते किसी का ध्यान नहीं जाता इसलिए धीरे-धीरे सारी काम की चीजें महत्वहीन होती जा रही हैं। इंसान अपने महत्व की चीजों का फैसला खुद करने लगा है, उनके पास न तो अब कोई नैतिक जिम्मेदारी है न ही उन्हें तुम तीनों से कोई मतलब है, वे हर दिन तुम तीनों को नुकसान पहुंचाकर किसी चौथी समस्या का शोक मना रहे होते हैं। व्याकुल होते हैं क्योंकि अमुक समस्या भी उनके स्वार्थ का एक हिस्सा है। मैं ऐसी बस्ती में जाकर कैसे तुम्हारा दर्शन कराऊं, बताओ। अरे मुझे तो खुद इतने सालों बाद तुम्हारे दर्शन हुए हैं।
हवा, मिट्टी और पानी साथ मिलकर कहते हुए -
लेकिन इतने साल क्या तुम्हें हमारी थोड़ी भी याद न आई। हमने तुम्हें क्या नहीं दिया। तुम्हारे जीने के लिए हर जरूरी चीज मुहैया कराई। हमने मौसम दिए, फल दिए, सब्जियाँ दी, पहाड़ खड़े कर दिए, जगह-जगह नदियां निकाल दी, हमारी ही खुदाई कर तुमने तरह-तरह की धातुएं खोज ली, मुलम्मे को सोना बना दिया।
हमने तो हर उस चीज से तुम्हें लाद दिया जिसके तुमने सपने देखे। तुमने तो खूब जिंदगी जी होगी, तरह-तरह के लजीज खाने खाये होगें, विज्ञान और तकनीक के आविष्कारों और नये बदलते आयामों ने तुम्हारी जिंदगी में तमाम रंग भर दिए होंगे। क्या इस बीच एक बार भी ख्याल नहीं आया कि हम तीनों का शुक्रिया अदा कर दिया जाए। क्या हम आज इतने खराब हो गए कि हमारी जगह किसी और ही चीज को प्राथमिकता दी जा रही है। और हममें आज इतनी खराबी आई है तो इसका जिम्मेदार कौन है।
क्या तुम सच में ऐसा कर सकते हो, हमसे ज्यादा कीमती कौन सी चीज आ गई दुनिया में। हमने तो कभी बदले में किसी से कुछ नहीं चाहा। सनद रहे कि हम ही तीनों ने मिलकर अणुओं का समुच्चय बिठाया है और ये दुनियां बनाई है। और आज ये देखने मिल रहा है कि हमसे ही जन्मा प्राणी मात्र हमें ही मारने पे उतारू हो चला है।
अखिलेश- मैं हर रोज तुम्हें याद करता था। हमेशा से मैंने तुम्हारी दी हुई हर एक चीज का सम्मान किया है। लेकिन मैं जैसे ही तुम्हारे करीब होने की कोशिश करता, तुमसे जुड़ने के लिए आगे बढ़ता, ये बनी बनाई व्यवस्था मेरे बीच आ जाती और फिर से रहस्यमयी प्रश्नों की किसी भुलभुलैया में उलझा देती। मैं इन्हीं प्रश्नों की उधेड़बुन में लग जाता लेकिन अब और नहीं। मैं अब इन रहस्यों की पड़ताल नहीं करूंगा केवल बाह्य पक्ष पर ध्यान देकर अपने अंदर पूरे आदर भाव से छिपा लूंगा। और तो और मैंने अब इस पूरी व्यवस्था से, इससे जुड़े लोगों से हमेशा-हमेशा के लिए दूरी बना ली है।
तुम तीनों के अलावा यहां अब ऐसा कोई भी नहीं जिस पर मैं हक जता कर अपना कह सकूं, उनसे जी भर के बात कर सकूं। हां कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने खूब ज्ञान अर्जित किया है, जी तोड़ मेहनत की है और आज उनके पास एक नाम है, पद है, भले लोग हैं वे, लेकिन मैं उनसे बात नहीं कर पाता, मजबूर होकर मुझे उनके भारी शब्दों से खुद को अलग करना पड़ता है। और मेरे पास रास्ता भी क्या है, वे अपना दिमाग लेकर आते हैं, और मैं हूं जो यहां अपना ह्रदय लिए बैठा रहता हूं। अब मैं उन्हें कैसे समझाऊं कि मैंने किताबें ज्यादा नहीं पढ़ी है, जो कुछ थोड़ा बहुत है सब तुम तीनों साथियों का दिया हुआ है।
इतना कह लेने के बाद अब उसने अपने तीनों साथियों को दिखाते हुए बिस्किट का एक टुकड़ा हाथ में लिया। फिर उस बिस्किट को पहले मिट्टी में रगड़ दिया, थोड़ी देर बाद उस टुकड़े को वहीं नदी के पानी में हल्का सा धो दिया, और उस गीले बिस्किट को हथेली में रखकर हवा की सहायता से सुखाते हुए कहने लगा-
आज मेरी तुमसे विनती है, मुझे अपने से अलग मत करना। अब इतने सालों बाद जब मैं तुम तक आ गया हूं तो मैं अब तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा। तुम्हारे ही बीच रहूंगा, तुम्हारे लिए ही काम करूंगा। आज से, अभी से तुम मुझे अपना अंगरक्षक स्वीकार कर लेना। तुम्हारे नुकसान का कारण कभी नहीं बनूंगा, वादा।
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