Tuesday, 28 January 2025

पत्रकार मुकेश चंद्राकर को समर्पित

देश में हर कोई आजकल ऊँचा बोलता रहता है, ख़ासकर पत्रकार तो लाउड ही हो चुके हैं, आवाज से भी और अपने तौर तरीकों से भी, पेशे ने ऐसा ही बना दिया है उनको।

लेकिन मुकेश चंद्राकर जिन्हें विगत दिनों में एक ठेकेदार ने मौत की नींद सुला दिया, वह बहुत ही अलग रहा। एक दिन ऐसे ही गलती से यूट्यूब में उनकी वीडियो देखा और दो चार वीडियो देख गया। उनकी आवाज में पता नहीं कैसे वो शोर वो कोलाहल नहीं था, बंदा बड़े आराम से बात करता था, दूसरा पहलू ये कि आवाज में किसी भी प्रकार की बनावट नहीं थी, कृत्रिमता नहीं थी, आज के समय में ये वाक़ई दुर्लभ है।

छत्तीसगढ़ राज्य में वैसे भी सलीके के पत्रकार हैं नहीं, ऐसे में मुकेश का जाना और खल गया, उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता लेकिन उनकी आवाज हमेशा याद रहेगी। अगर छत्तीसगढ़ के लोगों की आवाज कैसी है, उसकी खनक कैसी होती है, उस आवाज की पवित्रता और कोमलता क्या है उसे महसूस करना हो तो मुकेश को एक बार सुना जाना चाहिए।

मृत्यु के ठीक पहले शायद इंसान बहुत कुछ महसूस कर लेता है, देखिए मुकेश ने 20 दिसंबर को अपने आख़िरी फ़ेसबुक पोस्ट में यह लिखा था -

बस्तर, वो कैनवास जिस पर कुदरत ने अपने सबसे सुंदरतम हिस्से को उकेर दिया है और एक प्रश्न स्वर्ग सी सुंदर इस ज़मीन पर सर उठाए पूछता है ;

"सीधे मौत की सज़ा देते हो, वजह क्या है?

मुझे बताओ तो सही, मेरा गुनाह क्या है?"

बहुत ही निर्भीक, जीवट और जुनूनी व्यक्ति रहा मुकेश। उसकी रिपोर्टिंग देखने पर ही समझ आता है कि खूब जोखिम उठाता था। जब भी कोई रिपोर्टिंग करता तो ऐसा लगता जैसे उसका हिस्सा बन गया हो, जैसे उनके बीच का ही कोई व्यक्ति कहानी सुना रहा। अंतिम छोर तक जाकर लोगों के दर्द को उनकी पीड़ा को गला भरते तक महसूस करता था और उसे ही जस का तस लोगों तक पहुंचाता था। कितना सरल, कितना सहज, इतना निश्चल, निष्कपट और असामान्य। उसके चेहरे की भाव भंगिमा बोलती थी और उसके भीतर के अटूट मानवप्रेम को सहज ही सामने ला देती थी।

जीवन के प्रति अपार प्रेम से भरा भूरा था मुकेश, शायद इसलिए भी वह व्यवस्था की क्रूरता को समझ नहीं पाया और ऐसी घटना का शिकार हो गया और हम सब के कंधों पर हमेशा के लिए एक बोझ दे गया, बोझ इस व्यवस्था के चरम घिनौनेपन का, जिसकी नींव को हम ही आए दिन खामोश रहकर मुंह मोड़कर मजबूती देते रहते हैं।

एक ऐसे समय में जहाँ हमने दुखों को महसूस करना ही छोड़ दिया है, कोई दुर्घटना हो, मृत्यु हो, अपराध हो, हमें महसूस ही नहीं होता है, हम ना जाने किस अंधी दौड़ में लगे हैं कि किसी की मौत भी हमें हिला नहीं पाती है, ऐसे समय में मुकेश जैसे जिंदादिल लोगों के बारे में बताना, उसे दर्ज करना बेहद जरूरी है।

मुकेश हमेशा अपने नाम के अर्थ को चरितार्थ करता था। बतौर स्वतंत्र पत्रकार वंचित पीड़ित लोगों के लिए एक दुःखहर्ता की तरह था, बस्तर के गुमनाम लोगों की आवाज था वो। छत्तीसगढ़ में इस जैसा पत्रकार ना हुआ ना होगा।

मुकेश शायद जानता ही होगा कि व्यवस्था ऊपर से नीचे कैसी है। 120 करोड़ के रोड के ठेके में बरती गई अनियमितता को लेकर रिपोर्टिंग की उसके बाद से उस टेंडर को लेकर जाँच बैठ गई थी। यानी मुकेश यहाँ न्याय का पहरुआ तो बना ही लेकिन सीधे-सीधे ठेकेदार का आर्थिक नुक़सान करने वाला व्यक्ति बन गया। मुकेश चाहता तो बाक़ी और पत्रकारों की तरह कुछ पैसे लेकर शांत बैठ जाता और अपना रूटीन काम करता, लेकिन उसके भीतर पूरी व्यवस्था को ठीक करने की सनक थी।

जिस व्यवस्था के सामने आज रोकर चीखकर हाथ जोड़ते हुए उसका परिवार उसके लिए न्याय माँग रहा है, उसी व्यवस्था ने मुकेश के क़ातिलों को टेंडर जारी किया और मुकेश ने उसकी गड़बड़ी पर रिपोर्टिंग की। जो भी अपराधी हैं, उस जैसे ठेकेदार लोग हर गली मुहल्ले कस्बे जिले में होंगे जिन्हें आप हम आए रोज देखते हैं। जिनकी पहुँच व्यवस्था के सर्वोच्च पायदान तक होती है, आख़िर आप कितनों से लड़ लेंगे, कितनी ही व्यवस्था बदल लेंगे।

120 करोड़ की सड़क का काम 56 करोड़ में होने की बात आई और उसमें भी ख़राब गुणवत्ता रही। बाक़ी 64 करोड़ क्या सिर्फ़ उस क़ातिल ठेकेदार के पास गया होगा, अजी बिल्कुल नहीं। एक हिस्सा सीएम हाउस गया होगा, एक हिस्सा लोक निर्माण विभाग का मंत्री, एक हिस्सा स्थानीय विधायक सांसद आदि, एक हिस्सा जिलाधीश, एक हिस्सा पीडब्ल्यूडी के उच्चाधिकारी, एक हिस्सा ठेकेदार और बाकी बचा खुरचन निचले पायदान के लोग। इसमें आप किस-किस से लड़ लेंगे, इसका फैसला आप ही करिए क्यूंकि ये जालिम व्यवस्था ऐसी ही है और ऐसी ही रहेगी। ठेकेदार को हम सूली पर चढ़ा कर न्याय की इतिश्री कर लेंगे लेकिन जो मोटा हिस्सा ऊपर तक दर्जनों लोगों तक गया, जिस व्यवस्था ने अंतिम पंक्ति के ठेकेदार को इस भ्रष्टाचार का केंद्र बिंदु बना दिया उन पर कभी कोई सामाजिक कार्यकर्ता कोई पत्रकार बात नहीं करता है, क्यूंकि उसके लिए रीढ़ चाहिए होती है जो किसी के पास है नहीं।

मुकेश के आख़िरी फ़ेसबुक पोस्ट जिसमें वह “सीधे मौत की सजा देते हो” ऐसा कह रहा है, वह शायद इस सच को पहले ही देख चुका था कि उसने अपने लिए मृत्यु को चुना है। मुकेश शायद इस सच के सामने टूट चुका होगा कि कोई उम्मीद की किरण दिखती ही नहीं, जो रसूख वाला है, उसी का राज है, वह जैसा चाहे वैसे व्यवस्था को नचा सकता है, ऐसे में इंसान के पास मरने के अलावा और क्या ही विकल्प बचता है। जिद से भरे मुकेश ने भी सोचा होगा कि अब या तो मैं रहूँगा या आप। लेकिन निराश मन से बस यही कहना है कि बलिदान मुकेश दे गया, लेकिन इससे उसके गुनहगारों को कुछ ख़ास नहीं होने वाला है, एक किसी को सजा हो भी गई तो ऐसे लोगों की कमी नहीं है, हर जगह यही भरे पड़े हैं। नुक़सान ख़ुद का ही है, सामने वाले का तो कुछ होना नहीं है। कुछ दिन बाद आप हम भी यह सब भूलकर अपनी चीज़ों में व्यस्त हो जाएँगे।

बहुत साल पहले कुछ लिखा था उसकी वजह से मुझे घर से उठा लेने की धमकी मिली थी। घरवालों ने तब क़सम दिलाया था कि अब से कुछ भी ऐसा नहीं लिखेगा जिससे हमें तकलीफ़ हो। उस समय मेरे एक दोस्त ने मुझे कहा था - कभी भी कुछ ऐसा मत लिखो जिससे सामने वाले का आर्थिक नुकसान हो, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष किसी भी तरीके से किसी के आर्थिक नुकसान का भागी मत बनो। इंसान की आलोचना करो, बुरा भला बोलो, वह सब भूल जाएगा। लेकिन मुद्रा से संचालित आज के युग में इंसान अपना आर्थिक नुकसान कभी नहीं भूलता है और इसमें आपको व्यक्तिगत रूप से सर्वाधिक जोखिम उठाना पड़ सकता है। मैं आज भी पूरी बेशर्मी के साथ जीवन के इस यथार्थ को जी रहा हूँ।

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