Tuesday, 22 September 2020

छत्तीसगढ़ के भूतपूर्व स्वास्थ्य सचिव को पत्र -

प्रति,

भूतपूर्व स्वास्थ्य सचिव,

छत्तीसगढ़ शासन


प्रणाम,

आशा है आप ठीक होंगी। सबसे पहले आपके भारत छोड़ने के फैसले पर आपको कोटिश: साधुवाद। आपने बहुत सही समय पर यह फैसला लिया है, आप कब हमारे राज्य में सेवा देने हेतु आईं इसकी मुझे ठीक-ठीक जानकारी नहीं है, लेकिन कुछ दिनों पहले आपने विदा लिया है, इसकी बखूबी जानकारी है। आप चाइल्ड केयर लीव लेकर अपने परिवार के साथ आने वाले दो साल तक जर्मनी में हैं, यह जानकर बेहद खुशी हुई, वैसे भी सबका अपना निजी जीवन होता है, इसलिए आपके इस फैसले का सम्मान‌ करता हूं, आपने अपने और अपने परिवार के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देकर समाज के सामने एक नजीर पेश की है। छत्तीसगढ़ में बतौर स्वास्थ्य सचिव अपने कार्यकाल‌ के दौरान खासकर पिछले छह महीनों में कोरोना को लेकर आपने जो लोगों के लिए अभूतपूर्व कार्य किया है, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता, राज्य की जनता उसके लिए हमेशा आभारी रहेगी। यकींन मानिए आपके द्वारा लिए गए दूरदर्शी फैसलों का फल अभी हमें मिल रहा है, अभी उसके परिणाम देखने को मिल रहे हैं, उम्मीद है आॅनलाइन माध्यमों से आप तक भी ये सुखद परिणाम‌ पहुंचते होंगे। मैं लोगों को समझाता हूं कि डाॅक्टर्स, नर्स, हेल्थवर्कर्स की तारीफ करना बंद कर दें, क्योंकि असली योध्दा तो आप ही थीं, लेकिन इत्तफाक देखिए कि आपके जाने के बाद आज आपको कोई नहीं पूछता। पीड़ा होती है यह देखकर कि जब प्रदेश की जनता स्वास्थ्य सेवाओं और लाॅकडाउन का विरोध करने लग जाती है, भूल जाती है कि इतनी बेहतर व्यवस्था बनाने वालों ने पिछले छह महीनों में दिन रात कितनी मेहनत की है। मैं तो इसमें यह भी मानता हूं कि आप ही की वजह से हममें ये समझ पैदा हुई कि पूरे देश में जब अनलाॅक हो रहा है, तब हम पूरी जागरूकता के साथ मीडिया, सामाजिक संस्थान, प्रदेश की जनता सबको विश्वास में लेते हुए कैसे लाॅकडाउन के नये-नये अभिनव प्रयोग सतत् रूप से करते रहें। काश आज आप यहीं होती तो आपको गर्व महसूस होता, आप देखतीं कि कैसे जिले स्तर के सरकारी मुलाजिमों ने पहले से कहीं बेहतर लाॅकडाउन करके दिखाया है।

आशा करता हूं निकट भविष्य में भी आप ट्विटर के माध्यम से राज्य की खबर लेती रहेंगी और अपना बहुमूल्य मार्गदर्शन राज्य को प्रदान करती रहेंगी।


धन्यवाद।।

Monday, 21 September 2020

हत्या -

हत्या -


शहर में आए हुए उस परिवार को अभी कुछ महीने ही हुए थे। चार लोगों का सुखी परिवार रहा, प्रथम दृष्टया ऊपरी तौर पर देखने में यही मालूम पड़ता था। पिता एक अच्छी सरकारी नौकरी में थे, कालेज में प्रोफेसर रहे। बच्चों की शिक्षा को लेकर जितने वे सजग रहते, बच्चे ठीक उसके विपरित। प्रोफेसर साहब उसी मानसिकता के हिमायती रहे कि डाँट डपट से, ताने से बच्चों को ठीक कर लेंगे। कुछ माता-पिता ऐसे होते हैं जो अपने बच्चों पर शारीरिक हिंसा करते हुए उन्हें ठीक करने, सुधारने के पक्षधर होते हैं, इसके विपरित कुछ माता-पिता ऐसे होते हैं जो समाज की नजरों में अत्यधिक सभ्य, सुशील, प्रतिष्ठित, सम्मानित और विनम्र होने की छवि बनाकर चलते हैं, ऐसे माता-पिता अक्सर बच्चों को निरंतर मानसिक रूप से प्रताड़ित करते हैं, प्रोफेसर साहब यही दूसरे केटेगरी वाले रहे।


उनकी एक बेटी जो थी, वह अपनी निजी रूचियों से लेकर घर के काम में और पिताजी के ताने सुनने से लेकर पढ़ाई करने में, हर मामले में औसत रही, इस वजह से भी पिता का मौन समर्थन करती रही। लेकिन उनका बेटा उम्मीद से ठीक उल्टी दिशा में चल निकला, अपने भीतर की बची-खुची ईमानदारी को जुटाकर उसका मन छोटी उम्र से ही प्रतिक्रिया करने लग गया, अपने हिस्से का खुला आसमान ढूंढने लग गया। वो बात अलग रही कि बच्चे की यह प्रतिक्रिया समय, काल, परिस्थिति, पारिवारिक दबाव इन कारणों से कभी भी सही दिशा में निरूपित नहीं हो पाई।


जिस तरह का हमेशा से घर में एक मानसिक दबाव का माहौल बनाया गया, इस वजह से वह अपने पिता से बहुत पहले ही दूर हो चुका था। दबाव के विपरित वह ऐसा गया कि अब उसे अपने ही घर में दो वक्त का भोजन करना भी नागवार गुजरता। छोटी सी उमर में वह एक ऐसी प्रताड़ना झेलने को विवश कर दिया गया था जिसे न वह खुद प्रताड़ना समझ पाया था, न ही समाज।बची-खुची कसर तब पूरी हुई जब उसने घर से थोड़े-थोड़े रूपए चुराने लगा, चुराना भी क्या कहें उसे, अपनी सीमित जरूरतों के लिए चंद पैसे घर से बिना बिताए ले लेता था। शुरूआत में वह उतने ही रूपए लेता रहा जितने में वह बाहर जाकर कुछ खरीद कर खा सके क्योंकि घरेलू दबाव ऐसा बना रहा कि पिता ने कभी इस पक्ष पर सोचा ही नहीं कि बच्चों का यह शौक भी पूरा किया जाए कि उन्हें उनके मन मुताबिक कभी कुछ खिला दिया जाए, कुछ खरीददारी कर लिया जाए, बच्चों को मशीन न मानकर कभी उनसे प्रेमपूर्वक व्यवहार कर लिया जाए, उनके साथ बैठकर बातें की जाए, उनके साथ हँसी ठिठौली ली जाए, उनकी बातें सुनी जाए, लेकिन प्रोफेसर साहब तो थे जिद्दी, कैसे अपने बच्चों की या पत्नी की सुनते, अपने अहं को सर्वोपरि मानकर उसी हिसाब से अपनी जिंदगी के पहिये घुमाते रहे।


बेटे द्वारा की गई चंद रूपयों की चोरी को, जिसे कायदे से चोरी कहना भी मूर्खता होगी, इसे उसकी भोली माता हमेशा से छुपाती रहती और पिता तक यह बात पहुंचने न देती। पिता जो चरित्र से एक शक्कीमिजाज, मक्खीचूस इंसान रहे, उनमें शुरूआत से अपने ही परिवार के लोगों के प्रति औरंगजेब जैसा अविश्वास रहा, कुल मिलाकर यही उनका मूल चरित्र रहा, वे अपनी तनख्वाह तक खुद छिपाकर रखते, हिंसा के स्तर पर जाकर एक एक रूपए का हिसाब रखते, यहाँ तक कि अपनी धर्मपत्नी को भी इस बात की जानकारी न होने देते। एक दिन क्या हुआ कि बेटे को पिताजी के तिजोरी की भनक लग गई और उसमें भी उनके बेटे ने पिन से स्टेपल किए हुए रूपयों की गड्डी से अपनी जरूरत के मुताबिक ईमानदारी से एक पचास रूपए का नोट निकाल लिया, पिता को तो पता चलना ही था, उन्होंने सबसे पहले अपनी पत्नी पर शक की सुई घुमाई, पत्नी ने हमेशा की तरह छिपाने की लाख कोशिश की लेकिन बात उभर कर बाहर आ गई, उन्होंने बेटे को बैठाकर खूब सुनाया, चूंकि पिताजी ने विनम्रता का चोगा उढ़ा हुआ था तो वे अपने बच्चों पर कभी हाथ नहीं उठाते थे, सिर्फ मानसिक प्रताड़ना देते थे। छोटे बच्चों में मार का असर कुछ पहर तक ही होता है, लेकिन मानसिक प्रताड़ना लंबी दूरी तय करती है, कहीं अधिक दिमागी उथल पुथल करती है।


उनका एकलौता बेटा छोटी उम्र से ही कुछ अलग ही दिखने लगा था, चेहरे का रंग हल्का पीला गोरा लेकिन उस चेहरे में किसी प्रकार की कोई चमक कोई ऊर्जा नहीं, कद काठी से भी औसत, आटे की लोई जैसा उसका शरीर। ऐसा लगता मानो मानसिक प्रताड़ना झेलते-झेलते पूरा शरीर कृशकाय होने की दिशा में गतिमान है। वह भी अपनी बहन की तरह पढ़ाई और अन्य गतिविधियों में औसत ही रहा। पिता को अपनी उम्मीद के मुताबिक कभी बच्चों से कुछ नहीं मिल‌ पाया, बच्चे भी परेशान रहने लगे कि हम ऐसा क्या कर जाएं कि पिता हमसे खुश होकर हंसते, मुस्कुराते कभी बात कर लें। प्रोफेसर साहब रूटिन तरीके से दूसरे परिवारों के बच्चों से तुलना करके अपने बच्चों को छोटा महसूस कराते रहे। बच्चों में जो थोड़ा बहुत आत्मविश्वास रहा, संभावनाओं के अंकुर रहे, वह फूटने के पहले ही दम तोड़ने लगे। पिता को अपने बच्चो में कुछ भी ऐसा दिखाई नहीं पड़ रहा था कि जिसे प्रस्तुत कर वे समाज के बीच सीना चौड़ा करते हुए अपना गौरवगान कर सकें। वे भी व्यथित रहते कि समस्या कहाँ है, चूक कहाँ रह गई, जबकि वे खुद समस्याओं का पहाड़ बनकर बीच में खड़े थे। उन्हें यह अहसास भी कैसे होता, मन के कोमल भावों पर पहले ही उन्होंने ताला जड़ दिया था, उनके लिए रूपया ही जीवन की सबसे कीमती चीज रही, प्रेम नाम की कोई वस्तु भी होती है, इसकी उन्हें कभी समझ ही नहीं रही, इसलिए इन बहूमूल्य जीवन तत्वों से वे आजीवन वंचित रहे।


यहाँ प्रोफेसर साहब के चरित्र के बारे में कुछ और बातें करना बेहद जरूरी है। अब चूंकि वे सरकारी प्रोफेसर थे, इसमें से आने वाली मोटी तनख्वाह, ऊपर से छोटा सा परिवार था, गाँव में अच्छी खासी खेती किसानी भी थी, यानि यह कि पैसों की कोई कमी नहीं थी, संपन्न थे। फिर भी एक एक रूपए के हिसाब के लिए पड़ोसियों से बहस कर लेते, रेहड़ी (ठेलेवाला) वालों से दो चार रुपए के लिए खूब मोलभाव करते, कुतर्क कर अपने को सही पेश करके ही दम लेते। छोटा हो या बड़ा, अमीर हो या गरीब, हर कोई इनकी इस नीचता या यूं कहें कि इनके इस काइयाँपन के सामने झुकने में ही अपनी भलाई समझता। बाहर के लोगों का तो चलिए एक बार समझ में आता है, वे पैसों के मामले‌ में अपने घरवालों के लिए भी किसी मुंशी लाला से कम नहीं थे। छोटी से छोटी चीज का ऐसा पाई-पाई हिसाब माँगने लगते कि उनके परिवार के सदस्य भी घबरा जाते। इस वजह से भी घर का कोई सदस्य कभी अपने शौक या जरूरतों के लिए कोई चाहकर भी पैसे न माँग पाता। और संभवत: बेटे का हिम्मत करते हुए बिना बिताए घर से पैसे ले लेने का एक प्रमुख कारण यह भी रहा हो। प्रोफेसर साहब सब्जियों की खरीददारी करने बाजार भी जाते तो शाम को ही जाते क्योंकि वह समय ऐसा होता है जब आखिर में बची हुई सढ़ी गली सब्जियाँ कम‌ दाम‌ में मिल जाती हैं, दो रूपए कहीं कम दाम में सब्जियाँ मिल जाएँ इसके लिए वह पूरा बाजार छान मारते, भले ही इसमें घंटे भर का समय क्यों न लग जाए। वे खासकर उन सब्जियों को अधिक खरीद मात्रा में खरीदते जिनका मूल्य कम है, इस वजह से वे कई बार पोषकतत्वों से भरपूर अलग-अलग प्रकार की सब्जियाँ खरीदने से वंचित रह जाते।


जब जब माता-पिता के संज्ञान में यह बात आई कि बेटा चोरी-छिपे घर से रूपए लेता है और बाहर की चीजों पर खर्च करता है, उन्होंने बेटे की इस हरकत को सबके सामने इस तरीके से पेश करना शुरू किया कि बेटा आवारा है, चोर है, गलत संगत में जा चुका है। इसमें मुख्य भूमिका में पिता रहे, माता पीछे पीछे मौन समर्थन देती रही। और जिस गलत संगत के नाम‌ पर वे अपने बेटे को निकृष्ट, चरित्रहिन घोषित करते रहे, उस चरित्रहीनता के नाम‌ पर बेटा करता क्या था, घर का खाना नहीं खाता था, घर में नहीं रहता था, हमेशा आवारागर्द लोगों के साथ बाहर घूमता रहता था, चूंकि माँगने पर भी घर से जेबखर्च नहीं मिल पाता इसलिए घर से कुछ रुपए लेकर हमेशा बाहर की चीजें खाता था, जबकि बाहर की चीजें खरीदकर खाना कभी उसके शौक में शुमार थी ही नहीं; घर के दबाव ने ही अनायास यह दूसरा रास्ता खोल दिया था। और जब बेटा उस रास्ते चल‌ निकला तो फिर वापस लौट नहीं पाया, उसकी जिव्हा को बाहर के खाने की लत हो गई। उस बालमन का दुर्भाग्य देखिए कि उसका मन अब बाहर के खाने में रस ढूंढने लगा, अपनापन ढूंढने लगा, स्वाद खोजने लगा। घर का खाना वह खाता भी तो पिता की उपस्थिति और उनसे डर की वजह से, जिसमें उसे रत्ती भर आनंद न आता, बस पेट भरने के लिए वह खा लेता। कई बार तो ऐसा भी होता कि पिता की अनुपस्थिति में भी वह माँ का मन रखने के लिए हल्का भोजन घर में कर लेता और बाहर जाकर पेट भर कुछ तली हुई चीजें खा लेता और मन तृप्त करता, यह सिलसिला कई वर्षों तक चलता रहा। बेटा बड़ा हो रहा था, उम्र और घर से उसकी दूरियाँ समानांतर रेखा में चल रही थी, माताजी भी जड़वत बनी रहीं, सब कुछ देखते हुए भी कभी प्रतिकार नहीं कर पाई। निरंतर बच्चों की गलती छिपाते छिपाते अब उनमें भी कभी इतनी ईमानदारी पैदा नहीं हो पाई कि एक बार पूरी ताकत से इन सारी चीजों का विरोध कर जाए। इसीलिए कभी न तो वह अपने पति का विरोध कर पाईं, न ही अपने बेटे का पक्ष लेकर उसका समर्थन कर पाई। शायद नियति को भी यही मंजूर था। समय देख रहा था।


पानी बहुत अधिक बह चुका था। एक तरफ पिता के द्वारा दी जा रही मानसिक प्रताड़ना और दूसरी तरफ माँ से मिल रही मौन सहमति। इस वजह से वह अब बहुत आगे निकल चुका था, जहाँ से अब उसे वापस लाना असंभव की हद तक कठिन हो चुका था। अब उसने अपनी जरूरतों के लिए पैसे इकट्ठे करने के उन सारे तरीकों को आजमाना शुरू कर दिया जहाँ तक वो कर सकता था। वह इस भुलभुलैया में तो प्रवेश कर ही चुका था जहाँ आए रोज उसके सामने ऐसी नई नई जरूरतें पैदा होने लगी थी, जो कभी उसकी प्राथमिकता में भी नहीं थी, लेकिन इन जरूरतों को पूरा करने के लिए अब वह किसी तक जाने को तैयार था। इस पूरी प्रक्रिया में उसे कुछ साथी दोस्त भी मिलते चले गये जो उसका बेड़ा गर्क के लिए पर्याप्त मात्रा में उत्प्रेरक का काम करते रहे। बचपन में घर से अपनी छोटी छोटी जरूरतों के लिए दहाई की संख्या के नोट चुराने वाला वह बालक अब चौथाई संख्या की चोरी तक अपने हाथ लंबे कर चुका था और वह यह सब कुछ बड़े शातिराना तरीके से कर जाता। घरवालों को थोड़ी भी भनक न लगती।


पढ़ाई लिखाई के मामले में वह अपनी बहन से थोड़ा तेज रहा, यानि हर बार वह ठीक-ठाक नंबरों से पास हो जाता। कुछ इस तरह उसने इंटरमीडियट तक की पढ़ाई पूरी कर ली। अब इसके बाद उसे काॅलेज भेजने की तैयारी चल ही रही थी कि एक अनहोनी हो गई। लड़के को एक गंभीर बीमारी हो गई। इतनी गंभीर बीमारी रही कि महीनों तक अस्पताल में भर्ती होना पड़ा, कई लाख रूपए खर्च करने पड़ गए। ध्यान रहे कि उम्र के इस पड़ाव तक लड़का नशे आदि से कोसों दूर था। उस गंभीर बीमारी की वजह से प्रोफेसर साहब की जितनी भी जमा पूंजी रही, लगभग सब कुछ बेटे के स्वास्थ्य पर खर्च हो गया। फिर भी कंजूस पिता ने इतना तो जमा करके रखा ही था कि आगे का जीवन बिना किसी बाधा के प्रवाह में चलता रहे, सो जीवन चलता रहा।


बेटा साल भर में ठीक होकर घर आ गया, लेकिन अभी भी उसकी महंगी दवाईयाँ चल ही रही थी। अब चूंकि प्रोफेसर साहब थे सरकारी मुलाजिम, तो उन्होंने बेटे के ठीक होने के पश्चात् अपना सारा ध्यान कागजी कार्यवाही में लगा दिया। वर्तमान में चल रहे दवाइयों के खर्च से लेकर पुराने इलाज का बिल, सारा हिसाब तैयार कर लिया और उन पैसों के लिए क्लेम करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे उनके सारे पैसे वापस आ गये। लेकिन बेटा अभी भी पूरे तरीके से घर नहीं लौट पाया था। 


अस्पताल और दवाईयों के इलाज से शरीर के आंतरिक हिस्सों की समस्याओं से तो छुटकारा पाया जा सकता है लेकिन मन का क्या करे इंसान। मन तो अभी भी वैसे ही घुटन महसूस कर रहा था जैसा पहले करता था। हाँ अब चूंकि लड़का बीमार था, दवाईयाँ चल ही रही थी, इसलिए भी एक सहानुभूति का पक्ष कुछ वर्षों तक बना रहा। इस बीच लड़के ने घर पर रहते हुए स्नातक स्तर की पढ़ाई ओपन यूनिवर्सिटी से पूरी कर ली। अब वह धीरे-धीरे ठीक होने लगा था, लेकिन कुछ चीजें मस्तिष्क के किसी कोने में अभी भी जस की तस जमी हुई थी, और वह थी घर से उसकी दूरी। और इस दूरी को रेखांकित करने में उसके‌ पिता ने महती भूमिका निभाई। अब चूंकि बेटा ग्रेजुएट हो चुका था, इसके बाद भी उसका घर पर रहना पिता को खटकने लगा। प्रोफेसर साहब तो अब अपने बेटे के साथ ऐसा व्यवहार करने लगे मानो सरकार से मेडिकल क्लेम का पैसा मिल जाने के बाद वह भूल ही गये हों कि कैसे मौत के मुंह से अपने बेटे को बचाकर लाए थे।  वह अब अपने बेटे को आए दिन नौकरी आदि के लिए ताने सुनाने लगे। बेटे की घुटन बढ़ने लगी, वह फिर घर से दूरी बनाने लगा, अब चूंकि स्वास्थ्य भी बेहतर होने लगा था तो फिर वही बाहर दोस्तों के साथ घूमना, उनके साथ खानपान। लेकिन उसकी तकदीर में ये खुशियाँ कहाँ लंबे समय तक टिकने वाली थी‌। एक और तूफान उसके जीवन में प्रवेश करने के लिए धीमे से तैयार हो रहा था। 


एक दिन अचानक क्या हुआ कि उस लड़के की तबियत फिर से बिगड़ने लगी। इस बार इतनी तबियत खराब हुई, ऐसी स्थिति होती चली गई कि माँ बाप और परिजनों ने भी आस छोड़ दिया। फिर भी लड़का अपनी इच्छाशक्ति से सब कुछ झेल गया और जिंदगी की रेस जीत गया।


जिंदगी की गाड़ी फिर से पटरी में सरपट दौड़ने लगी। वह दुबारा मरते मरते बचा था, इसलिए घरवाले उसके स्वास्थ्य के प्रति पहले से और अधिक सजग हो गये थे। वह भी यथासंभव घरवालों की आज्ञा का पालन करता रहा। और एक दिन वह पिता की अनुमति लेकर आगे की पढ़ाई करने शहर चला गया। महीने के खर्च के नाम‌ पर भी पिता उतने ही पैसे हिसाब करके उसे देते, जितने में उसका काम हो जाए, उसके अतिरिक्त एक रूपया भी नहीं। भले ही बेटे ने इतनी पीड़ाएं झेली, अपनी जवानी का एक बड़ा हिस्सा अस्पताल में बिता दिया, घरवालों का इतना मानसिक शोषण झेलने के बावजूद वह इस उम्मीद में जी गया कि अब सब बेहतर हो जाएगा। फिर भी अपने उस पाषाण ह्रदयी पिता के अहं के सामने उसका प्रेम, उसका समर्पण गौण ही रहा।


लड़का आगे की पढ़ाई पूरी कर घर लौट आया, और अब घर से ही प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने लगा। अब जैसे जैसे वह बड़ा हो रहा था, शोषण और दबाव की मात्रा भी तो उसी अनुपात में बढ़नी थी और हुआ भी यही। इतना कुछ होने के बावजूद, इतनी संपत्ति, सुख सुविधाएँ होने के बावजूद वह निर्दयी बाप अधीर होकर फिर से आए दिन अपने बेटे के समक्ष नौकरी की उम्मीद का राग अलापने लगा और उसे प्रताड़ित करने लगा। लड़का मन मसोस कर रह जाता, उसे यही लगता कि वही गलत है, उसके‌ पिता एकदम सही हैं, उसे समझ ही न आता कि उससे चूक कहाँ हुई, उसने क्या पाप कर दिया।  जीवन के इस मोड़ पर आकर उसने पहली बार शराब को मुँह लगाया, आनंद के वास्ते नहीं, बल्कि मन का बोझ हल्का करने के लिए उसने ऐसा किया। कुछ इस तरह चंद मिनटों, चंद घंटों के लिए ही सही वह सब कुछ भुलाकर अपने वर्तमान में जीने का सुख पा लेता था।


एक दिन एक बड़ी अप्रत्याशित घटना घट गई जिसकी किसी ने उम्मीद नहीं की थी। वह लड़का घर से भाग गया। कई दिनों तक नहीं लौटा, इस बीच घरवाले चिंता में पड़ गए, सब जगह पूछताछ की, कुछ परिचितों को खोजने के लिए लगा दिया, पुलिस में इसलिए नहीं कहा ताकि समाज में उनकी प्रतिष्ठा पर कोई आँच न आए और शायद इसलिए भी पुलिस तक बात नहीं पहुंचाई होगी क्योंकि माता-पिता को अपनी दी गई प्रताड़ना पर पूरा विश्वास होगा कि बेटा उन्हीं की वजह से ही तो घर छोड़कर गया है। 


इस बीच वह समाज की नजरों में और खराब होता गया। उसके शराब पीने की खबरें भी चलने लगी। भगोड़ा, निकृष्ट, शराबी और न जाने क्या क्या। अपमान और अपवंचना के नाम पर उसके चरित्र के साथ काफी कुछ चीजें जुड़ चुकी थी। फिर भी उस लड़के के भीतर कहीं अपने माता-पिता के प्रति प्रेम और सम्मान का तत्व कुछ रह गया था, इसलिए कुछ दिनों के बाद वह घर लौट आया। अपने व्याकुल परिजनों को देखकर रो पड़ा और वादा किया कि वह भविष्य में कभी ऐसा कदम नहीं उठाएगा। 


इस बीच लड़का आए दिन अपने मित्रों के पास जा जाकर रोता था, उसे पता नहीं होता कि वह आखिर क्यों रो रहा है, क्यों परेशान है वो, वो बस रोता था, वह परिवार और समाज की नजरों में इतना बेकार हो चुका था कि उसे भी अब लगने लगा था वह दुनिया का सबसे खराब बेटा है, उसे अपनी पीड़ा की ठीक-ठीक समझ ही नहीं बन पा रही थी, इसलिए वह किसी से ढंग से कह भी नहीं पाता था, इसलिए कोई उसे उतना समझ भी नहीं पाता था, वह पूरी तरीके से अकेला पड़ चुका था, अब उसके मनोभाव सिर्फ दो तरह से ही पकड़ में आते थे, एक उसके चेहरे के भाव और दूसरा उसके आँसू। इस बीच शराब की डोस बराबर उसके दुर्बल हो चुके शरीर में जाती रही। और फिर एक दिन अचानक उसे तेज बुखार हुआ और बिस्तर में लेटे लेटे ही उसने अपना शरीर त्याग दिया।


समाज की नजर में तो यह बुखार से हुई मृत्यु ही कही जाएगी, क्योंकि जिस समाज में माता-पिता को महान मानते हुए उनके पाँव धोकर उन्हें भगवान की तरह पूजने की परंपरा चली आ रही हो वहाँ उनकी सारी गलतियाँ छिप जाती हैं। वह अपने बच्चों को कितनी भी कैसी भी प्रताड़ना दें, वह हिंसा की श्रेणी में नहीं आता है, अपराध की श्रेणी में नहीं आता है। लोगों की नजर में हत्या का होना तभी माना जाता है, जब कोई व्यक्ति किसी की जीवनलीला समाप्त कर दे। ऐसी घटनाओं के पश्चात हम संवेदनशील समाज के लोग फाँसी की माँग भी कर लेते हैं, लेकिन इन जैसे लोगों का क्या जो आजीवन अपने बच्चों को मानसिक रूप से प्रताड़ित करते हुए उनका जीवन नर्क बना देते हैं, पहले बचपन की हत्या, फिर युवावस्था की हत्या, इस पूरी प्रक्रिया में कोमल भावनाओं की हत्या, खिलखिलाते ख्वाहिशों की हत्या, सुंदर सपनों की हत्या, न जाने ऐसा कितना कुछ। लेकिन ऐसी हत्याओं को समाज कभी हत्या के रूप में देख ही नहीं पाता है, न ही ऐसे पढ़े-लिखे प्रबुध्दजनों के भीतर छुपे हिंसक प्रवृति के मनुष्य को फिल्टर कर अलग कर पाता है।


प्रोफेसर साहब समाज की नजर में भले मानुष थे, और उम्मीद भी यही है कि वे ऐसे ही आजीवन भले‌ मानुष बने रहेंगे, उन्होंने कभी किसी पर हाथ नहीं उठाया, इस मामले में वे पक्के रहे। लेकिन यह कहना गलत न होगा कि उनकी वजह से आज उनका बेटा अब इस दुनिया में नहीं रहा। बेटे की मृत्यु के कुछ महीने बाद प्रोफेसर साहब वापस अपने राक्षसी स्वरूप में लौट आए। उन्होंने बेटे की मृत्यु के लिए आए दिन अपनी पत्नी को कोसना शुरू कर दिया, कभी-कभी तो अपनी पत्नी को यह तक कह देते कि तूने ही मेरे प्यारे बेटे को मुझसे छीन लिया, तू उसकी देखभाल नहीं कर पाई। मानवीय स्वभाव की भी यह विशेषता रही है कि मन के अंदर भरी हुई चीजें बाहर निकलने के अपने रास्ते खोज ही लेती है। अब चूंकि बेटी का विवाह भी कर लिया था, इसलिए घर में सिर्फ दो लोग रह गए थे, प्रोफेसर साहब की हिंसा झेलने के लिए अब बस घर में उनकी पत्नी रह गई थी। एक दिन उन्होंने तैस में आकर अपनी पत्नी को संपत्ति और अपने जीवन से बेदखल करने की बात कह दी, साथ ही दूसरा विवाह करने की धमकी भी दे दी। हालांकि उन्होंने अपने विवाह करने की धमकी वाली बात पर अमल नहीं किया लेकिन अपनी हिंसा, कुंठा, अहं या जो भी कह लें, इसको अपने जीवन का मूल तत्व मानते हुए आज भी वे उसी ठसक के साथ जीवन यापन कर रहे हैं।

Tuesday, 15 September 2020

टेस्टिंग किट के संबंध में डाॅक्टर मित्र की जुबानी -

सरकार के पास इतनी मात्रा में तो किट है ही प्रतिदिन हर राज्य जिसकी अपनी जितनी जनसंख्या है, उसका एक चौथाई टेस्टिंग कर सकता है, इस हिसाब से रोज करोड़ों टेस्ट पूरे देश में हो सकते हैं। लेकिन एक एक किट के पीछे सरकारी पेंच और उस पर भी जो ऊपरी बंदरबांट है वो तो बस पूछो मत‌। गिध्द की तरह नोचने बैठने हैं बस। किट भले ही पड़े पड़े खराब हो जाए लेकिन उपयोग सरकारी तरीके से ही होगा और सरकारी तरीका कितना तेज होता है, हम सब देख ही रहे हैं। अभी पूरे भारत में अधिकांशतः कोरोना टेस्टिंग सरकारी हाथों में ही है, तब जाकर टेस्टिंग की संख्या इतनी है, तो सोचिए अगर सचमुच लोगों का स्वास्थ्य इनकी प्राथमिकता होती तो रोज करोड़ों की संख्या में आराम से टेस्टिंग हो जाते। लेकिन बस वही चीज है, नियत की कमी है। अभी भी करोड़ों टेस्टिंग हो जाएगा, लेकिन सरकार चाहती ही नहीं कि ऐसा हो, सिस्टम जो ऐसा बना हुआ है। इसलिए आप देखिएगा अगर साल दो साल बाद जब विश्व में कोरोना की वैक्सीन आ भी जाएगी, तब भी हम भारतीयों तक पहुंचने में बहुत देर लगेगी। जब पूरा विश्व कोरोना मुक्त होकर अपनी अर्थव्यवस्था को आगे ले जा रहा होगा, हमारे यहाँ लोग वैक्सीन लगवाने के जुगाड़ खोज रहे होंगे। सरकार के हाथ में पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन तो होगी, लेकिन लोगों को उसके लिए भी लाइन लगना पड़ेगा, अतिरिक्त पैसे चुकाने होंगे, प्रताड़ना झेलनी होगी, सब कुछ वैसा ही होगा जैसा अभी टेस्टिंग को लेकर हो रहा है।

Sunday, 13 September 2020

सरकारी डाॅक्टर मित्र की जुबानी -

यार भाई स्थिति बहुत खराब है। जिन लोगों की तबियत खराब है वे लोग तो थोक के भाव निपट रहे, ये समझो कि लोगों को अब देख के समझ आ रहा कि ये चार दिन में निपटेगा, ये पांच दिन में, ऐसी स्थिति है, लाश भी सही समय से डिस्पोस नहीं हो पा रहा है, अधिकतर लोग तो जो मरीज को छोड़ गये हैं, वे समय पर वापस देखने भी नहीं आ रहे हैं, बाॅडी क्लेम करने वाला कोई है नहीं तो लाशों का ढेर भी लग जाता है, इसमें भी सरकारी प्रक्रिया, कौन बीच में खुद को फंसाए। यहाँ लगातार 48-48 घंटे काम करके हालत टाइट है बाबा। कोरोना से ऐसा नहीं रहा कि सिर्फ एकदम बीमार और बुजुर्ग ही निपट रहे, हर उम्र के लोग निपट रहे। मेरे दो सीनियर डाॅक्टर निपट गये, दोनों की उम्र 40 से 50 के बीच, कहीं कोई खबर नहीं, एक 25 साल का डाॅक्टर वो भी पॉजिटिव था, निपट गया, कहीं कुछ खबर नहीं, सब दबा दिया जा रहा है। सबका मुंह बंद कर दिया गया है, मीडिया वाले जो बड़े हीरो बन रहे कि सरकार हाय हाय, वेंटिलेटर नहीं है, बेड नहीं है आदि आदि। असल में ये भी गिध्द लोग हैं, मुंह में मोटा पैसा फेंक दिया गया है इसलिए एक सीमा में रहकर ही फड़फड़ा रहे हैं। अभी के समय में किसी मीडिया चैनल में कुव्वत ही नहीं जो असल वस्तुस्थिति को लोगों के सामने पेश कर सके। यानि सोचिए कि जो राजधानी की मीडिया इतनी जागरूक रही है कि शहर की एक नाली तक के अवैध निर्माण को पेपर टीवी में प्रमुखता से छाप के समाज का ठेकेदार बनती रही है, उसको क्या राजधानी में हो रही मौतों की, इस बंदरबांट की खबर नहीं होगी, लोगों की लाशों पर कमीशनखोरी का गंदा खेल जो चल रहा है, खैर छोड़िए इन बातों को। 

सरकारी अस्पताल में जो थोड़े ठीक हो रहे, उनको जबरन तुरंत तुरंत फर्जी नेगेटिव रिपोर्ट बना के वापस भेजा जा रहा, सब कुछ हमारे ही हाथों से हो रहा है क्या कहें अब, ऊपर से दबाव ही ऐसा है। ऊपर हमारे से बड़े जो हेड डाॅक्टर हैं वे बस वीडियो कांफ्रेसिंग में ऊपरी हालचाल ले रहे हैं और तो और यह भी कहा जा रहा कि तीन-तीन दिन में आप लोगों को परेशान करके भगाइए, मोटा मोटा यह कि नर्स स्तर के लोगों पर ही सब कुछ छोड़ दिया गया है, यही लोग अस्पताल चला रहे हैं, बाकी अधिकतर सीनियर डाॅक्टर साहब लोग तो अपने घरों में खुद को बंद किए हुए हैं। रही बात दवाई देने की, तो दवाई उन्हीं को दी जा रही है जो ठीक होने की स्थिति में आ गये हैं तो उन्हें आखिरी दिनों में दवाई खिलाकर विदा किया जा रहा है ताकि यह लगे कि दवाई से ठीक हुआ, जबकि वह ऐसे भी ठीक हो ही जाता बाकि जिनकी‌ स्थिति खराब है वे तो सीधे निपट ही रहे हैं जिनमें किडनी, सुगर, कोलेस्ट्राॅल, बीपी वाले सर्वाधिक हैं, हम देख के बता देते हैं कि फलां तीन दिन तक ही टिकेगा, बस औपचारिकता के लिए भर्ती करना पड़ता है ऐसी स्थिति है।

रही बात टेस्टिंग किट की और अन्य सुविधाओं की, तो फंड और सुविधाओं के नाम पर कोई कमी नहीं है लेकिन चौतरफा भ्रष्टाचार चल रहा है। टेस्टिंग अभी बस सरकारी अस्पताल में ही हो रहा, प्राइवेट में भले ही अनुमति दे दी गई है लेकिन ये मान के चलिए कि सब कुछ कागज में ही है, प्राइवेट वाले डाॅक्टर्स भी स्टाफ और अन्य चीजों की कमी का हवाला देकर पल्ला झाड़ रहे हैं।

मैं यह सब बताकर डरा नहीं रहा हूं या नकारात्मक बात नहीं कर रहा हूं, बस एक डाॅक्टर होने के नाते वस्तुस्थिति बताने की कोशिश रहा कि ये सब चल रहा है। एक चीज यह भी कहूंगा कि बीमारी से डरने की कोई बात नहीं है, लेकिन एकदम से बेफिक्र भी नहीं होना है, सतर्कता जरूरी है।

इलाज की बात करें तो ऐसा भी नहीं है कि हर जगह इलाज खराब है, बात असल में वातावरण का है, स्टाफ के रवैये का है, अभी एम्स और माना रायपुर के कोविड सेंटर में सबसे बढ़िया इलाज हो रहा है, बात गोली दवाई से इलाज से कहीं अधिक एक सकारात्मक और भयमुक्त माहौल तैयार करने‌ की है, और वह सिर्फ अभी के समय में इन दो जगहों में ही बेहतर है, लेकिन वही है सीटें फुल हैं, सीटें खाली भी हुई तो क्या गारंटी है कि‌ आपको यहीं ही भेजा जाए। खुद जो डाॅक्टर पाॅजिटिव हो रहे या यूं कहें कि जिनकी तबियत कुछ ठीक नहीं है, वे खुद होम आइसोलेशन तक नहीं ले पा रहे, जबरन जान जोखिम में डालकर ड्यूटी कर रहे हैं, वही ऊपर से दबाव, नौकरी जाने के खतरे और आपात स्थिति वाली धमकियाँ अलग। रसूख वाले लोग अस्पताल आकर आए दिन हल्ला मचाते हैं, सुनना‌ पड़ता हैं क्या करें, हम भी विवश हैं, हम खुद दिन रात नींद भूख त्याग कर काम‌ कर रहे। ऐसी स्थिति हो चली है कि कभी-कभी तो लगता है कि कहीं अचानक लोगों की भीड़ ही हम डाॅक्टरों पर सारा गुस्सा न उतार दे, सच बता रहा हूं ऐसी स्थिति बनने में देर नहीं है, रोज आए दिन इसका डेमो दिख ही रहा है।

#staypositive

#wewillfightcorona

Saturday, 12 September 2020

क्रिस्तियानो रोनाल्डो -

शीर्षक के रूप में सिर्फ इस फुटबालर का नाम लिखने का मकसद सिर्फ इतना है कि इस फुटबालर की कहानी बयां करने के लिए इसका नाम‌ लेना ही काफी है, इसका नाम ही पहचान है, इसे किसी क्लब के सहारे की कभी जरूरत नहीं पड़ी है। दुनिया का सबसे अच्छा फुटबालर कौन है यह सवाल हमेशा उलझा रहेगा जब तक मेस्सी के सामने रोनाल्डो नाम का भूखा शेर खड़ा है। जब रोनाल्डो के समकक्ष फुटबालर रिटायरमेंट की प्लानिंग कर रहे हैं, तो इधर यह एक ऐसा खिलाड़ी है जो दिनों-दिन जवान होता जा रहा है, 35 की उम्र में भी वही 20 की उम्र जैसी फुर्ती, गोल दागने की वही भूख, अगर यह सब किसी में है, तो वह सिर्फ और सिर्फ रोनाल्डो है। रोनाल्डो फुटबाल की दुनिया का एक ऐसा खिलाड़ी है जिसने क्लब की भावना से हटकर अलग-अलग जगह जाकर खुद को सिध्द किया। अपनी बात कहूं तो फुटबाल क्लब बार्सिलोना और मेस्सी का फैन होने के नाते हमेशा से एक जुड़ाव मेस्सी से रहा, इस वजह से भी कभी रोनाल्डो के कद का अहसास नहीं हो पाया। फिर एक दिन मेरी मुलाकात एक ऐसे दोस्त से हुई जो रोनाल्डो का फैन निकला, ध्यान रहे कि इससे पहले मैंने रोनाल्डो का खेल उतने ध्यान से कभी नहीं देखा था।


उस फैन ने जो कुछ बातें कहीं वह जस का तस यहाँ रख रहा हूं - " रोनाल्डो 6'2" यानि लंबी कद काठी का खिलाड़ी है, इसलिए वह कितना भी अच्छा ड्रिबल कर ले, कितना भी अच्छा मैदान में खेल ले, वह देखने में उतना अच्छा नहीं लगता है, वहीं मेस्सी छोटे कद का खिलाड़ी है, इसलिए वह जब फुटबाल को ड्रिबल करता है, पास देता है या फिर गोल दागता है, यह सब देखने में बहुत प्यारा लगता है, दूसरा यह कि रोनाल्डो मेस्सी की तरह भावुकता की आड़ नहीं लेता है, मैं यह नहीं कहता कि मेस्सी अच्छा नहीं है, उसका अपना अलग लीग है, लेकिन रोनाल्डो की भी कोई तुलना नहीं। रोनाल्डो अपने दोनों पैरों से उसी ताकत से गोल दागने की क्षमता रखता है, ऐसी क्षमता अभी के समय में दुनिया में और किसी फुटबालर में नहीं है, और फिर रोनाल्डो के हैडर की बात ना ही करें तो बेहतर, कोई आस पास ही नहीं है। वह हर फ्रंट में आगे है लेकिन भावुकता न दिखाने और अलग-अलग क्लब में खेलने की वजह से उसे वैसी ख्याति नहीं मिल पाई जैसी उसे मिलनी चाहिए। "


मेस्सी फैन होने के बावजूद मैं अपने मित्र की बातों से शत प्रतिशत सहमत हूं, वाकई 35 की उम्र में पावरफुल बाइसिकल किक सिर्फ रोनाल्डो ही दाग सकता है। रोनाल्डो की भूख अभी भी कम नहीं हुई है, वह फुटबाल के मैदान में अभी भी खुद को जिस तरीके से प्रस्तुत करता है, उससे तो यही लगता है कि ये खिलाड़ी 40 की उम्र तक उसी जूनुन के साथ गोल दागता रहेगा। 


Thursday, 10 September 2020

चंद शब्द इस मुल्क के प्रतिनिधित्वकर्ताओं और यहाँ के लोगों के लिए -

प्रतिनिधत्वकर्ताओं से स्पष्ट शब्दों में बस इतना ही कहना है कि हमारा शरीरापक्ष और मनसापक्ष दोनों आज आपसे विराम चाहता है। हम पूरे होशो-हवाश में कहते हैं कि हमारी इंद्रियाँ, ग्रंथियाँ, हमारा पूरा ये शरीर, इस शरीर के सारे अंग और साथ ही हमारा मस्तिष्क आपके और आपके लोक-व्यवहार के खिलाफ खड़ा है। अब चूंकि हम आपको सिरे से नकार रहे हैं इसलिए आप मेरे देशवासी, मेरे दर्शक, मेरे फैन्स, मेरे सवा सौ करोड़ लोग ऐसा कहकर हमारा इस्तेमाल करना बंद कीजिए। हम आपसे आपका यह अधिकार वापस लेते हैं।

इस मुल्क के वाशिदों से इतनी सी इल्तजा है कि थोड़े तो अपने और अपने देश समाज के लिए कुछ संवेदनशील हो जाइए। आनलाइन प्रतिक्रिया देकर लोकतंत्र की रक्षा करने वालों से आग्रह है कि अगर आप सचमुच कुछ ईमानदार जैसे हैं तो अपने आकाओं पर कटाक्ष करने, जोक बनाने या इनकी खामिया गिनाने के लिए भी इनका नाम मत लीजिए, न ही इनकी आवाज सुनाकर, इनकी तस्वीरें लगाकर इन्हें पेश करने की कोशिश कीजिए, इन्हें प्रचारित करना बंद कर दीजिए। अब जब आपको इनकी हरकतें इतनी ही नापसंद हैं तो इन्हें संज्ञा रूप में नकारिए, व्यक्तिगत न होकर संपूर्णता में नकारिए। वीडियो, फोटो, नाम‌, न्यूज, लिंक आदि का सहारा लेना बंद कर दीजिए। बता दीजिए कि अब हजम नहीं होता है, कहिए कि आप इन्हें पूरी तरह अस्वीकार करते हैं, कहिए कि इस मुल्क में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है जैसा चलना चाहिए, दिखा दीजिए कि आपको इनकी बातों में थोड़ी भी दिलचस्पी नहीं है। अगर आपको सच में इस देश की या इस देश के लोगों की थोड़ी भी चिंता है तो दिखा दीजिए इस महामारी रूपी आपातकाल‌ में इन सेलिब्रिटियों, नेताओं, अभिनेताओं/अभिनेत्रियों, मीडियाकर्मियों आदि को कि आप इन्हें सुनना, देखना, और यहाँ तक इनके साथ क्या-क्या हुआ यह जानना तक नहीं चाहते। इनके समर्थन विरोध में ट्विट करना, लिखना बंद कर दीजिए, इनके प्रचार का टूल बनना बंद कीजिए, अगर सचमुच नकारना है तो अच्छे से नकारिए। साफ-साफ बता दीजिए कि वे आपको नापसंद हैं, उनके तौर-तरीके हिंसक, असंवेदनशील, अमानवीय एवं अलोकतांत्रिक हैं, उनकी अभिव्यक्ति से, विचारों से आपको पीड़ा होती है, आप शर्मसार हो जाते हैं, इसलिए आप इनका खंडन‌ करते हैं। दर्शाइए कि आप एक स्वस्थ लोकतंत्र के हिमायती हैं। अगर वास्तव में आप सोशल मीडिया और आनलाइन प्लेटफार्म का सदुपयोग करते हैं तो इसे सही दिशा में घुमाइए।

और मुद्दे ट्रेंड कराने से अगर देश का भला होता है तो इस प्रचलित अलोकतांत्रिक व्यवहार के खिलाफ कुछ ट्रेंड कराइए ताकि रोज-रोज के इस शोर शराबे से इस देश के आमजन को मुक्ति मिले।

कोरोना पाॅजिटिव मित्र की जुबानी - 3

आज तेरह दिन हो चुके, कोरोना वाकई मजेदार बीमारी है। मजेदार इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि ये कब जाएगा और कब फिर लौट कर आएगा कह नहीं सकते। शरीर को बस अपने हिसाब से नचा रहा है, और इस नाच गान के एवज में पता नहीं क्या-क्या तोड़-फोड़ कर रहा होगा। गरम पानी का जैसा मैंने कहा था यह असल में शरीर को राहत दे रहा है, इसका अर्थ यह नहीं कि ये कोई दवाई या कोरोना भगाने का इलाज है, बस यह है कि सामान्य पानी पीने से बेहतर इंसान गरम‌ पानी पी ले।

शारीरिक लक्षणों की बात की जाए तो कुछ अलग चीजें हाथ लगी है, आपको जानकर आश्चर्य होगा कि कोरोना की वजह से जो मुंह का स्वाद जा रहा है इसमें सामान्य बुखार की तरह उतना अधिक मुंह का स्वाद नहीं गया है, सामान्य बुखार तो शरीर को पूरा कमजोर कर देता है, कुछ भी नहीं खिलाता है, लेकिन इसमें ऐसा है कि अगर आपने मजबूती से मन बना के खाना शुरू किया तो आप जी भर के खाना खा सकते हैं। एक बड़ा फर्क और बताता हूं फल बहुत अधिक स्वादिष्ट लग रहा है जो कि सामान्य बुखार में सबसे अप्रिय लगता है खिलाता ही नहीं है। मुझे नहीं पता कितनों के साथ ऐसा हुआ है लेकिन आप यकीन मानें मैं कुछ लोगों का फिडबैक लेकर ही बता रहा, यानि ये तो अच्छा है न कि हम फल का सेवन अधिक से अधिक करें, सेहत अपने आप दुरूस्त होती रहेगी।

शारीरिक लक्षणों में दूसरा ये कि जब भी शरीर कोई गतिविधि कर रहा है, यानि पैदल चल रहा है या सीढ़ी चढ़ उतर रहा है तो ऐसा लगता है मानो बीस तीस किलो का वजन पैरों में और कंधों में किसी ने लाद दिया हो, अलग ही किस्म की कमजोरी है। और ये कमजोरी इतनी अलग है कि आपको महसूस ही नहीं होने देगी कि आपको कोरोना या कोई बीमारी है, न शरीर में तपिश न कोई तापमान में खास बदलाव। कोरोना आपको रहेगा लेकिन इतने इसके लक्षण इतने सूक्ष्म हैं कि पकड़ना बड़ा मुश्किल है।

शारीरिक लक्षणों में तीसरा यह कि नींद खूब आ रही है, इतनी लंबी नींद आप लेंगे और उठने के बाद भी इतनी थकावट मानो आप पिछले दिन पत्थर तोड़कर आए हों। थकान भी रूक-रूक के महसूस होती है। आप लेटे हुए हैं तो लेटे ही हुए हैं, उठने की ताकत ही पैदा नहीं हो रही है। आप बैठे हैं तो सिर्फ बैठे हैं, उठ के खड़े होने का मन नहीं करेगा। उठ के खड़े हो गये तो लगेगा अरे मुझे तो कुछ भी नहीं हुआ, ऐसा धोखा दे रहा है कोरोना। आपको महसूस ही नहीं होने दे रहा कि वो आपके भीतर छुपा हुआ है। और जैसे ही आप पैदल चलने लगेंगे आपको लगेगा इतना भारी शरीर ये पैर कहाँ लेकर जाएगा, ध्यान रहे ये लक्षण बेहद ही सूक्ष्म हैं, सामान्य नहीं हैं, इसलिए बड़े आराम से अवलोकन करे इंसान, तभी पकड़ में आ रहा है।

शारीरिक लक्षणों में एक चीज और ये कि आँखे हमेशा मुरझाई सी दिखती है, चेहरे में ताजगी ही नहीं है, भले आप कितना भी आराम‌ कर लें या फिर नियमित रूप से भोजन इत्यादि करें, शरीर में फुर्ती महसूस नहीं होती है, इसलिए चेहरा बीमार सा लगता है।

मन मस्तिष्क की बात करें तो जैसे जीभ के स्वाद में परिवर्तन महसूस हो रहा है, ठीक कुछ ऐसा तंत्रिका तंत्र के साथ भी है, ऐसा लगता है दिमाग भी थोड़ा बहुत सुन्न हो जाता है, हमें पता ही नहीं चलने दे रहा है, शारीरिक लक्षणों में ही उलझा रहा है, जबकि शरीर मन से ही तो जुड़ा हुआ है, इच्छाशक्ति से ही जुड़ा हुआ है, इच्छाशक्ति अगर सुन्न न होने दिया जाए फिर तो इस कोरोना को शरीर को झेल ही लेना है। 

सुझाव के तौर पर यह कि जैसे गरम‌ पानी ले रहे, वैसे ही फल का रोजाना सेवन किया जाए, क्योंकि इन दो चीजों से शरीर को फायदा तो होना ही है, चाहे कोरोना की मात्रा कम ज्यादा जो भी हो, लेकिन फल को शरीर अच्छे से स्वीकार कर रहा है, इसलिए एक कोरोना पाॅजिटिव व्यक्ति के लिए तो फल लेना निहायत ही जरूरी है।

नोट - इसे आखिरी सत्य मानकर न चलें, यह चंद लोगों के अनुभव मात्र हैं, आपको अलग अनुभव भी हो सकते हैं। निवेदन है कि अपने और अपने आस पास के लोग जो कोरोना पाॅजिटिव हैं उनकी पूछ परख करते रहें और उनमें हो रहे शारीरिक मानसिक बदलाव को नोटिस करें।

धन्यवाद।

Tuesday, 8 September 2020

मेस्सी और बार्सिलोना

मेस्सी हमारे समय में फुटबाॅल की दुनिया का सबसे बड़ा ब्रांड है और फुटबाॅल क्लब ब्रासिलोना है उसका गढ़, उसका किला। वर्तमान में कोच के रूप में फुटबाल क्लब बार्सिलोना की अध्यक्षता चाहे कोई भी करे लेकिन उसे भी पता है कि जब तक इस क्लब में मेस्सी है तभी इस क्लब का अस्तित्व है। मेस्सी इस क्लब की पहचान ही नहीं वरन् इस क्लब का पर्याय बन चुका है, वह अपने ईशारों पर इस क्लब को संचालित करता है, वह जैसा चाहता है, उसके ईर्द-गिर्द चीजें संचालित होती हैं। इन गुजरते वर्षों में मेस्सी का कद बार्सिलोना के कद से कहीं बड़ा हो चुका है और इस बात को मेस्सी बखूबी समझता है तभी क्लब से रिटायरमेंट लेने का तमाशा करता है और क्लब भी वही करता है जो मेस्सी चाहता है, वो भी तब जब टीम को कोई दूसरी टीम बुरी तरीके से मात देती है जैसा कि अभी हाल फिलहाल में हुआ और बार्सिलोना यानि मेस्सी की टीम को 8-2 की शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। इस हार के तुरंत बाद मेस्सी के बार्सिलोना छोड़ने की खबर को ऐसे प्रचारित किया जाता है कि दुनिया भूल जाती है कि मेस्सी की टीम‌ ने मैदान में इतना घटिया प्रदर्शन किया, वह सहानुभूति दिखाने लग जाती है कि मेस्सी अपने उस पुराने क्लब को छोड़ रहा है जहाँ से टिसू पेपर में मिले सहमति प्रस्ताव से उसने फुटबाॅल की दुनिया में ये मुकाम हासिल किया। ये ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि नैतिकता ताक पर है, बार्सिलोना की साख बचाने या यूं कहें कि अपनी साख बचाने के लिए मेस्सी ने बार-बार यह व्यूह रचना की है और हमेशा यह बहाना तैयार रहा कि कांट्रैक्ट अगले साल तक सुरक्षित है। शायद मेस्सी की यह व्यूह रचना इस बार सच भी साबित हो जाए, शायद एक साल बाद वह रिटायरमेंट भी ले ले। लेकिन एक चीज कभी नहीं बदलेगी वो यह कि मेस्सी सिर्फ और सिर्फ बार्सिलोना का ही रहेगा। और जिस दिन वह बार्सिलोना छोड़ेगा उस दिन से ही फुटबाॅल क्लब बार्सिलोना का नामोनिशान मिटना शुरू हो जाएगा।

Sunday, 6 September 2020

कोरोना पाॅजिटिव मित्र की जुबानी - 2

कोरोना पाॅजिटिव होते हुए दस दिन से अधिक हो चुका है, मैं तो सब कुछ भूलकर बस आराम कर रहा हूं, जिनको काम‌ करने की तीव्र महत्वाकांक्षा है, वो दवाई लेकर करें काम, मैं काम नहीं करने वाला, वैसे भी मेरा जीवन किसी के रूपयों की मोहताज नहीं है। आप देखेंगे कि अभी दफ्तरों में जितने प्रतिशत लोगों को बुलाया जा रहा है, उससे दुगुनी मात्रा में लोग पहुंच रहे हैं ताकि पैसे कमाने की रेस में पीछे ना रह जाएं, ऐसा करते हुए पूरे परिवार को, समाज को जोखिम में डाल रहे हैं। अब उसमें भी काम‌ करने के एवज में तुर्रा यह कि हम रिस्क लेकर लोगों का काम करने बैठे हैं, इसलिए भी उन्हें अतिरिक्त पैसे चुकाने होंगे। कुल मिलाकर मानसिकता यही है कि अभी नहीं कमाएँगे तो कब कमाएँगे। आपदा को अवसर में बदलना यही तो है। 


कोरोना बीमारी की बात करें तो एक बात मुझे समझ नहीं आती कि जिस बीमारी का इलाज ही मौजूद नहीं है, उसमें कैसे एंटीबायोटिक या कोई दवाई काम करेगा, ये तो उल्टे हमारे शरीर में बीमारी के प्रति प्रतिरोधकता के तत्व बनने से रोकेगा और शरीर को नुकसान पहुंचाएगा। 


कोरोना माहमारी में हमारी संस्कृति भी एक बहुत बड़ी बाधा बनकर हमारे सामने आ रही है, क्योंकि विश्वगुरू का दंभ भरने वाली प्रजा यह मानकर चलती है कि ऋषि मुनि, गुरू-शिष्य, वाली महान गौरवशाली परंपरा वाले देश के पास हर बीमारी का इलाज संभव है, इसलिए भी हम पूरी तरह से इस बात को मानने को तैयार ही नहीं हो पा रहे हैं कि इस बीमारी का इलाज ही नहीं है और झाड़ फूंक, तंत्र-मंत्र की तरह इसका भी इलाज गोली, काढ़ा आदि-आदि माध्यमों से साधने लग गये। दवाइयों का ओवरडोज चढ़ाकर हम शरीर की अपनी नैसर्गिक प्रतिरोध करने की क्षमता को हम ऐसे हत्तोसाहित करने में जुट गये हैं कि कुछ साल बाद कोरोना चला भी गया तो उसके बाद शरीर दुबारा एक सर्दी भी झेलने लायक ना बचे।


भारत के लोगों की मानसिकता जिस दर्जे की है, उस लिहाज से यही सलाह देना उचित दिखाई पड़ता है कि जैसे कोरोना पाॅजिटिव होने पर अमूमन सर्दी, खाँसी, बुखार, गले में खरास, मुंह का स्वाद जाना आदि आदि लक्षण आते हैं। तो इसमें इस बीमारी को हम ऐसे मानें कि यह सर्दी खांसी बुखार जैसी ही एक सामान्य बीमारी है और इसलिए उसे शरीर को अपने आप ठीक करने दें और इस प्रक्रिया में ज्यादा छेड़छाड़ ना करें। 


पिछले कुछ वर्षों में बात-बात में नाश्ते की तरह दवाई खाने का प्रचलन बढ़ा है क्योंकि पहले जो थोड़े समझदार मानवीय प्रवृति के चिकित्सक होते थे वे खुद एंटिबायोटिक लेने से मना करते थे। क्योंकि वे इस बात को समझते थे कि एंटीबायोटिक एकदम आपात स्थिति में ही शरीर को देना चाहिए ताकि शरीर अपने तरीके से लड़ना सीख सके।


एक दूसरी मजेदार बात हमारे यहाँ यह भी है कि लोग थोड़ा भी बीमार नहीं होना चाहते, खुद को हमेशा मजबूत बनाकर पेश करते रहना चाहते हैं ताकि जीवनरूपी अंधी रेस में वे कहीं पीछे ना रह जाएं इसलिए थोड़ा कुछ भी शरीर को हुआ उसे तुरंत दवाई, पेन किलर देना शुरू कर देते हैं। 


तीसरा एक पहलू यह कि मन से कमजोर ना बने इंसान, क्योंकि मन कमजोर हुआ तो शरीर कितना भी मजबूत रहे, संभालना मुश्किल हो जाता है। और मन अगर सही दिशा में है, अपनी खुद की इच्छाशक्ति को देख पा रहा है, पहचान पा रहा है तो कमजोर से कमजोर शरीर को भी लंबा खींच ले जाता है।


अंत में समाधान के तौर पर यही कहूंगा कि इंसान यह दिमाग में बिठा ले कि कोरोना की कोई दवाई मार्केट में नहीं है, इतना मानते ही वह गोली दवाई से स्वतः ही अलग हो जाता है, और जिसे भी कोरोना पाॅजिटिव हो, वह व्यक्ति दवाई के नाम पर सुबह और शाम सिर्फ और सिर्फ गर्म पानी का सेवन करता चले, क्योंकि मुझे इससे बड़ी राहत मिली है, ऐसा दावे से नहीं कह सकता कि कोरोना पूरी तरह चला गया, लेकिन पहले से काफी आराम है।

कोरोना पाॅजिटिव मित्र की जुबानी - 1

अपनी बात कहूं तो लक्षण बहुत ही सूक्ष्म हैं, यानि मौसमी सर्दी बुखार और कोरोना के कारण हो रहे सर्दी बुखार में फर्क वही कर सकता है तो ध्यान से देखना शुरू करे। एक चीज इसमें यह भी है कि कोई भी काढ़ा एंटीबायोटिक कुछ भी इसमें काम नहीं कर रहा है, कुछ भी नहीं, ये वायरस इतना ताकतवर है कि सबको काट दे रहा है, सब लेकर देख चुका हूं इसलिए भरोसे से कह रहा हूं, कुछ फर्क नहीं पड़ना है इन सब से, इस बीमारी से शरीर अपनी इच्छाशक्ति से लड़ गया वही सहारा है। आज लक्षण आते हुए तीसरा दिन है, टेस्टिंग जानबूझकर नहीं करा रहा हूं क्योंकि मैं स्पष्ट हूं कि ये सामान्य सर्दी बुखार नहीं है, कोरोना ही है, इसलिए दो तीन बार और संक्रमित होने से या कुछ और लोगों को संक्रमण देने से बेहतर घर पर ही रहा जाए। मेरे एक नानाजी निपट गये, कोई भी लक्षण नहीं, लेकिन टेस्ट हुआ तो पता चला कोरोना पाॅजिटिव थे। एक चीज इसमें यह भी समझ नहीं आती कि लोग पाॅजिटिव होने के बाद लक्षण नहीं आने पर खुश क्यों हो रहे हैं, या लक्षण आ भी रहा तो उन सूक्ष्म लक्षणों को गोलियों, काढ़े आदि से दबाने की कोशिश क्यों कर रहे हैं। ये अजीब किस्म की बीमारी है, ऐसा नहीं है कि ये है ही नहीं या सीधे जान लेकर मानेगा, लेकिन ऐसा लगता है कि कुछ अंदर बदल तो नहीं रहा, एक कंफ्यूजन सा है, मतलब कुछ भी स्पष्ट कह नहीं सकता उस वायरस के बारे में। शरीर कुछ अलग ही तरीके से रियेक्ट कर रहा है, थोड़ा सा जीभ का स्वाद भी गया है शायद यह सब के साथ न भी होता हो, कुछ अलग महसूस हो रहा है, अलग तरह की कमजोरी है, सामान्य बुखार से बिल्कुल अलग है, जिसे स्पष्ट शब्दों में बता पाना संभव ही नहीं है।

Wednesday, 2 September 2020

पबजी बैन -

पबजी सिर्फ एक गेम नहीं था, एक नशा था, बहुत लोगों के लिए एक बिजनेस भी था, अभी-अभी एक पबजी नशेड़ी मित्र से बातचीत हुई तो पता चला कि इस गेम को खेलने वाले इतने बढ़ गये थे कि हर दस सेकेंड में आपके साथ आपके जोन के मुताबिक खेलने वाले चार अलग अलग लोग तुरंत जुड़ जाते थे, यानि एक बहुत बड़ी संख्या इससे जुड़ चुकी थी। दूसरी सबसे मजेदार चीज जो मित्र ने बताई वो यह कि इसमें खूब पैसा भी लगता था। पता नहीं कुछ स्कीन खरीदा जाता था, अलग अलग स्कीन खरीदने के लिए पैसे लगते थे, जैसे-जैसे लोग स्कीन खरीदने लगे, कंपनी स्कीन के दाम बढ़ाने लग गई। जो स्कीन पहले हजार रूपये तक मिलती थी उसका मूल्य धीरे-धीरे लाख तक पहुंच गया। यहाँ तक कि पबजी की स्कीन खरीदने के लिए बड़ी बड़ी यूट्यूब की शार्क मछलियाँ तो बकायदा अपने चैनल से लाखों रूपए स्कीन खरीदने में लगाती थी, और फिर वीडियो बनाकर बदले में उतने रूपए भी बना लेती थी। मतलब बहुत से लोगों का धंधा भी चौपट हुआ। एक तरफ रोजगार के आँसू भी इसी देश में बहाए जाते हैं, और वहीं दूसरी ओर एक पिद्दी से गेम‌ के फीचर्स के लिए लाखों करोड़ों रूपयों के वारे-न्यारे किए जाते हैं। धन्य है यह माटी।