जब भी हमारे देश में हिंसा की कोई भी घटना घटित होती है, उसमें हम एक समाज के रूप में सबसे पहले न्याय की माँग करते हैं, आरोपियों के लिए सजा की माँग करते हैं, लेकिन हम यहाँ से आगे नहीं बढ़ पाते हैं। हिंसा क्यों हुई, इस पर कभी ईमानदारी से नहीं सोचते हैं।
हिंसा की कोई भी घटना कैसे होती है, इस पर बात करने के लिए लखीमपुर की घटना को उदाहरण के तौर पर लेते हैं, एक गाड़ी ने लोगों को दिन दहाड़े कुचल दिया, 8 से अधिक लोग ( किसान, स्थानीय लोग और एक पत्रकार ) मारे गये। एक पल के लिए भूल जाते हैं कि कुचलने वाले कौन थे और जो कुचले गये वो कौन थे, बस ऐसे देखते हैं कि एक रसूख गाड़ी वाले ने सड़क पर खड़े आम लोगों पर गाड़ी चढ़ा दी। आज आप और हम खुद से सवाल करें कि उस गाड़ीचालक को इतनी अधिक हिम्मत आखिर आई कहाँ से?
किस हिम्मत से उसने लोगों पर गाड़ी चढ़ा दी?
असल में उसे हिम्मत देने वाला कोई और नहीं बल्कि आप और हम हैं, कोर्ट और कानून को अभी किनारे में रखते हैं, हममें सामर्थ्य पैदा होगा, हममें नियत होगी तो कभी भी डंके की चोट पर अपने लिए बेहतर कानून और कोर्ट की व्यवस्था तैयार कर लेंगे। अभी उन आरोपियों पर आते हैं, इस देश में ऐसे तमाम हिंसा करने वाले लोगों को आज भरोसा हो चुका है कि इस देश के आम नागरिक मुर्दे हो चुके हैं, उनको यह लगता है कि हमारा खून सूख चुका है इसलिए हम कुछ दिन मोमबत्ती जलाकर मौन धारण कर लेंगे, तभी ऐसी घटनाओं को चौड़े होकर अंजाम दे जाते हैं। उनको विश्वास रहता है कि आप और हम उनका कुछ भी नहीं कर पाएंगे, वे सोचते हैंं कि वे कुचल कर मार देंगे फिर भी हम एक कान से सुनकर भूल जाएंगे। उनको इतना साहस, ऐसी घटनाओं को अंजाम देने का हौसला आप और हम ही देते हैं। किसी पार्टी, विचारधारा या व्यक्ति से कहीं पहले उन्हें समाज से ताकत मिलती है।
हम छोटी छोटी घटनाओं को ही उदाहरण के तौर पर लेते हैं। हम सड़क में, बाजार में राह चलते छोटी सी बात के लिए अपने से कमजोर निरीह किसी व्यक्ति को डराकर धमकाकर आनंद का अनुभव करते हैं, क्योंकि हमें भरोसा होता है कि सामने वाला हमारे इस हिंसक रवैये के खिलाफ खड़ा नहीं हो पाएगा, खड़ा हो भी गया तो उसका साथ देने कोई नहीं आएगा। देखे लेने और सबक सीखाने जैसी धमकियाँ हम थोक के भाव में देते रहते हैं। इसी मानसिकता को हम निरंतर जीते रहते हैं, कभी हम हिंसा करते हैं, तो कभी हम हिंसा के शिकार होते हैं, हिंसा के इस चैन से हम खुद को आजीवन अलग नहीं कर पाते हैं।
यहाँ पर एक सवाल आता है कि जब एक समाज के रूप में हिंसा को हम आए रोज इतनी बड़ी मात्रा में जीते हैं, फिर उसी देश में अहिंसा परमो धर्म: जैसे सुविचारों का इतना महिमामंडन कैसे होता है, इतना बड़ा विरोधाभास कैसे। इसके पीछे भी कारण है। असल में हममें से अधिकांश लोग हिंसक हैं, अब चूंकि समाज में गहराई के स्तर तक हिंसा व्याप्त है, ऐसे में अहिंसा जैसी चीज एक सहज जीवनशैली का अंग न होकर एक आदर्श के रूप में प्रचारित कर दिया जाता है, अहिंसा के नाम पर इसलिए हमारे सामने खूब प्रतियोगिताओं, सेमिनार, कथापाठ, संगीत, कविता, सूक्ति आदि का मंचन किया जाता है, हम बड़े जोरशोर से एक एवेंट की तरह इसे सेलिब्रेट करते हैं, ठीक उसी तरह हम इसका आनंद उठाते हैं, जैसे हम हिंसा वाली तमाम घटनाओं को एक एवेंट के रूप में देखकर भुला देते हैं। अहिंसा जैसा सहज मानवीय भाव कभी हमारे जीवन का मूलभूत अंग रहा ही नहीं, अगर होता तो हमें इसे इतना अधिक महिमामंडित करने की आवश्यकता नहीं होती।
अभी कुछ दिन पहले ही हम अहिंसा के पुजारी की बातें कर रहे थे, उनके सुविचारों की बात की हमने, उनके नाम पर सेमिनार किया, लंबे लंबे गद्य लिखे, कविताएँ लिखी, असल में हम यह सब इसलिए करते हैं ताकि हम अपना बचाव कर सकें, इसका हमारे जीवन में अहिंसा से कोई लेना देना नहीं होता है। हम बहुत अधिक क्रूर हिंसक होते हुए भी यह ढोंग कर सकते हैं। अहिंसा नामक बुलेटप्रूफ जैकेट पहन कर आप और हम भरपूर हिंसा कर सकते हैं, करते भी हैं। अब इससे बड़ा दुर्भाग्य हमारे लिए और क्या होगा कि इतने सहज से भाव को जीने के लिए हमें बार-बार एक व्यक्ति का सहारा लेना पड़ता है। असल में गाँधी के विचार या फिर अहिंसा को जीवन में उतार लेने की सबसे जरूरी शर्त तो यही होनी चाहिए कि हम अपने आसपास ही हिंसा और नफरत के खिलाफ खड़े हो जाएं। लेकिन जब हम खुद हिंसक हैं, हिंसा और नफरत को आए दिन जीते हैं तो हम आखिर कैसे ऐसी घटनाओं के खिलाफ आवाज उठाएंगे।
अभी पिछले एक साल को ही एक बार हम मुड़कर देखते हैं। पिछले साल कोरोना की वजह से लाॅकडाउन में हजारों लाखों मजदूरों का जीवन एक झटके में नरक बना दिया गया, कीड़े मकोड़ों से बदतर पैदल हजारों किलोमीटर पैदल चलकर घर लौटने को विवश हो गये, ट्रकों में दास गुलाम की तरह भूखे प्यासे निकल गये एक अंतहीन सफर के लिए, सीमेंट के मिक्सर तक में लोगों ने सफर किया, माँओं ने सड़कों पर बच्चे पैदा किए, कई बच्चे पैदल चल चलकर भूख से ही मर गये, कुछ को तथाकथित आपातकालीन रेलगाड़ियों ने कुचल दिया, यह सब सोच के ही दिल दहल जाता था, ये सब कुछ हमारी आँखों के सामने हो रहा था। वहीं पर्दे के दूसरी तरफ एक बड़ी आबादी इस हिंसा को मनोरंजन कार्यक्रम की तरह देखते हुए या तो थाली बजा कर सकारात्मकता का नंगा नाच कर रही थी या पकोड़े समोसे तलकर अपने जीवन को सार्थक बनाने में जुटी थी। हम सब भूल गये, एक झटके में भूल गये, हम इतने हिंसक रहे कि हमने नहीं सोचा कि हमारे अपने देश के लोगों की हालत आज जानवरों से भी बदतर हो गई है। एक तरफ लोग मर रहे थे, दूसरी तरफ लोग बड़ी बेशर्मी से उनकी मौत पर सवाल खड़ा कर रहे थे कि किसने कहा था तुम्हें मरने को, ये नीच मरेंगे और देश को बदनाम भी करेंगे, इस स्तर की भी हिंसा देखने को मिली। हमने अपने ही देश के लोगों को बर्बरता से मरने के लिए छोड़ दिया।
समय बीत गया, फिर दूसरी लहर आई, लाशों का अंबार लग गया, लोग आॅक्सीजन की कमी और अव्यवस्था की वजह से तड़प तड़प कर इस दुनिया को अलविदा कह गये। फिर भी हमने व्यवस्था का महिमामंडन करना, सकारात्मकता का नंगा नाच करना नहीं छोड़ा। हमारे आसपास हमारे कितने अपने हमें छोड़कर चले गये, फिर भी हमारे भीतर इतनी भी नैतिक ईमानदारी नहीं रही कि हम बीमारी से हुई मौत को मौत की तरह देख पाएं। हमने वहाँ भी लाशों पर सवाल खड़ा किया, महानता का ऐसा चश्मा लगा रखा था कि दूसरे देशों से मौत के आंकड़ों की तुलना करते रहे, हमारा बस चलता हम लाशों को उठाकर पूछते कि बताओ कोरोना से मरे थे या किसी दूसरी बीमारी से? हमने कुछ समय के बाद यह सब एक झटके में भुला दिया। हमने अपने भीतर की कुंठा को, हिंसा को जीवन से निकाल फेंकने का नहीं सोचा, अगर किया होता तो आज थोड़ी बहुत संवेदनशीलता की झलक दिखाई देती, लेकिन नहीं हमने उफ्फ तक नहीं किया। हम हिंसा के प्रति इस हद तक सहज हो चुके हैं कि आज एक देश, एक समाज के रूप में हम एक मुर्दाघर बनते जा रहे हैं।
हमारी चुप्पी, हमारी खामोशी, हमारा मौन यूं ही हिंसा को खाद पानी देता रहेगा, कार के नीचे कुचला जाना ही हिंसा का शिकार होना नहीं होता है, हिंसा के खिलाफ न बोलना भी हिंसा का शिकार होना है, तमाम अव्यवस्थाएँ देखकर भी आँख मूंद लेना भी हिंसा का शिकार होना है, वे तमाम लोग हिंसा के शिकार हैं जिन्हें आज भी यह लगता है कि वे कभी भी हिंसा के शिकार नहीं हो सकते।
हिंसा की कोई भी घटना कैसे होती है, इस पर बात करने के लिए लखीमपुर की घटना को उदाहरण के तौर पर लेते हैं, एक गाड़ी ने लोगों को दिन दहाड़े कुचल दिया, 8 से अधिक लोग ( किसान, स्थानीय लोग और एक पत्रकार ) मारे गये। एक पल के लिए भूल जाते हैं कि कुचलने वाले कौन थे और जो कुचले गये वो कौन थे, बस ऐसे देखते हैं कि एक रसूख गाड़ी वाले ने सड़क पर खड़े आम लोगों पर गाड़ी चढ़ा दी। आज आप और हम खुद से सवाल करें कि उस गाड़ीचालक को इतनी अधिक हिम्मत आखिर आई कहाँ से?
किस हिम्मत से उसने लोगों पर गाड़ी चढ़ा दी?
असल में उसे हिम्मत देने वाला कोई और नहीं बल्कि आप और हम हैं, कोर्ट और कानून को अभी किनारे में रखते हैं, हममें सामर्थ्य पैदा होगा, हममें नियत होगी तो कभी भी डंके की चोट पर अपने लिए बेहतर कानून और कोर्ट की व्यवस्था तैयार कर लेंगे। अभी उन आरोपियों पर आते हैं, इस देश में ऐसे तमाम हिंसा करने वाले लोगों को आज भरोसा हो चुका है कि इस देश के आम नागरिक मुर्दे हो चुके हैं, उनको यह लगता है कि हमारा खून सूख चुका है इसलिए हम कुछ दिन मोमबत्ती जलाकर मौन धारण कर लेंगे, तभी ऐसी घटनाओं को चौड़े होकर अंजाम दे जाते हैं। उनको विश्वास रहता है कि आप और हम उनका कुछ भी नहीं कर पाएंगे, वे सोचते हैंं कि वे कुचल कर मार देंगे फिर भी हम एक कान से सुनकर भूल जाएंगे। उनको इतना साहस, ऐसी घटनाओं को अंजाम देने का हौसला आप और हम ही देते हैं। किसी पार्टी, विचारधारा या व्यक्ति से कहीं पहले उन्हें समाज से ताकत मिलती है।
हम छोटी छोटी घटनाओं को ही उदाहरण के तौर पर लेते हैं। हम सड़क में, बाजार में राह चलते छोटी सी बात के लिए अपने से कमजोर निरीह किसी व्यक्ति को डराकर धमकाकर आनंद का अनुभव करते हैं, क्योंकि हमें भरोसा होता है कि सामने वाला हमारे इस हिंसक रवैये के खिलाफ खड़ा नहीं हो पाएगा, खड़ा हो भी गया तो उसका साथ देने कोई नहीं आएगा। देखे लेने और सबक सीखाने जैसी धमकियाँ हम थोक के भाव में देते रहते हैं। इसी मानसिकता को हम निरंतर जीते रहते हैं, कभी हम हिंसा करते हैं, तो कभी हम हिंसा के शिकार होते हैं, हिंसा के इस चैन से हम खुद को आजीवन अलग नहीं कर पाते हैं।
यहाँ पर एक सवाल आता है कि जब एक समाज के रूप में हिंसा को हम आए रोज इतनी बड़ी मात्रा में जीते हैं, फिर उसी देश में अहिंसा परमो धर्म: जैसे सुविचारों का इतना महिमामंडन कैसे होता है, इतना बड़ा विरोधाभास कैसे। इसके पीछे भी कारण है। असल में हममें से अधिकांश लोग हिंसक हैं, अब चूंकि समाज में गहराई के स्तर तक हिंसा व्याप्त है, ऐसे में अहिंसा जैसी चीज एक सहज जीवनशैली का अंग न होकर एक आदर्श के रूप में प्रचारित कर दिया जाता है, अहिंसा के नाम पर इसलिए हमारे सामने खूब प्रतियोगिताओं, सेमिनार, कथापाठ, संगीत, कविता, सूक्ति आदि का मंचन किया जाता है, हम बड़े जोरशोर से एक एवेंट की तरह इसे सेलिब्रेट करते हैं, ठीक उसी तरह हम इसका आनंद उठाते हैं, जैसे हम हिंसा वाली तमाम घटनाओं को एक एवेंट के रूप में देखकर भुला देते हैं। अहिंसा जैसा सहज मानवीय भाव कभी हमारे जीवन का मूलभूत अंग रहा ही नहीं, अगर होता तो हमें इसे इतना अधिक महिमामंडित करने की आवश्यकता नहीं होती।
अभी कुछ दिन पहले ही हम अहिंसा के पुजारी की बातें कर रहे थे, उनके सुविचारों की बात की हमने, उनके नाम पर सेमिनार किया, लंबे लंबे गद्य लिखे, कविताएँ लिखी, असल में हम यह सब इसलिए करते हैं ताकि हम अपना बचाव कर सकें, इसका हमारे जीवन में अहिंसा से कोई लेना देना नहीं होता है। हम बहुत अधिक क्रूर हिंसक होते हुए भी यह ढोंग कर सकते हैं। अहिंसा नामक बुलेटप्रूफ जैकेट पहन कर आप और हम भरपूर हिंसा कर सकते हैं, करते भी हैं। अब इससे बड़ा दुर्भाग्य हमारे लिए और क्या होगा कि इतने सहज से भाव को जीने के लिए हमें बार-बार एक व्यक्ति का सहारा लेना पड़ता है। असल में गाँधी के विचार या फिर अहिंसा को जीवन में उतार लेने की सबसे जरूरी शर्त तो यही होनी चाहिए कि हम अपने आसपास ही हिंसा और नफरत के खिलाफ खड़े हो जाएं। लेकिन जब हम खुद हिंसक हैं, हिंसा और नफरत को आए दिन जीते हैं तो हम आखिर कैसे ऐसी घटनाओं के खिलाफ आवाज उठाएंगे।
अभी पिछले एक साल को ही एक बार हम मुड़कर देखते हैं। पिछले साल कोरोना की वजह से लाॅकडाउन में हजारों लाखों मजदूरों का जीवन एक झटके में नरक बना दिया गया, कीड़े मकोड़ों से बदतर पैदल हजारों किलोमीटर पैदल चलकर घर लौटने को विवश हो गये, ट्रकों में दास गुलाम की तरह भूखे प्यासे निकल गये एक अंतहीन सफर के लिए, सीमेंट के मिक्सर तक में लोगों ने सफर किया, माँओं ने सड़कों पर बच्चे पैदा किए, कई बच्चे पैदल चल चलकर भूख से ही मर गये, कुछ को तथाकथित आपातकालीन रेलगाड़ियों ने कुचल दिया, यह सब सोच के ही दिल दहल जाता था, ये सब कुछ हमारी आँखों के सामने हो रहा था। वहीं पर्दे के दूसरी तरफ एक बड़ी आबादी इस हिंसा को मनोरंजन कार्यक्रम की तरह देखते हुए या तो थाली बजा कर सकारात्मकता का नंगा नाच कर रही थी या पकोड़े समोसे तलकर अपने जीवन को सार्थक बनाने में जुटी थी। हम सब भूल गये, एक झटके में भूल गये, हम इतने हिंसक रहे कि हमने नहीं सोचा कि हमारे अपने देश के लोगों की हालत आज जानवरों से भी बदतर हो गई है। एक तरफ लोग मर रहे थे, दूसरी तरफ लोग बड़ी बेशर्मी से उनकी मौत पर सवाल खड़ा कर रहे थे कि किसने कहा था तुम्हें मरने को, ये नीच मरेंगे और देश को बदनाम भी करेंगे, इस स्तर की भी हिंसा देखने को मिली। हमने अपने ही देश के लोगों को बर्बरता से मरने के लिए छोड़ दिया।
समय बीत गया, फिर दूसरी लहर आई, लाशों का अंबार लग गया, लोग आॅक्सीजन की कमी और अव्यवस्था की वजह से तड़प तड़प कर इस दुनिया को अलविदा कह गये। फिर भी हमने व्यवस्था का महिमामंडन करना, सकारात्मकता का नंगा नाच करना नहीं छोड़ा। हमारे आसपास हमारे कितने अपने हमें छोड़कर चले गये, फिर भी हमारे भीतर इतनी भी नैतिक ईमानदारी नहीं रही कि हम बीमारी से हुई मौत को मौत की तरह देख पाएं। हमने वहाँ भी लाशों पर सवाल खड़ा किया, महानता का ऐसा चश्मा लगा रखा था कि दूसरे देशों से मौत के आंकड़ों की तुलना करते रहे, हमारा बस चलता हम लाशों को उठाकर पूछते कि बताओ कोरोना से मरे थे या किसी दूसरी बीमारी से? हमने कुछ समय के बाद यह सब एक झटके में भुला दिया। हमने अपने भीतर की कुंठा को, हिंसा को जीवन से निकाल फेंकने का नहीं सोचा, अगर किया होता तो आज थोड़ी बहुत संवेदनशीलता की झलक दिखाई देती, लेकिन नहीं हमने उफ्फ तक नहीं किया। हम हिंसा के प्रति इस हद तक सहज हो चुके हैं कि आज एक देश, एक समाज के रूप में हम एक मुर्दाघर बनते जा रहे हैं।
हमारी चुप्पी, हमारी खामोशी, हमारा मौन यूं ही हिंसा को खाद पानी देता रहेगा, कार के नीचे कुचला जाना ही हिंसा का शिकार होना नहीं होता है, हिंसा के खिलाफ न बोलना भी हिंसा का शिकार होना है, तमाम अव्यवस्थाएँ देखकर भी आँख मूंद लेना भी हिंसा का शिकार होना है, वे तमाम लोग हिंसा के शिकार हैं जिन्हें आज भी यह लगता है कि वे कभी भी हिंसा के शिकार नहीं हो सकते।
सच।
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