Sunday, 8 January 2023

लड़कियों द्वारा छोटी उम्र में रिश्तों में आ जाना -

पिछले दस बारह साल के अनुभवों से, अपने स्तर पर की गई केस स्टडी से एक बहुत गंभीर बात कहने जा रहा हूं‌। ( खैर, फेसबुक में अब गंभीर बातें रखने लायक स्पेस नहीं रह गया है लेकिन और कोई विकल्प भी नहीं है )

अधिकांश लड़कियाँ जो बहुत छोटी उम्र में रिश्तों में आ जाती हैं, या भागकर शादी कर लेती हैं, जिन्हें समाज तरह-तरह के विशेषणों से नवाजता है। उनमें से अधिकतर लड़कियों ने परिवार में समाज में अपने करीबी लोगों से बैड टच/शारीरिक शोषण झेला ही होता है, सबकी अपनी परिस्थितियाँ भिन्न-भिन्न हो सकती है लेकिन अधिकतर यही होता है। परिवार में अगर जैसे तनाव भरा माहौल रहता है, तो बच्चियाँ महिलाएँ बहुत आसान शिकार बन जाती हैं, उनके चरित्र की बलि सबसे पहले लगती है। 

स्कूल काॅलेज में जाकर बहुत कम समय के लिए लड़कों से रिश्ते रखकर अपनापन खोजने वाली, फिर उसके बाद दुःखों के एक चैन को सतत जीने वाली अधिकतर लड़कियों ने बचपन में कम अधिक कुछ न कुछ ट्रामा झेला ही हुआ था। कुछ लोगों ने यह तक कहा कि जब परिवार का ही एक व्यक्ति मुझे मांस का टुकड़ा समझता है, जिसका विरोध कर खुद को सही साबित करना भी मुश्किल है, इससे बेहतर तो यही है कि इस मांस के टुकड़े को हमेशा के लिए किसी ऐसे व्यक्ति के सुपुर्द कर दूं जो बदले में मुझे इंसान समझ के सम्मान तो करेगा। घर से भाग जाने वाली अधिकांश लड़कियाँ चरित्रहीन नहीं होती हैं, अपने चरित्र की रक्षा हो सके इसलिए भाग जाती हैं। एक किसी ने कहा कि बचपन के ट्रामा ने भीतर इतना विषवमन कर दिया कि एक छोटी उम्र से हमेशा एक सपोर्ट सिस्टम की तरह किसी से बात करते रहना जरूरी विकल्प हो गया। लड़कियों को एक उम्र के बाद अपनी माताओं से ट्रेनिंग मिलती है कि विपरित लिंग के प्रति आकर्षण को समझा जाए, उसके प्रति सहज हुआ जाए, एक‌ निश्चित दूरी बना कर रखी जाए। कुछ लोग सौभाग्यशाली होते हैं, उन्हें सही माहौल मिल जाता है, हर तरह की सुरक्षा रहती है, एक इमोशनल सपोर्ट सिस्टम लगातार उनके पीछे काम‌ कर रहा होता है, उन्हें कोई चाइल्डहुड ट्राॅमा नहीं झेलना पड़ता है, परिस्थितियां उनके अनुकूल होती हैं (ऐसे लोग मैंने विरले ही देखे), लेकिन अधिकतर लोगों के भाग्य में ऐसा नहीं होता है। 

घायल व्यक्ति बहुत जल्दी खड़ा नहीं हो सकता है, वह कहाँ कितना भीतर से टूटा है, उसे खुद मालूम नहीं होता है, इस उहापोह में वह जल्द से जल्द ठीक होने की जद्दोजहद में सहारे की आस रखता ही है। जिन्होंने लगातार वास्तविक दु:ख/पीड़ा/ट्रामा झेला होता है, उन्हें आभासी क्षणिक सुख का अहसास ही वास्तविक चिरस्थायी प्रतीत होता है, और दुःखों की यह सीरीज अनवरत चलती रहती है। कई बार वास्तविक सुख भी मिल जाता है, लेकिन अपवाद स्वरूप ही ऐसी घटनाएँ होती हैं। 

प्रकृति का भी अपना एक साम्य होता है, समाज कितना भी डिजिटल हो जाए समाज उसी साम्यावस्था में ही चलता है, जैसा सदियों से चल रहा है। सोचिए एक छोटा सा बच्चा, जिसने अभी-अभी चलना शुरू किया, वह किसी चीज से नहीं डरता है क्योंकि उसमें सही गलत किसी भी चीज की समझ विकसित नहीं होती, उस उम्र के बच्चे को आप कितना भी नियम कानून गिनाइए, घूर लीजिए, उसे फर्क ही नहीं पड़ता है। फर्ज करें कि उस उम्र के बच्चे के, उस सोच को एक‌ युवा वाली ताकत मिल जाए तो क्या होगा, वह जैसे खिलौने बिखेरता है, उस स्तर का विध्वंस पूरे विश्व में हो जाएगा। यही प्रकृति का साम्य है, जैसे कोयल को कण्ठ मिला तो रूप छिन लिया, मनुष्य को भी कोई क्षमता मिली है तो उसकी अपनी सीमाएं भी साधी गई हैं ताकि प्रकृति का अपना साम्य बना रहे और उसी में जीवन का अपना सुख भी है। आप कोशिश कर लीजिए उस साम्य के खिलाफ जाने की, आप दुःख, तनाव से आजीवन घिरे रहेंगे, सब कुछ होकर भी कुछ नहीं होगा, धंसते चले जाएंगे। जब-जब व्यक्ति इस साम्यावस्था के खिलाफ जाता है, साम्यावस्था की इस कड़ी से टूटकर अलग होने लगता है, तब जाकर वह गलती करता है, तब जाकर ही तमाम‌ तरह के अपराध समाज में होते हैं।

No comments:

Post a Comment