मार्केज नाम का एक लेखक हुआ। उसने अपने समय One hundred years of solitude नाम की एक किताब लिखी। जिस पर अभी हाल फ़िलहाल में एक वेब सीरीज बनी है, कल ही बड़ी मुश्किल से वेब सीरीज ख़त्म की, मुझे बहुत ही औसत लगी। लेकिन साहित्यिक बिरादरी में लोग जिन्होंने मार्केज को एकदम हीरो बनाकर रखा हुआ है, वो इस औसत वेब सीरीज का राग अलापने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। मजे की बात यह कि इस महान वेब सीरीज के बारे में भी इन मूर्धन्य साहित्यकारों से ही पता चला, वरना इसे देखने की कृपा से तो हम वंचित ही रह जाते।
जहाँ तक जादुई यथार्थवाद की बात है, वह भी ऐसा है कि मार्केज़ ने एक ऐसी स्क्रिप्ट लिख दी किताब में, जिसमें ढेरों किरदार हैं। मैं तो किताब पूरी कभी पढ़ ही नहीं पाया, कौन कॉपी पेन लेकर तीन पीढ़ी के इतने किरदारों का नाम याद रखता चले। कुल मिला के बहुत जटिल बोझिल सी किताब लगी मुझे। किताब का अपना साहित्यिक एप्रोच अच्छा है, कल्ट लिखा है बंदे ने, गहराई में जाकर व्याख्या की है, जादुई यथार्थवाद परोसा है जो हमारी दादी दादा बचपन में सोते समय कहानियों के रूप में परोसा करते थे। इसने सबको जोड़ के गुलदस्ता बनाया है। अब उस समय किताब के रूप में लोगों के लिए ये चीज़ नई थी तो लोगों ने बाहें फैलाकर स्वागत किया और अगले को हीरो बनाया। लेकिन भारत के तथाकथित साहित्यकारों ने तो इसे मानो भगवान का ही दर्जा दे दिया, ऐसा भगवान जिसे सिर्फ़ वही अच्छे से जानते हैं। भारत के और दुनिया के और देशों में बहुत से लोग आज की तारीख़ में मार्केज से कहीं बेहतर कल्ट लिख रहे हैं, लेकिन वही है उस पर कोई चर्चा नहीं होगी क्यूँकि इससे भारत के उन साहित्यकारों की ब्रांड वैल्यू नहीं बनेगी।
भारत के तथाकथित साहित्यकार अपने तिलिस्म को बनाये रखने के लिए एक माहौल बनाकर रखते हैं, उसमें खुद भी डूबकर अपने को सबसे ऊंचा रखने का दिखावा करते हैं। मार्केज बतौर साहित्यकार ठीक आदमी है, अच्छी किताब लिखा है, वहाँ के लोग बड़ी सहजता से उसको स्वीकारते हैं, लेकिन यहाँ हिंदी के कुछ साहित्य के लंबरदारों ने तो ऐसे कुछ लेखकों को भगवान ही बना दिया है। चाहे मार्केज हों, काफ़्का हों, गोर्की हों, कुन्देरा हों या और कोई ऐसा ही बाहर का लेखक। वो उनके अपने देश में बहुत सामान्य चीज़ होगी। प्रेमचंद टाइप हर कोई उनको जानता होगा और थोक के भाव में पढ़ के ख़त्म कर लेता होगा। लेकिन यहाँ के साहित्य बिरादरी के लोग ये दो चार बाहरी लोगों को उठा लेते हैं जिनके बारे में बहुत कम लोगों को पता हो और उसे ही भगवान बना लेते हैं कि इस महान आदमी को आपने नहीं पढ़ा तो आपका जीवन व्यर्थ है, कुछ इसी इसी तरह ये अपनी दुकान चलाते फिरते हैं। वो तो धन्य है कि सोशल मीडिया की वजह से इनका अस्तित्व है, वरना तो इनको कोई पूछता भी नहीं, ये तथाकथित साहित्यकार दफ़न रहते और इस तरह से भौंडा तिलिस्म परोसकर लोगों को दिग्भ्रमित ना करते।
मनोज वाजपेयी की एक फ़िल्म है - गली गुलियाँ। मनोज ने बताया कि वो एक ऐसी फ़िल्म थी, जो मुझे लगता है मेरा अभी तक का सबसे बेहतरीन काम है। उन्होंने बताया कि बहुत सी और अच्छी फ़िल्म की है मैंने, लेकिन सब उसके नीचे है। लेकिन उस फ़िल्म को क्या मिला - घंटा। बुरी तरह से पीट गई, हाँ बाहर दूसरे देश में कुछ अवार्ड मिला लेकिन यहाँ के लोगों ने कूड़े में डाल दिया। उसके बाद मनोज वाजपेयी ने जो कहा वह यहाँ के सिनेमा और साहित्य की धोती खोलता है। उन्होंने कहा - अगर उस फ़िल्म में कोई विदेशी चेहरा होता तो फ़िल्म हिट रहती, बस यही समस्या हुई कि मुझ जैसा देसी शकल का आदमी उस बेहतरीन फ़िल्म का मुख्य किरदार रहा।
बाहर का अच्छा साहित्य पढ़ने में कोई समस्या नहीं है। लोग ख़ुद से पढ़ते हैं, सीखते हैं। टॉलस्टॉय चेखोव की कहानी उपन्यास पढ़ते रहे हैं लोग बिना किसी दिखावे और तिलिस्म के। लेकिन आजकल ये साहित्यिक छपरियों की जो जमात आई है, उसमें भी पुरानी पीढ़ी के बूढ़े लोग ज़्यादा हैं, इनको लगता है कि इनके बनाये भगवान को लोग भगवान कहें। जब देखिए थोपने वाली भाषा लिखते रहते हैं। क्यों, क्यूँकि इन्हें उनके नाम पर अपनी दुकान चलानी है, ठेकेदारी करनी है।
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