हमारा बचपन जोधपुर की गलियों में बीता है। जाति से राजपूत। हमारी एक ही दीदी है, और हमारे मां बाप को मिलाकर चार लोगों का परिवार। हमने अपनी स्कूली पढ़ाई जोधपुर में की फिर उसके बाद आगे कालेज की पढ़ाई जयपुर में हुई। कालेज की पढ़ाई अभी भी चल रही है। कुछ दिन बाद दीदी की सगाई होने वाली है इसलिए हम छुट्टी लेकर अपने घर जोधपुर आये हुए हैं।
सगाई का दिन आ गया। सुबह से हर कोई तैयारी में लग गया है। बापजी जो हमेशा पगड़ी लगाए रहते हैं आज सगाई है तो रस्मो रिवाज के लिहाज से उन्होंने हमें भी मजबूर कर दिया कि पगड़ी लगानी पड़ेगी। हमने पगड़ी पहन ली है। सब अपने-अपने कामकाज में व्यस्त हैं। हम पगड़ी लगाये अपने कमरे में जाकर आईने के सामने खुद को देखते लग जाते हैं। अचानक से हम अपने ही चेहरे को छूने लगते हैं और कुछ सेकेंड बाद पगड़ी निकालकर फेंक देते हैं। फिर एक दीवार का कोना पकड़ लेते हैं ,उस दीवार को अब हम अपने हाथों से मारने लग जाते हैं, और उसी नीली दीवार पर अपना सर पटकने लगते हैं। हल्का सा खून निकलने लगता है। इसी बीच नानी सा हमें देख लेती है। वो हमारे सिर पर से खून निकलता देख चिंताविमुख हो जाती है और पास आकर चोट देखने की जिद करने लगती है हम उन्हें जैसे-तैसे मना करते हैं, और उन्हें झूठ कहते हैं कि ऐसे ही काम करते करते चोट लग गई। उसके बाद हम वहां से अस्पताल जाने का बहाना बनाकर अपने कमरे से बाहर आ जाते हैं। और हमारे घर के पास ही जोधपुर का जो सबसे ऊंचा टीला जैसा स्थान है, आधे घंटे तक दौड़ते हुए हम वहां चढ़ जाते हैं। और फिर जोर-जोर से चिल्लाने लगते हैं।
असल में जब हमने आईने में अपना चेहरा देखा तो लगा कि ये चेहरा हमारा नहीं है। और ये घर, ये घर भी हमारा नहीं है। इस घर के लोग, ये रिश्ते-नाते ये कुछ भी हमारा नहीं। ये जोधपुर शहर भी हमारा नहीं। जब हम आईना देख रहे होते हैं तो हमें कहां से अचानक याद आता है कि हमारा जन्म तो छत्तीसगढ़ में कहीं पर हुआ था। हमारी कालेज तक की पढ़ाई भी छत्तीसगढ़ में ही हुई। हमारी तो दो दीदी हैं, और दोनों की शादी हो चुकी है, हमारी एक छोटी बहन भी है लेकिन यहां जोधपुर में जो मेरी एक दीदी है उनकी सगाई भी नहीं हुई। यहां जोधपुर में हमारे बापजी ने पानी की कमी को देखते हुए एक कुंड बनवाया है, वहीं छत्तीसगढ़ में हमारे परदादा ने अपने गांव में दो तालाब बनवाएं हैं। लेकिन हमने दीदी के सगाई का कामकाज क्यों छोड़ दिया और क्यों यहां बेमन से इस टीले पर आ गए। सब हमें वहां खोज रहे होंगे। नानी सा ने तो हमें देख भी लिया था, उन्होंने सबको खबर कर दी होगी। एक तरफ हमें दीदी का चेहरा याद आ रहा है, जो सगाई के लिए सुबह से सज रही हैं और दूसरी तरफ ऐसा लग रहा है कि छत्तीसगढ़ से हमें कोई बुला रहा है। एक तरफ हमारा ये जोधपुर का परिवार है जिसने हमें इतना लाड़-प्यार दिया, पढ़ाया लिखाया, सब कुछ किया। तो दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ का वो शहर है, जहां हमारे मां-बाप और भाई बहन हमें खींच रहे हैं और हम उनके अनुराग के सामने झुक गए हैं।
अब हम न तो वापस दीदी की सगाई में जोधपुर की उन गलियों में जा पा रहे हैं, हां उन नीली दीवारों से अब हमें दूर होने का मन कर रहा है। न ही छत्तीसगढ़ लौटना चाहते हैं। हम इन दोनों भावनात्मक रिश्तों के बीच फंस चुके हैं, अब हमारा सर फटने लगा है। हम अब टूटने लगे हैं, रोने लगे हैं, और फिर हम द्वन्द से परेशान होकर उस टीले से नीचे कूदकर अपनी जान देने का फैसला करते हैं। जैसे ही हम उस टीले से नीचे की ओर छलांग लगाते हैं। हमारा सपना टूट जाता है। अब हम जाग चुके हैं।
जोधपुर, मैं तो कभी राजस्थान के किसी शहर में नहीं गया हूं। अभी तक उत्तराखंड और हिमाचल घर जैसा लगता था। वो दोनों जगहें मुझे खींचती थी। लेकिन ये जोधपुर का ऐसा अजीब सा सपना क्यों आ गया। मैंने तो इस शहर की तस्वीर भी नेट में कभी नहीं देखी है। अभी देख रहा हूं तो पता चल रहा है कि जोधपुर को नीला शहर कहते हैं। क्योंकि वहां के अधिकतर घर नीले रंग के हैं। हां मेरा घर भी तो इसी रंग का था। हां वो नीली दीवारें, और वो साफ-सुथरी गलियां जहां मेरा बचपन बीता है। हां जोधपुर के उस बड़े से टीले से कुछ किलोमीटर दूर में मेरा घर है। लेकिन मैं अपने घर को कैसे पहचानूंगा। कहीं मुझे वो दीदी दिख गई, जिनकी सगाई होने को थी और जहां से मैं गायब हो गया था, वो परिवार जिसका मैं हिस्सा था, अगर वो मेरे सामने आ गए, तो मैं खुद को कैसे सभालूंगा। क्योंकि मुझे तो हल्का सा उनका चेहरा भी याद आ रहा है।
कुछ भी नहीं पता कि क्या होगा लेकिन एक बार उस शहर के करीब जाना है।
उन नीली दीवारों को छूना है।
उन चौबारों से भी गुजरना है जहां मेरा बचपन बीता है।
हां बापजी का बनाया कुंड भी तो देखना है।
खैर, पता है मैंने शीर्षक में "जोधपुर की नीली दीवार" ही क्यों लिखा है। वो इसलिए कि मैंने ये टाइटल महीने भर पहले ही लिख दिया था, बस शीर्षक देकर खाली छोड़ दिया था, अब पता नहीं ये आपके यकीन करने लायक है भी या नहीं, पर यही सच है। एक अपनी खास दोस्त को उस समय बताया भी था कि यार मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं इस पर कभी कुछ लिखूंगा।और अब देखिए, शीर्षक लिखने के महीने भर बाद ये हैरान कर देने वाला सपना आ गया।
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