Tuesday, 28 January 2025

मुकेश सुरेश और बस्तर की राजनीति -

पत्रकार मुकेश चंद्राकर का एक अपराधी आज दुनिया के सामने है, जिसे आप और हम सुरेश चंद्राकर के नाम से जानते हैं। असल में सुरेश चंद्राकर का क़द बहुत बड़ा हो गया था। हर तरफ़ उसकी पकड़ मजबूत होती जा रही थी। कांग्रेस के समय भी मोटी फंडिंग किया था, अब भाजपा के समय भी इसने अपना वर्चस्व बना लिया। पूरे बस्तर अंचल में इसके बराबर का मजबूत नेता कोई नहीं था।

अब इस उभरते नेता को किनारे करना था तो जिस घटना की रिपोर्टिंग एनडीटीवी के माध्यम से हुई, जिसमें मुकेश केवल स्ट्रिंगर था। मुकेश तो इसमें प्रत्यक्ष रूप से था ही नहीं। लेकिन उसे फँसाया गया क्यूंकि जाना पहचाना चेहरा है और साफ़ बेदाग़ छवि का है।

मुकेश को सुरेश की अनुपस्थिति में उसी के एक घर में मारना, मारने के बाद सेप्टिक टैंक में दफ़न करना और पुलिस को मारने के तुरंत बाद पता भी चल जाना। और तो और मुकेश के शरीर में भयानक चोट मिलना, शरीर की हड्डियां तोड़ना, लिवर और गले की हड्डी तक तोड़ना आदि। यह सारी बातें इशारा करती हैं कि इस कहानी की स्क्रिप्ट बहुत अच्छे से तैयारी के साथ लिखी गई है। और इस पूरे घटनाक्रम की ये स्क्रिप्ट भी इतनी कमजोर है कि एक दसवीं पास छात्र भी डिकोड कर लेगा। मुझे लगता है थोड़ा इनको रशियन माफियाओं से क्राइम सीन के शुरुआती दाँव पेंच सीखने चाहिए।

वैसे इसमें टारगेट तो मुकेश को भी किया ही गया है चाहे एक तीर से दो निशाने मारने को किया हो और मुकेश को बेरहमी से मारकर दुनिया के सामने यह कहानी पेश किया गया कि एक बेरहम ठेकेदार ने बुरी तरह से एक ईमानदार पत्रकार को मार दिया। जबकि कहानी कुछ और ही है। और सबसे मजे की बात सुरेश के ख़िलाफ़ केवल एक ही सबूत है कि उसके घर में पत्रकार को मार दिया गया, पूरी कहानी ही फिल्मी है।

असल में सुरेश के बढ़ते क़द को कम करने के लिए, दुनिया के सामने उसे एक कुख्यात अपराधी बनाने के लिए बड़े सुनियोजित तरीक़े से उसी के घर में एक ईमानदार पत्रकार को मारा गया, जो केवल एक अप्रत्यक्ष रिपोर्टिंग के माध्यम से जुड़ गया, उसे ही आधार बनाकर सुरेश को टारगेट किया हुआ है। इस पूरी घटना के केंद्र में सुरेश है, जिसे अपराधी बनाने के लिए मुकेश को चारे की तरह इस्तेमाल कर लिया गया।

एक तीर चला और तीन निशाने हो गए। खोजी पत्रकारिता कर बेईमान लोगों के लिए मुश्किलें पैदा करने वाला मुकेश हमेशा के लिए शांत हो गया, बस्तर अंचल का स्थानीय व्यक्ति जिसका क़द राजनीति से लेकर पूरी व्यवस्था में बड़ा होता जा रहा था, उसे रातों रात दुर्दांत अपराधी बना दिया गया, तीसरा यह कि बस्तर में बाहरी लोगों के आतंक के लिए रास्ता साफ़ हो गया।

नोट : ये बातें कोई पत्रकार टीवी कभी दिखाएगा भी नहीं, सबको अपना घर परिवार देखना है।

सूली पर चढ़ाओ -

जब भी होता है कोई अपराध

न्याय की देहरी माँगती है सूली।

बताए कोई सुझाए कोई

कि कितने गर्दनों को देंगे सूली।

अगर सूली पर चढ़ाना ही न्याय है

अगर इस तरह से मौत देना न्याय है

अगर इसी से न्याय का होना माना जाता है

तो यह न्याय सबके लिए होना चाहिए।

चढ़ाइये सूली पर उस नेता को,

जिस तक टेंडर के पैसे का मोटा हिस्सा जाता है।

चढ़ाइये सूली पर उस जिलाधीश को,

जिसने सबका प्रतिशत तय किया।

चढ़ाइये सूली पर उस विभागीय अधिकारी को,

जिसने प्रोजेक्ट तैयार कर पूरा बंदरबाँट किया।

चढ़ाइये सूली पर उस सरकारी बाबू को भी,

जिसने भ्रष्टाचार का नोटशीट तैयार किया।

चढ़ा दीजिए सूली पर उन सभी लोगों को,

जो इस समाज में हत्यारे तैयार करते हैं,

जो इस समाज को हिंसक बनाते हैं,

जो देश समाज को रहने लायक़ नहीं छोड़ते।

बस्तर के जंगल आदिवासी समाज और नक्सलवाद

भारत के लगभग हर राज्य में आदिवासी रहते हैं। पूर्वोत्तर के राज्यों में तो आधे से अधिक आबादी में आदिवासी रहते हैं। लेकिन भारत के छत्तीसगढ़ राज्य में बस्तर का इलाका ही नक्सलियों ने क्यों चुना। इसके बहुत से कारण सुनने में आते हैं। पहला यह कहा जाता है कि यह जंगल बहुत घना है, ट्रैक ट्रेस करने में मुश्किल होती है इसलिए नक्सलियों ने अपना ठिकाना यहाँ जमाया। जहाँ तक घने जंगल की बात है तो पूर्वोत्तर के जंगल और पश्चिमी घाट के जंगल के सामने बस्तर कुछ भी नहीं है। दूसरा कारण भूगोल का बताया जाता है कि ओडिशा, आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र इन तीन राज्यों से सीमा है, तो धरपकड़ में दिक्कत होती है। मुझे इस कारण में भी कोई ख़ास दम नजर नहीं आता है। क्रॉस बॉर्डर फोर्स बनाकर आसानी से इस काम को अंजाम दिया जा सकता है बशर्ते अगर सचमुच करने की इच्छाशक्ति हो तब, और नहीं करना है तो बहुत ख़ूबसूरत बहाने हैं।

बस्तर के आदिवासियों में और यहाँ के जंगल में ऐसा क्या है कि दुनिया जहाँ की सरकारें, एनजीओ, समाजसेवी और पत्रकार ये सभी कोई हाथ धोकर लगा हुआ है बस्तर के जंगलों की रक्षा और बस्तर के आदिवासियों का भला करने के लिए। असल में इनमें से किसी को भी ना बस्तर के जंगलों से मतलब है ना ही यहाँ के आदिवासियों से है। आदिवासी पूरे देश में हैं लेकिन अधिकतर लोगों को बस्तर का ही राग क्यों अलापना होता है इसके पीछे गहरे कारण है जिसके लिए तीन चार दशक पीछे जाकर चीज़ों को देखने की जरूरत है।

असल में 70 के दशक में नक्सलबारी से शुरू हुआ आंदोलन जिसका मकसद था बड़े जमींदारों से जमीन छीनकर किसानों और भूमिहीन मजदूरों में बराबर बांट देना। एक तरह से इसके मूल में कृषि सुधार ही था, वो बात अलग रही कि तरीका बहुत हद तक हिंसक था। लेकिन 80 के दशक में यह आंदोलन तो बस्तर आकर पूरी तरह ही बदल गया। ये कुछ वैसा ही था जैसे अन्ना आंदोलन को अपने हित साधने के लिए केजरीवाल ने पार्टी बनाकर इस्तेमाल कर लिया। ठीक इसी तरह नक्सलवाद नाम का दंश बस्तर को 1980 के दशक में मिला, जिसका मूल उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ अपने हितों को साधना था। लेकिन तब बस्तर जैसे दुर्गम इलाके में नक्सलवाद के इन सिपाहियों को ऐसा क्या दिख गया था।

1980 के दशक तक खनन नीतियाँ बहुत कठोर हुआ करती थी। तब क्या मालूम बस्तर की ओर शासन का उतना ध्यान भी ना गया हो। उसी समय से ही नक्सलियों ने इन इलाकों में अपनी पैठ बना ली। वे दूरदर्शी थे, उन्हें पहले से पता था कि बस्तर गोंडवानालैंड का ऐसा इलाका है जहाँ प्राकृतिक संपदा प्रचुर मात्रा में है, और आज नहीं तो कल इसके लिए बंदरबाँट होना ही है। इन सब चीज़ों को देखते हुए उन्होंने पहले ही अपने पैर जमा लिए, और अभी तक जमाए ही हुए हैं, और बैठ कर बढ़िया मिल-जुलकर केवल हिस्सा खा रहे हैं। इन गुजरते सालों में नक्सलियों ने अपना हिस्सा पक्का करने के नाम पर, अपनी दुकान चलाने के नाम पर बस्तर के आम लोगों को यानी आदिवासियों को सिवाय खून-खराबे और दुख तकलीफ़ के और कुछ भी नहीं दिया है। खैर सरकार का भी कुछ-कुछ यही हाल है।

जैसे-जैसे देश दुनिया के सामने बस्तर का नाम आने लगा। लोगों को दिखने लगा कि यहाँ तो अकूत पैसा है। इतने खनिज, इतने अयस्क, सरकार से लेकर पत्रकार समाजसेवी आदि ये लोग, इन सबकी आँखें चौंधिया गई। सबके बीच इसे लेकर गलाकाट प्रतियोगिता शुरू हो गई, जो आज भी बदस्तूर जारी है और आगे भी जारी रहेगी। जब तक बस्तर की पूरी प्राकृतिक संपदा का दोहन नहीं हो जाता है तब तक खून की नदियाँ बहती रहेंगी और इंसानी लालच की वजह से मानवता शर्मसार होती रहेगी।

आज अगर सरकार बस्तर के सुदूर इलाकों तक सड़क पहुँचा रही है, सुरक्षा के लिए लगातार आर्मी के कैम्प लगा रही है , इसके पीछे सरकार की लोककल्याण की भावना कतई नहीं है, बल्कि इन जंगलों से पहाड़ों से अपने काम की चीज़ें हासिल करना है। और इन सब के लिए आर्मी की मदद लेना बेहद जरूरी है क्यूंकि नक्सली पहले ही हिस्सा लेने के लिए घात लगाए बैठे हैं कि एक हिस्सा हमें भी देते चलो।

देश दुनिया का रुझान बस्तर को लेकर बढ़ रहा है। जो बस्तर प्रकृति पूजा किया करता, देश दुनिया के अजीबोगरीब नियम धरम से दूर रहा, वहाँ चुपके से अलग-अलग भगवान पहुँचाये गए, ढोलकल गणेश उसकी ही एक बानगी है। कभी-कभी सोचता हूँ कि काश बस्तर अंचल में इतने खनिज ना होते, लोगों का जीवन बड़ा सुखमय रहता। आज “ राम नाम की लूट मची है लूट सके तो लूट “ की तर्ज पर हर कोई बस्तर को नोच लेना चाहता है। चाहे पत्रकार और समाजसेवी हों, सरकार हो, नक्सली हों, हर कोई अपने हिस्से के लिए धींगामुस्ती कर रहे हैं। और इन सबमें लगातार बस्तर का आम आदिवासी पीस रहा है। कुछ इस तरह बस्तर का खनिज आज यहाँ के आम लोगों के लिए ही अभिशाप बन चुका है।

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पत्रकार मुकेश चंद्राकर को समर्पित

देश में हर कोई आजकल ऊँचा बोलता रहता है, ख़ासकर पत्रकार तो लाउड ही हो चुके हैं, आवाज से भी और अपने तौर तरीकों से भी, पेशे ने ऐसा ही बना दिया है उनको।

लेकिन मुकेश चंद्राकर जिन्हें विगत दिनों में एक ठेकेदार ने मौत की नींद सुला दिया, वह बहुत ही अलग रहा। एक दिन ऐसे ही गलती से यूट्यूब में उनकी वीडियो देखा और दो चार वीडियो देख गया। उनकी आवाज में पता नहीं कैसे वो शोर वो कोलाहल नहीं था, बंदा बड़े आराम से बात करता था, दूसरा पहलू ये कि आवाज में किसी भी प्रकार की बनावट नहीं थी, कृत्रिमता नहीं थी, आज के समय में ये वाक़ई दुर्लभ है।

छत्तीसगढ़ राज्य में वैसे भी सलीके के पत्रकार हैं नहीं, ऐसे में मुकेश का जाना और खल गया, उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता लेकिन उनकी आवाज हमेशा याद रहेगी। अगर छत्तीसगढ़ के लोगों की आवाज कैसी है, उसकी खनक कैसी होती है, उस आवाज की पवित्रता और कोमलता क्या है उसे महसूस करना हो तो मुकेश को एक बार सुना जाना चाहिए।

मृत्यु के ठीक पहले शायद इंसान बहुत कुछ महसूस कर लेता है, देखिए मुकेश ने 20 दिसंबर को अपने आख़िरी फ़ेसबुक पोस्ट में यह लिखा था -

बस्तर, वो कैनवास जिस पर कुदरत ने अपने सबसे सुंदरतम हिस्से को उकेर दिया है और एक प्रश्न स्वर्ग सी सुंदर इस ज़मीन पर सर उठाए पूछता है ;

"सीधे मौत की सज़ा देते हो, वजह क्या है?

मुझे बताओ तो सही, मेरा गुनाह क्या है?"

बहुत ही निर्भीक, जीवट और जुनूनी व्यक्ति रहा मुकेश। उसकी रिपोर्टिंग देखने पर ही समझ आता है कि खूब जोखिम उठाता था। जब भी कोई रिपोर्टिंग करता तो ऐसा लगता जैसे उसका हिस्सा बन गया हो, जैसे उनके बीच का ही कोई व्यक्ति कहानी सुना रहा। अंतिम छोर तक जाकर लोगों के दर्द को उनकी पीड़ा को गला भरते तक महसूस करता था और उसे ही जस का तस लोगों तक पहुंचाता था। कितना सरल, कितना सहज, इतना निश्चल, निष्कपट और असामान्य। उसके चेहरे की भाव भंगिमा बोलती थी और उसके भीतर के अटूट मानवप्रेम को सहज ही सामने ला देती थी।

जीवन के प्रति अपार प्रेम से भरा भूरा था मुकेश, शायद इसलिए भी वह व्यवस्था की क्रूरता को समझ नहीं पाया और ऐसी घटना का शिकार हो गया और हम सब के कंधों पर हमेशा के लिए एक बोझ दे गया, बोझ इस व्यवस्था के चरम घिनौनेपन का, जिसकी नींव को हम ही आए दिन खामोश रहकर मुंह मोड़कर मजबूती देते रहते हैं।

एक ऐसे समय में जहाँ हमने दुखों को महसूस करना ही छोड़ दिया है, कोई दुर्घटना हो, मृत्यु हो, अपराध हो, हमें महसूस ही नहीं होता है, हम ना जाने किस अंधी दौड़ में लगे हैं कि किसी की मौत भी हमें हिला नहीं पाती है, ऐसे समय में मुकेश जैसे जिंदादिल लोगों के बारे में बताना, उसे दर्ज करना बेहद जरूरी है।

मुकेश हमेशा अपने नाम के अर्थ को चरितार्थ करता था। बतौर स्वतंत्र पत्रकार वंचित पीड़ित लोगों के लिए एक दुःखहर्ता की तरह था, बस्तर के गुमनाम लोगों की आवाज था वो। छत्तीसगढ़ में इस जैसा पत्रकार ना हुआ ना होगा।

मुकेश शायद जानता ही होगा कि व्यवस्था ऊपर से नीचे कैसी है। 120 करोड़ के रोड के ठेके में बरती गई अनियमितता को लेकर रिपोर्टिंग की उसके बाद से उस टेंडर को लेकर जाँच बैठ गई थी। यानी मुकेश यहाँ न्याय का पहरुआ तो बना ही लेकिन सीधे-सीधे ठेकेदार का आर्थिक नुक़सान करने वाला व्यक्ति बन गया। मुकेश चाहता तो बाक़ी और पत्रकारों की तरह कुछ पैसे लेकर शांत बैठ जाता और अपना रूटीन काम करता, लेकिन उसके भीतर पूरी व्यवस्था को ठीक करने की सनक थी।

जिस व्यवस्था के सामने आज रोकर चीखकर हाथ जोड़ते हुए उसका परिवार उसके लिए न्याय माँग रहा है, उसी व्यवस्था ने मुकेश के क़ातिलों को टेंडर जारी किया और मुकेश ने उसकी गड़बड़ी पर रिपोर्टिंग की। जो भी अपराधी हैं, उस जैसे ठेकेदार लोग हर गली मुहल्ले कस्बे जिले में होंगे जिन्हें आप हम आए रोज देखते हैं। जिनकी पहुँच व्यवस्था के सर्वोच्च पायदान तक होती है, आख़िर आप कितनों से लड़ लेंगे, कितनी ही व्यवस्था बदल लेंगे।

120 करोड़ की सड़क का काम 56 करोड़ में होने की बात आई और उसमें भी ख़राब गुणवत्ता रही। बाक़ी 64 करोड़ क्या सिर्फ़ उस क़ातिल ठेकेदार के पास गया होगा, अजी बिल्कुल नहीं। एक हिस्सा सीएम हाउस गया होगा, एक हिस्सा लोक निर्माण विभाग का मंत्री, एक हिस्सा स्थानीय विधायक सांसद आदि, एक हिस्सा जिलाधीश, एक हिस्सा पीडब्ल्यूडी के उच्चाधिकारी, एक हिस्सा ठेकेदार और बाकी बचा खुरचन निचले पायदान के लोग। इसमें आप किस-किस से लड़ लेंगे, इसका फैसला आप ही करिए क्यूंकि ये जालिम व्यवस्था ऐसी ही है और ऐसी ही रहेगी। ठेकेदार को हम सूली पर चढ़ा कर न्याय की इतिश्री कर लेंगे लेकिन जो मोटा हिस्सा ऊपर तक दर्जनों लोगों तक गया, जिस व्यवस्था ने अंतिम पंक्ति के ठेकेदार को इस भ्रष्टाचार का केंद्र बिंदु बना दिया उन पर कभी कोई सामाजिक कार्यकर्ता कोई पत्रकार बात नहीं करता है, क्यूंकि उसके लिए रीढ़ चाहिए होती है जो किसी के पास है नहीं।

मुकेश के आख़िरी फ़ेसबुक पोस्ट जिसमें वह “सीधे मौत की सजा देते हो” ऐसा कह रहा है, वह शायद इस सच को पहले ही देख चुका था कि उसने अपने लिए मृत्यु को चुना है। मुकेश शायद इस सच के सामने टूट चुका होगा कि कोई उम्मीद की किरण दिखती ही नहीं, जो रसूख वाला है, उसी का राज है, वह जैसा चाहे वैसे व्यवस्था को नचा सकता है, ऐसे में इंसान के पास मरने के अलावा और क्या ही विकल्प बचता है। जिद से भरे मुकेश ने भी सोचा होगा कि अब या तो मैं रहूँगा या आप। लेकिन निराश मन से बस यही कहना है कि बलिदान मुकेश दे गया, लेकिन इससे उसके गुनहगारों को कुछ ख़ास नहीं होने वाला है, एक किसी को सजा हो भी गई तो ऐसे लोगों की कमी नहीं है, हर जगह यही भरे पड़े हैं। नुक़सान ख़ुद का ही है, सामने वाले का तो कुछ होना नहीं है। कुछ दिन बाद आप हम भी यह सब भूलकर अपनी चीज़ों में व्यस्त हो जाएँगे।

बहुत साल पहले कुछ लिखा था उसकी वजह से मुझे घर से उठा लेने की धमकी मिली थी। घरवालों ने तब क़सम दिलाया था कि अब से कुछ भी ऐसा नहीं लिखेगा जिससे हमें तकलीफ़ हो। उस समय मेरे एक दोस्त ने मुझे कहा था - कभी भी कुछ ऐसा मत लिखो जिससे सामने वाले का आर्थिक नुकसान हो, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष किसी भी तरीके से किसी के आर्थिक नुकसान का भागी मत बनो। इंसान की आलोचना करो, बुरा भला बोलो, वह सब भूल जाएगा। लेकिन मुद्रा से संचालित आज के युग में इंसान अपना आर्थिक नुकसान कभी नहीं भूलता है और इसमें आपको व्यक्तिगत रूप से सर्वाधिक जोखिम उठाना पड़ सकता है। मैं आज भी पूरी बेशर्मी के साथ जीवन के इस यथार्थ को जी रहा हूँ।

One hundred years of solitude web series and Indian approach to cinema and literature -

मार्केज नाम का एक लेखक हुआ। उसने अपने समय One hundred years of solitude नाम की एक किताब लिखी। जिस पर अभी हाल फ़िलहाल में एक वेब सीरीज बनी है, कल ही बड़ी मुश्किल से वेब सीरीज ख़त्म की, मुझे बहुत ही औसत लगी। लेकिन साहित्यिक बिरादरी में लोग जिन्होंने मार्केज को एकदम हीरो बनाकर रखा हुआ है, वो इस औसत वेब सीरीज का राग अलापने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। मजे की बात यह कि इस महान वेब सीरीज के बारे में भी इन मूर्धन्य साहित्यकारों से ही पता चला, वरना इसे देखने की कृपा से तो हम वंचित ही रह जाते।

जहाँ तक जादुई यथार्थवाद की बात है, वह भी ऐसा है कि मार्केज़ ने एक ऐसी स्क्रिप्ट लिख दी किताब में, जिसमें ढेरों किरदार हैं। मैं तो किताब पूरी कभी पढ़ ही नहीं पाया, कौन कॉपी पेन लेकर तीन पीढ़ी के इतने किरदारों का नाम याद रखता चले। कुल मिला के बहुत जटिल बोझिल सी किताब लगी मुझे। किताब का अपना साहित्यिक एप्रोच अच्छा है, कल्ट लिखा है बंदे ने, गहराई में जाकर व्याख्या की है, जादुई यथार्थवाद परोसा है जो हमारी दादी दादा बचपन में सोते समय कहानियों के रूप में परोसा करते थे। इसने सबको जोड़ के गुलदस्ता बनाया है। अब उस समय किताब के रूप में लोगों के लिए ये चीज़ नई थी तो लोगों ने बाहें फैलाकर स्वागत किया और अगले को हीरो बनाया। लेकिन भारत के तथाकथित साहित्यकारों ने तो इसे मानो भगवान का ही दर्जा दे दिया, ऐसा भगवान जिसे सिर्फ़ वही अच्छे से जानते हैं। भारत के और दुनिया के और देशों में बहुत से लोग आज की तारीख़ में मार्केज से कहीं बेहतर कल्ट लिख रहे हैं, लेकिन वही है उस पर कोई चर्चा नहीं होगी क्यूँकि इससे भारत के उन साहित्यकारों की ब्रांड वैल्यू नहीं बनेगी।

भारत के तथाकथित साहित्यकार अपने तिलिस्म को बनाये रखने के लिए एक माहौल बनाकर रखते हैं, उसमें खुद भी डूबकर अपने को सबसे ऊंचा रखने का दिखावा करते हैं। मार्केज बतौर साहित्यकार ठीक आदमी है, अच्छी किताब लिखा है, वहाँ के लोग बड़ी सहजता से उसको स्वीकारते हैं, लेकिन यहाँ हिंदी के कुछ साहित्य के लंबरदारों ने तो ऐसे कुछ लेखकों को भगवान ही बना दिया है। चाहे मार्केज हों, काफ़्का हों, गोर्की हों, कुन्देरा हों या और कोई ऐसा ही बाहर का लेखक। वो उनके अपने देश में बहुत सामान्य चीज़ होगी। प्रेमचंद टाइप हर कोई उनको जानता होगा और थोक के भाव में पढ़ के ख़त्म कर लेता होगा। लेकिन यहाँ के साहित्य बिरादरी के लोग ये दो चार बाहरी लोगों को उठा लेते हैं जिनके बारे में बहुत कम लोगों को पता हो और उसे ही भगवान बना लेते हैं कि इस महान आदमी को आपने नहीं पढ़ा तो आपका जीवन व्यर्थ है, कुछ इसी इसी तरह ये अपनी दुकान चलाते फिरते हैं। वो तो धन्य है कि सोशल मीडिया की वजह से इनका अस्तित्व है, वरना तो इनको कोई पूछता भी नहीं, ये तथाकथित साहित्यकार दफ़न रहते और इस तरह से भौंडा तिलिस्म परोसकर लोगों को दिग्भ्रमित ना करते।

मनोज वाजपेयी की एक फ़िल्म है - गली गुलियाँ। मनोज ने बताया कि वो एक ऐसी फ़िल्म थी, जो मुझे लगता है मेरा अभी तक का सबसे बेहतरीन काम है। उन्होंने बताया कि बहुत सी और अच्छी फ़िल्म की है मैंने, लेकिन सब उसके नीचे है। लेकिन उस फ़िल्म को क्या मिला - घंटा। बुरी तरह से पीट गई, हाँ बाहर दूसरे देश में कुछ अवार्ड मिला लेकिन यहाँ के लोगों ने कूड़े में डाल दिया। उसके बाद मनोज वाजपेयी ने जो कहा वह यहाँ के सिनेमा और साहित्य की धोती खोलता है। उन्होंने कहा - अगर उस फ़िल्म में कोई विदेशी चेहरा होता तो फ़िल्म हिट रहती, बस यही समस्या हुई कि मुझ जैसा देसी शकल का आदमी उस बेहतरीन फ़िल्म का मुख्य किरदार रहा।

बाहर का अच्छा साहित्य पढ़ने में कोई समस्या नहीं है। लोग ख़ुद से पढ़ते हैं, सीखते हैं। टॉलस्टॉय चेखोव की कहानी उपन्यास पढ़ते रहे हैं लोग बिना किसी दिखावे और तिलिस्म के। लेकिन आजकल ये साहित्यिक छपरियों की जो जमात आई है, उसमें भी पुरानी पीढ़ी के बूढ़े लोग ज़्यादा हैं, इनको लगता है कि इनके बनाये भगवान को लोग भगवान कहें। जब देखिए थोपने वाली भाषा लिखते रहते हैं। क्यों, क्यूँकि इन्हें उनके नाम पर अपनी दुकान चलानी है, ठेकेदारी करनी है।

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Tuesday, 24 December 2024

अस्तित्व का खेल

अस्तित्व का खेल

स्कूल के दिनों का समय बच्चों के लिए ग़लतियाँ करते रहने और सीखने का समय होता है। ग़लतियाँ करना और उनसे सीखना ये प्रक्रिया अपने चरम पर होती है। कुछ ऐसी ही एक मामूली सी बात की वजह से एक बार कुछ लड़के जो मेरे से उम्र में और क़द काठी में बड़े थे, वो मेरे घर दोस्त की तरह मिलने आए और मुझे बाहर बुलाया, तब मेरी उम्र क़रीब 10-11 साल रही होगी। उन्होंने कहा कि कुछ बात करनी है और मुझे पास के एक ग्राउंड में ले गए और मुझे और मेरे परिवार को बुरा भला कहते हुए मारपीट किए। उनमें से एक लड़का बाहरी था उसी ने मारपीट की और दूसरे लड़के ने केवल खबरी का काम किया था। मैं उस उम्र में कई-कई दिनों तक तनाव में रहने लगा कि ऐसा भी मैंने क्या किया कि मुझे ऐसे मारा गया, ख़ुद को भी कोसने लग गया कि ऐसा क्या पाप कर दिया कि ऐसे मुझे ज़लील किया गया। भोलापन इतना हावी था, इतना आत्मविश्वास कमजोर हो गया, इतना आघात पहुँचा था। यह भी ख़याल आया कि अपनी इहलीला समाप्त कर दूँ। बालमन था, बहुत गुस्सा भी आ रहा था कि कब क़द काठी से थोड़ा बड़ा हो जाऊँ, इनको जरूर ठिकाने लगाऊँगा।

समय बीत गया, बात आई-गई हो गई। कुछ साल बाद उस खबरी लड़के की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई, लोहे का सरिया उसके शरीर के आर-पार चला गया था। उसकी मौत में जब स्कूल में मौन रखा गया तो मुझे बस बतौर खबरी के रूप में उसका चेहरा याद आ रहा था और मुझे बेहद तकलीफ़ हुई। जिस लड़के ने मारपीट की, उसका बाप कई साल बाद जब मुझसे मिला तो मेरे से उस बेटे के लिए नौकरी के जुगाड़ की बात करने लगा, उस दिन भी मुझे उसकी मारपीट याद आई। अस्तित्व ने शायद उसे जीवन की विद्रूपताएं भोगने के लिए बचा रखा हो। मुझे बहुत समय तक अस्तित्व का खेल समझ नहीं आता था। आगे फिर जीवन में ऐसी और घटनाएँ हुई, जिससे एक चीज़ समझ आई कि पता नहीं कैसे मुझे किसी भी प्रकार से नुक़सान पहुँचाने वालों से अस्तित्व ने उनका सब कुछ छीन लिया। इसलिए अब से हमेशा मैं बार-बार लोगों को नुक़सान पहुँचाने से रोकता हूँ, वो बात अलग है की इस सबसे मुझे ख़ुद बहुत नुक़सान उठाना पड़ जाता है, अस्तित्व ने इसके लिए भले कुछ ना दिया हो, एक मज़बूत रीढ़ तो दी ही है।

मुझे नहीं मालूम

देखता हूँ रोज़ अपने सामने मौत को, 

होते हैं रोज़ आँखों के सामने कत्लेआम, 

लेकिन कहाँ करनी है शिकायत, 

मुझे नहीं मालूम।


सबूत है मेरी आँखें, सबूत है मेरा ये पूरा शरीर, 

जिसने उस कत्लेआम को महसूस किया।

लेकिन कहाँ करना है मुक़दमा, 

मुझे नहीं मालूम।


लोग तड़प-तड़प कर मरते रहते हैं,

और खोजते हैं रास्ते जल्दी से मर जाने के,

आख़िर कहाँ होगी इसकी पैरवी, 

मुझे नहीं मालूम।


शरीर बाद में शून्य होता है, 

पहले मरता है आपका स्वाभिमान,

कहाँ होगी इसकी शिकायत, कौन लेगा अर्जियाँ, 

मुझे नहीं मालूम।


शरीर गल जाने से कहीं पहले, 

मार दी जाती है आपकी सारी कोमल भावनायें,

कौन रखेगा इसका हिसाब, 

मुझे नहीं मालूम।


सबके भीतर होती है अमर हो जाने की लालसा, 

लेकिन उसे एक दूसरा इंसान देता है तनाव और करता है परेशान,

यहाँ तो भीतर से मर चुके इंसान की भी,

किश्तों में मारी जाती हैं कोशिकाएं, 

कहाँ होगा इसका हिसाब, कहाँ करूँ फ़रियाद,

मुझे नहीं मालूम।


साँसों की गति रुक जाने से कहीं पहले, 

साँस चलाने वाले तत्वों पर लगा दिया जाता है लगाम,

दिखाया जाता है आपको नीचा, 

छीन लिया जाता है आत्मविश्वास,

किया जाता है आपका अपमान,

कौन करेगा इसकी सुनवाई,

मुझे नहीं मालूम। 


एक इंसान को झटके से मारने के लिए हैं कुछ सीमित उपाय, 

लटका दो, जला दो या काट दो इस शरीर को,

लेकिन इसी इंसान को किश्तों में मारने के लिए, 

लोग जीवन भर ईजाद करते हैं हिंसा के अनगिनत तरीक़े,

कौन देखेगा यह सब गहराई में जाकर, 

और कैसे तय होगी मृत्यु की परिभाषा,

मुझे नहीं मालूम।


बुद्ध ने निराश होकर दुःख तकलीफ़ को मृत्यु से भी बताया बड़ा,

और ख़ुद ही उससे निपटने के लिए बताए उपाय,

ना कोई दण्ड विधान काम आया, 

न कोई न्याय संहिता सामने आई, 

किश्तों में मिलते दुःखों की पैरवी कहीं कभी होगी भी या नहीं,

उसे भी नहीं मालूम, मुझे भी नहीं मालूम।

Tuesday, 3 December 2024

भ्रष्टाचार - एक तपस्या

भ्रष्टाचार को या एक भ्रष्टाचार करने वाले को हमेशा हिकारत की नजर से देखा जाता है लेकिन वास्तव में देखा जाए तो ये बहुत मेहनत का काम है। अच्छे बड़े स्तर का भ्रष्टाचार करने के लिए कड़ी तपस्या लगती है, बहादुरी लगती है, बड़ा जिगर चाहिए होता है, दिन रात खपना पड़ता है, एक व्यवस्था बनानी पड़ती है, अपना एक इकोसिस्टम बनाना होता है, उसे अनवरत सींचना होता है, इसलिए बहुत कम ही लोग ये काम कर पाते हैं, ये बिल्कुल भी हंसी मजाक की बात नहीं है, बहुत गंभीर होकर ये बात कही जा रही है।

एक सफल भ्रष्टाचारी बेहद स्किल्ड और मेहनती होता है, खूब जोखिम उठाता है, सबसे संपर्क साधकर चलता है, खूब सारे दुनियावी रिश्ते सम्भालता है, लोगों की आर्थिक मदद करने के साथ उनका रुका हुआ काम जल्दी कराने में भी महती भूमिका निभाता है। व्यवस्था की सारी चीज़ों की गहराइयाँ उसे मालूम होती है, उसे जानकारी रखनी पड़ती है क्यूंकि बिना उसके न तो उसका काम बजेगा न ही अपनी सुरक्षा हो पायेगी। हममें से लगभग हर किसी को कभी ना कभी जीवन में कहीं एक सुलझे हुए भ्रष्टाचारी की आवश्यकता पड़ती ही है। क्यूंकि वो हमारी जीवन रूपी दुश्वारियां कम करने में सहयोग करता है।

एक सफल भ्रष्टाचारी चाहे वह किसी भी ओहदे में क्यों ना हो, उसका दायरा बड़ा हो ही जाता है। व्यवस्था का सुचारू रूप से संचालन होता रहे, उसके लिए ऐसे तमाम तपस्वी भ्रष्टाचारियों का होना बेहद जरूरी है।

लोकतंत्र क्या है ?

A - सरकार को कम से कम बच्चों को बख्श देना चाहिए।

B - बच्चों के साथ ऐसा क्या हुआ ?

A - केंद्रीय शासकीय स्कूलों को अपने इवेंट का हिस्सा बना रही।

B - जैसे ?

A - कोई भी शासकीय आयोजन होता है, शासकीय कर्मचारी तो भोगते हैं, स्कूलों को भी उक्त विषय में कार्यक्रम करने कहा जाता है और बच्चों पर खूब दबाव बनाया जाता है।

B - क्या ऐसा पहले नहीं होता था ?

A - मुझे नहीं पता लेकिन बच्चों को इतना परेशान पहले कभी नहीं देखा।

B - एक बात बताओ, क्या पहले आम लोगों को इतना परेशान कभी देखा है?

A - सरकारी प्राइवेट व्यापारी हर कोई परेशान हैं, मुद्रा से संचालित युग है तो हस्तक्षेप बढ़ना है, यह समझता हूँ, लेकिन बच्चों को इससे कम से कम दूर रखना चाहिए ?

B - कैसे दूर रखेंगे, लगेगी आग तो आँच सब तक पहुंचेगी।

A - ये भी ठीक है।

B - यही लोकतंत्र है।

जीवन के प्रति पागलपन

हर किसी के जीवन में एक दो कोई चीज़ ऐसी होती है, जो वह बड़ी शिद्दत से करना पसंद करता है, यूँ कहें कि जिसे वह जान निकलते तक कर सकता है, उस एक चीज़ के लिए किसी भी हद तक जा सकता है, उसका वह एक शौक़ जीने के लिए साँस की तरह ज़रूरी हो जाता है। लेकिन ये वाली साँसें तपकर हासिल करनी पड़ती है, इसलिए इसमें भी एक अपवाद यह कि ज़रूरी नहीं कि जीवन को हर कोई इतनी शिद्दत से जिए।

अभी कुछ दिन पहले कॉलेज का जूनियर अभिनव, जो दोस्त अधिक है वो मैराथन दौड़ने राजधानी आया। इसी बीच हमें साथ में कुछ समय बिताने का मौका मिल गया। अभिनव जो हाल फ़िलहाल में सरकारी अफ़सर बना है, उसने जीवन में ये पहली बार 42 किलोमीटर मैराथन 4 घंटे से कम समय में ही पूरा कर लिया, वह भी बिना सोए रात के 3 बजे गाड़ी चलाकर पहुँचा और बिना किसी ख़ास ट्रेनिंग के यह कर दिखाया।

मैराथन पूरा करने के बाद उसने अपने अनुभव बताए और एक बात कही जो अभी तक मेरे कानों में गूंज रही है। उसने कहा - “ मैंने शारीरिक रूप से अपने आप को पूरी तरह तोड़ लिया, इससे अधिक मैंने कभी अपने आपको इतना इस स्तर तक नहीं थकाया, इससे ज़्यादा मैं कर भी नहीं सकता था। मेरे शरीर में थकान तो है, लेकिन मैं मानसिक रुप से एक ग़ज़ब की अनुभूति अपने भीतर महसूस कर रहा हूँ, मेरा आत्मविश्वास बढ़ा है, ऐसा लगा जैसे मेरे भीतर अभी तक जीवन को लेकर जितना अपराधबोध भरा हुआ था, वह आज ख़त्म हुआ है।”

लोग नौकरी लगने के बाद पार्टी करते हैं, अलग-अलग तरीक़े से ख़ुशी मनाते हैं। लेकिन कुछ विरले ही सिरफिरे लोग होते हैं, जो अपने जुनून को हर पल पागलपन की हद तक जीते हैं, जीवन के प्रति ऐसी सनक जिसके सामने देस काल परिस्थिति कभी बाधा नहीं बनती है। बात सिर्फ़ 42 किलोमीटर दौड़ लगाने की नहीं है, वह तो महज़ एक माध्यम है। बात है उस बहाने ख़ुद के भीतर तक गहरे झाँक लेने की, ख़ुद को उस हद तक तपा ले जाने की जितना कभी किसी और माध्यम में संभव नहीं हो सकता है, बात है पूरे मन शरीर को उस अवस्था में ले जाने की, जहाँ भीतर सब कुछ शांत हो जाता है, आँखें बंद हो जाती है, इंसान अपने अस्तित्व के सबसे क़रीब होता है।

अभिनव ने जो मन हल्का हो जाने की अनुभूति को लेकर बात कही उससे मुझे अपना अकेले मोटरसाइकिल से ठंड में सीमित साधन में भारत घूमना याद आ गया। साथ ही वो दिन भी याद आया जब दिल्ली से रायपुर 1100 किलोमीटर का सफ़र 22 घंटे में ही 150 cc की मोटरसाइकिल में दिसम्बर की कड़कड़ाती ठंड में पूरा किया था। इतनी यातना सही, ख़ुद को इतना तपाया, जितना किसी और माध्यम से नहीं तपा सकता था। इन सबसे ख़ुद की चीज़ों को लेकर मेरी अपनी आस्था दृढ़ हुई।

मैराथन के बाद से हम दोनों थके हुए थे। मैंने कहा कि भाई मुझसे अब एक किलोमीटर भी चला नहीं जाएगा, लेकिन अभी अगर मुझे कोई सुबह से शाम बाइक चलाने को कहे तो वो मैं ख़ुशी-ख़ुशी सब दर्द भूल के कर जाऊँगा। अभिनव ने कहा कि वह भी इस थकान में दौड़ लगा सकता है, आपका माध्यम बाइक है, मेरा माध्यम ये जूते हैं। ठीक इसी तरह शायद किसी का कुछ और भी हो सकता है, कोई पागलपन की हद तक किताबें पढ़ता है, कोई कुछ और करता है। लेकिन एक बहुत बड़ी आबादी ऐसी होती है, जिसके पास जीवन के प्रति अपने भीतर के पागलपन को परिभाषित करने के लिए कोई माध्यम नहीं होता है, कोई रास्ता नहीं होता है। वैसे जिनके पास जीने के लिए अपने हिस्से का पागलपन होता है, उन्हें किसी और के बुने रास्ते पर चलने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

संवेदनशील प्रजाति के मनुष्यों का जीवन और उनकी समस्याएँ-

जो बहुत अधिक संवेदनशील लोग होते हैं, उन पर हमेशा नैतिक मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक दबाव तुरंत असर करता है। उनकी संवेदनशीलता पर ये तीनों दबाव बड़ी आसानी से हावी हो जाते हैं। ऐसे लोगों को अमूमन इनकी उम्र से बड़ा व्यक्ति चाहे वह रिश्ते में इनका कुछ भी लगता हो, वह इन्हें अपना बाप बना लेता है और ख़ुद बेटा बन जाता है, अमुक व्यक्ति पर बाप जैसा मनोवैज्ञानिक दबाव तत्काल बन जाता है।

भारतीय समाज में यह एक ऐसी समस्या है जिसे अगर समय रहते आपने नहीं समझा तो आप शोषित होते रहेंगे और इस चक्कर में अपनी संवेदनशीलता गिरवीं रख जाएँगे।

बहुत अधिक संवेदनशील बच्चों को इस शोषण से बचाने के लिए माता-पिता को चाहिए कि इससे पहले कोई दूसरा आपके बच्चे को बाप के संबोधन का इस्तेमाल कर उसे दिग्भ्रमित करे, उसके कंधों पर बोझ लादे, इससे बेहतर माता-पिता स्वयं अपने बच्चे को माता/पिता बना लें ताकि उसकी नैतिक मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक सुरक्षा हो सके।

अपने आसपास ही परिवार में भी आप देखेंगे तो पाएंगे कि हमेशा एक व्यक्ति ऐसा होता है, जिस पर हर कोई हक से दुनिया जहाँ की जिम्मेदारियों को लाद देता है। किसी का स्कूल कॉलेज आदि में एडमिशन कराना हो, किसी को अस्पताल में भर्ती कराना हो, पैसे उधार देना हो, पारिवारिक कलह का निबटारा करना हो, मौसा फूफा मामा या ऐसे तमाम तरह के दूर के रिश्तेदारों के हर तरह के काम की जिम्मेदारी लेना हो या अन्य इस तरह के ढेरों काम हों, सामाजिक दायित्व हों। यह सब कुछ अमूमन एक किसी महा संवेदनशील टाइप के सिरफिरे व्यक्ति के ऊपर थोप दिया जाता है। अधिकांशतः आप पाएंगे कि ऐसे लोगों में पाचन और नींद की समस्या आजीवन बनी रहती है और यह स्वाभाविक भी है क्यूंकि जब आप एक सीमा और अपनी क्षमता से अधिक जिम्मेवारियों का वहन करते हैं, एक समय के बाद आपके साथ यह समस्या होती ही है।

ईश्वरीय अवधारणा के आधार पर देखें तो इस तरह के लोग ईश्वर को अपनी जेब में लेकर घूमते हैं, क्यूंकि पूरी दुनिया इनका इस्तेमाल कर रही होती है, फिर भी ये किसी को कभी महसूस नहीं करा पाते हैं कि उनके साथ ग़लत हुआ। ये भोगता भाव से ईश्वर की लीला मानते हुए सब कुछ सह जाते हैं।

वहीं तार्किकता के धरातल पर देखें तो वे लोग जो अपने ही व्यक्तित्व की सुरक्षा नहीं करते हैं, घेराबंदी नहीं करते हैं, दुनिया ऐसे लोगों का अपने हित साधने के लिए जमकर इस्तेमाल करती है और महानता का चोगा पहनाकर इन्हें हमेशा नज़रबंद करके रखती है ताकि शोषण की प्रक्रिया अनवरत जारी रहे।

इति।

टाटा कंपनी और हमारी फैंटेसी

टाटा कंपनी की जब भी बात आती है, सबके मन के भीतर से एक सम्मान का भाव उद्वेलित हो जाता है। या यूँ कहें की एक भरोसा कायम हो चुका है, मान्यता स्थापित हो चुकी है यह भाव विस्फोटित होता है। इस एक भरोसे को अमलीजामा पहनाने के लिए, इस मान्यता को इस छवि को स्थापित करने के लिए कंपनी ने खूब निवेश किया है। साथ ही सरकार से हमेशा समय पर फंडिंग और रियायत मिली है जिसने टाटा को एक श्रीमान भरोसेमंद कंपनी की तरह लोगों के बीच स्थापित कर दिया। जब भी इस कंपनी का नाम ज़हन में आता है, आम लोग इसे एक प्राइवेट कंपनी के रूप में नहीं देखते है बल्कि लगातार मिल रहे शासकीय समर्थन से टाटा ने विगत दशकों से ख़ुद को जिस एक लोककल्याणकारी सहकारी संस्था वाली छवि से अंगीकृत किया, वही लोगों को पहले दिखता है। भले वह अपने मूल में एक प्राइवेट कंपनी है लेकिन भावना के स्तर पर वह सहकारिता का तिलिस्म लिए दिखाई पड़ता है। टाटा ने इस तिलिस्म को बनाए रखने के लिए निःसंदेह खूब मेहनत की है।

बतौर कंपनी टाटा के काम का विश्लेषण किया जाए तो पहली नज़र में ही यह दिखाई पड़ता है कि यह एक तरह से सरकार और लोगों के बीच एक सेफ्टी वाल्व का काम करता है। तभी कंपनी बहुत घाटे में भी रही तब भी उसे बड़े-बड़े प्रोजेक्ट मिलते रहे। एक ओर कोई प्राइवेट कंपनी होती है जो खूब मेहनत कर आगे बढ़ती है, लगातार नवाचार करते हुए अपने लिए संसाधन जुटाती है, लेकिन टाटा की कार्यशैली बहुत अलग रही, यहाँ आपको वैसी मेहनत वैसा नवाचार कम ही दिखता है जिस पर विस्तार से आगे इस लेख पर बात करते हैं।

1.सबसे पहले टाटा की अपनी आई टी फर्म टीसीएस की बात करते हैं, इंजीनियरिंग बैकग्राउंड का होने के नाते अभी तक जितने भी दोस्तों को देखा है, उनमें से शायद ही कोई होगा जिनकी प्राथमिकता में ये कंपनी रही है, क्यूंकि इनका वर्क कल्चर बाकी कंपनियों की तुलना में बहुत अच्छा नहीं है, तनख़्वाह भी तुलनात्मक रूप से कम ही देते हैं।

2.टाटा की बहुचर्चित कार नैनो के बारे में हम सब जानते हैं। कार के नाम पर अगर “क्या बवासीर बना कर दिया है” हम कह दें तो यह बिल्कुल भी ग़लत नहीं होगा, आज की तारीख़ में शायद ही कोई होगा जो नैनो जैसी कार में बैठना चाहेगा। इस कार का प्रोजेक्ट ही बुरी तरह से फेल रहा लेकिन चूँकि सरकारी समर्थन प्राप्त है, पीआर मजबूत है, इसलिए घाटे के बावजूद छवि जस की तस बनी रही। यह कार तो रोड में देखने तक को नहीं मिलती है।

3.टाटा की ट्रक और बाकी कार के बारे में संयुक्त रूप से बात कर लेते हैं। सबसे पहली बात यह की इनकी गाड़ियों में कम्फर्ट नाम की चीज़ होती ही नहीं है, दूसरा आवाज़ बहुत करता है, कूड़ा है तो शोर करेगा ही। इसके अलावा इनकी बाक़ी कार में भी हैंडलिंग बहुत ही ज़्यादा ख़राब है, लोग मूर्खता की हद पार कर मजबूती के नाम पर ख़रीदते रहते हैं। इसमें एक सबसे मजेदार बात यह की ख़राब हैंडलिंग के कारण इसके एक्सिडेंट के मामले सर्वाधिक हैं। टाटा की गाड़ियों की आफ्टर सर्विस का हाल सबको मालूम है। सेल्स डिपार्टमेंट की झूठी रिपोर्ट्स भी अब तो सामने ही है।

4.अब अस्पताल पर आते हैं। टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल सरकारी जमीनों पर बने होते है। अस्पताल को ग्रांट भारत सरकार के Department of Atomic Energy द्वारा मिलती है। इसके बाद भी यहां इलाज का खर्च किसी दूसरे प्राइवेट हॉस्पिटल से कम नहीं है। ऐसा क्यों है कि एम्स पीजीआई जैसे हॉस्पिटल की जगह प्राइवेट हॉस्पिटल्स सरकारी जमीन और अनुदान पर खोले जाए।

5.हम सबके घरों में रसोई में सबसे जरूरी चीज़ होती है - नमक।वहाँ भी टाटा का एकाधिकार है। ऐसा क्यों किया गया कि नमक जैसी मूलभूत जरूरत जैसी चीज को एक कंपनी का एकाधिकार बना दिया गया और जो चीज लगभग फ्री में उपलब्ध होनी चाहिए थी उसके दाम निरंतर बढ़ते रहे। इसके साथ ही किसी और को बढ़ने भी नहीं दिया गया।

6.अडानी अंबानी सरकार से मिलीभगत करके अपने बिजनेस में कमाई करते है, कानूनों को अपने हिसाब से उलटते पलटते है तो सबको बुरा लगता है लेकिन यही काम टाटा कंपनी ने किया तो क्यों नहीं यहां पर कोई कार्यवाही हुई या क्यों नहीं किसी को खटका।

7.कोई व्यक्ति छोटा भी बिजनेस शुरू करना चाहता हो उसे लोन आदि के लिए इतने पापड़ बेलने पड़ जाते है कि वह अपना आइडिया ड्रॉप करना बेहतर समझता है लेकिन दूसरी और यही सब लाखों करोड़ों के फंड जमीनें तरह तरह के रास्ते निकाल कर इन सब को उपलब्ध कराए जाते है। इस बिनाह पर न कि देश में छोटे बिजनेस का कल्चर पनप ही न पाए।

8.फिर भी मेरी समझ से बाहर है कि टाटा कंपनी को पब्लिक में इतनी मान्यता किस बात की वजह से है। जबकि अधिकतर लोग टाटा का कोई सामान जल्दी से खरीदते भी नहीं है। और मान्यता भी ऐसी की जैसे टाटा प्राइवेट कंपनी न हो कर सरकारी कंपनी हो। पारसी लोगो का पहनावा सादगी भरा होता है। लेकिन क्या केवल कोई ढीली शर्ट पेंट पहनता हो केवल इसलिए देश का भला करने वाला हो जाता है?

9.यह बात मान लेते है कि उद्योग वाला विकास हमें पसंद है तो बाकी उद्योग कि जैसे घड़ी बनाना, सरिया, स्टील बनाना तो यह सब काम तो और बहुत लोग भी बहुत बढ़िया से करते आ रहे। वैसे ही जैसे टाटा मोटर्स के सामने और कई कंपनियां है जो टाटा से बहुत बेहतर कार आदि बनाती है और लोगों को भी ज्यादा पसंद है। फिर भी देश का भगवान टाटा ही है, आखिर हमें भगवान पालने का इतना शौक क्यों ?

फिर भी कोई बताना चाहे तो बता सकता है कि उसके मन में टाटा को लेकर क्या मान्यता है और उस मान्यता का क्या कारण है। मान्यता का कोई कारण न भी हो तब भी चलेगा।

समय ही भगवान है

135 दिन लगातार भारत घूमने को जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि वह सिर्फ घूमना मात्र नहीं था, बल्कि जिंदगी से मैंने वो 135 दिन अपने लिए चुराए थे, छीन के लिए थे उतने दिन खुद के साथ बिताने के लिए, अपने मन की चीजें करने के लिए, अपनी स्वतंत्रता को जीने के लिए। यह भी समझ आया कि समय का क्या महत्व होता है। उस दौरान बहुत से लोग मिले जो महीनों से घूम रहे थे लेकिन साथ में कुछ काम भी करते रहते थे, लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं था, मैं नौकरी छोड़ के सिर्फ और सिर्फ घूम रहा था, उस एक काम के अलावा मैं कोई भी दूसरा काम नहीं कर रहा था। मुझे अपने जैसा स्वतंत्र तरीके से घूमने वाला एक भी इंसान नहीं मिला, हर कोई कुछ न कुछ अपने साथ लादकर ही घूम रहा था।

एक चीज यह भी समझ आई कि अच्छे से अच्छे दिमागदार और दौलतमंद इंसान के पास भी दुनियावी सुविधाओं और वस्तुओं के नाम पर सब कुछ है लेकिन जीने लायक पर्याप्त समय नहीं है।

उस लंबे सफर ने यही सिखाया कि समय ही भगवान है‌।