साहित्य अकादमी विजेता के खिलाफ शोषण का आरोप लगाने वाली महिला को सामने आकर अपनी बात कहने के लिए 10 साल लग गये। मुख्यधारा का समाज स्त्री-पुरूष दोनों इस बात पर चटकारे ले रहे हैं कि पढ़ी लिखी लड़की इतनी बेवकूफ कैसे हो सकती है कि रिश्ते में रहते हुए भी समझ नहीं पाई, इतना समय लगा दिया। मुझे यह बात सुनकर लोगों पर तरस आ रहा है, क्योंकि अधिकांश लोगों को आजीवन यह पता ही नहीं चल पाता है कि उनके अपने जीवन में क्या चल रहा है, क्यों चल रहा है, कैसे चल रहा है, लेकिन दूसरों की समस्याओं का मखौल जरूर बनाना है।
एक स्त्री पुरूष के बीच क्या खिचड़ी पकती है, कितना प्रेम है, कैसा रिश्ता है यह सब दुनिया का कोई तीसरा व्यक्ति, कोई न्यायालय नहीं समझ सकता है, वह उन दोनों को ही पता होता है कि वे किस भाव से रिश्ते को निभा रहे थे। इसीलिए मुझे खुद नहीं पता कि सही गलत क्या है, आप सोशल मीडिया में लड़की की पीड़ा को उसके पोस्ट से पढ़कर बस महसूस कर सकते हैं, साहित्यकार भाई के साथ आपकी बढ़िया मित्रता रही हो तो उसके लिए भी संवेदना महसूस कर सकते हैं। फिर अंतत: अपना एक पक्ष चुनकर उसके समर्थन या विरोध में अंदाजा लगा सकते हैं, आवाज बुलंद कर सकते हैं, जितना आपके पास समय हो, जितनी आपकी समझ हो।
ऐसे मामलों में सही गलत क्या कितना है, कभी समझ नहीं आता है, क्योंकि रिश्तों में दोनों तरफ से बराबर इनपुट आता है, लेकिन जिस तरह से लड़की ने अपनी बात कही है, अभी के लिए मान लेते हैं कि बातें बनाकर कहा हो, मान लेते हैं कि लड़की का चरित्र खराब है और साहित्यकार साहब से इतनी नफरत है कि उसके चरित्र को नुकसान पहुंचाने के लिए एक लड़की होकर अपने चरित्र की परवाह न करती हो आदि आदि। लेकिन मुझे तो लड़की की तकलीफ साफ दिख रही है, भाव महसूस करने की बात है। भले साहित्यकार साहब शब्दों के जादूगर आदमी हों लेकिन लड़की ने जितने साफ तरीके से अपनी बात कही है वह उनकी पूरी साहित्यिक यात्रा पर भारी जान पड़ती है। फिलहाल बवाल इस बात का बना है कि साहित्यकार साहब ने विपश्यना का बहाना बनाकर शादी रचा ली और अब लड़की ने पुलिस केस किया है और फेसबुक में पोस्ट करके घसीटना शुरू किया तो लड़के ने फेसबुक अकाउंट ही डिएक्टिवेट कर दिया है, खैर इस पर अभी फिलहाल कुछ कहना सही नहीं है। क्योंकि ऐसा कुछ भी होता है लोग दो धड़ों में बंट जाते हैं और जमकर हिंसा दिखाने में लग जाते हैं। कोई उस लड़की को चारित्रिक आधार पर कोसने में लगा है, वहीं दूसरी ओर साहित्यकार साहब को फलाना ढिमकाना क्रांतिकारी कहकर लानतें भेजी जा रही है, समझ नहीं आता लोग बिना हिंसा दिखाए, बिना व्यक्तिगत दोषारोपण किए, बिना लांछन लगाए अपनी बात क्यों नहीं रख पाते हैं। कभी किसी अधिकारी किसी नेता का तलाक ले लेना दूसरी शादी कर लेना या कोई अन्य ऐसा मामला हो, इन सब में लोगों को इतना मसाला क्यों मिलता है, क्योंकि लोग खुद भी तो यही सब अपने जीवन में जी रहे होते हैं।
इस वाले मामले में शायद मेरा अंदाजा गलत निकले लेकिन मुझे लगता है कि लड़के ने विश्वास तोड़ा है, मानसिक रूप से तोड़ के रख दिया है, जिंदगी और मौत के बीच लाकर पटक दिया है, वरना कोई भी लड़की इतना बड़ा जोखिम नहीं उठाती है। चलिए मान लिया कि आप रिश्ते में थे, लंबे समय तक रहे फिर आपको समझ आया कि जीवन भर इसके साथ नहीं रहा जा सकता तो आप सामने वाले के साथ बैठकर स्पष्ट करिए, बार बार इस बात को साफ करिए कि शादी संभव नहीं है, लेकिन क्या लोग रिश्तों में इतनी स्पष्टता लेकर चलते हैं। रिश्ता निभाएंगे 5 साल और उम्मीद रखेंगे कि बस 5 दिन में सब खत्म हो जाना चाहिए। अमूमन होता क्या है इंसान जब तक कहीं और शादी कर नहीं लेता तब तक पुराने रिश्तों को स्टैण्ड बाई मोड में खींचता रहता है, फिर एक दिन ऐसे ही बवाल होता है। आप एक रिश्ते को बनाए रखने के लिए इतना समय इतनी ऊर्जा लगाते हैं, उस रिश्ते को अगर आगे नहीं बढ़ाना है इस पर आप चाहते हैं कि बिना बात किए, बिना चर्चा किए अपने आप किसी चमत्कार की तरह चीजें स्पष्ट हो जाए और झटके में सब खत्म हो जाए, वाह, इतनी मासूमियत। आप तो अपने लिए खुद ही वोल्केनो बना रहे हैं। यह सब बातें सिर्फ एक इसी मुद्दे को लेकर नहीं कही जा रही है, आप पर हम पर सभी पर यह लागू है कि आप और हम रिश्तों में कितनी अधिक स्पष्टता लेकर चलते हैं।
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