Tuesday, 31 August 2021

किसान आंदोलन पर चर्चा -

A - आज क्लास में किसान आंदोलन पर चर्चा हुई ?
B - अच्छा।
A - तो तुम्हारी याद आ गई।
B - ये बहुत बढ़िया है।
A - इसमें क्या बढ़िया लगा तुमको?
B - किसान आंदोलन के नाम‌ पर मेरी याद आई न।
A - हाँ तो आज हमने भी एक दो बातें कही।
B - अच्छा।
A - फिर उन्होंने कहा कि नोट्स बनाकर लाना।
B - फिर?
A - तो हमने सोचा तुमसे अच्छा इस विषय में और कौन हमें नोट्स दे पाएगा।
B - मैं नोट्स नहीं दे सकता।
A - तुम दोगे, हम नहीं जानते।
B - सरकार ने बिल लाया है, वहीं से तीनों बिल देख लीजिए।
A - वो हमको समझ आता तुमसे क्यों कहते?
B - सिविल सेवा की तैयारी करने वालों को भी अब बिल समझ नहीं आ रहा, वाह।
A - तुम डिटेल तो दे दो, सही गलत हम तैयार कर लेंगे।
B - यही तो समस्या है।
A - क्या?
B - आप आंदोलन स्थल से दूर बैठकर कागज में सही गलत तय करेंगे। 
A - हमको परीक्षा की तैयारी करने नहीं दोगे तुम?
B - नहीं, आप तैयारी करिए, मैं तो बस बता रहा कि आप कैसे तैयारी कर रहे।
A - हाँ तो नोट्स बना देना।
B - मेरे नोट्स से आपको किसान आंदोलन का एक ही पक्ष मिलेगा।
A - और दूसरा पक्ष?
B - मेरी नजर में तो एक ही पक्ष है किसान का पक्ष।
A - अपनी नजर मत लाओ बीच में, हमको नोट्स तैयार करना है।
B - मेरे लिए ये तीन काले कृषि कानून हैं, इनमें सफेद कुछ भी नहीं।
A - पर हमको तो काला सफेद दोनों लेकर चलना है।
B - देखिए, आप अभी से सही को सही और गलत को गलत नहीं कह पा रहे।
A - हमको नहीं कहना बाबा। हमको दोनों साइड लिखना है बस।
B - हाँ वही तो कह रहा, अभी से आपकी ट्रेनिंग चल रही है।
A - वो सब छोड़ो, हमको दोनों पक्ष का बता दो बस।
B - दोनों पक्ष का मैं कैसे बताऊं, जब दूसरा पक्ष है ही नहीं।
A - जिनको दूसरा पक्ष दिखता हो, उनका पता दो हमें।
B - किसी कट्टर किसान विरोधी को पकड़ लीजिए। 
A - बस करो, नेता पत्रकार नहीं बनना, अधिकारी बनने की रेस में हैं हम।
B - अजी हाँ, हम तो भूल ही गये थे।
A - तुम मदद मत करो है न, अब यूट्यूब से देख के नोट्स बना लेंगे।
B - दृष्टि आईएएस वाले बढ़िया चैक एंड बैलेंस किए हैं। उनके वीडियो देख लेना।
A - ठीक है धन्यवाद। एक और डाउट?
B - पूछिए?
A - क्या सच में ये कृषि कानून वापस होंगे?
B - हां जी।
A - और ये आंदोलन कब तक चलेगा?
B - जब तक बिल वापसी नहीं हो जाती, तब तक।

Sunday, 29 August 2021

लाठीबाज आईएएस बनाम भारत के लोग -

हरियाणा कैडर के आईएएस आयुष सिन्हा के खिलाफ जितने भी सेवानिवृत्त अधिकारियों ने कार्यवाई की माँग की है, उनमें एक भी आईएएस नहीं हैं, सारे के सारे आईपीएस हैं। दोनों लबी के बीच जो तनातनी चलती है, वह भी ऐसे मौकों के बीच खूब देखने को मिलती है। इसमें एक आईएएस के हिम्मत की दाद देना होगी जिन्होंने पद पर रहते हुए इस मामले में अपनी प्रतिक्रिया दी है कि - " सिविल सेवा की परीक्षा पास करने और सिविल होने के बीच कोई संबंध नहीं है। " 
बाकी लोग आईएएस एसोसिएशन से माँग कर रहे कि ऐसे अधिकारियों को वापस बुलाया जाए। अरे भई इस देश के सबसे मजबूत एसोसिएशन से आप यह उम्मीद मत करिए कि वह अपने ही सदस्यों को कमजोर करेगा, उल्टे ऐसे लोगों को एसोसिएशन आगे करता है। क्योंकि जो सबसे बढ़िया लड़ाका होता है वह आईएएस लाॅबी को ही मजबूत कर रहा होता है।
जब भी सरकार को हिंसा करनी होती है और पल्ला झाड़ना होता है वह नवप्रशिक्षित भूखे भेड़ियों को आगे कर देता है। अमूमन शक्ति प्रदर्शन की भूख जिनमें सबसे अधिक होती है, ऐसे भेड़ियों को ही आगे कर दिया जाता है। ऐसे ही एक भेड़िया ये आयुष सिन्हा हैं। इन्होंने प्रोबेशन पीरियड में ही बतौर उपजिलाधिकारी करनाल, हरियाणा में किसानों के ऊपर बर्बरतापूर्वक लाठीचार्ज करवाकर जिसमें एक‌ किसान की मृत्यु भी हो गई, अपनी वफादारी बखूबी निभाई है। प्रोबेशन पीरियड को हम बचपन के किसी खेल की तरह समझें जिसमें शामिल बच्चों की झुंड में जो एक कोई बहुत छोटा बच्चा होता है और उसका दूध भात कर दिया जाता है क्योंकि कच्ची उम्र व अनुभव की कमी की वजह से वह खेल के नियमों से अनभिज्ञ होता है, लेकिन देखने में यही आता है कि वह छोटा बच्चा अपनी अनभिज्ञता के बावजूद सबसे अधिक आतंक मचाता है। एक प्रोबेशन पीरियड में गया आईएएस कुछ ऐसा ही होता है, ये कितनी भी गलतियाँ करें, इनका सब कुछ दूध भात होता है, कोई कार्यवाई नहीं होती है।
इसमें कोई शक नहीं कि एक आईएएस बतौर एसडीएम भी एक आईपीएस से अधिक हनक रखता है इसलिए तो देश के युवा को आईएएस यानि जिसे पूछिए कलेक्टर ही बनना होता है, रूतबा ही ऐसा है, उपद्रव मूल्य अथाह हैं, इतने हैं कि आपको भी जानने समझने में ही लंबा वक्त लग जाता है। आप अधिकतर आईपीएस को देखिएगा, इन लोगों को इस बात का मलाल रहता ही है कि थोड़ा रैंक बेहतर होता तो आज एक आईएएस की फटकार नहीं सुननी पड़ती। इसलिए बहुत से चयनित आईपीएस दुबारा यूपीएससी की परीक्षा भी देते हैं ताकि रैंक बढ़िया आ जाए तो सबसे ऊंचाई में चले जाएँ जहाँ आपका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता जैसी ताकत होती है। खुद आयुष सिन्हा पहले 100 रैंक लाकर रैवैन्यू सर्विसेस में थे, फिर दुबारा परीक्षा पासकर आईएएस हुए।
विरोध प्रदर्शन पहले भी हुए हैं, लाठियाँ पहले भी चली है, लेकिन इतनी बर्बरता पहले नहीं हुई। इस बार का मामला पहले से भिन्न है। अंतर भी है, पहले आईपीएस को आगे किया जाता था, इस बार एसडीएम को ही आगे कर दिया गया, सोचिए कौन अधिक हनक रखता है। मैं यह नहीं कह रहा कि प्रोबेशन में आया एसडीएम बड़ा है, लेकिन सरकार को भी पता है कि आईपीएस स्तर के अधिकारी के हवाले से ऐसी बर्बरता की गई तो उस पर सीधे सवाल खड़े होंगे, आईपीएस तुरंत कटघरे में आएगा, और आईपीएस घेरे में आया यानि सरकार भी घेरे में, इसलिए जो आसानी से कटघरे में नहीं आ सकता, उसे साधा गया है। आईपीएस को वैसे भी सामंती अधिकार नहीं होते हैं, आईएएस को होते हैं, आप भाषा से ही फर्क कर सकते हैं। इस मामले में आप देखते रहिए, आयुष सिन्हा पर कोई खास कार्यवाही नहीं होगी, हरियाणा वाले मामला टाइट रखें तो बात अलग है, कुछ संभावना दिख भी रही है, क्योंकि लाठीचार्ज से एक किसान की मौत भी हुई है, तो मामला बहुत अधिक तूल पकड़ चुका है, फिलहाल के लिए साहब को ज्यादा से ज्यादा छुट्टी पर भेज देंगे यानि सस्पेंड करेंगे, लेकिन मुझे नहीं लगता कि हरियाणा का किसान इतने में मानेगा।
#karnal
#farmersprotest

Thursday, 26 August 2021

देवदासी प्रथा -

"देवदासी प्रथा" इतना जैसे ही आप गूगल करेंगे, विकिपीडिया आपको पहली ही लाइन में यही बताएगा कि यह हिन्दू धर्म की प्राचीन प्रथा थी, वर्तमान में बंद हो चुकी है। आगे आप विकिपीडिया के उस लिंक को खोलेंगे, तो मनगढंत बातें ही मिलेंगी। 

जैसे हिन्दू मंदिरों की सेवा के लिए बनाई गई प्रथा थी, वहाँ मंदिर में देवदासियाँ सिर्फ नृत्य संगीत सिखाती थीं, धर्मशास्त्र की शिक्षा देती थी। फिर विदेशी आक्रमणकारी मुगल तुगलक अफगान आदि आए, उन्होंने इन देवदासियों को बुरी नजर से देखा, उनको मंदिरों से उठाकर ले जाते और उनका यौन शोषण करते आदि आदि। 

आगे लिखा गया है हिन्दू समाज ने देवदासी प्रथा को बंद‌ किया, अंग्रेजों के आने से पहले ही यह प्रथा पूरी तरह बंद हो चुकी थी। 

फिर आगे यह भी लिखा है - हालांकि यह प्रथा भारत में पूरी तरह बंद हो चुकी है लेकिन आज भी कुछ लड़कियाँ जिनका शादी का मन नहीं होता वह परमेश्वर को खुद को सौंप देती हैं और परमेश्वर की सेवा करती हैं। 

अंत में लिखा है - कुछ सु-व्यवस्थाएँ समय के साथ और लोगों के पापों के कारण सु-व्यवस्था से कु-व्यवस्था(कुरीति) में बदल जाती है और उन्हीं व्यवस्थाओं में से एक व्यवस्था थी यह देवदासी प्रथा।


मेरे सवाल -


- मुगल क्या अभी भी इस देश में शोषण करने के लिए मौजूद हैं?

- मुगल अब जब नहीं है, लोकतंत्र स्थापित हो चुका है तो आज इनके साथ इस प्रथा के नाम‌ पर यौन शोषण कौन कर रहा है?

- अंग्रेजों के पहले ही जब यह प्रथा बंद हो चुकी है, तो उत्तरी कर्नाटक में जो हजारों की संख्या में देवदासियाँ आज भी नारकीय जीवन जीने को विवश हैं, वे कहाँ से आ गई?

- कहाँ पाई जाती हैं वो लड़कियाँ जो शादी की अनिच्छा से सीधे मंदिरों में जाकर सेवा करने के लिए पहुंच जाती है और खुद को देवदासी बना‌ लेती हैं। और ऐसे बलिदानी स्वभाव की लड़कियाँ सिर्फ एक जाति विशेष तक ही सीमित क्यों हैं?

- देवदासियाँ ईश्वर की आराधना करती थी, आर्थिक रूप से संपन्न होती थी, कला‌ के क्षेत्र में निपुण होती थीं, शास्त्रीय नृत्य संगीत वहीं से होकर आया। इतना गौरवशाली इतिहास रहा, जब सब कुछ इतना ही अच्छा था तो भारत सरकार को 1988 में जाकर इसमें क्यों बैन लगाना पड़ा?

- मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण और कौटिल्य भाईसाब के लिखे अर्थशास्त्र में भी देवदासियों का जिक्र है, कहा गया कि उस समय समाज में बहुत समानता थी तो फिर एक जाति विशेष की स्त्रियाँ तब से लेकर अब तक देवदासी बनने को क्यों विवश हैं? क्या विदेशी आक्रमणकारियों ने अनुसूचित जनजाति के लोगों को इस काम के लिए चुना था? क्या मुगल तुगलक वर्ण-व्यवस्था लेकर आए थे?

- कहाँ रहते हैं वे परमेश्वर जिनकी सेवा करने के लिए आज भी एक जाति विशेष की लड़कियाँ देवदासी बनने को विवश हैं?

- क्या परमेश्वर मानसिक शारीरिक रूप से इतने अक्षम थे कि उन्हें अपनी सेवा के लिए देवदासी प्रथा जैसी सु-व्यवस्था निर्मित करनी पड़ी। उसमें भी वे सिर्फ अनुसूचित जनजाति की स्त्रियों को ही देवदासी बनाने का प्रिविलेज देकर बाकी जाति की बालिकाओं के साथ इतना बड़ा भेदभाव कैसे कर गये ?


नोट : जिनको देवदासियों का जीवन कैसा होता है यह जानना हो वह चाहे तो एक बार उत्तरी कर्नाटक के कुछ जिलों में घूमने जा सकता है। आपको एक अकेली लड़की के घर से भाग जाने और फिर कभी वापस न लौटने का कारण भी बेहतर समझ आएगा, समझ आएगा कि आज जो कोई घटना होती है, उसके पीछे कितना लंबा इतिहास जुड़ा होता है, सामाजिक विद्रूपताएँ जुड़ी होती हैं। आपको यह भी समझ में आएगा कि भारत में कुछ इलाके ऐसे भी हैं जहाँ आज भी माता-पिता अपनी बच्चियों को कहीं दूर जाकर इसलिए भी बेच देते हैं ताकि उन बच्चियों को देवदासी ना बनना पड़े। आप छिछले न्यूज पढ़कर देखकर ऐसे माता-पिता को दलाल समझते रहिए।

Wednesday, 25 August 2021

जातिगत जनगणना पर इतना हंगामा क्यों?

2011 की जनगणना में यह तथ्य सरकार के पास है कि आरक्षित और अनारक्षित वर्ग का प्रतिशत कितना है, बस यहीं तक सब सीमित है। अब माँग उठी है कि जब जाति की सच्चाई को हम आए दिन जी रहे हैं तो जातिगत जनगणना हो, आज जातियों में आर्थिक सामाजिक स्थिति कैसी है यह बिना जातिगत जनगणना के बेहतर तरीके से पता करना संभव भी नहीं है। ऐसा तो नहीं है कि यह सिर्फ आरक्षित वर्ग के लिए है, अनारक्षित वर्ग में भी कोई जाति अगर आर्थिक सामाजिक पिछड़ेपन का दंश झेल रहा है, तो वह भी सामने आना है। एकदम सीधी सपाट बात है, इसमें कोई समस्या वाली बात ही नहीं है। और अगर किसी को लगता है कि सब ठीक है, समाज में सामाजिक समता आ चुकी है, तो लिटमस टेस्ट ही हो जाना है, इसमें कौन सा किसी के ताऊ के घर से अतिरिक्त रूपये लगने हैं। 

जब जाति को हम आए दिन जीते हैं। हमारे फेसबुक‌ प्रोफाइल में लाइक कमेंट करने वालों से लेकर हमारे पर्व त्यौहार, शादी, दशकर्म आदि में भी जब हमारी जाति विशेष के लोग ही बड़ी संख्या में शिरकत करते हैं, जब हम जाति को इतना खुलकर जीते हैं तो जाति के खुलकर सामने आने से क्यों ही कोई समस्या होनी चाहिए।

हिन्दू समाज की अपनी भी इसमें बड़ी समस्याएँ हैं। जैसे संख्याबल की बात आने पर मुस्लिमों को तो दस बच्चे पैदा करने का लांछन लगा दिया जाता था। लेकिन क्या यहाँ ऐसा करना संभव है। एक कोर हिन्दू अपने ही धर्म के लोगों की निष्ठा पर कैसे सवाल उठाए। सोचकर देखिए अगर जाति आधारित जनगणना का विरोध करने‌ वाला वर्ग यह कह दे कि आरक्षित वर्ग के लोगों की प्रजनन क्षमता बेहतर है, इसलिए भी जातीय जनगणना नहीं होनी चाहिए। अब जो भक्ति और आध्यात्म का चौतरफा कारोबार चल रहा है, जो हिन्दुत्व का बिगुल बजाया जा रहा है, उसमें ऐसी दरार पड़ जाएगी कि संभालना मुश्किल है, कोर हिन्दुत्व का झंडा बुलंद करने वाले कभी इतना बड़ा खतरा नहीं उठाएंगे। एक तथ्य यह भी कि अनारक्षितों ने अभी तक आरक्षितों को हिन्दू माना ही नहीं है। अब इसमें उस बात पर नहीं जाते हैं कि कालांतर में हिन्दू और मुस्लिमों की संख्या बराबर ही रही, ये बाकी लोगों को संख्याबल बढ़ाने और हिन्दू राष्ट्र वाले कांसेप्ट के लिए जबरन गिरोहबंदी के लिए जोड़ दिया गया‌।

आरक्षित वर्ग को एक तो हिन्दू मानने से इंकार किया जाता रहा है। एक इसमें सबसे मजेदार बात यह कि जहाँ कर्मकांडों की बात आती है, तो उसमें सबसे अधिक आरक्षित वर्ग ही फंसा हुआ है, क्यों फंसा है ये आप देखिए। कांवड़ वाले, जल चढ़ाने वाले, कारसेवा करने वाले, भक्ति की घुट्टी पीने वाले वे तमाम लोग, इन सबका मोह भंग हो गया तो इन मुद्दों को छेड़कर सत्ता कैसे काबिज होगी, यह भी एक बड़ा सवाल है।

जातिगत जनगणना के लिए रास्ता एकदम साफ है। अगर अभी 2021 में नहीं भी होता है तो भी कोई समस्या नहीं। अगली जनगणना यानि 2031 तक इतना इस मुद्दे पर बवाल होगा कि सरकारों के लिए संभालना मुश्किल हो जाएगा। सबसे पहले तो यही सवाल उठेगा कि हिन्दू आखिर कौन हैं, बहुत टूट-फूट होनी है, होनी भी चाहिए।

#castecensus

ब्राउन मुंडे -

उदयपुर में मेरा तीसरा दिन था। जिस हॉस्टल में रूका था, वहाँ एक कर्नाटक का भाई मिला, वो भी मेरी तरह भारत के अलग-अलग कोनों में अकेले घूम रहा था, घूम‌ क्या रहा था, लोकेशन बदल बदल के काम कर रहा था, अधिकतर ये वर्क फ्राॅम डेस्टिनेशन वाले ही मुझे मिले। सप्ताह के पाँच दिन लैपटॉप के सामने और बाकी दो दिन इधर उधर घूमना और इसी में लोकेशन चेंज करने का काम भी करते हैं। मेरा घूमना अलग तरह का था, मैंने जिन्दगी से अपने हिस्से के 135 दि‌न चुराए थे।। खैर...।

शाम ढलने के बाद कर्नाटक के उस दोस्त के साथ हम गणगौर घाट गये। गणगौर घाट में जा ही रहे थे कि रास्ते में वहीं कुछ लड़के घाट पर बैठे थे वे ब्राउन मुण्डे गाना गा रहे थे, मैंने तो ध्यान नहीं दिया था। कर्नाटक वाले दोस्त ने ही कहा - अखिलेश भाई तुमने नोटिस किया कुछ। मैंने कहा - नहीं। उसने फिर बताया कि वे लड़के उसके रंग को देखकर जान बूझकर ये गाना गाकर बुली कर रहे थे, मैं भी सोचने लगा कि ब्राउन मुंडे गाना गाने से किसी के साथ रंग के आधार पर विभेद कैसे हो। फिर दोस्त ने जवाब में कहा- यार मैं बहुत फेस किया हूं, तुम फेस नहीं किए हो इसलिए नहीं समझ पाओगे कि कौन से शब्दों का इस्तेमाल कर बुली किया जाता है। 

वापसी में गणगौर घाट से हम जाने लगे, लड़कों का झुण्ड वहीं था, दोस्त ने कहा कि भाई दूसरे रास्ते से चलते हैं, अगर उस रास्ते गये फिर उन्होंने कुछ कह दिया, मेरा और दिमाग खराब होगा, क्या पता मारपीट झगड़ा भी कर लूं और अभी झगड़ा करने का मन नहीं है, चलो कहीं और सुकून से बैठा जाए। और फिर हम अम्बराई घाट चले गये।

#allindiasolowinterride2020



छुआछूत जो मैंने देखा -

 दो साल पहले की बात है। हम उस महानगर में जहाँ रहते थे, हमारे कमरे में सफाई करने वाला आया करता, एक दिन सफाई करने वाले का झाड़ू मित्र के पाँव में टच हो गया। मित्र ने सफाईकर्मी से कहा कि झाड़ू की एक सींक चाटो और तोड़कर फेंको, सफाईकर्मी ने घबराते हुए ऐसा किया।

आँखों के सामने ये सब होता देखकर मेरा माथा खराब हो गया, मैंने उस वक्त तुरंत नाराजगी जताई और मित्र को डाँटा भी था। मित्र ने कहा कि घर में यही चलता है, इस परंपरा को नहीं मानूंगा तो मम्मी बुरा मान जाएगी। मैं यह सुनकर कुछ देर के लिए शांत हो गया था।

मुझे अच्छे से याद है इस घटना के कुछ दिन पहले ही हम मित्र के साथ Article 15 नाम की फिल्म देखकर आए थे।


नोट 1 : कुछ लोग कहते हैं कि आजकल जमाना बदल रहा है, अभी का युवा जात पात वाली चीजों से ऊपर उठ चुका है, मैं कहता हूं कहाँ मिलते हैं ऐसे युवा हमें भी बताएँ। अबे भेदभाव का सिस्टम डीएनए में घुसा हुआ है, वो बात अलग है हमको खुद कई बार पता नहीं चल पाता है, कोरोना चला जाएगा, ये नहीं जाएगा, जब तक व्यक्ति पूरी कठोरता के साथ अंदर की ईमानदारी न दिखाए।

नोट 2 : मैं उस सफाईकर्मी के चेहरे में भय की रेखाएँ देख सकता था। उसकी उम्र महज 20 वर्ष के आसपास रही होगी, इसी पीढ़ी का है, फिर भी उसे बचपन से सिलेबस समझा दिया जाता है कि तुम नीच पिछड़े हो, तुम्हें फलां चीज नहीं छूनी है, फलां जगह नहीं जाना है, झाड़ू किसी उच्च वर्ग के व्यक्ति के पैरों में लग जाए, भले उस झाड़ू से दुनिया जहाँ की गंदगी साफ की हो, उस झाड़ू की सींक चाटनी है। शिक्षा की मूलभूत सुविधा भले उसे न मिल पाती हो लेकिन जिंदा रहने के लिए क्या क्या नियम पालन करना है, ये सब वह बड़ी जल्दी सीख जाता है, समाज उसे सीखा देता है।

नोट 3 :  जिस मित्र ने ऐसा किया, वो भी सिलेबस ही फाॅलो कर रहा था, वही सिलेबस जो उसने इतने सालों में घर में ही रहते हुए सीखा है, यह सब जानने सीखने के लिए उसे कहीं बाहर जाना नहीं पड़ा, उसी के परिवार वालों से उसने सीखा। लेकिन व्यक्ति के सामने ये भी एक बड़ी समस्या आ जाती है कि वह अपने ही घर की इस तथाकथित परंपरा का, माता-पिता की उस सोच का, जिसे वे बचपन से ढोते आ रहे हैं, उसका विरोध आखिर कैसे करे। 

नोट 4 : एक चीज मैंने यह भी देखा कि अमुक सफाईकर्मी के साथ जो खुद उसी की सामाजिक पृष्ठभूमि से आने वाले लोग होते, वे अलगाव महसूस किया करते। ज्यादा बात नहीं करते, दूरी बनाकर रखते। जो अपर क्लास था वो तो क्लियर था ही कि सीधे सींक चाटने को कहना है, जो निम्न में आते वे भी उतने ही बीमार थे। खुद को अलग महसूस करते। सफाईकर्मी पता नहीं क्यों मुझसे मिलते ही बड़ा खुश हो जाता, बहुत सहज महसूस करता, ऐसी सहजता वह किसी और के साथ कभी महसूस नहीं करता था। 

नोट 5 : मुझे उस दिन एक बात समझ आई, उच्च मध्य निम्न कैसी भी आपकी सामाजिक पृष्ठभूमि  हो, अमीर मध्यम गरीब कैसी भी आर्थिक पृष्ठभूमि से आप आते हों, अपने आपको प्रोग्रेसिव सोच का मानना और प्रोग्रेसिव हो जाना इन दोनों चीजों में जमीन आसमान का अंतर होता है।

आरक्षण वाला - एक गाली

हमारे एक मित्र हैं, आर्थिक रूप से कमजोर, उच्च वर्ग से आते हैं, लेकिन कभी छोटे बड़े का भेद नहीं करते हैं, बहुत ही व्यवहार कुशल। शहर की एक दुकान में कई वर्षों से एक सहयोगी का काम करते हैं, उसी से जीवन यापन करते हैं, लेकिन दुकान का मालिक जो कि मारवाड़ी है, कभी उनको यह महसूस नहीं कराता है कि वह नौकर के रूप में काम करते हैं। 

हमारे एक और मित्र हैं, वे भी सवर्ण और आर्थिक रूप से कमजोर। एक समय में पिता के पास खूब संपत्ति रही, शराब और जुए में सब बर्बाद। मित्र पहले एक नेता के यहाँ ड्राइवर रहे, बाद में सरकारी ड्राइवर हुए, अधिकारियों के साथ खूब मौज काटते हैं, अधिकारी भी खूब सम्मान करते हैं, एकदम राजा वाली जिंदगी जीते हैं, ठोक के कहते हैं कि पंडिताई का प्रिविलेज है बे। जब भी कभी मिलते हैं, अपने पिता को एक बार जरूर गरियाते हैं।

एक और सवर्ण किसान मित्र हैं, बहुत कम जमीन है, विरासत में ही कम मिली। कभी उसी में सब्जियाँ उगाया करते। आजकल मशरूम का बिजनेस करते हैं, मशरूम के धंधे के बाद थोड़ा पैसे का फ्लो बढ़ा है। लेकिन एक बात है, गाँव का करोड़पति नाॅन-सवर्ण भी उन्हें महाराज पांयलाग जरूर करता है। सम्मान में कोई कमी नहीं।

अब जिस चौथे मित्र की बात बताने जा रहा हूं, वे दलित हैं, बहुत ही भले मानुष, बाकी तीन मित्रों की तरह वे भी गरीब परिवार से रहे। लेकिन खूब मेहनत की, खूब पढ़ाई की और कई सारी सरकारी नौकरियाँ पास की, अगर आरक्षण से अलग भी उनका ग्रेड देखा जाए तो अनारक्षित के बराबर ही हमेशा रहे, टाॅप टेन में जगह बनाते रहे। आरक्षित कोटे से परीक्षा न भी देते तो भी अनारक्षित वर्ग से नौकरी ले लेते। राज्य सिविल सेवा की परीक्षा में तीन बार इंटरव्यू तक गये‌। आजकल शायद क्लास टू या क्लास वन आफिसर हो गये हैं। लेकिन आज भी ये उतना ही जातिगत भेदभाव उतनी ही जलालत झेलते हैं जितना आफिसर होने के पहले झेलते थे, अपने सहकर्मियों और यहाँ तक की अपने अधीन काम कर रहे कर्मचारियों के द्वारा भी भेदभाव झेलते हैं। यह सब प्रत्यक्ष मेरा देखा हुआ है। भले वे प्रशासनिक अधिकारी हैं, चाहते तो टाइट कर देते, लेकिन वही है रामनाथ कोविंद से ज्ञानी जैल सिंह जैसी उम्मीद नहीं रख सकते हैं। मुझे लगता है बस पैटर्न बदल जाता है, मात्रा बदल जाती है। एक फर्क यह है कि अब जब अधिकारी बने हैं तो कुछ सुविधाएँ मिलती है उसमें आराम वाला जीवन यापन कर लेते हैं और कभी कभार अधिकारी के टैग तले मिलने वाला झूठा सम्मान भी कुछ जलालत कम कर देता है। 

इतनी योग्यता के बावजूद "आरक्षण वाला" ये एक वाक्य इन जैसे लोगों के लिए आज भी गाली की तरह क्यों इस्तेमाल किया जाता है? इस पर पाठक स्वयं मंथन करें।

#आरक्षण

#independence

धर्मशाला गुरूद्वारों की तर्ज पर मुफ्त क्यों नहीं हो सकता -

धर्मशालों में मुफ्त रहने की व्यवस्था करने की बात मैंने एक बार छेड़ी थी। फिर समझ आया कि यह उतना भी आसान नहीं है। 

पहले गुरूद्वारे के बारे में बात कर लेते हैं, गुरूद्वारे में रहना खाना मुफ्त होता है, आप मुफ्त में रहिए, लंगर खाइए। स्वेच्छा से लंगर में आप बर्तन धोने या खाना बाँटने की सेवा दे सकते हैं, या फिर आगंतुकों का चप्पल रखने की सेवा भी दे सकते हैं, या फिर गुरूद्वारे में झाडू़ पोछा साफ सफाई वाला काम कर सेवा कर सकते हैं, आप मुफ्त में रहने खाने के बदले कुछ नहीं भी करते हैं तो भी कोई समस्या नहीं। ऐसा करने वाले लोग भरे पड़े हैं। कई बार आपका चप्पल उठाने वाला या आपकी थाली माँजने वाला अरबपति भी हो सकता है। 

अब धर्मशाला के बारे में बात करते हैं, अमूमन धर्मशाला अलग-अलग जाति के लोगों ने जिनमें व्यापारी वर्ग बहुत आगे रहा उन्होंने ही बनाया, जो मंदिरों या तीर्थस्थानों से संबध्द धर्मशाले रहे उन्हें वहीं के पुरोहित संचालित करते रहे। हरिद्वार ऋषिकेश जैसी जगहों में तो लगभग हर जाति का अपना धर्मशाला है। धर्मशालों में ऐसा कुछ भी सिस्टम नहीं होता जिससे लोग एक जगह जुड़ते हों, लंगर जैसी व्यवस्था नहीं होती तो साथ खाने, साथ बर्तन माँजने जैसी व्यवस्था भी संभव नहीं है।

रहने की बात पर अब आते हैं, धर्मशालों में बढ़िया कमरे बने होते हैं, कहीं कहीं होटल के बराबर सुविधा होती है जबकि गुरूद्वारों में अमूमन ऐसी सुविधा नहीं होती है, आप कहीं भी पसर जाइए, बेडिंग का सामान जरूर मिल जाएगा। कमरे और होटल जैसी सुविधा कई बार मिलना मुश्किल होता है। लेकिन मजे की बात देखिए, गुरुद्वारों में चूंकि सेवा का भाव सर्वोपरि होता है तो साफ सफाई खूब होती है जबकि धर्मशालों में सेवा का भाव नदारद रहता है इसलिए आप पाएंगे कि वहाँ ज्यादा गंदगी देखने को मिलती है, जिम्मेदारी का भाव रहता ही नहीं है कि साफ सफाई रखनी चाहिए। शराब और नाॅनवेज को लेकर तो सख्ती रहती है, लेकिन ये सख्ती गूड़ाखू, तंबाखू, गुटके वालों पर कभी लागू नहीं होगी, जगह-जगह दीवार भगवा किए जाते हैं। 

धर्मशाला भी हिन्दुओं के लिए मुफ्त हो सकता है, अभी के लिए सिर्फ उन्हीं धर्मशालों की बात करते हैं जो मंदिरों से संबध्द हैं। हमने देखा कि अधिकांशत: हिन्दू खूब दान करते हैं, चाहे कारण आस्था का हो या कुछ और लेकिन दान के मामले में हिन्दू सिखों से भी एक कदम आगे हैं। इतना बड़ा देश, हिन्दुओं का इतना बड़ा प्रतिशत, मंदिरों में करोड़ों लोग जाते हैं, इतने लोगों का दान, इतना बड़ा सहयोग, आराम से उनके लिए मुफ्त निवास और मुफ्त भोजन की व्यवस्था की जा सकती है। लोग ऐसे में दिल खोलकर दान भी देते हैं, वैसे भी देते ही हैं, सुविधा मिलेगी तो देंगे ही देंगे। वैष्णो देवी ट्रस्ट इस मामले में सही काम कर रहा है, उसमें भी एक मजे की बात ये कि वैष्णो देवी ट्रस्ट में सिख समुदाय का बड़ा योगदान है।

तस्वीर : धर्मशाले के इस कमरे का एक दिन का किराया 600 रूपए था, पंडिज्जी ने मुझ सोलो ट्रेवलर को 400 रूपए में दे दिया। कमरे में टीवी भी था, साफ सफाई भी बढ़िया, खिड़की खोलते ही बाहर गंगा नदी की कल-कल करती जलधारा। इस कमरे में 2 डबल बेड हैं, यानि बहुत ही आराम से 4 लोग रूक सकते हैं, बिल्कुल किसी होटल की तरह एक बड़ा सा बाथरूम भी था।



चप्पल पहनना इतना भी आसान नहीं?

एक मित्र ने कहा कि आजकल हर कोई ठाठ से चप्पल जूता पहनता है, ये सब बीते जमाने की बात हो गई कि किसी के चप्पल जूते पहनने पर आज के समय में कहीं भेदभाव होता हो। मन किया कि मित्र को कूपमंडूक कह दूं फिर सोचा एक वास्तविक घटना से रूबरू करा देता हूं।

साल भर पुरानी बात है‌, एक आदिवासी इलाके में काम के सिलसिले में गया था। जिस होटल में रूका था वहाँ मेरा कमरा पहली मंजिल में था। उस क्षेत्र के मेरे सहयोगी जिनके साथ मुझे काम‌ पर जाना था, वे मुझसे मिलने आए, जब वे मुझसे मिलने आए नंगे पाँव ही चले आए। मैंने कहा - कोई व्रत है क्या? उनका जवाब आया - नहीं। फिर मैंने पूछा - खाली पाँव क्यों? चप्पल, जूते कहाँ हैं? वे मेरे सवाल को टालने लगे। मैं अड़ा रहा। लेकिन वे भी अड़े रहे और आखिर तक उधर से कोई जवाब ही नहीं आया और यह कहकर वे नीचे उतर गये कि आप तैयार होकर आइए, मैं नीचे इंतजार कर रहा हूं। मैं जब नीचे गया तो देखा कि उनके पैरों में चप्पल था। अगले दिन मैंने देखा कि जब वे मुझसे मिलने आते थे तो अपना चप्पल होटल की पहली सीढ़ी में कदम रखने से पहले ही वहीं कोने में रखकर नंगे पाँव ऊपर आते थे। मेरे बार-बार पूछने पर भी, डांटने के बावजूद भी हमेशा उन्होंने इस बात को हँसकर टाल दिया लेकिन आखिर तक जवाब नहीं दिया कि वे ऐसा क्यों करते हैं। जबकि वे दलित समाज के उत्थान के लिए वर्षों से काम करने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता थे, उनकी ऐसी स्थिति देखकर मैं हैरान हो गया।

ये इसी इक्कीसवीं सदी की घटना है, और किसी जंगली इलाके की नहीं बल्कि उस इलाके की घटना है जहाँ से आंध्रप्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री चुनकर आए हैं। आज भी उस इलाके में भूखमरी ऐसी है कि जब छोटे बच्चे माँ के सामने भूख को लेकर बिलबिलाते हैं तो माँ अपने बच्चों को गोंद और लाख का सूप पिलाकर शांत करती है। जिन्हें इस सूप के बारे में जानकारी नहीं है उन्हें बताता चलूं कि गोंद या लाख का गरम सूप पी लेने से भूख पूरी तरह मर जाती है।

कुमाऊं के एक धर्मशाले में

 भारत घूमते हुए एक धर्मशाले में रूकना हुआ। धर्मशाला की जैसी प्रक्रिया होती है कि एक पहचान पत्र और कुछ एडवांस जमा करना होता है, वह मैंने किया। आधार कार्ड से मेरा नाम देखने के बाद रजिस्टर में एंट्री करने वाले ने कहा और अप्रत्यक्ष रूप से जाति पर बात छेड़ने लगा - मैंने जान बूझकर सीधे झूठ कह दिया कि ST हूं, कमरा मिलेगा न? वे कुछ सेकेण्ड के लिए चुप हो गये। बड़ी-बड़ी आँखों से देखने लगे। 


मैंने इस एक चीज को अपनी आदत में शामिल कर लिया है, कि जब भी कहीं कोई जाति पर बात करता है, मैं भारत का जो सबसे पिछड़ा सबसे नीचे जो होता है, कोशिश करता हूं कि वही बताऊं। कई बार इस वजह से बेवजह बहुत परेशानियाँ झेलनी पड़ती है लेकिन यह सब देखने समझने के लिए ही तो मैं ऐसा करता था, इस बार भी वही किया। देखना चाहता था कि कहाँ किस स्तर तक पिछड़ों के साथ हिंसा होती है। इस एक आदत ने मेरे अंदर के पूर्वाग्रह को बहुत हद तक तोड़ा।


मैं उस धर्मशाले में वैसे तो एक दिन रूकने के लिए गया था, लेकिन एक दिन और रूकने का मन हो गया। अमूमन धर्मशालों में आप अधिकतम तीन दिन ही रूक सकते हैं। बहुत बढ़िया धर्मशाला था, सुबह 6 बजे ही आरती हो जाती थी, बहुत ही कर्णप्रिय, घंटियों की आवाज से नींद खुलती थी। खिड़की के सामने ही हिमालय के दर्शन होते थे।


धर्मशाला में जहाँ काउंटर था, जहाँ रसीद काटा जाता था, उसी कमरे में ही वाटर कूलर था, जहाँ गर्म पानी मिल जाता था, क्योंकि ठंड का समय था, और पहाड़ों में ठंड के मौसम में ज्यादा ठंडा पानी पीना बीमार कर देता है। एक तो मुझे प्यास बहुत लगती है, वाटर कूलर के खूब राउंड लगाना हो जाता। उसी कमरे में कई बार रसीद काटने वाले भाई साहब घूर के देखते लेकिन कुछ ना कहते। जब जाता हमेशा घूरते लेकिन चुप रहते। 


जिस दिन मैं चेक आउट कर रहा था, उस दिन जमा पैसे वापस लेने के बाद मैंने कहा -  भाईसाहब आपने जाति पूछी थी न, मैं ST नहीं हूं, वो तो बस ऐसे ही कह गया था। यह सुनकर वे हँसने लग गये, फिर वे जो इतने दिन मुझसे कटे कटे से थे, बहुत रूचि दिखाते हुए चर्चा करने लग गये कि मैं कहाँ-कहाँ घूम रहा हूं। मैंने थोड़ी देर बात की उसके बाद कहा - देर हो रही है, चलता हूं। फिर उन्होंने कहा - दुबारा कभी आओ तो यहीं आना। आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि कभी कोई धर्मशाला वाला ऐसे न्यौता नहीं देता है, अमूमन यह काम होटल वाले ही करते हैं। 😊


तस्वीर - शाम को खिड़की से हिमालय का दृश्य



#allindiasolowinterride2020

Lets talk about bikes -

To all the people who came up with doubts before purchasing any bike -

1. बजाज की बाइक्स कूड़ा हैं, रद्दी हैं, कबाड़ हैं, सब। सब की सब। लेकिन खूब बिकती हैं क्योंकि भारतीयों को भारतीय कंपनी का कूड़ा पसंद है। और हाँ पल्सर महारद्दी है, इसलिए देखना सबसे ज्यादा बिकती है।

2. राॅयल इनफील्ड इस कूड़ेपने में दूसरे नंबर पर है, भारतीय कंपनी जो है। एक हिमालयन थोड़ी कम खराब है बाकी सब रद्दी। भंगार के भाव वाला मेटल क्वालिटी। लेकिन इसे भी भारतीय खूब पसंद करते हैं क्योंकि भंगार पसंद है। फूहड़ आवाज के दीवाने हैं।

3. टीवीएस, इसको चीटर कहूंगा तो लोगों को बहुत बुरा लग जाएगा लेकिन हकीकत यही है। इसने सुजुकी कंपनी को तो चीट किया ही, अपने कस्टमर को भी बढ़िया चीट करता है, लेकिन जितनी भी भारतीय कंपनियाँ हैं, उनमें ये अभी के समय में सबसे बेहतर काम कर रही है। ध्यान रहे बेहतर शब्द मैं सारी चीजों को ध्यान में रखते हुए कह रहा हूं जिसमें खरीदी बिक्री, मेटल पार्ट गाड़ी की लाइफ सब कुछ आ जाता है। 

4. हीरो, गाँव घर में रहते हो तो ले लो भाई। सस्ता और टिकाऊ है। इस एक पक्ष को देखें तो बाकी सारी भारतीय मोटरसाइकिल कंपनियों से बेहतर है। आम‌ लोगों की जरूरत को ध्यान में रखते हुए सामान देता है। होण्डा को इसने वैसा चीट नहीं किया जैसा टीवीएस ने सुजुकी के साथ किया इसलिए यह टीवीएस की तरह आगे नहीं बढ़ पाया। दोनों हीरो और होण्डा भारत में औंधे मुंह गिरे। एक हिसाब से देखें तो ये चीज भी अच्छी है कि टीवीएस की तरह सामंती चरित्र इस कंपनी का कभी नहीं रहा। 

ये भी सोचने वाली बात है कि विदेशी कंपनियाँ भारतीय कंपनियों के साथ करार तो करती हैं, लेकिन सामंती मानसिकता को वे भी कब तक झेलेंगे, इसलिए एक समय के बाद अनुबंध खत्म कर लेते हैं। वो कहते हैं न नकल के लिए भी अकल चाहिए फिर वही होता है। गाड़ी की पूजा करके पूरी दुनिया में दुर्घटना में नंबर वन चलने वाले देश में विज्ञान अभी भी दूर की कौड़ी है।

ऊपर जिन भारतीय कंपनियों का जिक्र है, इनकी गाड़ियाँ भारत में खूब बिकती है, बहुत खराब भी होती है, रिपेयरिंग का खूब खर्चा पड़ता है, अपने कस्टमर को ये लोग खूब मूर्ख बनाते हैं। ध्यान रहे, गाड़ी खरीदने का खर्चा छोटा है, रिपेयरिंग का खर्चा बड़ा है। लेकिन कूड़ा पसंद भारतीयों को क्वालिटी कहाँ चाहिए होती है।‌ हर जगह सस्ते के चक्कर में कबाड़ उठा लाते हैं। 

Note : Thoughts expressed in this post is totally subjective, so if it is affecting someone's sentiment, it's your problem, i am not responsible for your dilemma.

Peace Out.