कभी किसी की तारीफ करने का शऊर नहीं आया,
दुनिया एक तरह जहाँ मीठी बातें करते हुए आगे बढ़ रही थी,
जहाँ दुनियावी रिश्ते इसी तर्ज पर बन रहे थे,
मैं किनारे बैठा खामोश यह सब देख रहा था,
मुझे कभी तारीफ करना न आया,
जिनकी दोस्तियाँ नसीब हुई,
उन्होंने भी यह कहते हुए किनारे किया,
कि मुझमें खूबसूरती की समझ नहीं,
कि मुझे तारीफ करना तक नहीं आता,
दुनिया जहाँ के खतरे उठाए, गिरा, लड़खड़ाया, फिर खड़ा हुआ,
सीखते हुए आगे बढ़ता गया, कभी उफ्फ नहीं किया,
लेकिन जोर जबरदस्ती कभी तारीफ करना न आया,
लोग कहते कि मुझमें तमीज की कमी है,
लोग कहते कि मुझमें इंसानी भावनाओं की कमी है,
लोग कहते कि मुझमें अहं कूट-कूट कर भरा है,
मैं चुपचाप सुन लेता और आगे बढ़ जाता,
दुनिया के तौर तरीके देखता और लगातार सीखता,
लेकिन कभी जबरन तारीफ करना नहीं आया,
क्योंकि हमेशा ये बोझ जैसा ही लगा,
बिन माँगे सलाह देना भी कभी न आया,
जबरन किसी की चिंता करने की औपचारिकता निभाना,
यह अबोध बालक जीवन की इस सीख से भी वंचित रहा।
तारीफ करना, सलाह देना और सरपरस्ती करना,
जीवन जीने की इन जरूरी चीजों की तमीज
मैं कभी विकसित नहीं कर पाया।
एक शब्द में अगर कहूं,
तो कभी बोझ बनना नहीं आया,
अभी भी नहीं आया है,
न तो दूसरों के लिए न ही अपने लिए।
लेकिन अरसे बाद इस नाचीज को ख्याल आया,
कि किसी के लिए सोच लिया जाए,
लेकिन इस बात का हमेशा ख्याल रहता है,
कि ये शब्द अगर किसी के हिस्से आएं,
तो जाकर उसका मन हल्का करें,
न कि उसके लिए बोझ बन जाएं।
क्योंकि जीवन जीने की तमीज विकसित करने के लिए,
हमेशा साथ बने रहने का बार-बार दिखावा करने के बजाय,
कुछ समय अकेला छोड़ना सच्चे अर्थों में साथ निभाना है।
दुनिया एक तरह जहाँ मीठी बातें करते हुए आगे बढ़ रही थी,
जहाँ दुनियावी रिश्ते इसी तर्ज पर बन रहे थे,
मैं किनारे बैठा खामोश यह सब देख रहा था,
मुझे कभी तारीफ करना न आया,
जिनकी दोस्तियाँ नसीब हुई,
उन्होंने भी यह कहते हुए किनारे किया,
कि मुझमें खूबसूरती की समझ नहीं,
कि मुझे तारीफ करना तक नहीं आता,
दुनिया जहाँ के खतरे उठाए, गिरा, लड़खड़ाया, फिर खड़ा हुआ,
सीखते हुए आगे बढ़ता गया, कभी उफ्फ नहीं किया,
लेकिन जोर जबरदस्ती कभी तारीफ करना न आया,
लोग कहते कि मुझमें तमीज की कमी है,
लोग कहते कि मुझमें इंसानी भावनाओं की कमी है,
लोग कहते कि मुझमें अहं कूट-कूट कर भरा है,
मैं चुपचाप सुन लेता और आगे बढ़ जाता,
दुनिया के तौर तरीके देखता और लगातार सीखता,
लेकिन कभी जबरन तारीफ करना नहीं आया,
क्योंकि हमेशा ये बोझ जैसा ही लगा,
बिन माँगे सलाह देना भी कभी न आया,
जबरन किसी की चिंता करने की औपचारिकता निभाना,
यह अबोध बालक जीवन की इस सीख से भी वंचित रहा।
तारीफ करना, सलाह देना और सरपरस्ती करना,
जीवन जीने की इन जरूरी चीजों की तमीज
मैं कभी विकसित नहीं कर पाया।
एक शब्द में अगर कहूं,
तो कभी बोझ बनना नहीं आया,
अभी भी नहीं आया है,
न तो दूसरों के लिए न ही अपने लिए।
लेकिन अरसे बाद इस नाचीज को ख्याल आया,
कि किसी के लिए सोच लिया जाए,
लेकिन इस बात का हमेशा ख्याल रहता है,
कि ये शब्द अगर किसी के हिस्से आएं,
तो जाकर उसका मन हल्का करें,
न कि उसके लिए बोझ बन जाएं।
क्योंकि जीवन जीने की तमीज विकसित करने के लिए,
हमेशा साथ बने रहने का बार-बार दिखावा करने के बजाय,
कुछ समय अकेला छोड़ना सच्चे अर्थों में साथ निभाना है।
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