परिवार समाज वाली प्रतिष्ठा से बनी पहचान, उससे तैयार हुआ इगो और उसका गुरूर बहुत भयानक होता है, इसमें कई बार व्यक्ति ऐसा समा जाता है कि अपनी मूल नैसर्गिक पहचान खो देता है। कई बार प्रतिष्ठा हाथ से चली जाती है फिर भी उससे पैदा हुआ गुरूर बना रहता है।
आगे जाकर यह भी समझ आता है कि एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के प्रति कैसा भाव रखता है, उसका व्यवहार कैसा है, वह किसी को चोट तो नहीं पहुंचाना चाहता लेकिन अपना इगो भी नहीं छोड़ना चाहता है, खुद को दुनिया से अलग समझता है, खुद को अलग थलग रखता है, और इसका आधार खुद की पहचान नहीं वरन् विरासत में मिला इगो होता है, इस वजह से कई बार वह मानवीय संवेदनाओं को संपूर्णता में आत्मसात नहीं कर पाता है, लगातार अपने आसपास के लोगों को मनोवैज्ञानिक तरीकों से चोट पहुंचाता रहता है। अपने को सबसे ऊंचाई का व्यक्ति समझना, सबसे शुध्द सबसे पवित्र सबसे बेहतर समझ लेने का दंभ इनसे कभी छोड़ा नहीं जाता है, वे आजीवन इस सच को नहीं स्वीकार पाते हैं कि दुनिया में उनसे भी बेहतर लोग हो सकते हैं जो अपने दम पर शून्य से शुरू कर अपनी पहचान बनाते हैं।
आगे जाकर यह भी समझ आता है कि एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के प्रति कैसा भाव रखता है, उसका व्यवहार कैसा है, वह किसी को चोट तो नहीं पहुंचाना चाहता लेकिन अपना इगो भी नहीं छोड़ना चाहता है, खुद को दुनिया से अलग समझता है, खुद को अलग थलग रखता है, और इसका आधार खुद की पहचान नहीं वरन् विरासत में मिला इगो होता है, इस वजह से कई बार वह मानवीय संवेदनाओं को संपूर्णता में आत्मसात नहीं कर पाता है, लगातार अपने आसपास के लोगों को मनोवैज्ञानिक तरीकों से चोट पहुंचाता रहता है। अपने को सबसे ऊंचाई का व्यक्ति समझना, सबसे शुध्द सबसे पवित्र सबसे बेहतर समझ लेने का दंभ इनसे कभी छोड़ा नहीं जाता है, वे आजीवन इस सच को नहीं स्वीकार पाते हैं कि दुनिया में उनसे भी बेहतर लोग हो सकते हैं जो अपने दम पर शून्य से शुरू कर अपनी पहचान बनाते हैं।
No comments:
Post a Comment