Tuesday, 31 January 2017

-जादूगर गायब हो गया-

                 एक शहर में एक जादूगर हुआ करता था।दो चार जादू दिखाकर वो ठीक-ठाक कमाई कर लेता था। एक समय ऐसा आया कि लोग उसके जादू से ऊबने लगे। क्योंकि जादूगर के पास लोगों को दिखाने के लिए कुछ भी नया नहीं बचा था। आखिरकार जादूगर का धंधा पूरा बैठ गया। उसने बहुत सोच-विचार किया, लेकिन उसे कोई रास्ता नहीं दिखा, जादूगर को अपने बारे में ये बहुत अच्छे से पता है कि उसके पास अब कोई नयापन बचा नहीं है, रचनात्मकता की कमी है।        
                 एक दिन जादूगर को उपाय सूझा कि वह लोगों को वही दिखाएगा जिसमें लोगों की आस्था जुड़ी हुई है। और उसने लोगों की भावनाओं के बीच जादू परोसना शुरू किया, उसने कुछ पौराणिक कथाएं उठाई और अपने तरीके से पेश करना शुरू कर दिया, बहुत से नये नये मिथक गढ़ लिए,  जादू भी दिखाता और अपनी बनाई मिथकीय बातों से लोगों का मनोरंजन भी करता। जादू और कहानियों का ये मिश्रण लोगों को खूब भाया, लोग जादूगर को देखने के लिए दूर-दूर से आने लगे, जादूगर की चर्चाएँ होने लगी, आये रोज टेलीविजन और समाचार पत्रों में उसका नाम आने लगा। अब जादूगर पहले से कहीं ज्यादा विश्वसनीय हो चुका था। लोगों की नजर में अब वो एक भरोसेमंद कलाकार था।
                  इसी बीच जादूगर ने जनमानस के बीच कुछ ऐसा कर दिया की लोग नाराज हो गये। असल में जादूगर कई बार अपने स्वार्थसिध्दि के लिए जादू के माध्यम से लोगों की भावनाओं को चोट पहुंचा देता था। जादूगर को भी अच्छे से पता है कि उसकी इस छेड़खानी से लोग गुस्सा होंगे, विरोध करेंगे, लेकिन उसकी चर्चा तो होगी ही। लोग फिर से उसका जादू देखने आएंगे ये जानने के लिए कि वो ऐसी क्या गलती करता है, जो लोग इतने खफा हैं। जादूगर इस मनोविज्ञान से भली-भाँति परिचित था। वो ये सब करके बहुत खुश होता था। कई बार तो वो जादू दिखाता था और मंच पर लोग चप्पल जूते फेंक देते। जादूगर उन अतिउत्साही आस्थावान लोगों की हरकत से अपने हिस्से की सहानुभूति खोज लेता, तुरंत चप्पल उठाता और सीने से चिपकाकर शुक्रिया अदा करता। कई बार जादूगर सही गलत की तर्कणाओं से काफी आगे निकल जाता, उसे भी ये अच्छे से पता था कि ये भारतभूमि है यहां जनमानस की सात्वंना हमेशा मार खाने वाले के साथ होती है न कि मारने वाले के साथ। और कुछ इस तरह जादूगर का कद अपने प्रशंसकों की नजर में और बढ़ने लगा। अब उसका धंधा दुगुनी गति से फलित होने लगा।
                   शहर में ऐसा माहौल पनपने लगा कि लोग भ्रमित होने लगे, क्या सही क्या गलत, लोग इसका फैसला नहीं कर पा रहे थे। मतिभ्रम की इस स्थिति से निपटने के लिए शहर के कुछ जिम्मेदार लोगों ने एक संयुक्त सभा का आयोजन किया। बहुत से नेता, लेखक, पत्रकार, शिक्षकगण एवं प्रशासनिक अधिकारी शामिल हुए। सब ने मिलकर सर्वसम्मति से ये फैसला लिया कि हर उस व्यक्ति/विषयवस्तु को लोगों की पहुंच से दूर रखा जाए जो सिर्फ और सिर्फ लोगों को भ्रमित करते हैं और उनके मनोविज्ञान में बेवजह दखल डालते है।
                   अब इस फैसले के आने से ऐसा हुआ कि जादूगर जब भी कहीं जादू दिखाता, उसके बारे में लोगों ने पेपर में छापने से मना कर दिया। जादूगर ने ज्यादा पैसे चुकाने की बात रखी, फिर भी कोई राजी न हुआ। पोस्टर वालों ने उसके पोस्टर छापने से भी मना कर दिया, बदले में साफ-साफ कह देते कि ये पाप हमसे मत करवाइए, अपने बीवी-बच्चों की नजर में हम और नहीं गिरना चाहते। धीरे-धीरे जादूगर का धंधा ठप पड़ गया। जादूगरी के इस मिथकीय मिश्रण की कमर टूट चुकी थी। जादूगर ने तंग आकर सामान समेटा और शहर छोड़ दिया। किसी को नहीं पता कि अभी वो जादूगर कहां है।
और कुछ इस तरह जादू दिखाने वाला वो जादूगर हमेशा के लिए गायब हो गया।

Friday, 27 January 2017

Translation work - Rajiv Malhotra Books


~ Multiple intelligence ~

 
         हार्वर्ड के प्रसिद्ध विचारक ऐरल गार्डनर कुछ साल पहले भारत आए थे। बैंगलोर में इंफोसिस की टीम को संबोधित कर रहे थे। असल में उन्होंने एक नयी थ्योरी इजात की जिसका नाम था "Multiple intelligence" यानि intelligence कई प्रकार के होते हैं जैसे कि:- artificial intelligence, spatial intelligence, emotional intelligence, rational intelligence आदि आदि। जो कि व्यक्ति विशेष के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक होते हैं।
और ऐरल गार्डनर की इस थ्योरी ने शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति ला दी।
                       ऐरल गार्डनर की इस थ्योरी को तथ्यों/प्रामाणिकताओं के अभाव में विश्व भर से आलोचनाओं का सामना करना पड़ा, खैर ये तो होना ही था क्योंकि गार्डनर के पास कोई ठोस अनुभवजन्य साक्ष्य थे ही नहीं। और तो और जब कुछ भारतीय इस नये विचार की उत्पत्ति से संबंधित जानकारी जुटाने लगे तो यह बात सामने आई कि हेरल गार्डनर का यह नया विचार श्री अरबिन्दो के "Plains and parts of being" से आया है। जहां श्री अरबिन्दो कहते हैं कि एक व्यक्ति(being) से संबंधित उसके कई plains और parts हो सकते हैं,  यानि  "Different level of intelligence" हो सकते हैं जो आगे जाकर उसके संपूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं।
               ऐरल गार्डनर ने कुछ नये Jargons जोड़ के जिस Multiple intelligence थ्योरी को जन्म दिया वह ज्यादा कुछ नहीं, श्री अरबिन्दो के विचारों का एक फीका और सरलीकृत रूप  है।




- संस्कृत - एक वैज्ञानिक भाषा -


               भारतीय दर्शन और पाश्चात्य दर्शन में संस्कृत के शब्दों को लेकर एक बड़ा अंतर है। स्पंदन का विशेष गुण लिए संस्कृत के शब्द जिनका अनुवाद संभव नहीं है। क्योंकि कुछ शब्द ऐसे होते हैं जैसे कि सेब उसका किसी दूसरी भाषा में सीधा सा अर्थ है जो सेब की ओर ही इंगित करता है। लेकिन कुछ ऐसे शब्द हैं जिनका हम भौतिक स्वरूप देखने पर ये पाते हैं कि वे शब्द एक अनुभव विशेष पर आधारित हैं। और जिस सभ्यता के पास वो अनुभव नहीं हैं, उनके पास शब्दों के अनुवाद भी नहीं हैं। इसलिए संस्कृत के कुछ शब्दों को, जो किसी दूसरी भाषा में भले ही वे एक जैसे लगेंगे लेकिन वे होंगे कुछ और, क्योंकि संस्कृत के शब्दों का अपना स्पंदन है जो अपने मूल में विशिष्ट है और इसलिए इन शब्दों का अनुवाद असंभव है।
जैसे कि योग, आप इसे कसरत, व्यायाम या प्रार्थना नहीं कह सकते।योग जैसे और कुछ संस्कृत के शब्द हैं जो अपनी प्रकृति में विशिष्ट हैं।
                संस्कृत में भर्तृहरि एवं पाणिनी ने इसे और स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि बौध्दिक अर्थों में संस्कृत के इन शब्दों का सबसे बड़ा महत्व इनके उच्चारण ध्वनि से प्राप्त स्पंदन है। दूसरे अर्थों में कहा जाए तो एक ऐसी पध्दति जिसमें स्पंदन है और वो स्पंदन प्रकृति में हमें स्थूल परिणामों के रूप में प्राप्त होता है।
इन शब्दों की ध्वनियां जो अपनी प्रकृति में विशिष्ट हैं, वे किसी दूसरे शब्द से जिसकी अपनी एक अलग ध्वनि है, धुन और गुणधर्म भी अलग हैं, संस्कृत के शब्दों की जगह नहीं ले सकते।
                संस्कृत दर्शन बहुत ही स्पष्ट और साथ ही विशिष्ट भी है क्योंकि इसमें कुछ बुनियादी बीज मंत्र हैं जिनका अनुवाद असंभव है क्योंकि इन मंत्रों के उच्चारण में एक विशेष स्पंदन का गुण है।




~ Relaxation Response and Lucid Dreaming ~


                    1960-1970 का समय।महर्षि महेश योगी अपने "Transcendental Meditation" की वजह से प्रसिद्ध हो चुके थे। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के हर्ब बेन्सन ने महर्षि महेश योगी से यह तकनीक सीखी और बहुत सारा पेपरवर्क करके जोड़ घटाना कर Relaxation Response नाम से एक नयी थ्योरी दे दी साथ ही अपने नाम से पेटेंट भी करा लिया और खूब नाम कमाया। और तो और हार्वर्ड में उन्होंने एक नया रिसर्च एंड डेवलपमेंट थिंक टैंक स्थापित किया और उनके इस काम के लिए सरकार से उन्हें करोड़ों डालर का अनुदान भी मिला।
                    आप इस बदमाशी की बानगी देखना चाहें तो यूट्यूब में Relaxation response नाम से देख सकते हैं, सैकड़ों वीडियो मिल जाएंगे।
आज महर्षि महेश योगी नदारद हैं, और नकल करने वाला विश्वप्रसिद्ध।
      
                    स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के स्टीवन लबर्ज के साथ भी कुछ ऐसा ही मामला है। स्टीवन लबर्ज एक जाने-माने न्यूरोसाइंटिस्ट हैं। इन्होंने "Lucid dreaming" नाम की नयी थ्योरी दी। लेकिन जब स्टीवन के इस थ्योरी की पड़ताल की गई तो उन्होंने खुद बताया कि उन्होंने भारत आकर एक गुरू से योग निद्रा सीखी थी। वहीं से ये lucid dreaming निकल कर आया।
                अभी कुछ साल पहले मेरे एक दोस्त ने बड़े फैंसी अंदाज में मुझे lucid dreaming के बारे में बताया था कि यूट्यूब में वीडियो देखना इसका और एक बार आजमाना। मैंने देखा भी और आजमाया भी। और देर सबेर जब मुझे योग निद्रा के बारे में पता चला तो लगा कि कैसे हमारी संस्कृति,हमारी विरासत को बड़ी चालाकी से घायल किया जा रहा है। खुद मुझे योग निद्रा के बारे में इतने देर से पता चला, पहले ही Lucid dreaming का घूंट जो पी लिया था।
                  योग निद्रा हमारे लिए old-fashioned हो जाता है और lucid dreaming हमारे लिए किसी Fantasy से कम नहीं। क्योंकि गूगल/यूट्यूब ही अब हमारे ज्ञान का साधन है, जहां योग निद्रा से संबंधित कुछ ज्यादा नहीं मिल पाता लेकिन Lucid Dreaming से जुड़ी हजारों चीजें मिल जाएंगी जिसका निर्माण योग निद्रा को ही पचाकर किया गया है।

Monday, 16 January 2017

भतीजे को पत्र

आयुष,
मैंने तुम्हारे नाम के सामने कोई संबोधन नहीं जोड़ा है। सिर्फ तुम्हारा नाम लिख दिया है। उम्मीद करता हूं कि तुम जब बड़े हो जाओगे तो तुम्हें इस बात का ध्यान हो कि तुम्हें इस नाम को अपने अर्थ तक पहुंचाना है। इस साल तुमने अपनी जिंदगी की पहली बर्फबारी देखी है। जानकर बहुत खुशी हुई, शायद कुछ महीने बाद तुम एक साल के हो जाओगे। फिर बोलने लगोगे, चलने लगोगे। इस बीच तुम्हारे मां-बाप और आस-पास के रिश्तेदार हर कोई तुम्हें बहुत लाड़-प्यार देंगे। हमेशा हंसायेंगे, तुम्हें खुश करेंगे। याद है पिछली बार जब तुम देर तक हंस रहे थे तो मैं तुम्हें देखकर शांत हो गया था फिर तुम भी मुझे देखकर शांत हो गए और फिर मैं जब धीरे से मुस्कुराया तो तुम भी मुस्कुराने लगे थे। हमारी बात हो रही थी, मेरे से बात करने का शुक्रिया आयुष।


               आयुष! अभी तुम्हें बहुत कुछ देखना है, सीखना है। तरह-तरह के लोगों से घुलना-मिलना है। उनके चेहरे से चेहरा मिलाना है। उन्हें खुशी पहुंचाने के लिए हंसना भी है। मम्मी-पापा को ज्यादा परेशान मत करना। पता है कई बार तुम्हें गोद में लटकने का मन नहीं करेगा, फिर भी तुम लटकोगे क्योंकि तुम्हारे पास और कोई दूसरा उपाय नहीं है। तुम हंसते हुए सबको खुश रखना। किसी को मत बताना कि तुम क्या चाहते हो। तुम इस बीच किसी से मत घबराना, तुम्हें बहुत से चेहरे और बहुत से भाव दिखाई देंगे, तुम सबको ध्यान से देखते जाना, हमेशा निडर रहना और खूब सीखना। आयुष तुम किसी से शिकायत मत करना, तुम सबको खुश रखना, मैं तो हमेशा तुम्हारे आसपास हूं। मुझे कभी-कभी लगता है कि लोग जब तुम्हें खुश करने के लिए अलग-अलग तरीका अपनाते हैं तो तुम उन पर हंस रहे होते हो। तुम्हारे देवत्व से अनजान वे खुश होते हैं कि उन्होंने तुम्हें हंसाया। पता है जब कभी तुम मेरी ये चिट्ठी पढ़ने लायक हो जाओगे तो किसी को मत बताना कि बचपन में तुम आंखों-आंखों में चाचा से बात करते थे, क्योंकि वे यकीन नही करेंगे।
अभी तुम एक साल के होने वाले हो, कुछ साल बाद तुम बड़े हो जाओगे, चलने लगोगे और जब दौड़ने लगोगे तो खेल के मैदान में हाथों में फुटबाल लिए मैं तुम्हारा इंतजार करुंगा।

-तुम्हारा चाचा।

Saturday, 14 January 2017

~ चार दोस्त ~

'हवा मिट्टी पानी और अखिलेश'
लेकिन ये चारों कितने साल बाद मिल रहे हैं। शायद इन्हें भी अच्छे से नहीं पता। कितने दशक बीत गए होंगे और आज जब चारों व्यास नदी के तट पर मिल रहे हैं तो उत्सव सा माहौल है। सबके पास बताने के लिए कितना कुछ है। सब एक-दूसरे को देखते हैं, हाल-चाल पूछते हैं और फिर चारों की बातें शुरू हो जाती है।

हवा- तुम इतने साल कहां थे अखिलेश, इतनी देर कैसे लगा दी आने में। और ये क्या हाल बना रखा है, तुम्हारे चेहरे का रंग गायब है।

अखिलेश- एक स्कूल करके जगह होती है, तेरह साल मैं वहां रहा, फिर चार साल कालेज। और उसके बाद फिर कुछ साल एक विशेष पढ़ाई पढ़ ली,दो-तीन साल उसमें लग गए। इसलिए आने में इतनी देर हो गई। और तुम कहां थे, तुम क्या मुझे बुला नहीं सकते थे। इतने साल अकेला रहा मैं, मेरे दोस्त यार छूटते गए, कोई भी नहीं बचा। अब जबकि सब पीछे छूट गए तो तुमने मुझे बुलाया है। मेरे लिए ये कितने दुःख की बात है कि तुम तीनों के अलावा मेरे पास और कुछ नहीं बचा है। मन को सुकून पहुंचाने के लिए तरह-तरह की बातें हैं और तरह-तरह के लोग, लेकिन कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे मैं अपना कह सकूं।

मिट्टी- तुम अपनी पढ़ाई, अपने भविष्य और अपने दोस्तों के बीच मस्त थे इसलिए हमने तुम्हारी जिंदगी में दखल नहीं दिया। हमें विश्वास तो था कि देर-सबेर तुम आओगे जरूर। खैर इसे देखो, हवा कितनी नाराज है तुमसे, यही तुम्हें सबसे ज्यादा याद करती थी।

हवा- मैं न याद करूं इसे। ये तो इतने साल मेरे जहरीले रूप को ही ग्रहण करके खुश था। मेरे लिए कुछ किया भी है इसने वहां रहकर, मुझे तो इसने कहीं का नहीं छोड़ा, मुझे लोगों का दुश्मन बना दिया, और अब यहां थोड़ी साफ-सुथरी बची हुई हूं तो बुलाते ही यहां दौड़ा चला आया है।

अखिलेश- देखो मैंने कोशिश की थी कि मैं अपने बिरादरी में जाकर तुम्हारे महत्व को समझाऊँ। लेकिन तुम्हें क्या पता कि बदले में लोगों ने मुझे कितना जलील किया है। हर जगह ठोकर ही खाया हूं। हां मैं हार गया, मैं नहीं रख पाया तुम्हारा ख्याल, अब ये मेरे बस की बात नहीं है, मुझसे न होगा ये, हो सके तो मुझे माफ कर देना।

पानी- किसने जलील किया तुम्हें। कुछ बातें सुनाई होंगी ज्यादा से ज्यादा। तुम किस्मत वाले हो कि बस जलील होकर आए,  यहां तो मेरा पूरा शरीर, अणु अणु नोच-नोच कर गंदा किया जा रहा है। रोज कहीं न कहीं मेरी मौत होती है। मेरे हर रूप को या तो छोटा किया जा रहा है। या तो जान से मार दिया जा रहा है। तुम मुझे जीवनदायिनी पुकारते थे न, मैं पानी भी नहीं रही, अब तो मैं एक व्यापार हूं। प्लास्टिक की थैलियों और बोतलों में बिकने लगी हूं।

मिट्टी- क्या कहा अखिलेश तुमने। नहीं रख पाओगे ख्याल। बोल कैसे दिया तुमने ऐसा। अब की बार ऐसा कहा तो कसम लेती हूं तुम्हें यहीं कहीं दफना कर ही दम लूंगी। तुम क्या जानो लोग जब मेरे देह पर तरह तरह के जहरीले रसायन डालते हैं तो मुझे कितनी तकलीफ होती है। मेरी त्वचा देखो, परत दर परत पूरी छिल चुकी है, आये दिन कितनी जलन होती है ये मैं ही जानती हूं। अब उन्हें मैं कैसे समझाऊं कि उनका पालन-पोषण मैं करती हूं, खाद्यान्नों से उनकी झोली भरती हूं और वही आज मुझसे दुश्मन की तरह बर्ताव कर रहे हैं।

अखिलेश- पानी! तुम हमेशा जीवनदायिनी हो, मैं तुम्हें जीवनदायिनी ही पुकारूंगा। तुम्हारी मौत के जिम्मेदार जो भी लोग हैं उन्हें आज नहीं तो कल होश आएगा, वे फिर से तुम्हें सीचेंगे। अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया तो इसकी सजा उन्हें एक दिन जरूर मिलेगी।
मिट्टी! अब मैं पूरी कोशिश करूंगा कि तुम पर कोई जहर न डाला जाए। मुझे थोड़ा तो दो ताकि सब ठीक करने के लिए कुछ पहल हो सके।

हवा- अखिलेश, तुम मिट्टी और पानी की बातों का बुरा मत मानना। मैं तो बस नाराज थी लेकिन ये दोनों गुस्से में हैं। इनका गुस्सा जायज है। अब तुम हमारे सुख-दुख के साथी हो। तुम्हारे सामने हाथ फैलाने के अलावा और हमारा पास रास्ता ही क्या है। और मैं क्या बोलूं, क्या मैं अपनी अहमियत गिनाने लगूं कि मेरे बिना तुम एक मिनट भी जिंदा नहीं रह सकते। और तुम वहां जो पुस्तकें पढ़ते हो क्या वो भी हमारे बारे में नहीं बताती। नहीं बताती होगी तभी तुम प्रदूषित हवा में सांस लेकर भी मदमस्त थे। और तुम्हारे उस शहर में ऐसे कितने लोग बचे हैं जो मुझे प्राणवायु पुकारते हैं। शायद कोई भी नहीं।

अखिलेश- ऐसा नहीं है, पुस्तकों में तुम सब का महत्व दिया गया है। लेकिन समय के साथ सब फीका हो गया है। अब उस रास्ते किसी का ध्यान नहीं जाता इसलिए धीरे-धीरे सारी काम की चीजें महत्वहीन होती जा रही हैं। इंसान अपने महत्व की चीजों का फैसला खुद करने लगा है, उनके पास न तो अब कोई नैतिक जिम्मेदारी है न ही उन्हें तुम तीनों से कोई मतलब है, वे हर दिन तुम तीनों को नुकसान पहुंचाकर किसी चौथी समस्या का शोक मना रहे होते हैं। व्याकुल होते हैं क्योंकि अमुक समस्या भी उनके स्वार्थ का एक हिस्सा है। मैं ऐसी बस्ती में जाकर कैसे तुम्हारा दर्शन कराऊं, बताओ। अरे मुझे तो खुद इतने सालों बाद तुम्हारे दर्शन हुए हैं।

हवा, मिट्टी और पानी साथ मिलकर कहते हुए -
लेकिन इतने साल क्या तुम्हें हमारी थोड़ी भी याद न आई। हमने तुम्हें क्या नहीं दिया। तुम्हारे जीने के लिए हर जरूरी चीज मुहैया कराई। हमने मौसम दिए, फल दिए, सब्जियाँ दी,  पहाड़ खड़े कर दिए, जगह-जगह नदियां निकाल दी, हमारी ही खुदाई कर तुमने तरह-तरह की धातुएं खोज ली, मुलम्मे को सोना बना दिया।
                 हमने तो हर उस चीज से तुम्हें लाद दिया जिसके तुमने सपने देखे। तुमने तो खूब जिंदगी जी होगी, तरह-तरह के लजीज खाने खाये होगें, विज्ञान और तकनीक के आविष्कारों और नये बदलते आयामों ने तुम्हारी जिंदगी में तमाम रंग भर दिए होंगे। क्या इस बीच एक बार भी ख्याल नहीं आया कि हम तीनों का शुक्रिया अदा कर दिया जाए। क्या हम आज इतने खराब हो गए कि हमारी जगह किसी और ही चीज को प्राथमिकता दी जा रही है। और हममें आज इतनी खराबी आई है तो इसका जिम्मेदार कौन है।
               क्या तुम सच में ऐसा कर सकते हो, हमसे ज्यादा कीमती कौन सी चीज आ गई दुनिया में। हमने तो कभी बदले में किसी से कुछ नहीं चाहा। सनद रहे कि हम ही तीनों ने मिलकर अणुओं का समुच्चय बिठाया है और ये दुनियां बनाई है। और आज ये देखने मिल रहा है कि हमसे ही जन्मा प्राणी मात्र हमें ही मारने पे उतारू हो चला है।

अखिलेश- मैं हर रोज तुम्हें याद करता था। हमेशा से मैंने तुम्हारी दी हुई हर एक चीज का सम्मान किया है। लेकिन मैं जैसे ही तुम्हारे करीब होने की कोशिश करता, तुमसे जुड़ने के लिए आगे बढ़ता, ये बनी बनाई व्यवस्था मेरे बीच आ जाती और फिर से रहस्यमयी प्रश्नों की किसी भुलभुलैया में उलझा देती। मैं इन्हीं प्रश्नों की उधेड़बुन में लग जाता लेकिन अब और नहीं। मैं अब इन रहस्यों की पड़ताल नहीं करूंगा केवल बाह्य पक्ष पर ध्यान देकर अपने अंदर पूरे आदर भाव से छिपा लूंगा। और तो और मैंने अब इस पूरी व्यवस्था से, इससे जुड़े लोगों से हमेशा-हमेशा के लिए दूरी बना ली है।
                तुम तीनों के अलावा यहां अब ऐसा कोई भी नहीं जिस पर मैं हक जता कर अपना कह सकूं, उनसे जी भर के बात कर सकूं। हां कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने खूब ज्ञान अर्जित किया है, जी तोड़ मेहनत की है और आज उनके पास एक नाम है, पद है, भले लोग हैं वे, लेकिन मैं उनसे बात नहीं कर पाता, मजबूर होकर मुझे उनके भारी शब्दों से खुद को अलग करना पड़ता है। और मेरे पास रास्ता भी क्या है, वे अपना दिमाग लेकर आते हैं, और मैं हूं जो यहां अपना ह्रदय लिए बैठा रहता हूं। अब मैं उन्हें कैसे समझाऊं कि मैंने किताबें ज्यादा नहीं पढ़ी है, जो कुछ थोड़ा बहुत है सब तुम तीनों साथियों का दिया हुआ है।
                इतना कह लेने के बाद अब उसने अपने तीनों साथियों को दिखाते हुए बिस्किट का एक टुकड़ा हाथ में लिया। फिर उस बिस्किट को पहले मिट्टी में रगड़ दिया, थोड़ी देर बाद उस टुकड़े को वहीं नदी के पानी में हल्का सा धो दिया, और उस गीले बिस्किट को हथेली में रखकर हवा की सहायता से सुखाते हुए कहने लगा-
आज मेरी तुमसे विनती है, मुझे अपने से अलग मत करना। अब इतने सालों बाद जब मैं तुम तक आ गया हूं तो मैं अब तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा। तुम्हारे ही बीच रहूंगा, तुम्हारे लिए ही काम करूंगा। आज से, अभी से तुम मुझे अपना अंगरक्षक स्वीकार कर लेना। तुम्हारे नुकसान का कारण कभी नहीं बनूंगा, वादा।

Thursday, 12 January 2017

~ The Power of 'Nothing' ~

पिछले दो महीने से मेरे लिए मापन की इकाइयाँ ही बदल गई है। अब मेरे लिए आधे किलो का मतलब 600 ग्राम है और एक किलो का मतलब 1100-1200 ग्राम है।
                 असल में एक फल की दुकान है। जहां मैं जाते रहता हूं। कभी हफ्ते में एक-दो बार तो कभी महीने में। वहां दुकान के जो मालिक हैं वो एक दिन अपनी मातृभाषा में बात कर रहे थे, मैंने सुन लिया और फिर उस दिन से मैंने उनकी ही भाषा में बात करनी शुरू कर दी। वैसे मैंने कभी आगे आकर उनसे ज्यादा कोई बात नहीं की। उन्हें तो मेरा नाम भी नहीं पता और ये भी नहीं पता कि मेरा पैतृक घर कहां है।
                  एक दिन उन्होंने बताया कि ये दुकान मेरे दामाद की है। उन्होंने थोड़ी ही देर मुझसे बात की, उससे यही लगा कि ये बड़े सज्जन से हैं। उनकी उम्र लगभग 60-65 वर्ष होगी। असल में जब भी मैं उनकी दुकान पर गया हर बार वे बढ़ाकर ही मुझे सामान देते हैं। कभी एक दर्जन में 14 केले तो कभी आधा किलो संतरा में 550-600 ग्राम देने के बाद एक छोटा संतरा चुपके से डाल देते हैं। कभी अनार का जूस जो 40 रुपए का पड़ता है उस पर वे जल्दी से 30 रुपए काट लेते हैं और ऐसे अनजान बन जाते हैं जैसे उन्होंने कुछ भी नहीं किया। जब मैं उन्हें उत्सुकता से देखने लगता हूं तो सेकेंड भर की एक अलग ही मुस्कराहट फेर देते हैं।
                 लेकिन वो मेरे साथ ऐसा क्यों करते हैं। क्या सच में इसलिए कि मैं उनकी मातृभाषा में उनसे बात करता हूं। मैंने तो कभी उन्हें इतना आदर सत्कार नहीं दिया ना ही उतना नमस्ते वगैरह कभी किया, और न ही उनके पास बैठकर कभी ज्यादा बातचीत की। जब ऐसा कुछ नहीं है तो मेरे लिए आखिर इतनी अनुकंपा क्यों। इस एक वजह से मैं कई बार उनकी दुकान में न जाकर कहीं और चला जाता। किसी और दुकान में जाता, सामान लेता, कुछ नये लोगों से बातचीत कर लेता, ताकि उनकी दी हुई अनुकंपा कहीं पीछे रह जाए।
                एक दिन मैं उनकी दुकान पर आराम से स्ट्रा लेकर जूस पी रहा था बस ये देखने के लिए कि ये सिर्फ मेरे लिए ही ऐसा करते हैं कि सब के साथ ऐसा है। एक लड़का आया, उसने एक किलो मौसंबी मांगा, तौलने के दौरान इलेक्ट्रानिक तराजू में 1070 ग्राम कुछ हो रहा था। मुझे लगा कि वे उसे एक किलो के रूप में इतना दे देंगे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, जाकर मौसंबी की बदली की और कुछ 1020 ग्राम उस लड़के को दिए। और एक दिन एक लड़की फल खरीदने आई थी, वो बहुत ही ज्यादा खूबसूरत थी। मुझे लगा कि इसे तो आज एक किलो फल में 1100 ग्राम मिलेगा ही। लेकिन उस लड़की के साथ भी ऐसा कुछ नहीं हुआ। अब मुझे पूरी तरह से यकीन हो गया कि ये सिर्फ मेरे साथ ही ऐसा करते हैं।
                आखिर में मैंने उन्हें समझने के लिए एक और पैंतरा अपनाया। मैंने अपने साथ के एक दोस्त को जो उनकी मातृभाषा जानता था, मैंने उसे कहा कि जा तू आधा किलो फल लेकर आ। मैं वहीं थोड़ी दूर में छिपकर खड़ा था। उसने जाते ही मातृभाषा में बात की, लेकिन मेरे उस दोस्त के साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जो मेरे साथ हो रहा था।
               उस फल दुकान से आज तक मैंने 50 या 100 रुपए से ज्यादा की खरीददारी नहीं की है। उन्हें भी शायद ये लगता होगा कि मेरी जरूरतें सीमित हैं। लेकिन मैंने न तो कोई जादू की छड़ी चलाई है न ही उनके सामने बैठकर कोई कहानी सुनाई है फिर भी वे मेरे साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं ये अभी तक मेरी समझ में नहीं आया है।कभी-कभी लगता है कि कह दूं कि ये सब मत कीजिए, आप हर बार ये छूट देकर कहीं न कहीं मुझे चोट पहुंचा रहे हैं लेकिन मैं कभी बोल नहीं पाता, पांव रूक जाते हैं, धड़कनों का विचलन हो जाता है और होंठ सील जाते हैं।
                 उनके चेहरे को देखकर लगता है कि उन्हें कुछ भी ज्यादा नहीं चाहिए, वे हमेशा खुश खुश से रहते हैं। 65 की उम्र में भी एक अजीब सी लालिमा और सादगी से जड़ा भोलापन। न ही मैंने उनसे कभी ज्यादा बातचीत की, और न ही उन्होंने मुझसे कभी आगे आकर कुछ पूछा। अभी कुछ दिन पहले जब मैं उनकी दुकान से फल लेकर वापस जा रहा था तो इस बीच वे मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे एक मां दीवाली में घर आए अपने बेटे को घर से विदा करते समय देखती है और अपनी आंखों से, मनोभावों से वो कह रही होती है कि चलो बेटा समय मिलते ही फिर से आना।

~ जोधपुर की नीली दीवार ~

              हमारा बचपन जोधपुर की गलियों में बीता है। जाति से राजपूत। हमारी एक ही दीदी है, और हमारे मां बाप को मिलाकर चार लोगों का परिवार। हमने अपनी स्कूली पढ़ाई जोधपुर में की फिर उसके बाद आगे कालेज की पढ़ाई जयपुर में हुई। कालेज की पढ़ाई अभी भी चल रही है। कुछ दिन बाद दीदी की सगाई होने वाली है इसलिए हम छुट्टी लेकर अपने घर जोधपुर आये हुए हैं।
               सगाई का दिन आ गया। सुबह से हर कोई तैयारी में लग गया है। बापजी जो हमेशा पगड़ी लगाए रहते हैं आज सगाई है तो रस्मो रिवाज के लिहाज से उन्होंने हमें भी मजबूर कर दिया कि पगड़ी लगानी पड़ेगी। हमने पगड़ी पहन ली है। सब अपने-अपने कामकाज में व्यस्त हैं। हम पगड़ी लगाये अपने कमरे में जाकर आईने के सामने खुद को देखते लग जाते हैं। अचानक से हम अपने ही चेहरे को छूने लगते हैं और कुछ सेकेंड बाद पगड़ी निकालकर फेंक देते हैं। फिर एक दीवार का कोना पकड़ लेते हैं ,उस दीवार को अब हम अपने हाथों से मारने लग जाते हैं, और उसी नीली दीवार पर अपना सर पटकने लगते हैं। हल्का सा खून निकलने लगता है। इसी बीच नानी सा हमें देख लेती है। वो हमारे सिर पर से खून निकलता देख चिंताविमुख हो जाती है और पास आकर चोट देखने की जिद करने लगती है हम उन्हें जैसे-तैसे मना करते हैं, और उन्हें झूठ कहते हैं कि ऐसे ही काम करते करते चोट लग गई। उसके बाद हम वहां से अस्पताल जाने का बहाना बनाकर अपने कमरे से बाहर आ जाते हैं। और हमारे घर के पास ही जोधपुर का जो सबसे ऊंचा टीला जैसा स्थान है, आधे घंटे तक दौड़ते हुए हम वहां चढ़ जाते हैं। और फिर जोर-जोर से चिल्लाने लगते हैं।
                   असल में जब हमने आईने में अपना चेहरा देखा तो लगा कि ये चेहरा हमारा नहीं है। और ये घर, ये घर भी हमारा नहीं है। इस घर के लोग, ये रिश्ते-नाते ये कुछ भी हमारा नहीं। ये जोधपुर शहर भी हमारा नहीं। जब हम आईना देख रहे होते हैं तो हमें कहां से अचानक याद आता है कि हमारा जन्म तो छत्तीसगढ़ में कहीं पर हुआ था। हमारी कालेज तक की पढ़ाई भी छत्तीसगढ़ में ही हुई। हमारी तो दो दीदी हैं, और दोनों की शादी हो चुकी है, हमारी एक छोटी बहन भी है लेकिन यहां जोधपुर में जो मेरी एक दीदी है उनकी सगाई भी नहीं हुई। यहां जोधपुर में हमारे बापजी ने पानी की कमी को देखते हुए एक कुंड बनवाया है, वहीं छत्तीसगढ़ में हमारे परदादा ने अपने गांव में दो तालाब बनवाएं हैं। लेकिन हमने दीदी के सगाई का कामकाज क्यों छोड़ दिया और क्यों यहां बेमन से इस टीले पर आ गए। सब हमें वहां खोज रहे होंगे। नानी सा ने तो हमें देख भी लिया था, उन्होंने सबको खबर कर दी होगी। एक तरफ हमें दीदी का चेहरा याद आ रहा है, जो सगाई के लिए सुबह से सज रही हैं और दूसरी तरफ ऐसा लग रहा है कि छत्तीसगढ़ से हमें कोई बुला रहा है। एक तरफ हमारा ये जोधपुर का परिवार है जिसने हमें इतना लाड़-प्यार दिया, पढ़ाया लिखाया, सब कुछ किया। तो दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ का वो शहर है, जहां हमारे मां-बाप और भाई बहन हमें खींच रहे हैं और हम उनके अनुराग के सामने झुक गए हैं।
                   अब हम न तो वापस दीदी की सगाई में जोधपुर की उन गलियों में जा पा रहे हैं, हां उन नीली दीवारों से अब हमें दूर होने का मन कर रहा है। न ही छत्तीसगढ़ लौटना चाहते हैं। हम इन दोनों भावनात्मक रिश्तों के बीच फंस चुके हैं, अब हमारा सर फटने लगा है। हम अब टूटने लगे हैं, रोने लगे हैं, और फिर हम द्वन्द से परेशान होकर उस टीले से नीचे कूदकर अपनी जान देने का फैसला करते हैं। जैसे ही हम उस टीले से नीचे की ओर छलांग लगाते हैं। हमारा सपना टूट जाता है। अब हम जाग चुके हैं।

                 जोधपुर, मैं तो कभी राजस्थान के किसी शहर में नहीं गया हूं। अभी तक उत्तराखंड और हिमाचल घर जैसा लगता था। वो दोनों जगहें मुझे खींचती थी। लेकिन ये जोधपुर का ऐसा अजीब सा सपना क्यों आ गया। मैंने तो इस शहर की तस्वीर भी नेट में कभी नहीं देखी है। अभी देख रहा हूं तो पता चल रहा है कि जोधपुर को नीला शहर कहते हैं। क्योंकि वहां के अधिकतर घर नीले रंग के हैं। हां मेरा घर भी तो इसी रंग का था। हां वो नीली दीवारें, और वो साफ-सुथरी गलियां जहां मेरा बचपन बीता है। हां जोधपुर के उस बड़े से टीले से कुछ किलोमीटर दूर में मेरा घर है। लेकिन मैं अपने घर को कैसे पहचानूंगा। कहीं मुझे वो दीदी दिख गई, जिनकी सगाई होने को थी और जहां से मैं गायब हो गया था, वो परिवार जिसका मैं हिस्सा था, अगर वो मेरे सामने आ गए, तो मैं खुद को कैसे सभालूंगा। क्योंकि मुझे तो हल्का सा उनका चेहरा भी याद आ रहा है।
कुछ भी नहीं पता कि क्या होगा लेकिन एक बार उस शहर के करीब जाना है।
उन नीली दीवारों को छूना है।
उन चौबारों से भी गुजरना है जहां मेरा बचपन बीता है।
हां बापजी का बनाया कुंड भी तो देखना है।
               खैर, पता है मैंने शीर्षक में "जोधपुर की नीली दीवार" ही क्यों लिखा है। वो इसलिए कि मैंने ये टाइटल महीने भर पहले ही लिख दिया था, बस शीर्षक देकर खाली छोड़ दिया था, अब पता नहीं ये आपके यकीन करने लायक है भी या नहीं, पर यही सच है। एक अपनी खास दोस्त को उस समय बताया भी था कि यार मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं इस पर कभी कुछ लिखूंगा।और अब देखिए, शीर्षक लिखने के महीने भर बाद ये हैरान कर देने वाला सपना आ गया।

Monday, 9 January 2017

- वीर -

                 उसका नाम वीर था। वो मेरी ही कालोनी में रहता था। वो हमेशा अपने नाम को चरितार्थ करता, यानि नाम जैसा काम वैसा। मैंने अभी तक की जिंदगी में इतना साहसी लड़का नहीं देखा। वो किसी भी चीज से नहीं डरता था, कहीं भी कोई जहरीला सांप या बिच्छू निकलता तो वो तुरंत उसे मारने के लिए पहुंच जाता और मारने के बाद उसे अपने साथ लेकर घूमता और पूरी कालोनी के बच्चों को डराता। वो दिखने में भी किसी शूरवीर जैसा था, किसी गली के गुंडा/दादा जैसी शारीरिक बनावट लिए हुए। इस एक वजह से पूरी कालोनी के बच्चे उससे डरते। वो साहसी होने के साथ-साथ बहुत बदमाश था। जिसको चाहता उस बच्चे को थप्पड़ मार देता, रेत के ढेर में पटक देता। उसे न तो अपने मां-बाप का डर था न ही किसी और का।
                 वो जब मुझे मारता तो गुस्सा होकर मैं भी उसे इशारों से चिढ़ा देता। उसे मेरा चिढ़ाना बिल्कुल भी पसंद नहीं था। मेरे चिढ़ाने से वो इतना गुस्सा हो जाता कि मुझे किसी फुटबाल की तरह वो धुन देता। मैं भी निर्लज्ज की तरह उसकी मार सह लेता और आखिर तक आंसू न निकालता। कई बार वो आंसू निकालते तक मुझे पीट देता। जब मुझे हारा हुआ महसूस होता तो मैं घर वालों से शिकायत करता, तो मुझे वीर से दूर रहने की हिदायत देते और साथ ही वीर के घरवालों से शिकायत भी करते। वीर के बड़े-पापा डंडे से उसे पीटते, मुझे यह देखकर बहुत खुशी होती लेकिन थोड़ी ही देर बाद मैं मायूस हो जाता क्योंकि वो राक्षस की तरह हंस हंस के अपने बड़े-पापा से मार खा जाता। और वहीं मेरे को धमकी भी दे देता कि रूक तेरे को बताऊंगा। उसके बड़े-पापा फिर उसे पीटते लेकिन वो कभी न रोता।
                   मैं 3rd या 4rth क्लास में था। और वो 9th या 10th में था। वो कई बार परीक्षा में फेल भी हो चुका था। हालात ऐसे हो जाते कि उसकी मार से बचने का मेरे पास कोई भी उपाय नहीं था सिवाय छिपने के। वो इतना साहसी था कि चलती हुई जीप में दौड़ के चढ़ जाता। उस समय एक रुपए की शर्त पर वो ऊंची किसी बिल्डिंग से नीचे कूद जाता। हमारे लिए ये सब उस समय बड़ी बात होती। एक बार वो चलती जीप में चढ़ रहा था और जोर से फिसल के छाती के बल गिर गया, उसके हाथ पांव बुरी तरीके से छील गए, पेंट भी फट गया, मैं तो मन ही मन बहुत खुश हुआ कि जा बढ़िया हुआ, मेरे को मारता था न। मैं उत्सुकतावश यह भी देख रहा था कि इतनी जोर से गिरा है, आज तो रोएगा लेकिन वो नहीं रोया। मैं उसके आंसू देखने को तरस जाता लेकिन वो हर दर्द झेल लेता, कभी भी न रोता, वो सच में वीर था।
                  मैं दिन रात उसे मारने के ख्वाब देखता। एक दिन छिपकर मैंने उसे पत्थर दे मारा। गलती से उसकी नजर मुझ पर पड़ गई। उस दिन उसने मुझे बुरी तरीके से पीट दिया। मैं हर रोज यही सोचता कि जल्दी से एक बार बड़ा हो जाऊं फिर तो इस वीर को इतना मारूंगा इतना मारूंगा कि इसके आंसू निकल जाएंगे।
                 वीर को सिगरेट और फिजूलखर्ची की लत लग गई थी। असल में वीर अपने बड़े-पापा और बड़े-मम्मी के साथ रहता था, एक दिन वे किसी सामाजिक कार्यक्रम में बाहर गए और वीर को यह कह दिया कि वापस आते शाम हो जाएगी। उसी दिन वीर ने अपने ही घर की आलमारी तोड़ ली। अब उसने तिजोरी का सारा सामान निकालकर कर बिखेर रखा था, जिसमें गहने और पैसे थे। उसी बीच उसकी बड़ी-मम्मी कुछ गहने पहनने के सिलसिले में अचानक वापस आ गई। अब ये याद नहीं आ रहा कि उसकी बड़ी-मम्मी दरवाजा खटखटा कर आई या फिर वीर ने कहीं दरवाजा खुला छोड़ रहा था। क्योंकि उनके घर में प्रवेश करने के दो दरवाजे थे।
हुआ ये कि वीर की चोरी के बारे में उसकी बड़ी-मम्मी को पता चल गया। उन्हें कार्यक्रम में जल्दी जाना था तो वो वहां से जाते-जाते वीर को धमकी देकर चले गई कि शाम को आ रहे हैं तेरे बड़े पापा, अब वही तुझे देखेंगे।
                   शाम हो चुकी थी। वीर के बड़े-मम्मी और बड़े-पापा घर लौटे। घर में सब कुछ अस्त व्यस्त पड़ा हुआ था, खाने-पीने की बहुत सी चीजें बिखरी पड़ी थी। सब तरफ दरवाजे खुले थे। और वो जब वीर के कमरे में गए तो उन्होंने पाया कि वीर ने फांसी लगा ली है। जब मुझे पता चला तो बड़ी जिद करके पापा के साथ मैं भी उसे देखने चला गया। उस उम्र में पहली बार मैंने देखा कि ऐसे लोग मरते हैं। उसका फांसी से लटका हुआ चेहरा याद कर करके मैं कई रात सो नहीं पाया। उस समय पूरी कालोनी में कई दिनों तक शोक का माहौल बना रहा। हम बच्चों ने तो कई दिनों तक शाम के समय बाहर खेलना-कूदना भी बंद कर दिया था, जब हमारे साथ के बच्चे कहीं मिलते तो यही चर्चा होती कि सच में वो पूरा खत्म हो गया क्या, सच में अब वो कभी नहीं आयेगा न। उस समय हमें यही लगता कि मान लो थोड़ा बहुत चांस होगा, वो जिंदा हो के आ भी तो सकता है। इस अनजाने डर की वजह से हम बच्चों में से किसी ने वीर को बुरा-भला नहीं कहा।
                  मैं कई बार रात-रात को डर से उठ जाता, ऐसा लगता कि वो मुझे सपने में भी आकर डरा रहा है, मार रहा है। उसकी मौत से अगर सबसे ज्यादा किसी को दुख पहुंचा था तो वो मैं था। एक तो वो बिना रोये हमेशा के लिए चला गया। अब पता नहीं ये वीर की वीरता थी या कायरता, लेकिन चोरी के पकड़े जाने पर उसने इतनी छोटी उम्र में इतना बड़ा फैसला ले लिया। वीर सबके मनोविज्ञान में ऐसे घुसा हुआ था, उस समय तो मुझे महीने भर तक यही लगता रहा कि वीर तो कभी मर ही नहीं सकता वो तो यहीं कहीं मेरे आसपास है। मैं उस उम्र में यही सोचता कि वीर बस एक बार के लिए जिंदा तो हो जा, तेरे हाथ-पांव बांध के खूब मारूंगा। जो बचकाना मन बड़ा होकर उसे पीटने के ख्वाब देखा करता था, अब वो वीर को जिंदा देखना चाहता था।