Thursday, 12 January 2017

~ The Power of 'Nothing' ~

पिछले दो महीने से मेरे लिए मापन की इकाइयाँ ही बदल गई है। अब मेरे लिए आधे किलो का मतलब 600 ग्राम है और एक किलो का मतलब 1100-1200 ग्राम है।
                 असल में एक फल की दुकान है। जहां मैं जाते रहता हूं। कभी हफ्ते में एक-दो बार तो कभी महीने में। वहां दुकान के जो मालिक हैं वो एक दिन अपनी मातृभाषा में बात कर रहे थे, मैंने सुन लिया और फिर उस दिन से मैंने उनकी ही भाषा में बात करनी शुरू कर दी। वैसे मैंने कभी आगे आकर उनसे ज्यादा कोई बात नहीं की। उन्हें तो मेरा नाम भी नहीं पता और ये भी नहीं पता कि मेरा पैतृक घर कहां है।
                  एक दिन उन्होंने बताया कि ये दुकान मेरे दामाद की है। उन्होंने थोड़ी ही देर मुझसे बात की, उससे यही लगा कि ये बड़े सज्जन से हैं। उनकी उम्र लगभग 60-65 वर्ष होगी। असल में जब भी मैं उनकी दुकान पर गया हर बार वे बढ़ाकर ही मुझे सामान देते हैं। कभी एक दर्जन में 14 केले तो कभी आधा किलो संतरा में 550-600 ग्राम देने के बाद एक छोटा संतरा चुपके से डाल देते हैं। कभी अनार का जूस जो 40 रुपए का पड़ता है उस पर वे जल्दी से 30 रुपए काट लेते हैं और ऐसे अनजान बन जाते हैं जैसे उन्होंने कुछ भी नहीं किया। जब मैं उन्हें उत्सुकता से देखने लगता हूं तो सेकेंड भर की एक अलग ही मुस्कराहट फेर देते हैं।
                 लेकिन वो मेरे साथ ऐसा क्यों करते हैं। क्या सच में इसलिए कि मैं उनकी मातृभाषा में उनसे बात करता हूं। मैंने तो कभी उन्हें इतना आदर सत्कार नहीं दिया ना ही उतना नमस्ते वगैरह कभी किया, और न ही उनके पास बैठकर कभी ज्यादा बातचीत की। जब ऐसा कुछ नहीं है तो मेरे लिए आखिर इतनी अनुकंपा क्यों। इस एक वजह से मैं कई बार उनकी दुकान में न जाकर कहीं और चला जाता। किसी और दुकान में जाता, सामान लेता, कुछ नये लोगों से बातचीत कर लेता, ताकि उनकी दी हुई अनुकंपा कहीं पीछे रह जाए।
                एक दिन मैं उनकी दुकान पर आराम से स्ट्रा लेकर जूस पी रहा था बस ये देखने के लिए कि ये सिर्फ मेरे लिए ही ऐसा करते हैं कि सब के साथ ऐसा है। एक लड़का आया, उसने एक किलो मौसंबी मांगा, तौलने के दौरान इलेक्ट्रानिक तराजू में 1070 ग्राम कुछ हो रहा था। मुझे लगा कि वे उसे एक किलो के रूप में इतना दे देंगे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, जाकर मौसंबी की बदली की और कुछ 1020 ग्राम उस लड़के को दिए। और एक दिन एक लड़की फल खरीदने आई थी, वो बहुत ही ज्यादा खूबसूरत थी। मुझे लगा कि इसे तो आज एक किलो फल में 1100 ग्राम मिलेगा ही। लेकिन उस लड़की के साथ भी ऐसा कुछ नहीं हुआ। अब मुझे पूरी तरह से यकीन हो गया कि ये सिर्फ मेरे साथ ही ऐसा करते हैं।
                आखिर में मैंने उन्हें समझने के लिए एक और पैंतरा अपनाया। मैंने अपने साथ के एक दोस्त को जो उनकी मातृभाषा जानता था, मैंने उसे कहा कि जा तू आधा किलो फल लेकर आ। मैं वहीं थोड़ी दूर में छिपकर खड़ा था। उसने जाते ही मातृभाषा में बात की, लेकिन मेरे उस दोस्त के साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जो मेरे साथ हो रहा था।
               उस फल दुकान से आज तक मैंने 50 या 100 रुपए से ज्यादा की खरीददारी नहीं की है। उन्हें भी शायद ये लगता होगा कि मेरी जरूरतें सीमित हैं। लेकिन मैंने न तो कोई जादू की छड़ी चलाई है न ही उनके सामने बैठकर कोई कहानी सुनाई है फिर भी वे मेरे साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं ये अभी तक मेरी समझ में नहीं आया है।कभी-कभी लगता है कि कह दूं कि ये सब मत कीजिए, आप हर बार ये छूट देकर कहीं न कहीं मुझे चोट पहुंचा रहे हैं लेकिन मैं कभी बोल नहीं पाता, पांव रूक जाते हैं, धड़कनों का विचलन हो जाता है और होंठ सील जाते हैं।
                 उनके चेहरे को देखकर लगता है कि उन्हें कुछ भी ज्यादा नहीं चाहिए, वे हमेशा खुश खुश से रहते हैं। 65 की उम्र में भी एक अजीब सी लालिमा और सादगी से जड़ा भोलापन। न ही मैंने उनसे कभी ज्यादा बातचीत की, और न ही उन्होंने मुझसे कभी आगे आकर कुछ पूछा। अभी कुछ दिन पहले जब मैं उनकी दुकान से फल लेकर वापस जा रहा था तो इस बीच वे मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे एक मां दीवाली में घर आए अपने बेटे को घर से विदा करते समय देखती है और अपनी आंखों से, मनोभावों से वो कह रही होती है कि चलो बेटा समय मिलते ही फिर से आना।

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