Sunday, 11 December 2016

~ देवार डेरा ~

मेरा जो घर है उससे कुछ तीन सौ मीटर की दूरी में एक खाली मैदान था वहां लगभग दस साल पहले देवारों का एक कबीला आकर बस गया। बच्चों को मिलाकर कुल बीस से पच्चीस लोग होंगे, चार या पांच परिवार में बंटे हुए।
                   वो खाली मैदान अब एक छोटी कालोनी में तब्दील हो चुका है। असल में जिस जमीन में देवार/कबीलों ने आकर डेरा डाला है..उसमें से आधी जमीन घास भूमि है और बाकी आधी जमीन लगानी जमीन है। अब इसे यूं समझें कि जो जमीन है वो इतनी पेंचीदगी से भरा है कि उसका भूमिस्वामी(land-owner) उक्त भूमि को बेचने के उद्देश्य से जितने बार सीमांकन करवाता है हर बार उसे एक नया परिणाम मिलता है, इस एक वजह से जमीन का मामला सुलझ नहीं पाया है।
                   दूसरी वजह ये है कि जमीन के मालिक ने एक दो बार पुलिस बल और अधिकारियों की सहायता से डेरा वालों को हटाने की कोशिश की पर देवारों के पैंतरे भी क्या कम हैं, पता नहीं उन्होंने जमीन का कोई कागजात बनवा लिया है..उन्हें भी पता है कि घास जमीन लगा हुआ है, वे पहले कागज लहरा के दिखलाते..फिर समस्त परिवारों की महिलाएं सामने आ जाती और ऐसा तांडव मचा देतीं कि सारे पुलिसवाले, अधिकारीगण मुंह छिपा कर भाग जाते।यानि जहां व्यक्ति के अपने अधिकार काम नहीं आते, वहां उसके उपद्रव मूल्यों का स्वतः अभ्युदय हो जाता है, इस मामले में भी यही हुआ।
अब हालत ये है कि जमीन के मालिक ने उस थोड़ी सी लगानी जमीन पर ध्यान देना ही छोड़ दिया है।
                शुरूआत में जब देवारों ने अपना डेरा डाला, उनको देख के मानो ऐसा लगता था कि अमेजन के जंगलों से सीधे यहीं आ पहुंचे हैं सभी लड़कों के बाल मिथुन दा की तरह यानि पूरी तरह से एक विक्षिप्त अवस्था के परिचायक जिनके रहन-सहन में रोजमर्रा की लड़ाई होना आम बात है। लड़ाई भी कुछ ऐसी कि पूरा परिवार शामिल हो जाता..लड़ने वाले इतने ज्यादा हो जाते कि बीच-बचाव करने वाले कम पड़ जाते। और इतनी तेज आवाज में लड़ते कि आसपास के लोग देखने को इकट्ठे हो जाते। उनका डंडे लेकर लड़ने का अंदाज भी अलग, भाषा भी थोड़ी विचित्र सी..हर कोई लड़ाई देेखता। हमें यही लगता कि इतना भारी मारपीट किए हैं अब ये लोग आमने-सामने नहीं रह पाएंगे लेकिन अगले दिन फिर साथ-साथ हाथ बंटाते हुए दिख जाते।
                देवारों के साथ सबसे बुरी चीज ये थी कि वे कभी नहाते नहीं थे। शुरूआती दिनों में जब वे हमारी गली की तरफ से गुजरते तो हमारी गली के बच्चे भी महान वे लोटे में पानी लेकर खड़े रहते..देवार बच्चे डर के मारे गली पार नहीं कर पाते, घूम के एक दूसरे रास्ते से आना-जाना करते। एक देवार बच्चे को मैंने पूछा था तो उसने बताया कि वो महीने भर से नहीं नहाया..और तो और ये कहने लगा कि नहाने से चमड़ी छिल जाती है। दूसरी खराब आदत ये थी कि वे मरी हुई मुर्गियाँ खा जाते थे।
                देवारों का ना अपना पहचान पत्र ना कोई कार्ड..मतलब पहचान का संकट तो था ही साथ ही नाम का भी संकट था।माता-पिता अपने बच्चों के नामकरण में खूब लापरवाही बरतते, मन मुताबिक कुछ भी नाम रख देते,नाम इस तरह होते जिसका कोई अर्थ न निकलता। ऐसे में बच्चे जब थोड़े बड़े होने लगते तो वे खुद ही अपना कोई फिल्मी नाम रख लेते..कई बार तो नाम को लेकर भी लड़ लेते कि मेरा नाम अब से ये है..पुराने नाम से पुकारा तो खैर नहीं।
देवारों का अपना कोई आजीविका का साधन तो था नहीं..कहीं मजदूरी कर लेते..कबीले के कुछ नौजवान लड़के जो थोड़ा साफ-सफाई से रहते वे होटल में काम करते..बाकी जो बच गए वे सांप दिखाते और पेट पालते..कहीं किसी के घर सांप निकलता तो बदले में पैसे लेते और सांप को कभी न मारते बल्कि पकड़ कर अपने साथ ले जाते। जहां कहीं भी सांप निकलता बच्चे से लेकर बड़े हर कोई खुले हाथों से ही दौड़ कर लेने आ जाते। जिस दिन कोई बढ़िया जहरीला सांप उनके पकड़ में आता तो पूरे कबीले में उत्सव सा माहौल हो जाता, सांप पकड़ के आने वाले को बच्चे ऐसे घेर लेते..मानो कोई युध्द भूमि से विजयी होकर लौटा हो।
              देवारों का डेरा डंडे और पाल(प्लास्टिक का एक लबादा) से बना होता था। जून-जुलाई के महीने में जब रात में आंधी तूफान और बारिश होती तो अगले दिन बड़े सबेरे जब हम देखने जाते तो वे सभी लोग अपने-अपने डेरे की मरम्मत कर रहे होते। जिस दिन तेज हवा और आंधी होती तो सब तहस-नहस हो जाता, उस दिन उनकी स्थिति को देखकर ऐसा लगता कि बस आज ही सुबह कहीं से ये नये लोग आ पहुंचे हैं जो इस खुली जमीन पर अपना डेरा डाल रहे हैं।
              मैं जब कालेज में पहले सेमेस्टर में था तो लगभग साल भर बाद जब अपने घर वापस गया था तो देखा कि सबने मिट्टी का एक एक घर बना लिया है...अब वहां किसी प्रकार के डेरे का नामोनिशान नहीं है। डेरे के सदस्य पहले से थोड़े बेहतर दिखने लगे हैं..लेकिन वही है लड़ाई झगड़ा अभी भी उसी अंदाज में करते हैं। अभी कुछ समय पहले जब मैं घर गया था तो जो मैंने देखा वो विस्मित कर देने वाला था...चार पक्के मकान बन के खड़े हो चुके हैं..जिनके पास अपनी साइकल तक नहीं थी आज उनका अपना घर है और घर के सामने एक सीडी डीलक्स गाड़ी खड़ी है, और तो और नामुरादों ने DTH और टाटा स्काई भी लगवा लिया है। ये एक प्रवृति पूरे भारत भर में आपको देखने मिल जाएगी कि सिनेमा के प्रति इनका गहरा लगाव होता है। जहां देवारों के पास थोड़े पैसे आते हैं वे टीवी उठा ले आते हैं, पेट ठीक से भरा नहीं तो क्या हुआ फिल्मों से मन तो भर जाएगा। आप किसी भी झुग्गी झोपड़ी में जाएं आपको इनके घरों में कुछ मिले न मिले छतरी और टीवी का कनेक्शन जरूर मिल जाएगा।
             अब देवारों का अपना अब एक स्थायी निवास स्थल है उन्होंने घर बना के डेरे से मुक्ति पा ली है। आप सोच रहे होंगे कि पक्का मकान है तो अब थोड़े सलीके से तो रहते ही होंगे।
अरे! नहीं जी ऐसा बिल्कुल भी नहीं है वे आज भी मरी हुई मुर्गियों को आग में भूंजकर खा जाते हैं।
             
                
             

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