Tuesday, 28 January 2025

बस्तर के जंगल आदिवासी समाज और नक्सलवाद

भारत के लगभग हर राज्य में आदिवासी रहते हैं। पूर्वोत्तर के राज्यों में तो आधे से अधिक आबादी में आदिवासी रहते हैं। लेकिन भारत के छत्तीसगढ़ राज्य में बस्तर का इलाका ही नक्सलियों ने क्यों चुना। इसके बहुत से कारण सुनने में आते हैं। पहला यह कहा जाता है कि यह जंगल बहुत घना है, ट्रैक ट्रेस करने में मुश्किल होती है इसलिए नक्सलियों ने अपना ठिकाना यहाँ जमाया। जहाँ तक घने जंगल की बात है तो पूर्वोत्तर के जंगल और पश्चिमी घाट के जंगल के सामने बस्तर कुछ भी नहीं है। दूसरा कारण भूगोल का बताया जाता है कि ओडिशा, आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र इन तीन राज्यों से सीमा है, तो धरपकड़ में दिक्कत होती है। मुझे इस कारण में भी कोई ख़ास दम नजर नहीं आता है। क्रॉस बॉर्डर फोर्स बनाकर आसानी से इस काम को अंजाम दिया जा सकता है बशर्ते अगर सचमुच करने की इच्छाशक्ति हो तब, और नहीं करना है तो बहुत ख़ूबसूरत बहाने हैं।

बस्तर के आदिवासियों में और यहाँ के जंगल में ऐसा क्या है कि दुनिया जहाँ की सरकारें, एनजीओ, समाजसेवी और पत्रकार ये सभी कोई हाथ धोकर लगा हुआ है बस्तर के जंगलों की रक्षा और बस्तर के आदिवासियों का भला करने के लिए। असल में इनमें से किसी को भी ना बस्तर के जंगलों से मतलब है ना ही यहाँ के आदिवासियों से है। आदिवासी पूरे देश में हैं लेकिन अधिकतर लोगों को बस्तर का ही राग क्यों अलापना होता है इसके पीछे गहरे कारण है जिसके लिए तीन चार दशक पीछे जाकर चीज़ों को देखने की जरूरत है।

असल में 70 के दशक में नक्सलबारी से शुरू हुआ आंदोलन जिसका मकसद था बड़े जमींदारों से जमीन छीनकर किसानों और भूमिहीन मजदूरों में बराबर बांट देना। एक तरह से इसके मूल में कृषि सुधार ही था, वो बात अलग रही कि तरीका बहुत हद तक हिंसक था। लेकिन 80 के दशक में यह आंदोलन तो बस्तर आकर पूरी तरह ही बदल गया। ये कुछ वैसा ही था जैसे अन्ना आंदोलन को अपने हित साधने के लिए केजरीवाल ने पार्टी बनाकर इस्तेमाल कर लिया। ठीक इसी तरह नक्सलवाद नाम का दंश बस्तर को 1980 के दशक में मिला, जिसका मूल उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ अपने हितों को साधना था। लेकिन तब बस्तर जैसे दुर्गम इलाके में नक्सलवाद के इन सिपाहियों को ऐसा क्या दिख गया था।

1980 के दशक तक खनन नीतियाँ बहुत कठोर हुआ करती थी। तब क्या मालूम बस्तर की ओर शासन का उतना ध्यान भी ना गया हो। उसी समय से ही नक्सलियों ने इन इलाकों में अपनी पैठ बना ली। वे दूरदर्शी थे, उन्हें पहले से पता था कि बस्तर गोंडवानालैंड का ऐसा इलाका है जहाँ प्राकृतिक संपदा प्रचुर मात्रा में है, और आज नहीं तो कल इसके लिए बंदरबाँट होना ही है। इन सब चीज़ों को देखते हुए उन्होंने पहले ही अपने पैर जमा लिए, और अभी तक जमाए ही हुए हैं, और बैठ कर बढ़िया मिल-जुलकर केवल हिस्सा खा रहे हैं। इन गुजरते सालों में नक्सलियों ने अपना हिस्सा पक्का करने के नाम पर, अपनी दुकान चलाने के नाम पर बस्तर के आम लोगों को यानी आदिवासियों को सिवाय खून-खराबे और दुख तकलीफ़ के और कुछ भी नहीं दिया है। खैर सरकार का भी कुछ-कुछ यही हाल है।

जैसे-जैसे देश दुनिया के सामने बस्तर का नाम आने लगा। लोगों को दिखने लगा कि यहाँ तो अकूत पैसा है। इतने खनिज, इतने अयस्क, सरकार से लेकर पत्रकार समाजसेवी आदि ये लोग, इन सबकी आँखें चौंधिया गई। सबके बीच इसे लेकर गलाकाट प्रतियोगिता शुरू हो गई, जो आज भी बदस्तूर जारी है और आगे भी जारी रहेगी। जब तक बस्तर की पूरी प्राकृतिक संपदा का दोहन नहीं हो जाता है तब तक खून की नदियाँ बहती रहेंगी और इंसानी लालच की वजह से मानवता शर्मसार होती रहेगी।

आज अगर सरकार बस्तर के सुदूर इलाकों तक सड़क पहुँचा रही है, सुरक्षा के लिए लगातार आर्मी के कैम्प लगा रही है , इसके पीछे सरकार की लोककल्याण की भावना कतई नहीं है, बल्कि इन जंगलों से पहाड़ों से अपने काम की चीज़ें हासिल करना है। और इन सब के लिए आर्मी की मदद लेना बेहद जरूरी है क्यूंकि नक्सली पहले ही हिस्सा लेने के लिए घात लगाए बैठे हैं कि एक हिस्सा हमें भी देते चलो।

देश दुनिया का रुझान बस्तर को लेकर बढ़ रहा है। जो बस्तर प्रकृति पूजा किया करता, देश दुनिया के अजीबोगरीब नियम धरम से दूर रहा, वहाँ चुपके से अलग-अलग भगवान पहुँचाये गए, ढोलकल गणेश उसकी ही एक बानगी है। कभी-कभी सोचता हूँ कि काश बस्तर अंचल में इतने खनिज ना होते, लोगों का जीवन बड़ा सुखमय रहता। आज “ राम नाम की लूट मची है लूट सके तो लूट “ की तर्ज पर हर कोई बस्तर को नोच लेना चाहता है। चाहे पत्रकार और समाजसेवी हों, सरकार हो, नक्सली हों, हर कोई अपने हिस्से के लिए धींगामुस्ती कर रहे हैं। और इन सबमें लगातार बस्तर का आम आदिवासी पीस रहा है। कुछ इस तरह बस्तर का खनिज आज यहाँ के आम लोगों के लिए ही अभिशाप बन चुका है।

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