Thursday, 26 May 2022

भारतीय इतने भ्रष्ट क्यों हैं?

दुनिया के भ्रष्टाचार मुक्त देशों में शीर्ष पर गिने जाने वाले न्यूजीलैंण्ड के एक लेखक ब्रायन ने भारत में व्यापक रूप से फैले भ्रष्टाचार पर अंग्रेजी में एक लेख लिखा है। 

लेख का हिन्दी अनुवाद -

भारतीय लोग होब्स विचारधारा वाले हैं (सिर्फ अनियंत्रित असभ्य स्वार्थ की संस्कृति वाले)
भारत में भ्रष्टाचार का एक सांस्कृतिक पहलू है। भारतीय भ्रष्टाचार को लेकर बिल्कुल असहज नहीं होते, भारत में भ्रष्टाचार व्यापक रूप से फैला हुआ है। भारतीय किसी भ्रष्ट व्यक्ति का विरोध करने के बजाय उसे सहन करते हैं। कोई भी नस्ल जन्मजात इतनी भ्रष्ट नहीं होती है।

ये जानने के लिये कि भारतीय इतने भ्रष्ट क्यों होते हैं उनके जीवनपद्धति और परम्पराएं देखिये।

भारत मे धर्म लेन-देन के व्यवसाय जैसा है। भारतीय भगवान को भी इस उम्मीद में पैसे देते हैं कि वो बदले में दूसरों की तुलना में इन्हें वरीयता देकर फल देंगे। यह तर्क इस बात को दिमाग में बिठाता है कि अयोग्य लोगों को इच्छानुसार कोई चीज पाने के लिये कुछ देना पड़ता है। मंदिर के चहारदीवारी के बाहर इसी लेनदेन को भ्रष्टाचार कहते हैं। धनवान भारतीय कैश के बजाय स्वर्ण और अन्य आभूषण आदि देता है। वो अपने यह तोहफे किसी गरीब को नही देता, भगवान को देता है। वह सोचता है कि किसी जरूरतमंद को देने से धन बर्बाद होता है।

जून 2009 में द हिंदू ने कर्नाटक के एक मंत्री जनार्दन रेड्डी द्वारा स्वर्ण और हीरों के 45 करोड़ मूल्य के आभूषण तिरुपति को चढ़ाने की खबर छापी थी। भारत के मंदिर इतना ज्यादा धन प्राप्त कर लेते हैं कि वो ये भी नहीं जानते कि उसका करें क्या। अरबों की सम्पत्ति मंदिरों में व्यर्थ पड़ी है।

जब यूरोपियन भारत आए तो उन्होने यहाँ स्कूल बनवाए। जब भारतीय यूरोप और अमेरिका जाते हैं तो वो वहाँ मंदिर बनाते हैं।

भारतीयों को लगता है कि अगर भगवान कुछ देने के लिये धन रूपए पैसे चाहते हैं तो फिर ऐसा काम करने में कुछ गलत नहीं हैं। इसीलिए भारतीय इतनी आसानी से भ्रष्ट बन जाते हैं।

भारतीय संस्कृति इसीलिए इस तरह के व्यवहार को आसानी से आत्मसात कर लेती है, क्योंकि - 
1. नैतिक तौर पर इसमें चरित्र पर कोई दाग नहीं आता। एक अति भ्रष्ट नेता जयललिता दुबारा सत्ता में आ जाती है, जो आप पश्चिमी देशों में सोच भी नहीं सकते।

2. भारतीयों की भ्रष्टाचार के प्रति संशयात्मक स्थिति इतिहास में साफ देखने को मिलती है। भारतीय इतिहास बताता है कि कई शहर और राजधानियों के रक्षकों को गेट खोलने के लिये और कमांडरो को सरेंडर करने के लिये घूस देकर जीता गया। ये सिर्फ भारत में हुआ है। 

भारतीयो के भ्रष्ट चरित्र का ही परिणाम है कि भारतीय उपमहाद्वीप में बहुत सीमित युद्ध हुए। ये चकित कर देने वाली बात है कि भारतीयों ने प्राचीन यूनान और माडर्न यूरोप की तुलना में कितने कम युद्ध लड़े। नादिरशाह का तुर्कों से युद्ध तो बेहद उग्र और अंतिम सांस तक लड़ा गया था। भारत में तो युद्ध की जरूरत ही नहीं थी, घूस देना ही सेना को रास्ते से हटाने के लिए काफी था।  कोई भी आक्रमणकारी जो पैसे खर्च करना चाहे भारतीय राजा को, चाहे उसके सेना में लाखों सैनिक क्यों न हों, हटा सकता था।

प्लासी के युद्ध में भी भारतीय सैनिकों ने मुश्किल से मुकाबला किया। क्लाइव ने मीर जाफर को पैसे दिये और पूरी बंगाल सेना 3000 लोगों में सिमट गई। भारतीय किलों को जीतने में हमेशा पैसों के लेनदेन का प्रयोग हुआ। गोलकुंडा का किला 1687 में पीछे का गुप्त द्वार खुलवाकर जीता गया। मुगलों ने मराठों और राजपूतों को मूलतः रिश्वत से जीता। श्रीनगर के राजा ने दारा के पुत्र सुलेमान को औरंगजेब को पैसे के बदले सौंप दिया। ऐसे कई केस हैं जहाँ भारतीयो ने सिर्फ रिश्वत के लिये बड़े पैमाने पर गद्दारी की।
सवाल यह है कि भारतीयो में सौदेबाजी का ऐसा कल्चर क्यों है जबकि तमाम सभ्य देशों में ये सौदेबाजी का कल्चर नहीं है।

3. भारतीय इस सिद्धांत में विश्वास नहीं करते कि यदि वे सब नैतिक रूप से व्यवहार करेंगे तो सभी तरक्की करेंगे क्योंकि उनकी "आस्था/धर्म" यह शिक्षा नहीं देती है। उनका कास्ट सिस्टम (जातिवाद) उन्हें बांटता है। वो यह हरगिज नहीं मानते कि हर इंसान समान है। इसकी वजह से वो आपस मे बंटे और दूसरे धर्मों में भी गये। कई हिंदुओ ने अपना अलग धर्म चलाया जैसे सिख, जैन, बुद्ध, और कई लोग ईसाई और इस्लाम में गये। परिणाम यही है कि भारतीय एक दूसरे पर विश्वास नहीं करते। भारत में कोई भारतीय नहीं है, वे हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई आदि आदि हैं। भारतीय भूल चुके हैं कि 1400 साल पहले वे एक ही धर्म के थे। इस बंटवारे ने एक बीमार संस्कृति को जन्म दिया है। ये असमानता एक भ्रष्ट समाज के रूप में परिणित हुई, जिसमें हर भारतीय दूसरे भारतीय के विरुद्ध है, सिवाय भगवान के जो उनकी आस्थानुसार खुद रिश्वतखोरी करता है।

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