पिछले कुछ सालों में बाकी अन्य लोगों की तरह ही मैंने भी अनेक परिजनों को देखने, हाल-चाल जानने अस्पताल का चक्कर लगाया। अलग-अलग तरह की बीमारियों से लोगों को जूझते संघर्ष करते देखा, समझ नहीं पाया कि क्या छोटा क्या बड़ा है। सबके अपने दुःख, सबकी अपनी समस्याएँ। शारीरिक दुःख की बात करें तो दशक भर पहले एक व्यक्ति मिला था, सेमी प्राइवेट वार्ड में एक परिचित के साथ था, उसका दोनों पांव ट्रक के नीचे आ गया था, तो बुरी तरह से चकनाचूर हो गया था। उसके दोनों पांवों को मांसपेशियों के भराव के लिए जोड़ दिया गया था, जब भी उसके घांव की मरहम पट्टी की जाती, उसे इतना दर्द होता कि वह रो पड़ता। शारीरिक रूप से मजबूत लड़का था, एकदम जिंदादिल। जैसे ही उसका मिनट भर का दर्द जाता, वह फिर से जोक मारने लग जाता, एकदम खुश, एकदम स्वस्थ, कोई चिंता नहीं, कोई तनाव नहीं। एक और परिचित कीमोथेरेपी वाले थे, उनका शारीरिक दु:ख तो इससे भी अधिक असहनीय था, उस बारे में लिख कर बता पाना संभव नहीं है। हार्ट अटैक, किडनी डायलिसिस संबंधी मामले, तीन चार तरह के पैरालिसिस, इतने अलग-अलग तरह के रोगों से लोगों को जूझते देखने के बावजूद मैंने सबसे भयानक रोग मनोरोग को पाया। पता नहीं क्यों तनाव संबंधी बीमारी मुझे सबसे डरावनी लगती है। अपने आसपास कई ऐसे लोग देखे हैं जो आजीवन तनाव लेते-लेते ही मर खप जाते हैं लेकिन उनके अपने तनाव का कोई समाधान हो ही नहीं पाता है। उसी मानसिक तनाव की वजह से दुनिया जहाँ की गंभीर बीमारियों से उनका शरीर घिर जाता है। कोई एक शारीरिक बीमारी है, उससे एक ही व्यक्ति जूझ रहा होता है, बाकी परिवार जन उसकी सेवा सुश्रुषा में लगे रहते हैं लेकिन एक तनाव से पीड़ित व्यक्ति अपने अलावा असंख्य लोगों को मानसिक आघात पहुंचाने की क्षमता रखता है। यह अपने आप होता है, कुछ अलग से करने की आवश्यकता नहीं होती, सिंक (sync) हो जाता है। जैसे कोविड फैलता है, कुछ कुछ वैसा ही है, कोविड की तो ट्रेसिंग हो भी जाती है, यहाँ वह भी नहीं हो पाता है। दुःख है, दुःख का कारण है, लेकिन कारण का निवारण आजीवन हो ही नहीं पाता है, क्योंकि उस दुःख को देखने समझने वाला कोई नहीं होता है। तथागत बुध्द ने ऐसे ही दुःख को बार-बार परिभाषित नहीं किया होगा, तभी उन्होंने आजीवन मृत्यु से भी ज्यादा जोर दुःखों को परिभाषित करने पर दिया।
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