Sunday, 31 July 2022

Ranveer singh nude photoshoot

हकीकत तो यह है कि रणवीर सिंह जो करता है ऐसा किसी और में करने की हिम्मत ही नहीं है। बात सिर्फ न्यूड फोटोशूट की नहीं है, बात है नैतिकता और तमाम वर्जनाओं को ढेंगा दिखाने की। आप उस इंसान का ड्रेसिंग सेंस देखिए, वो बंदा कभी ट्रेंड फाॅलो नहीं करता है, जो मन आए कुछ भी पहन लेता है, कुछ भी मतलब कुछ भी, एकदम‌ खर्रा आदिम। बहुत लोगों से मैंने यह सुना है कि बंदा फुल एनर्जी में रहता है, सीधी बात कहता है लेकिन उसे कपड़े पहनना नहीं आता। सीधा कहो न तुम्हारी आँखों को चुभता है उसका ड्रेसिंग, क्योंकि आप भी उसे ट्रेंड में देखना चाहते हैं। 

उसके मजाकिया और सीधी बात कहने वाले रवैये के कारण उसे अगंभीर तक कहा जाता है, इस पर यही कहना है कि ओढ़ी हुई बीमार मानसिकता वाली गंभीरता का दिखावा वह नहीं कर पाता है। रणवीर सिंह कलाकार आदमी है, उसकी अपनी कला वाली फील्ड है, उसने जो किया है, उसे आर्ट कहा जाता है, अब जिनको कला की समझ नहीं है, ऐसे लोग ही उसका विरोध कर रहे हैं, इतने खलिहर हैं कि कपड़ा दान करने का आयोजन कर चटकारे ले रहे हैं। 

ठीक है एफआईआर हुई है, अश्लीलता कहा जा रहा है, चलो मान लिया अश्लीलता है। लेकिन इन अक्ल के दुश्मनों को वहाँ अश्लीलता नहीं दिखाई देती जब सरकार बहादुर दैनिक जीवन की जरूरतों पर इफरात टैक्स लगाती है, लोगों की निजता पर हमला करने, उनको कंट्रोल करने के लिए वीपीएन बैन करने पर उतारू है, रेल्वे में सीनियर सिटीजन की छूट खत्म कर रही है। कोरोना काल में हमने अपने आसपास के कितने लोगों को खो दिया लेकिन सरकार ने उन्हें कोरोना से हुई मौत मानने से ही इंकार कर दिया, इस देश में इससे भी अश्लील कुछ हो सकता है क्या? ऐसा बहुत कुछ होता रहता है, लेकिन यहाँ न तो कोई संस्कृति भ्रष्ट होती है, न ही किसी को अश्लीलता दिखाई देती है। नियत के स्तर पर सोच के स्तर पर इंसान हर सेकेण्ड स्खलित होता रहेगा लेकिन अश्लीलता तो सिर्फ रणवीर सिंह ने ही की है। 

Friday, 29 July 2022

अपने अपने नशे -

मई जून की भीषण गर्मी और जुलाई अगस्त की बारिश में भी अगर किसी को लगातार घूमना पड़ रहा है तो सोच कर देखिए ऐसे व्यक्ति के जीवन में कितना अधिक तनाव होगा। आप ऐसे व्यक्ति से कहें कि कुछ दिन एकांत में अपने साथ बिता ले तो शायद वह अपने दोनों हाथों से अपने सारे बाल नोंच ले, अपना सर दीवार पर दे मारे या ऐसा ही बहुत कुछ, तो घूमना तो इससे बेहतर ही विकल्प है, इससे तनाव खत्म तो नहीं होता है, हाँ कुछ समय के बस डेट खिसक जाती है। सबके लिए नहीं पर एक जनरल बात कही जा रही कि हमारे अपने भीतर का मानसिक तनाव हमसे क्या-क्या नहीं करवा देता है। इंसान भीतर इतना अधिक तनाव लेकर चल रहा होता है, उस तनाव से खुद को बचाने के लिए वह कुछ तो करता ही है, शांत कहाँ रह पाता है, सहज होकर तो वैसे भी कुछ नहीं होता है। 

इसमें देखने में यह आता है कि इंसान तनाव दूर करने के लिए बहुत से अलग-अलग प्रक्रम करता है। 
जैसे :
कोई अनैतिक संबंधों को जीता है, 
कोई स्क्रीन में गेमिंग सर्फिंग आदि करता है, 
कोई शराब कोकेन गाँजा आदि नशीले पदार्थों का सहारा लेता है, 
कोई पेशेवर तरीके से कुछ एक खास फिल्मों, किताबों के बीच मशगूल रहता है, 
मोबाइल में रील, व्लाॅग, आदि में समय खपाकर खुश होने की जुगत में रहता है,
तो कोई गोयन्का के विपश्यना, सद्गुरू के इनर इंजीनियरिंग या श्री श्री रविशंकर के शिविर का हिस्सा बन जाता है, 
ऐसा ही बहुत कुछ होता है। 
लेकिन क्या इन सबसे तनाव दूर होता है या और बढ़ता है??

मूल बात तो यह है कि एक झटके में डोपामाइन पा लेने की चाह व्यक्ति के स्वादानुसार कुछ भी करा ले जाती है। इनको वास्तव में तानों या उपहास की नहीं बल्कि बहुत अधिक केयर की जरूरत होती है। अपनी मनोस्थिति को लेकर इतना जागरूक/संवेदनशील होता भी नहीं है कि किसी विशेषज्ञ से परामर्श ले। इसीलिए हमें चाहिए कि एक जिम्मेदार नागरिक की तरह हम खामोशी से सबके भीतरी तनाव का, और उस तनाव से खुद को संभालने के लिए किए जा रहे नशे का, नशे के डोज का सम्मान करें, उनका थोड़ा भी मजाक न बनाएं, सबके जीवन का बराबर सम्मान करते चलें। इससे ज्यादा हम कुछ कर भी नहीं सकते हैं।

बच्चों की सफाई करने को लेकर चर्चा -

एक बार एक महिला मित्र से बच्चों को लेकर चर्चा हो रही थी। उन्होंने कहा कि छोटे बच्चे यूरिन करते हैं, उसकी सफाई तो मैं कर सकती हूं लेकिन मलत्याग करेंगे तो मैं साफ सफाई नहीं कर सकती। मैंने पूछा कि कल जाकर आपके अपने बच्चे हुए, तब आप कैसे करोगे। उनका जवाब रहा - नौकरानी रख लूंगी, मुझे यह अटपटा लगता है, मुझसे नहीं होगा ये कभी। मैंने कहा - जब आपको अपने ही बच्चे की सफाई करने में इतनी शर्मिंदगी महसूस हो रही है तो जो आप नौकर रखेंगी वह अपनेपन से सफाई कर देगा, इसकी आप कैसे गारंटी ले सकती हैं। उनका कोई जवाब नहीं आया। आपके माता पिता ने बचपन में ऐसा सोचा होता तो...ऐसी बहुत सी बातें आ रही थी लेकिन आजकल दोस्त यार भी थोड़े में आहत हो जाते हैं इसीलिए जाने दिया।

समझ नहीं आता बच्चों के प्रति इतनी हिंसा आखिर क्यों?
हर कोई मलत्याग करता है, आप सफाई करना सीख गये हैं, बच्चे इसके लिए विकसित नहीं हुए रहते तो उनके साथ इतनी बेरूखी???
अगर बच्चों में सचमुच क्षमता होती तो वे किसी का सहारा लेते ही नहीं, खुद ही अपना सब कुछ कर लेते। वैसे भी बच्चे यह सब अपने आप सीखते जाते हैं, बस उनको एक डायरेक्शन चाहिए होता है। 

Thursday, 28 July 2022

बहुसंख्य आबादी के बीच छिपे हुए लोग -

हम बहुसंख्य आबादी को हमेशा नजर अंदाज करते हैं और जो एक कोई ऊंचाई को छू लेता है उसे ही सर्वश्रेष्ठ या उसे ही सबसे बड़ा अपराधी मानते हैं। 

जैसे उदाहरण के लिए प्रतियोगी परीक्षाएँ होती हैं, लाखों लोग शामिल होते हैं, बमुश्किल 500 लोगों का चयन होता है, उपस्थित परीक्षार्थियों में से चयनित परीक्षार्थियों का प्रतिशत 0.1 से 0.5% या 1% तक का ही होता है। अब इसमें भी जैसे मोटा-मोटा 50% तो नौसिखिए होते हैं, जो बिल्कुल अगंभीर होते हैं, इनको हटा देते हैं, उसके बाद जो थोड़े कम गंभीर नौसिखिए होते हैं, 25% उनका भी हटा देते हैं, बचे हुए 24% में 10% और लोगों को भी हटा देते हैं जो अपना सर्वस्व नहीं देते हैं, लेकिन इनकी कोशिश भी कोई बहुत खराब नहीं होती है, फिलहाल के लिए इनको भी किनारे कर लेते हैं। अब जो बचे हुए 14% हैं, ये तो पूरी गंभीरता से अपना सर्वस्व झोंक कर लगे होते हैं, यह भी उतने ही योग्य होते हैं, जितने कि वे लोग जिनका चयन होता है, क्या पता उनसे अधिक भी योग्य हो सकते हैं, होते भी हैं, लेकिन चूंकि मामला छंटनी का होता है, अधिक से अधिक लोगों को न लेने का गणित होता है, इसीलिए ये पीछे छूट जाते हैं, इनको इनकी योग्यता का‌ प्रमाण पत्र नहीं मिल पाता है। इसका अर्थ यह तो नहीं कि ये योग्य नहीं होते हैं या मेहनत नहीं करते हैं, नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं है। 

अब एक‌ अपराधी की बात करते हैं, जो चोरी, डकैती, बलात्कार, हत्या या अन्य किसी तरह का अपराध करता है। बहुत कम ही लोग होते हैं जिनके द्वारा की गई घटना संज्ञान में ली जाती है, उन्हें सजा दी जाती है, हमें बस वही सीमित लोग ही अपराधी के रूप में दिखाई देते हैं। 
- इनका प्रतिशत भी ऊपर लिखे गये प्रतियोगी परीक्षाओं में चयनित परीक्षार्थियों जैसा 1% तक ही माना जाए, बाकी का प्रतिशत हम छोड़ देते हैं। 
- कुछ ऐसे होते हैं, जो किसी कारणवश पुलिस की गिरफ्त में नहीं आ पाते हैं। (14%)
- कुछ ऐसे भी होते हैं जो भले घटना को संपूर्णता में अंजाम न दे पाते हों लेकिन प्रयास पुरजोर करते हैं लेकिन चूक जाते हैं। (10%)
- कुछ ऐसे भी होते हैं जो आजीवन हिंसा के अनेकों छुटपुट घटनाओं को अंजाम देते रहते हैं या प्रयास करते रहते हैं। (25%)
- कुछ ऐसे भी होते हैं जिनके मन में हिंसा नामक बीज हमेशा पैदा होता रहता है लेकिन उसको धरातल में कभी नहीं लाते हैं। (50%)

Sunday, 17 July 2022

अपने अपने ईश्वर -

एक मानसिकता है, एक सैध्दांतिकी है, जिसे इंसान धुरी बनाकर उस पर घूमता रहता है। इसमें अपनी जरूरतें केन्द्र में होती हैं। जैसे पुराने समय में किसी को युध्द में या शिकार में जाना होता था, या पुत्र प्राप्ति या किसी असाध्य रोग से मुक्ति चाहिए होती थी तो वे किसी जानवर या नरबलि तक की प्रथा वाली सैध्दांतिकी को मजबूती से जीते थे। 

आज भी इस सैध्दांतिकी को अपने आसपास अलग-अलग रूपों में पल्लवित होते हुए देखा जा सकता है। समय बदला है, इंसान को न‌ पहले जैसे युध्द करना है न ही जंगल में जाना है। आज उसकी भूख, उसकी जरूरतें, उसका लालच अलग है। लेकिन वह किसी एक प्रचलित नियम‌ को, आस्था के पैटर्न को मानने का कष्ट उठाता रहता है, क्योंकि बदले में वह तरह-तरह के‌ अपराध/हिंसा करता है, अनैतिकता को जीता है।

हम सबने अपने आसपास किसी न किसी यौन कुण्ठित व्यक्ति को देखा ही होता है। सबकी बात नहीं कही जा रही लेकिन मैंने यह पाया है कि अधिकतर जो यौन कुण्ठित युवा या फिर अंकल सरीखे लोग होते हैं, ये नवरात्र उपवास, सावन की कांवड़ यात्रा या ऐसे तमाम धार्मिक आयोजनों में जमकर अपना समर्पण दिखाते हैं। इसमें सहजता तो होती नहीं, अपराधबोध जरूर होता है। मुझे ऐसा लगता है कि यह समर्पण इनको इस बात का परमिट देता है कि यह जीवन में जिस भी आपराधिक प्रवृति को जीते हैं उसमें प्रभु की कृपा सन्निहित है और प्रभु उन्हें इसके लिए बख्श देंगे।

अपने अपराधों, अपने कुकर्मों, अनैतिक कृत्यों की पैरवी के लिए हम सबसे पहले स्वयं एक ईश्वर/एक मानसिकता को चुनते हैं क्योंकि उसे हम‌ अपने हिसाब से नचा सकते हैं और अंतिम फैसला बड़ी आसानी से अपने पक्ष में ले सकते हैं और इससे आजीवन अपनी सारी गलतियों को सही मानने के भ्रम में जीने की सुविधा मिल जाती है।

Saturday, 16 July 2022

बस्तर के एनजीओधारियों की जमीनी हकीकत -

 एक महाधूर्त नीच जल्लाद सरीखे व्यक्ति को जिसने बस्तर में आदिवासियों का शोषण कर उनके दम पर ताबड़तोड़ अपनी दुकान चलाई, करोड़ों करोड़ों की फंडिंग उठाई, इनके संचालित दुकान में प्रायोजित तरीके से यौन शोषण होता रहा, खैर। ऐसे व्यक्ति को पिछले कुछ दिनों से गाँधी कहा जा रहा है, खूब सोशल मीडिया द्वारा प्रायोजित किया जा रहा है। 

बस्तर जैसी जगह में जितने भी ये फर्जी एनजीओधारी आदिवासियों के नाम पर अपनी दुकान चला रहे हैं, सबसे पहले तो सबको बैन कर देना चाहिए, आदिवासियों के हितों के लिए सबसे बड़ा कदम पहले तो यही होगा। मजे की बात देखिए कि ये फर्जी एनजीओधारी समाजसेवी लोग कभी माओवादियों का खुलकर विरोध नहीं करेंगे। ये कभी माओवादियों द्वारा की गई बर्बर हिंसा को हिंसा नहीं कहेंगे। माओवादी बर्बरता से आदिवासियों का रेप करे, उनके हाथ पाँव गला काट दे, उनको जिंदा जला दे, आए दिन कितनी भी बर्बरता से हिंसा करते रहें, इनके मुँह से एक शब्द नहीं निकलेगा। क्यों नहीं निकलेगा आप खुद समझदार हैं।

इस बात से इंकार नहीं है कि पुलिस या आर्मी से कोई चूक नहीं हुई, उन्होंने आदिवासियों को हाथ भी नहीं लगाया है ऐसा नहीं कहा जा रहा। लेकिन पुलिस आर्मी ने कभी आदिवासियों के हाथ पाँव गुप्तांग नहीं काटे हैं, पुलिस आर्मी ने कभी आदिवासियों को बर्बरता से जिंदा नहीं जलाया है, पुलिस आर्मी ने कभी आदिवासियों का सुनियोजित तरीके से सिस्टम बनाकर यौन शोषण नहीं किया है, पुलिस आर्मी ने कभी आदिवासियों की संस्कृति को खत्म करने का प्रयास नहीं किया है। 

माओवादियों ने इस जगह में जमकर आदिवासियों का शोषण किया है, हर तरह का शोषण, आप जहाँ तक सोच पाते हैं सोच लीजिए, अभी भी यही कर रहे हैं, उनके नाम‌ पर अपनी दुकान चला रहे हैं। इसीलिए कहीं एक आर्मी का कैम्प बनना शुरू हुआ, बौखलाने लगते हैं क्योंकि शोषण के दम‌ पर जो मौज काटने की दुकान चल रही, उसमें समस्याएँ आनी शुरू हो जाएगी। माओवादियों को अगर इतनी ही आदिवासियों की फिक्र है तो क्या उन्होंने आदिवासियों के लिए दवाईयों, अस्पताल की सुविधा दी, उनको मूलभूत सुविधाएँ दी, उनको क्या शिक्षा के लिए प्रेरित किया, उल्टे इन सब चीजों से वंचित रखा है, इनकी अपनी संस्कृति को धूमिल‌ किया है, किसलिए अपने मौज के लिए, अपने शोषण की पूर्ति के लिए, अपनी दुकान चलाने के लिए, अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए। और बात-बात पर जल जंगल जमीन का ढोंग करते रहते हैं जबकि खेल भोग का है, शोषण का है। जमकर हर तरह का शोषण कर रहे हैं, एक ओर बम‌ लगाकर करोड़ों की फंडिंग उठाते हैं, दूसरी ओर इन तथाकथित समासेवियों की मदद से दो चार आदिवासियों को इसलिए आगे कर देते हैं ताकि वे सरकार आर्मी को रेपिस्ट शोषणकर्ता घोषित करते रहें और मीडिया में यही छाया रहे। ये अभी भी यही करते आ रहे हैं, लेकिन पता नहीं क्यों आँख के अंधे लोगों को यह सब दिखता ही नहीं है। 

VPN Ban

फिलहाल VPN बैन करने की डेट सितम्बर तक के लिए होल्ड में है। मसला ये है कि सरकार चाहती है कि VPN कंपनियाँ 5 साल तक यूजर डेटा संभाल कर रखें ( जिसमें सारा निजी डेटा है), इसके पीछे तर्क यह कि साइबर क्राइम, आंतरिक सुरक्षा और ऐसे तमाम मसलों से निपटने में आसानी होगी। ( वैसे जिसको यह सब इलीगल काम करना है, वह VPN बैन के बाद भी कर लेगा, कई दूसरे और तरीके होते हैं, तो VPN बैन का इससे घंटा कोई लेना-देना नहीं है इतना तो सबको स्पष्ट हो जाना चाहिए )। मतलब गजब ही मजाक है, ये बिल्कुल वैसा ही है कि कल को सरकार ये भी कह देगी कि हम साइबर क्राइम नहीं रोक पा रहे हैं, तो पूरे देश में इंटरनेट ही हमेशा के लिए बैन करेंगे। 

VPN कंपनी का काम ही होता है सिक्योर नेटवर्क देना, किसी का डेटा शेयर न करना, लाॅग न रखना, प्राइवेसी को‌ प्रोमोट करना। अगर वह सरकार के कहे अनुसार डेटा रखने लगी तो फिर VPN का मतलब ही क्या रहा। बिना इंजन के गाड़ी चलाने वाली बात है। इतनी भयानक तानाशाही पर सरकार उतारू है। वैसे Surfshark, ExpressVPN और NordVPN जैसी बड़ी कंपनियों ने इस नियम को ढेंगा दिखाते हुए अपने सर्वर ही भारत से हटा लिए हैं, अब सिंगापुर से आपरेट कर रहे हैं, इंडियन आईपी भी दे रहे हैं, भारत के नियमों से भी मुक्त, अगर सरकार एकदम ही नीचता पर उतरती है तो सितंबर में शायद इनका आपरेशन बंद हो जाए। यह कुछ वैसे ही होगा जैसे कोई एप्प बैन होता है, तो दुनिया के किसी भी कोने से सर्विस नहीं दे पाएंगे। कुछ-कुछ कम‌ बजट वाली छोटी कंपनियाँ जो खुद को भारत से बाहर मूव नहीं कर सकती, उनके सर्वर अभी भी भारत में हैं।

Sunday, 10 July 2022

Food culture in Raipur, Chhattisgarh

जहाँ तक बात बाहर के खाने की है। कम से कम छत्तीसगढ़ में अब कहीं बाहर का खाना खाने से मैं तो दूरी बनाना ही बेहतर समझ रहा हूं, ऐसी बात नहीं है कि स्वास्थ्य की बहुत अधिक चिंता है या बाहर के खाने‌ से समस्या है। हमारे यहाँ खासकर रायपुर में जितने भी कैफे, रेस्तरां, ढाबा, फूड-स्टाॅल, छोटे से लेकर बड़े मोटा मोटा सबको लेकर कह रहा हूं, पिछले कुछ सालों से, खासकर कोरोना के बाद से ऐसा खाना परोस रहे हैं कि अब कुछ भी खाने लायक नहीं रह गया है। उतना ही मैनपावर, उतना ही रिसोर्स लगा रहे, रेट भी बढ़ा लिया, लेकिन स्वाद नाम की चीज ही नहीं। एक बार नहीं, बार-बार निराशा हुई है तब जाकर इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं। कोरोना के बीच में ही भारत घूमकर आया हूं, अलग-अलग जगह तरह-तरह की चीजें खाई है, कहीं और ऐसा कल्चर ऐसी लूट देखने को नहीं मिली, एक खिलाने का प्रेमभाव होता है, वह पता नहीं क्यों मुझे यहाँ बिल्कुल नहीं दिखाई देता है, इसमें आप मुझे पूर्वाग्रही समझकर दोष देने के लिए स्वतंत्र हैं। आज राजधानी रायपुर में आप बाहर खाना खाने जाएं तो बहुत रूपया चुकाने के बाद भी ढंग का भोजन मिल पाना दुर्लभ हो चुका है। स्वास्थ्य की थोड़ी भी चिंता है तो बिरयानी तो आप बाहर किसी भी सस्ते से लेकर बहुत महंगे कोई भी रेस्तरां क्यों न हो, न ही खाएं तो बेहतर है, दूसरा फलों के जूस से भी हमेशा के लिए परहेज कर लीजिए, मेरा इन सबमें बहुत अनुभव रहा है इसलिए कहा। एक-एक डिश और एक-एक जगह का अब ज्यादा क्या ही नाम लूं, खुद ही अपनी समझ अनुसार आप देख लीजिए। ठीक है, इंसान बिजनेस कर रहा है, जोखिम उठा रहा है, कमा ले पैसे लेकिन गुणवत्ता के नाम‌ पर कुछ तो हो, इतने निम्न स्तर पर भी नहीं उतरना चाहिए। अपनी बात कहूं तो बाहर खाने के नाम‌ पर अब एक आइसक्रीम ही ऐसी चीज रह गई है, जिसे निस्संकोच बाहर जाकर खाया जा सकता है। 

एक सरकारी रेस्तराँ है, राज्य के जो प्रचलित स्थानीय व्यंजन हैं उसके प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से इसे बनाया गया था, खूब सरकारी फंडिंग होती है, सब अच्छा है लेकिन स्वाद आपको एकदम ही निचले स्तर का मिलना है। ये चाहें तो आसानी से स्वाद दे सकते हैं लेकिन नियत ही नहीं है, मड़गिल्लापन इतना हावी है कि क्या ही कहा जाए‌। कुछ समय पहले दूसरे राज्यों से आए कुछ दोस्तों के साथ यहाँ जाना हुआ था, उन्होंने आधे में ही खाना छोड़ दिया, मैंने जैसे-तैसे जबरदस्ती खाकर लाज बचाने की कोशिश की लेकिन मैं भी पूरा नहीं खा पाया, खैर। समझ नहीं आया कि आखिर अब इन्हें लेकर जाऊं तो जाऊं कहाँ। मेरे लिए एकदम चारों ओर अंधेरा है वाली स्थिति थी। फिर हम एक दूसरे जिले में ही चले गये। कहाँ गये यह बताना जरूरी नहीं समझ रहा हूं।

हमारे यहाँ राजधानी में बाकी राज्यों की तुलना में खाने पीने की चीजों के रेट तो दुगुने हो चुके हैं, लेकिन स्वाद और हाॅस्पिटालिटी के नाम पर एकदम ही जीरो। अपवादों में से अपवाद कोई होंगे उनको हटाकर इन जनरल कह रहा हूं। स्ट्रीट फूड की बात करें तो बाकी राज्यों से तुलना की जाए तो बहुत निराशा होती है, पूरी फूहड़ता के साथ बस घटिया काॅपी पेस्ट कर रहे हैं, एकदम पायरेटेड से भी निचले स्तर की गुणवत्ता, कोई प्रयोग नहीं, कोई नयापन नहीं। बड़े फूड चैन की बात करें तो वही फूड चेन दूसरे राज्य में बढ़िया खाना परोसेगा, यहाँ वो क्वालिटी नहीं देगा। सिस्टम का इन सब में बड़ा रोल होता है। खैर, अपने ही राज्य का अपमान नहीं कर रहा हूं, हकीकत बता रहा हूं कि कोई बाहर कुछ खाने-पीने जाए, तो इसका बहुत ही घटिया कल्चर डेवलप हो चुका है, असल में देखा जाए तो कोई कल्चर ही नहीं है।

Saturday, 9 July 2022

सोया हुआ नागरिक

सरकार चाहती ही यही है कि लोग तरह-तरह के नशे में आकण्ठ डूबे रहें और मूल चीजों को कभी रेखांकित न कर पाएं। काॅलेज की दहलीज में कदम रखने वाला एक युवा जो एक से अधिक प्रेम प्रसंग में हो, उसे लगता है दुनिया उसकी मुट्ठी में है। दो चार दर्जन छात्रों को पढ़ा रहे टीचर प्रोफेसर को इस बात का दंभ रहता है कि दुनिया उनके कहे अनुसार ही चलती है। आफिस या अपना एक चैम्बर संभाल रहे तमाम सरकारी प्राइवेट व्यापारी फलां इनको लगता है कि जिन चंद लोगों के जीवन को ये प्रभावित कर रहे होते हैं, यही दुनिया है। ये सारे लोग अपनी आत्ममुग्धता में मशगूल यह भूल जाते हैं कि ये सरकार नामक संस्था के इशारों पर कठपुतली की तरह नाच रहे होते हैं। ये खुद को नहीं बल्कि सरकार को मजबूत करते हैं और एक नागरिक में रूप में अपनी विचारशीलता गिरवीं रख खुद को बहुत अधिक कमजोर कर रहे होते हैं।