कुछ भी अलग और रचनात्मक करने के लिए आपमें एक तरह का पागलपन ज़रूरी है। इसीलिए ज़्यादातर बेहतरीन काम कम उम्र में ही किए जाते हैं। उम्र बढ़ने के साथ-साथ आपकी सोच पर विचार हावी हो जाते हैं। आपके पागलपन पर होश सवार हो जाता है। बहुत कुछ करने के लिए आप over grow कर जाते हैं। वो मस्ती और शरारत जो आपके काम को ताज़ा बनाती है, आपके काम से गायब या कम हो जाती है। इसे ही creative block भी कहा जाता है।
आपको अससास होता है कि आप खुद को ही दोहरा रहे हैं क्योंकि जीवन को लेकर, समाज को लेकर जो भी आपकी प्राथमिक observation थी, वो आप लिख-बोल चुके। यहीं से किसी भी रचनात्मक इंसान का असली चैलेंज शुरू होता है, खुद को improvise करने का।
जिस आंख से हम चीज़ों को देखते आए हैं, उसमें नयापन कैसे लाया जाए। अपनी सभी Senses में फिर से उत्तेजना कैसे जगाई जाए। नयापन लाने के साथ सबसे बड़ी चुनौती ये है कि हम अपनी मान्यताओं को, अपने शौक को, अपनी चिढ़ को बदलते नहीं हैं। जो फिल्में, खाना, लेखक, विचार दस साल पहले पसंद थे, जिन चीज़ों से पहले नफरत थी आज भी वो ज्यों-की-त्यों बनी हुई हैं। उसे न बदलने को लेकर हम एक तरह ज़िद्द पाल लेते हैं।
इंसान के तौर पर शायद हमारी सबसे बड़ी मासूमियत ही यही है कि हम अपने विचारों को , अपने जाति-धर्म को अपना वजूद मान बैठते हैं। और इन्हीं विचारों, को डिफेंड करते हुए हम मानते हैं कि हम अपना वजूद बचा रहे हैं। अपनी इस झूठी छवि को बचाए रखने की ज़िद्द, उसे हर हाल में उसे डिफेंड करने का अहंकार ही रचनात्मकता का सबसे बड़ा दुश्मन है।
उपाय ये है कि हम खुद को गंभीरता से न लें। न मान-सम्मान को और न ही अपने सही होने को। हम अपने राजनीतिक विचारों, जातिय और धार्मिक पहचान से कहीं ज़्यादा बड़े हैं। लेकिन हमने चीजों को जो यूं कसकर पकड़ रखा है, यही हमें कुछ नए के लिए उपलब्ध नहीं होने देता, इसीलिए हम बासे पड़ने लगते हैं, सड़ने लगते, सार्थक नहीं रह जाते और उम्र के साथ कड़वे होते जाते हैं।
-Neeraj Badhwar
आपको अससास होता है कि आप खुद को ही दोहरा रहे हैं क्योंकि जीवन को लेकर, समाज को लेकर जो भी आपकी प्राथमिक observation थी, वो आप लिख-बोल चुके। यहीं से किसी भी रचनात्मक इंसान का असली चैलेंज शुरू होता है, खुद को improvise करने का।
जिस आंख से हम चीज़ों को देखते आए हैं, उसमें नयापन कैसे लाया जाए। अपनी सभी Senses में फिर से उत्तेजना कैसे जगाई जाए। नयापन लाने के साथ सबसे बड़ी चुनौती ये है कि हम अपनी मान्यताओं को, अपने शौक को, अपनी चिढ़ को बदलते नहीं हैं। जो फिल्में, खाना, लेखक, विचार दस साल पहले पसंद थे, जिन चीज़ों से पहले नफरत थी आज भी वो ज्यों-की-त्यों बनी हुई हैं। उसे न बदलने को लेकर हम एक तरह ज़िद्द पाल लेते हैं।
इंसान के तौर पर शायद हमारी सबसे बड़ी मासूमियत ही यही है कि हम अपने विचारों को , अपने जाति-धर्म को अपना वजूद मान बैठते हैं। और इन्हीं विचारों, को डिफेंड करते हुए हम मानते हैं कि हम अपना वजूद बचा रहे हैं। अपनी इस झूठी छवि को बचाए रखने की ज़िद्द, उसे हर हाल में उसे डिफेंड करने का अहंकार ही रचनात्मकता का सबसे बड़ा दुश्मन है।
उपाय ये है कि हम खुद को गंभीरता से न लें। न मान-सम्मान को और न ही अपने सही होने को। हम अपने राजनीतिक विचारों, जातिय और धार्मिक पहचान से कहीं ज़्यादा बड़े हैं। लेकिन हमने चीजों को जो यूं कसकर पकड़ रखा है, यही हमें कुछ नए के लिए उपलब्ध नहीं होने देता, इसीलिए हम बासे पड़ने लगते हैं, सड़ने लगते, सार्थक नहीं रह जाते और उम्र के साथ कड़वे होते जाते हैं।
-Neeraj Badhwar
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