Wednesday, 27 October 2021

माहवारी के दौरान प्रचलित कुछ अंधविश्वास (टैबू) -

1. अचार न छूना
2. रसोईघर में प्रवेश न करना 
3. जिस कमरे में अनाज का संग्रहण(अमूमन गाँवों में) होता है, वहाँ न जाना
4. पशुओं को न छूना
5. पेड़ों को न छूना
6. बच्चों के सिर को न छूना
7. बाहरी पुरूषों को न देखना
8. उड़ती चिड़ियों को न देखना
9. खेतों में न जाना
10. अलग से भोजन करना
11. पूजा पाठ न करना
12. मंदिर या पूजास्थल न जाना
13. घर से बाहर न जाना
14. पति को न देखना
15. चाँद तारे सूरज न देखना

इसमें सबसे मजेदार बात जो मुझे लगती है वो यह है कि जो लोग स्त्रियों को दोयम दर्जे का मानते हुए इन अंधविश्वासों के विरूध्द उन्मूलन कार्यक्रम चलाते हैं, उनकी खुद की वैज्ञानिक सोच का स्तर इतना जबरदस्त है कि वे थाली बजाकर उसकी प्रतिध्वनि से कोरोना भगाने पर विश्वास करते हैं, नाली के गैस से चाय बना लेते हैं, दो हजार के नोट में चिपसेट तकनीक का प्रयोग कर सीधे एलियन से बात कर लेते हैं, देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाए इसलिए जमकर महंगा तेल, गैस और बाकी दैनिक जरूरतों की चीजें खरीदने पर जोर देते हैं।
गंभीरता से सोचा जाए तो यह विषय बहुत ही सेंसिटिव है, यानि जो खुद बुरे तरीके से अंधविश्वासों से घिरे हुए हैं, वे दूसरे किसी अलग तरह के अंधविश्वास को ठीक करने का बीड़ा उठाकर खुद को प्रगतिशील बना लेते हैं। भारत में एक शहर में रहने वाली स्त्री के पास ऊपर लिखे गये अंधविश्वासों में आधे अंधविश्वासों को पालन करने लायक अनुकूल माहौल है ही नहीं, वरना वे भी जमकर पालन करतीं। शहर गाँव का अपडेटेड वर्जन ही तो है, अंधविश्चास के स्तर पर कुछ चीजें छूटती हैं तो कुछ नई चीजें जुड़ भी जाती हैं बस इतना ही अंतर है। बहुत लोगों को यकीन नहीं होगा लेकिन बता रहा हूं, कई जगह यह भी देखने में आता है कि शहर की स्त्रियाँ माहवारी के दिनों में घर में पाले गये जानवरों कुत्ते बिल्ली आदि से दूर रहती हैं। एक खेत नहीं जाती तो दूसरी पार्क नहीं जाती। अंधविश्वास रूपी साफ्टवेयर अपग्रेड हो चुका है। उसमें भी सारा कुछ अपग्रेड नहीं हुआ है क्योंकि जरूरत है ही नहीं, उदाहरण के लिए - मंदिर और पूजापाठ, ये यूनिवर्सल है।
जिनको एक स्त्री का माहवारी के दिनों में अचार न छूना और खाना न पकाना बहुत गंभीर समस्या लगती है, उनके किचन में बाजार से पेस्टिसाइड युक्त जहरीले फल और सब्जियाँ रोज आ रही होती हैं, बच्चे बूढ़े परिवार के सभी लोगों को यही परोसा जाता है, स्वास्थ्य की चिंता करने वाले लोगों को इतनी बड़ी चीज कभी गंभीर समस्या नहीं लगती है।
एक स्त्री का माहवारी के दिनों में अपने बच्चे के सिर को न छूना अंधविश्वास के तौर पर एक गंभीर समस्या है, और वही स्त्री अपने बच्चों पर तमाम तरह की मानसिक शारीरिक हिंसा करे वह जायज है, वहाँ हम मौन हो जाते हैं, सारी हिंसाओं को कवर अप करने के लिए "बच्चों को सुधारने के लिए करना पड़ता है" जैसा तर्क तो तैयार है ही।
कोई पति-पत्नी नौकरी के नाम पर दो अलग-अलग शहरों में काम करते रहेंगे, महीनों अलग रहेंगे, एक-दूसरे को देखना नसीब नहीं होता होगा। उनका इस बात से पेट दुख जाता है कि एक गाँव की स्त्री कुछ दिन अपने पति को क्यों नहीं देखती।
जिनको स्त्रियों के चार-पाँच दिन चाँद तारे सूरज न देखने से समस्या है वे खुद महीनों धूप की शक्ल न देखने की वजह से विटामिन डी की कमी से गंभीर रूप से ग्रसित हैं। ऐसी बातों की रेल बनाई जा सकती है, सब कुछ इतना गड्ड मड्ड हुआ पड़ा है कि समाधान के सारे रास्ते नीचे गहरे से दब गये हैं, जो खोदेगा उसे ही दिखेगा।
अंत में एक सवाल कि एक स्त्री का माहवारी के दिनों में अचार न छूना, पशु पक्षी को न छूना, पूजा न करना, पूजास्थल न जाना इन सब तरीकों से देश समाज परिवार कितना पीछे चला जाता है ?

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