वह खड़ी रहती है एक दीवार की तरह,
जो हमेशा हमें संभालती रहती है।
बचपन में हमारे शरीर को चोट से बचाती है,
और जवानी में मन को घायल होने से रोकती है,
वह माँ होती है।
जो हमेशा हमें संभालती रहती है।
बचपन में हमारे शरीर को चोट से बचाती है,
और जवानी में मन को घायल होने से रोकती है,
वह माँ होती है।
उसे पता होता है हम घायल हैं,
हमारे मन के घाव उसे अपने घाव लगते हैं,
वह कोशिश करती है कि,
उन घावों पर दुबारा चोट न लगे।
दुआ सलामती करते हुए कुछ यूं,
वह मरहम पट्टी करती रहती है।
यह काम वह रोज करती है,
क्योंकि उसे पता होता है कि,
मन के घाव ठीक होने में समय लेते हैं।
वह जानती है कि,
शरीर की चोट से तो खून बहता है,
लेकिन मन पर लगी चोट से,
खून बहना तक रूक सकता है।
इसलिए वह एक साथी दोस्त की तरह,
दूर रहकर भी पास ही होती है।
ये अहसास, ऐसा विश्वास,
जब तक कहीं और महसूस न हो,
तब तक लोगों से बचना ही चाहिए।
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