Wednesday, 27 October 2021

माहवारी के दौरान प्रचलित कुछ अंधविश्वास (टैबू) -

1. अचार न छूना
2. रसोईघर में प्रवेश न करना 
3. जिस कमरे में अनाज का संग्रहण(अमूमन गाँवों में) होता है, वहाँ न जाना
4. पशुओं को न छूना
5. पेड़ों को न छूना
6. बच्चों के सिर को न छूना
7. बाहरी पुरूषों को न देखना
8. उड़ती चिड़ियों को न देखना
9. खेतों में न जाना
10. अलग से भोजन करना
11. पूजा पाठ न करना
12. मंदिर या पूजास्थल न जाना
13. घर से बाहर न जाना
14. पति को न देखना
15. चाँद तारे सूरज न देखना

इसमें सबसे मजेदार बात जो मुझे लगती है वो यह है कि जो लोग स्त्रियों को दोयम दर्जे का मानते हुए इन अंधविश्वासों के विरूध्द उन्मूलन कार्यक्रम चलाते हैं, उनकी खुद की वैज्ञानिक सोच का स्तर इतना जबरदस्त है कि वे थाली बजाकर उसकी प्रतिध्वनि से कोरोना भगाने पर विश्वास करते हैं, नाली के गैस से चाय बना लेते हैं, दो हजार के नोट में चिपसेट तकनीक का प्रयोग कर सीधे एलियन से बात कर लेते हैं, देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाए इसलिए जमकर महंगा तेल, गैस और बाकी दैनिक जरूरतों की चीजें खरीदने पर जोर देते हैं।
गंभीरता से सोचा जाए तो यह विषय बहुत ही सेंसिटिव है, यानि जो खुद बुरे तरीके से अंधविश्वासों से घिरे हुए हैं, वे दूसरे किसी अलग तरह के अंधविश्वास को ठीक करने का बीड़ा उठाकर खुद को प्रगतिशील बना लेते हैं। भारत में एक शहर में रहने वाली स्त्री के पास ऊपर लिखे गये अंधविश्वासों में आधे अंधविश्वासों को पालन करने लायक अनुकूल माहौल है ही नहीं, वरना वे भी जमकर पालन करतीं। शहर गाँव का अपडेटेड वर्जन ही तो है, अंधविश्चास के स्तर पर कुछ चीजें छूटती हैं तो कुछ नई चीजें जुड़ भी जाती हैं बस इतना ही अंतर है। बहुत लोगों को यकीन नहीं होगा लेकिन बता रहा हूं, कई जगह यह भी देखने में आता है कि शहर की स्त्रियाँ माहवारी के दिनों में घर में पाले गये जानवरों कुत्ते बिल्ली आदि से दूर रहती हैं। एक खेत नहीं जाती तो दूसरी पार्क नहीं जाती। अंधविश्वास रूपी साफ्टवेयर अपग्रेड हो चुका है। उसमें भी सारा कुछ अपग्रेड नहीं हुआ है क्योंकि जरूरत है ही नहीं, उदाहरण के लिए - मंदिर और पूजापाठ, ये यूनिवर्सल है।
जिनको एक स्त्री का माहवारी के दिनों में अचार न छूना और खाना न पकाना बहुत गंभीर समस्या लगती है, उनके किचन में बाजार से पेस्टिसाइड युक्त जहरीले फल और सब्जियाँ रोज आ रही होती हैं, बच्चे बूढ़े परिवार के सभी लोगों को यही परोसा जाता है, स्वास्थ्य की चिंता करने वाले लोगों को इतनी बड़ी चीज कभी गंभीर समस्या नहीं लगती है।
एक स्त्री का माहवारी के दिनों में अपने बच्चे के सिर को न छूना अंधविश्वास के तौर पर एक गंभीर समस्या है, और वही स्त्री अपने बच्चों पर तमाम तरह की मानसिक शारीरिक हिंसा करे वह जायज है, वहाँ हम मौन हो जाते हैं, सारी हिंसाओं को कवर अप करने के लिए "बच्चों को सुधारने के लिए करना पड़ता है" जैसा तर्क तो तैयार है ही।
कोई पति-पत्नी नौकरी के नाम पर दो अलग-अलग शहरों में काम करते रहेंगे, महीनों अलग रहेंगे, एक-दूसरे को देखना नसीब नहीं होता होगा। उनका इस बात से पेट दुख जाता है कि एक गाँव की स्त्री कुछ दिन अपने पति को क्यों नहीं देखती।
जिनको स्त्रियों के चार-पाँच दिन चाँद तारे सूरज न देखने से समस्या है वे खुद महीनों धूप की शक्ल न देखने की वजह से विटामिन डी की कमी से गंभीर रूप से ग्रसित हैं। ऐसी बातों की रेल बनाई जा सकती है, सब कुछ इतना गड्ड मड्ड हुआ पड़ा है कि समाधान के सारे रास्ते नीचे गहरे से दब गये हैं, जो खोदेगा उसे ही दिखेगा।
अंत में एक सवाल कि एक स्त्री का माहवारी के दिनों में अचार न छूना, पशु पक्षी को न छूना, पूजा न करना, पूजास्थल न जाना इन सब तरीकों से देश समाज परिवार कितना पीछे चला जाता है ?

Tuesday, 26 October 2021

डेवलपमेंट सेक्टर - एक अंधी गली

कुछ साल पहले की बात है, महिलाओं का सर्वे करना था, विषय था माहवारी। एक सामान्य सर्वे जिसे कि रिसर्च कहा जाता, उसके सवाल इतने हिंसक थे कि अभी हर एक सवाल को यहाँ लिखना उचित नहीं समझ रहा हूं। सर्वे करने के दौरान मुझे हर पल यही महसूस होता रहा कि समाजसेवा के नाम पर मैं यह क्या पाप कर रहा हूं। यह भी सोचा कि ऐसे सवाल करने का आखिर हासिल क्या है?
जहाँ तक माहवारी की बात है, कुछ टैबू को अगर किनारे कर लें, जिससे कुछ खास फर्क पड़ता नहीं। तो मुझे लगता है कि सुदूर गाँवों में माहवारी को लेकर शहरों से कहीं अधिक जागरूकता है इस हकीकत को आपको मानना है मानिए, नहीं मानना है मत मानिए। जिन गाँवों में पीढ़ियाँ कपड़े का इस्तेमाल करती रहीं उन गाँवों में तथाकथित समाजसेवी लोगों की टुकड़ियाँ जाकर यह समझाती हैं कि बाजार का पैड हानिकारक है, वो भी उन महिलाओं को समझाती हैं जिनमें से अधिकांश महिलाएँ आज भी कपड़ा ही इस्तेमाल करती हैं, ये उसी काटन के कपड़े को पैड का आकार देकर उन्हें माहवारी के दौरान स्वास्थ्य संबंधी नियम कानून सीखाते हैं। वो बात अलग है कि ये खुद कभी कपड़े से बने पैड का इस्तेमाल नहीं करते हैं, लेकिन प्रचारकर्ता बनकर गाँवों में कपड़े का बना पैड लेकर क्रांति जरूर मचाते हैं, क्योंकि यह सब करके उनकी दुकान जो चलती है। एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि गाइनिक्लोजिस्ट के पास सबसे ज्यादा शहर की महिलाओं को ही जाना पड़ता है।
सर्वे के दौरान बहुत कुछ पूछना होता था, बहुत गहराई में जाकर पूछना होता, इसमें कोई महानता जैसी चीज नहीं होती। सवाल ऐसे होते कि निजता की हत्या या निजता का बलात्कार शब्द का प्रयोग करूं तो गलत न होगा। शुरुआती ट्रेनिंग में आपको भी जागरूक किया जाता और आपकी जागरूकता के लिटमस टेस्ट के लिए अपने किसी महिला मित्र, माता, बहन को फोन कर ( उनमें भी जिनसे आप इन विषयों में बात करने में सबसे अधिक संकोच करते हों ) उनसे माहवारी के बारे में चर्चा करने को कहा जाता। आप यह काम नहीं कर पाए यानि आप उनकी नजर में रूढ़िवादी हैं। देखिए ऐसा है, जहाँ जिस परिवार में खुलापन है, सो है, जरूरी नहीं कि हर कोई दिन रात अभिव्यक्त कर इन चीजों को सामने रखे, और आप कौन होते हैं किसी की निजता को ताक में रखकर सीखाने वाले, इन सबके लिए फोन करके पूछना मुझे बहुत ही ज्यादा वीभत्स लगा। गाँव वालों से कहीं ज्यादा टैबू तो आप लेकर चल रहे हैं, कि आप यह सोचते हैं कि जबरन खुल कर चर्चा करिए, सबको करना होगा, जो नहीं कर पाता उसे नीचा दिखाने लायक माहौल बना देना। अरे भई जिसको स्वेच्छा से करना है करे, नहीं करना है मत करे, इतना लोकतंत्र तो बचा कर रखिए। ये तो कुछ उसी तरीके की बात हुई कि कोई अपने फायदे के लिए, अपने एजेंडे के लिए आपके मुंह में माइक ठूंस कर कह रहा हो कि भारत में रहना है तो फलांना की जय का नारा अभी लगाना होगा वरना दूसरे देश चले जाओ। इनमें और उनमें कोई चारित्रिक अंतर मुझे तो नहीं दिखाई देता है, हर दंगाई सोच दंगा नहीं करती है।
भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति कैसी रही है, यह किसी से छुपा नहीं है, उसमें भी माहवारी संबंधी समस्याओं को बड़ी सूक्ष्मता से टारगेट कर महिलाओं को अपमानित किया जाता है। जिस तरीके से इन समस्याओं को एप्रोच किया जाता है, वह तरीका बहुत ही अधिक घिनौना है, इन सब से समाधान नहीं निकला करते हैं, दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है, बस अपनी फंडिंग की दुकान चलाने की बात है।
लंबे समय से पितृसत्तात्मकता का दंश झेल रही हमारे यहाँ की अधिकतर महिलाएँ जो अपने निजी चीजों या समस्याओं के बारे में अपने पति तक को बताने में झिझक महसूस करती है या किसी बीमारी की अवस्था में डाक्टर के पास जाकर बताने में भी असहज रहती है, उन महिलाओं को हम खुद जाकर यह सवाल कर रहे थे कि आपका माहवारी के दौरान हर महीने कितना खून निकलता है, आप उस दौरान कैसे साफ सफाई रखती हैं, कहाँ नहाती हैं, कपड़े के पैड को कहाँ सुखाती हैं आदि आदि। इससे और खतरनाक सवाल थे, इन चंद सवालों से ही भयावहता का अंदाजा लगा लिया जाए। पूरे सर्वे के दौरान शायद ही कोई महिला मिली हो जो असहज न हुई हो, कोई न कोई सवाल उनको असहज कर ही देता था। 
टीम में सिर्फ लड़के रहे, मुझे नहीं लगता कि लड़कों को यह अधिकार होना चाहिए कि वे एक अनजान महिला से समाजसेवी का चोगा पहनकर या सर्वे के नाम पर इस तरह के सवाल करें। मुझे बार-बार यह महसूस होता रहा कि यह काम लड़कियों को ही करना चाहिए। बाद में सारे सवालों के पीछे का मनोविज्ञान समझने की कोशिश की तो यह भी लगा कि लड़कियों को भी ऐसे सवाल करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं बनता है।
लड़कों को यह काम कराने के पीछे लैंगिक समानता का तर्क दिया जाता, मुझे आज तक समझ नहीं आया कि किसी की निजता की हत्या कर आप कौन सी लैंगिक समानता हासिल करना चाहते हैं?
सर्वे के दौरान ही एक दिन मेरे साथ एक ऐसी घटना हुई जिसे याद करते हुए आज भी सिहरन होती है, एक गाँव में सर्वे के दौरान एक अविवाहित कम उम्र की अंधी लड़की से सवाल-जवाब करना हुआ, वह लड़की कुर्सी में बैठे हुए ऐसे घबरा रही थी मानो उसने जीवन में बहुत बड़ा अपराध कर लिया हो, उसके पास भले नजरें नहीं थी लेकिन मेरे भीतर इतनी हिम्मत नहीं रही कि मैं उससे नजरें मिला पाऊं। पहला सवाल करते ही वह बुरी तरीके से झेंप गई और उठकर जाने को हुई लेकिन पास में बैठी एक लड़की ने उसे बैठाकर रखा, मन तो कर रहा था कि काम छोड़कर वहाँ से उठकर वापस चला जाऊं। मैंने सोचा कि ये किस तरह की समाजसेवा है? अगर इसे ही समाजसेवा कहा जाता है तो ऐसी समाजसेवा को हमेशा के लिए बंद हो जाना चाहिए, बंद हो जानी चाहिए ऐसी समाजसेवी संस्थाएँ जो सरकारी तंत्र के लिए महज सेफ्टी वाल्व का काम करती हैं। 
डेवलपमेंट सेक्टर, एनजीओ, समाजसेवी जो भी कह लें। असल मायनों में इनके लिए हर समस्या एक अवसर होती है, ताकि उसको भुना सकें। ( कुछ छुटपुट संस्थाएँ अपने सीमित संसाधनों के साथ तमाम दुश्वारियाँ झेलते हुए सचमुच लोगों के लिए काम कर रही हैं, उनके‌ प्रति सच्ची सहानुभूति है, उम्मीद करता हूं कि वे अपने आपको इसमें अपवाद के रूप में देखेंगे ) आप वर्षों तक भ्रम में रह सकते हैं कि ये लोगों की बेहतरी के लिए काम करते हैं, समाधान के लिए काम करते हैं। नहीं, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, असल में ये समाधान के सारे रास्तों को बंद करने का काम‌ करते हैं, लोगों के भीतर पनप रहे असंतोष को, अंदर के आंदोलन के प्रवाह को धीमा करते हैं और ऐसा करने के लिए लोगों को खूब जलील करते हैं, उनकी मनोस्थिति उनके दुःख उनकी पीड़ा पर गहरी चोट करते हुए अमानवीयता की हद तक अपमानित करते हैं। बाढ़, आपदा, चक्रवात हमारे लिए शोक का विषय होता है, इनके लिए यह शेयर मार्केट में आए उछाल की तरह होता है। जिन युवाओं में लोगों के लिए, देश समाज के लिए कुछ कर गुजरने की आग होती है, वे बड़ी आसानी से इनकी चपेट में आ जाते हैं और ये संस्थाएँ इनकी सारी जीवनी ऊर्जा सोख लेती हैं और पता भी नहीं चलने देती है। खैर..कहने को ऐसी बहुत सी बातें हैं लेकिन यहीं विराम देता हूं।
नोट : माहवारी संबंधी जागरूकता कार्यक्रम सेमिनार आदि का ज्ञान न देवें, हमको आपकी नियत पता है।


My take on Bike riding -

स्कूल के समय जब हम बहुत छोटे रहे तो हम भी बाइक में घूमने वाले लोगों को देखा करते, सोचते बड़े होकर हम भी सीखेंगे और इस चीज को जिएंगे। काॅलेज जाते तक यह सपना कहीं खो सा गया, शौक के स्तर पर भी किनारे ही हो गया। फिर एक दिन बाइक आ गई, इसलिए नहीं कि कोई बहुत लगाव या शौक था, बस इसलिए कि घूमने के लिए एक माध्यम चाहिए था। तो बाइक अभी भी एक माध्यम भर है।
कल भारत घूमने वाली पुरानी फुटेज देख रहा था, एक्शन कैमरे से बनी सड़कों की फुटेज जो 40-50 घंटों से अधिक की होगी, उसे सरसरी निगाह से देख रहा था, एक चीज मैंने उसमें नोटिस किया कि मेरी गाड़ी खाली सड़क में भी लंबे समय तक एकदम सीधी अपनी लेन में चल रही थी, एक भी जगह कहीं गड्ढे या पत्थर के ऊपर गाड़ी नहीं चली, अब अधिकतर सड़कें तो मेरे लिए अनजान ही थीं, उसमें कभी-कभार ऐसा हुआ कि कहीं पत्थर खड्ढे या ब्रेकर आ जाते, लेकिन देखने में आया कि मैंने एक-एक छोटे पत्थर और गड्ढों से खुद का बचाव किया जो अमूमन लोग नहीं करते हैं, मामूली समझते हैं।
आज बाइक को एक साल से अधिक हो चुके हैं, 22 हजार किलोमीटर से अधिक चल चुकी है, कोई समस्या नहीं आई जिसे समस्या कहा जाए, विश्वास मानिए अभी तक एक भी पंक्चर तक नहीं हुआ है, निस्संदेह इसमें बहुत बड़ा योगदान ट्यूबलेस टायर का है, दूसरा पहलू ये कि ऐसी खराब से खराब, दुर्गम सड़कों को नापकर आई कि मैं सोचता था कि आज मेरी गाड़ी तो गई लेकिन कुछ भी नहीं हुआ। 
आखिरी बार जब सर्विसिंग कराई थी तो मैकेनिक ने खुश होकर कहा कि इतने लोग गाड़ी लेकर आते हैं लेकिन आपकी गाड़ी एकदम अलग ही महसूस होती है, गजब मैंटेन करके रखे हो, मैं भी सोचने लग गया कि आखिर मैंने ऐसा क्या खास कर दिया। हाँ ये है कि मैंने अपनी बाइक के साथ किसी प्रकार की हिंसा नहीं की, खुद अपने स्तर पर भी हिंसा करने से परहेज ही किया है शायद वही चीज यहाँ भी आई हो।
भारत घूमकर आने के बाद मैंने एक अपने आटोमोबाइल एक्सपर्ट साथी से कहा कि भाई जापान की इंजीनियरिंग का कोई तोड़ नहीं, वाकई मान गया, तो उसने जवाब में कहा - असल बात वो नहीं है, तू चलाया अच्छे से है, कल इतने सारे फुटेज देखने के बाद यह बात महसूस हुई। 

Monday, 25 October 2021

किसानों के लिए 5 महीने की लंबी पदयात्रा -

पिछले 11 महीने के आंदोलन में सैकड़ों ऐसे लोग देखे जो किसानों के मुद्दे को लेकर देश भर में लंबी लंबी यात्राएं कर रहे हैं, कोई कार से जागरूकता फैला रहा है, किसान काफिला नाम की टीम रही जिनकी कार छह महीने से अधिक किसानों के मुद्दों को लेकर भारत के कोने-कोने में जाकर लोगों को जागरूक करती रही, कोई मोटरसाइकिल से निकल गया ( गिलहरी योगदान मैंने भी देने की कोशिश की ), कुछ लोग साइकिल से निकले, ऐसे लोग बहुत रहे, मित्र सोनू भाई भी इनमें से एक हैं जिन्होंने महीनों तक किसानों के मुद्दे को लेकर भारत भ्रमण किया, कुछ समय पहले असम‌ का एक लड़का गुवाहाटी से सिंघु बार्डर यानि आंदोलन स्थल तक की दूरी महीने भर में तय किया। और कुछ लोगों ने महीनों तक कलश लेकर पैदल यात्राएँ भी की, कोई महाराष्ट्र से, कोई मध्यप्रदेश से, तो कोई केरल तमिलनाडु से। विदेशों से हर महीने, तीन महीने में भारत आकर आंदोलन स्थल में रहकर सेवा करने वाले लोग भी बहुत हैं। ऐसे तमाम लोगों की लंबी लिस्ट बनाई जा सकती है। 

इनकी तस्वीर इसलिए भी साझा कर रहा हूं क्योंकि इनकी यात्रा मेरे देखने में अभी तक की सबसे लंबी पदयात्राओं में से एक है। इसके अलावा भी देखें तो पंजाब हरियाणा राजस्थान से आए दिन लोग पैदल यात्रा करके आते रहते हैं, 300-400 किलोमीटर तो अब आम हो गया है, क्या बच्चे क्या बूढ़े कितने लोग ऐसा योगदान दे चुके हैं, बहुत से अपाहिज लोगों ने अधेड़ उमर में अपनी ट्राईसाइकिल तक में आंदोलन स्थल तक की दूरी कई-कई सप्ताह में पूरी की है। हर कोई अपने खर्चे से कर रहा है, ऐसे लोगों के उद्देश्य को देखकर, इनकी जिजीविषा को देखकर लोग स्वेच्छा से मदद भी करते हैं, वो बात अलग है विरोध करने वालों की भी संख्या उतनी ही है।

आंदोलन के ऐसे बहुत से जीवंत पहलू हैं, आंदोलन दिल्ली की सीमाओं में कोई किसान नेता नहीं चला रहा है, आप सारे किसान नेताओं को आज हटाकर बात करिए, फिर भी आंदोलन खत्म नहीं होगा और वो इसलिए क्योंकि किसान आंदोलन भारत के आम‌ लोग चला रहे हैं, चाबी उनके हाथ में है, किसान आंदोलन को खत्म करना है तो जो निःस्वार्थ भाव से पैदल और साइकिल में लंबी दूरी तय कर रहा है उनके हौसले को खत्म करिए, जो लोग वहाँ 11 महीने से सड़कों पर हैं, मौसमी मार और सरकारी मार झेलते हुए इस्पात जैसा हौसला लिए टिके हुए हैं, गोली तक खाने से परहेज नहीं कर रहे कि इससे आने वाली नस्लें बर्बाद हो जाएगी, इनके हौसले को आप जाकर खत्म कर लीजिए, आंदोलन कल क्या आज ही खत्म हो जाएगा। बहुत लोग मुझे पिछले क ई महीनों से घर बैठे कहते आ रहे हैं कि अब तो आंदोलन खत्म हो जाएगा, आज मैं उनसे कह रहा हूं कि आप ये बात 163 दिनों से किसानों के लिए पैदल यात्रा कर रहे उस इंसान को जाकर समझा दीजिए। भारतीय उपमहाद्वीप से कहीं दूर दूसरे महाद्वीप में बैठे लोगों को भी समझ आ गया है कि यह आंदोलन अपना मुकाम हासिल किए बिना खत्म नहीं होगा, लेकिन आप नहीं समझ पा रहे हैं क्योंकि आपने अभी तक महसूस ही नहीं किया है।

किसानों को इतने लंबे समय तक टिके रहने का हौसला कहाँ से मिल रहा है, यह आपको अगर अभी तक नहीं समझ आया है तो इसे जानने के लिए आपको उस जगह में जाकर वहाँ की आबोहवा को महसूस करना पड़ेगा, स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा अहिंसक आंदोलन चल रहा है। हो सके तो वहाँ बैठे लोगों से मिलकर आइए, उनसे बात करिए, क्योंकि किसान देश बचाने निकले हैं।



Sunday, 24 October 2021

रिश्ते चलाने के दस रामबाण नुस्खे -

1. रेस्तराँ के खाने के बारे में चर्चा करें लेकिन शुध्द सब्जियों की जरूरत से संबंधित चर्चा करने से बचें। 
2. नशीले पदार्थों पर बैन लगने का समर्थन करें लेकिन फल सब्जियाँ अनाज इनमें जहर घुल चुका है, इस पर गंभीर चर्चा की उम्मीद न रखें।
3. दुकान में खरीददारी करने जाएं लेकिन बाजारवाद पर बात न करें।
4. म्यूजिक सिस्टम खरीदें, धार्मिक पारिवारिक देशभक्ति वाली फिल्में देखें लेकिन कला, संगीत, सिनेमा आदि पर गंभीर चर्चा से परहेज करें।
5. एक लाइन में कहें कि आजकल के बच्चे बहुत बदमाश हैं, बच्चों युवाओं की सोच में परिवार, समाज की भूमिका पर बात न छेड़ें।
6. पढ़ाई नौकरी की बात करें लेकिन अच्छी किताबों से जुड़ी बातें अपने तक ही सीमित रखें।
7. अच्छे स्कूल कालेज सर्च करने तक सीमित रहें, शिक्षा की बात न करें।
8. देश समाज राजनीति से जुड़ी चर्चाओं को अपनी घर की चारदीवारी से दूर रखें। बस अपने परिचित नेताओं अधिकारियों के नाम पर चर्चा कर बात खत्म करें।
9. कुछ बातें, कुछ चर्चाएं अपने तक ही सीमित रखें, रिश्तों की दाँवपेंच में आपका अध्ययन, आपकी सोच इसके लिए स्पेस नहीं होता है। इस सच को स्वीकारते हुए आगे बढ़ें।
10. याद रखें कि आप रिश्ते को जी नहीं रहे हैं, आप चला रहे हैं, तो ज्यादा दिमाग न लगाएं, चुपचाप बाकी लोगों की तरह चलाएं। 

Friday, 22 October 2021

Gurpreet singh sangha on Farmers protest

 Gurpreet Singh Sangha take on Farmers Protest -

ओ बात सुनो बड़े फन्ने खाँ जी।
ये बदमाशी, ये स्वाग, ये दम्भ, ये अकड़, ये गुरूर, ये मैं, ये हम, ये सब घर पे छोड़ दो।
इस किसान आंदोलन की ज़रूरत पंजाब, हरियाणा, यूपी, राजस्थान के किसानों को है। 
ना कि, इस आंदोलन को इन सब के किसानों के स्वार्थों की।
जब देखो कोई ना कोई एक टेढ़ा चलता है।
कोई कहता है "यूँ हुआ तो असीं पंजाब वापस चले जायेंगे, अगर हमारे सिस्टम नहीं माने"
हरियाणे वाला ने कहा "ये पंजाब वालों का यूँ नहीं चलेगा, इब हम ना सपोर्ट करते फेर इनको"
यूपी वाला भी बोल देता है "आखिर कर, हम जुड़ें हैं साथ में, लेकिन म्हारे हिसाब से चलियो, आजकल नेता हमारा टॉप है"
बात सुनो कान खोल के।
सरकार भूस भर दे गी, अगर अलग होकर लड़े तो।
लफ़्फ़ाज़ी छोड़ोगे तो खुद ध्यान आएगा कि पिट चुके हो अलग अलग लड़कर, अलग अलग वक़्त पर। रेल बनाई है सरकारों ने तुम्हारी वक़्त वक़्त पर।
कोई हरियाणे वाला पंजाब के लिए नहीं, कोई यूपी वाला हरियाणे के लिए नहीं और ना ही पंजाब वाला यूपी के किसान के लिए लड़ रहा है। सबकी लड़ाई अपने जायज़ हकों के लिए है।
किसी का किसी पे कोई एहसान नहीं है। सबको अपनी ज़मीन की, अपनी कमाई की, अपनी ग़ैरत/इज़्ज़त की, अपनी पुश्तों की ग़ुलामी की फिक्र है। 
लड़ सब अपने लिए रहे हैं, लेकिन वक़्त वक़्त पर एहसान ऐसा करते हैं, की आंदोलन किसी ब्रह्मकुमारियों का था, और कोई महान सेवा कर दी इन्होंने।
उन वालों ने न्यू कहा, उन वालों ने ये क्यों कहा, इन वाले तो ये ना बोले, हमारे यहां तो यूँ नहीं होता। हमारे रिवाज़ तो अलग हैं। 
आधा वक़्त यही रंडी रोने चलते हैं।
किस ने कहा है तुम सब "एक" हो? ज़बरदस्ती के?
"तुम एक नहीं हो, लेकिन सब एक जैसे हो। तुम्हारे रिवाज़ बोली अलग हैं, लेकिन तुम्हारे हक़ एक हैं। तुम्हारे धर्म चाहे अलग हैं, लेकिन खून एक है। लोकल मुद्दे चाहे कई अलग भी हों, लेकिन बड़ी लड़ाई एक है/एक से ही है।" 
ये फ़र्क़ समझो मूढ़ मति वालो। 
We are different but we r the same. We are fighting a common enemy. Our interests are common.
जाना है तो जाओ। तुम्हारी मर्ज़ी।
खिंड जाओ, बंट जाओ, कुएं में पड़ो।
याद रखना तुम्हारे बच्चों से जूते चटवाएँगे ये सेठों के बच्चे। नीली वर्दियां पहन के तुम्हारे बच्चे ग़ुलामी करेंगे लालाओं की। उस दिन बस याद करना महाराजा रणजीत सिंह, महाराजा सूरजमल, बिरसा मुंडा को। उस दिन बाइसेप दिखाना अपने, फ़िर पता चलेगा।
हद है यार। सबको पता है, सबको समझ है कि ये आखिरी स्टैंड है। 
फिर भी कोई कांड / गलती होते ही फिर राड़ शुरू कर देते हो, बजाए की एक मिनट में मिट्टी डाल कर आगे बढ़ने के।
फर्क समझो घटनाओं में और एक निरंतर आंदोलन में।
आन्दोलन में हज़ारों घटनाएं रोज़ होती हैं/होंगी। अच्छी भी होंगी, बुरी भी होंगी।
फर्क समझो किसी व्यक्ति में या आंदोलन में।
आंदोलनों में लाखों छोटे बड़े व्यक्ति आएंगे/जाएंगे। अच्छे भी आएंगे, बुरे भी आएंगे। क्योंकि आने तो अपने समाज से हैं ना? चाँद से तो आएंगे नहीं, जो सभी दूध के धुले आएंगे।
ये जानते हुए भी तुम किसी घटना/किसी व्यक्ति के कारण मोर्चा छोड़ने के तरीके सोचोगे/धमकियां दोगे?
एक इन पंजाब वाले धर्म प्रचार वालों का समझ नहीं आता। खुश तुम बहुत होते हो, जब कोई यहां सिख धर्म में रूचि दिखाता है, लेकिन आज तक तुमने एक कैम्प नहीं लगाया, जहां धर्म और कट्टरवाद में फर्क समझाएं हों।
फिर जब लंपट बाबा अमन जैसे, लोगों को बरगला लेते हैं, उल्टे सीधे काम में फंसा देते हैं, फिर रोते हो "पंथ खतरे में है।"
उस पर ये हमारा SKM भी माशा-अल्लाह है। मानवीय अत्याचारों की वजह से आप लाख कोसो तालिबान को, लेकिन वहां अफ़ग़ानिस्तान में अनपढ़ तालिबानियों ने भी बाकायदा एक मीडिया फोरम बनाया, एक स्पोक्सपर्सन बनाया "कि सिर्फ ये बात करेगा मीडिया से। सिर्फ इसकी बात हमारी आधिकारिक बात है।"
स्वीकारो इस बात को की टिकैत को हर कानूनी आरक्षण के पैंतरों की जानकारी ना है, और पंजाब वाले लीडरों की अंग्रेज़ी छोड़ो/हिंदी भी पंजाबी तड़का लगा कर बनती है। क्यों नहीं 11 महीनों में 1 पढ़ी लिखी टीम तैयार करी मीडिया पैनल की?
कारण है "चौधर/सरदारी"। बस माइक मुंह में ठूंसना है, और कैमरा हटने नहीं देना सामने से। ज़िला/तहसील से ऊपर उठे हो लीडरों/अपने रुतबे भी बड़े करो।
और एक बात बताओ। तुम सरकार को फुद्दू समझते हो क्या? क्या वो तुम्हारे रूल्स पर खेलने को बाध्य है?
अभी तो उन्होंने षड्यंत्र से एक दलित मरवाया, विभत्स हत्या करवाई,और इधर शुरू हो गए हमारे कागज़ी शेर "बस करो, बस करो, इससे अच्छा है आंदोलन बंद ही कर दो"
थू है #^$&# है तुमपे 😡
लिख के देता हूँ, वो अगली बार एक लोकल सोनीपत के एक जाट को मरवाएँगे सिखों से। गंदी, क्रूर मौत।
या फिर पंजाब से आती जीप को रोककर मुरथल के पास, कुछ लोकल जाट गाड़ी से निकालकर 2 सिखों को पीट पीटकर मार देंगे।
फिर?
शुरू कर दोगे रुदाली रुदन चूड़ियां तोड़ के? खत्म आंदोलन?
आक थू %^@#*$ है फिर से 😡
क्या इतने सुन्न दिमाग हो तुम लोग, की तुम्हे लगता है कि इस काम के लिए उनके पास हज़ारों सिखों की/ हज़ारों जाटों की लाइन नहीं लगी हुई? 
ग़लतफ़हमी निकाल दो की हर सिख, जाट, किसान, मज़दूर तुम्हारे साथ है। बमुश्किल 50-60% है। इतने ने भी झाग निकाल रखी है सरकार की।
फैक्ट है कि हर तीसरा या चौथा हम में से बिकने तो तैयार है। 
और तुम लगे हो शेखचिल्ली के कबूतर उड़ाने "सुन लो अम्मी मरहूम, यूँ होगा, तभी यूँ होगा।"
आखिर में बस इतना कहूंगा।
खुद के लिए लड़ रहे हो। 
किसी के बाप पे एहसान नहीं कर रहे। 
किसी राज्य का किसी राज्य पर नहीं और किसी जाति/धर्म का किसी दूसरी जाति/धर्म पर कर्ज़ नहीं है और ना ही कोई एहसान है।
और हां, लड़ाई तो अभी और बढ़नी है। 99.99% को तो घर बैठे सेक भी ना अभी तक। बताओ ज़रा एक एक करके, कि क्या क्या खो दिया तुमने, जो लोग दूर बैठे ज्ञान बांटते हैं?
संभल जाओ किसान पुत्रों, पुत्रियों, माताओं, बहनों।
फिर सुनो, ये आखिरी लड़ाई है। और ये लड़ाई सब मांगेगी तुमसे। 
पैसा, पसीना और खून।
चचा इकबाल कह ही गए थे तब हमें कि:
*न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्ताँ वालो*
*तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में*
इकठ्ठे रहे तो ही लड़ेंगे, इकठ्ठे रहे तो ही जीतेंगे ✊

Thursday, 21 October 2021

मेरी तमीज -

कभी किसी की तारीफ करने का शऊर नहीं आया, 
दुनिया एक तरह जहाँ मीठी बातें करते हुए आगे बढ़ रही थी,
जहाँ दुनियावी रिश्ते इसी तर्ज पर बन रहे थे, 
मैं किनारे बैठा खामोश यह सब देख रहा था,
मुझे कभी तारीफ करना न आया,
जिनकी दोस्तियाँ नसीब हुई,
उन्होंने भी यह कहते हुए किनारे किया,
कि मुझमें खूबसूरती की समझ नहीं,
कि मुझे तारीफ करना तक नहीं आता,
दुनिया जहाँ के खतरे उठाए, गिरा, लड़खड़ाया, फिर खड़ा हुआ,
सीखते हुए आगे बढ़ता गया, कभी उफ्फ नहीं किया,
लेकिन जोर जबरदस्ती कभी तारीफ करना न आया,
लोग कहते कि मुझमें तमीज की कमी है,
लोग कहते कि मुझमें इंसानी भावनाओं की कमी है,
लोग कहते कि मुझमें अहं कूट-कूट कर भरा है,
मैं चुपचाप सुन लेता और आगे बढ़ जाता,
दुनिया के तौर तरीके देखता और लगातार सीखता,
लेकिन कभी जबरन तारीफ करना नहीं आया,
क्योंकि हमेशा ये बोझ जैसा ही लगा,
बिन माँगे सलाह देना भी कभी न आया,
जबरन किसी की चिंता करने की औपचारिकता निभाना,
यह अबोध बालक जीवन की इस सीख से भी वंचित रहा।
तारीफ करना, सलाह देना और सरपरस्ती करना,
जीवन जीने की इन जरूरी चीजों की तमीज 
मैं कभी विकसित नहीं कर पाया।
एक शब्द में अगर कहूं, 
तो कभी बोझ बनना नहीं आया,
अभी भी नहीं आया है,
न तो दूसरों के लिए न ही अपने लिए।
लेकिन‌ अरसे बाद इस नाचीज को ख्याल आया,
कि किसी के लिए सोच लिया जाए,
लेकिन इस बात का हमेशा ख्याल रहता है,
कि ये शब्द अगर किसी के हिस्से आएं,
तो जाकर उसका मन हल्का करें,
न कि उसके लिए बोझ बन जाएं।
क्योंकि जीवन जीने की तमीज विकसित करने के लिए,
हमेशा साथ बने रहने का बार-बार दिखावा करने के बजाय,
कुछ समय अकेला छोड़ना सच्चे अर्थों में साथ निभाना है।

Sunday, 17 October 2021

किसान आंदोलन का विरोध करने वालों के प्रकार -

1. पहले वे लोग हैं जो एकदम बैल बुध्दि हैं, बैल बुध्दि मतलब जो ज्यादा दिमाग नहीं लगाते हैं, इनको कोई भी अपने हिसाब से जब चाहे हाँक सकता है, बहुसंख्य आबादी इन्हीं की है, इन्हें भक्त या भगत भी कहा जाता है, भक्त किसी भी पार्टी, विचारधारा, व्यक्ति का समर्थक हो सकता है, इनके लिए किसान आंदोलन में खलिस्तानी आतंकवादी हैं तो हैं, इनके हिसाब से किसान आंदोलन पंजाब और हरियाणा के लोगों का आंदोलन है आदि आदि। मीडिया ने और आईटी सेल ने कह दिया तो वही आखिरी सच है, आप इनसे कुछ और बात भी नहीं कर सकते‌ हैं, ये अपने कुतर्कों पर इतनी मजबूती से टिके होते हैं कि आपका तर्क कम पड़ जाएगा लेकिन इनका कुतर्क कभी खत्म नहीं हो सकता है।

2. दूसरे वे लोग होते हैं जिनको सरकार के हर कानून का, सरकार के हर कदम का समर्थन करना होता है, भले ही वह कानून आगे जाकर सबसे ज्यादा उन्हें ही क्यों न नुकसान पहुंचाता हो, लेकिन सरकार की भक्ति करनी है तो करनी है, पीछे नहीं हटते हैं, इनसे आप कभी भी कृषि कानूनों के बारे में चर्चा नहीं कर सकते हैं, इनके मस्तिष्क में सब कुछ पहले से फिक्स है, सरकारी फरमान ही इनके लिए आखिरी सच है। सरकार के हर फैसले का मुंह उठाकर विरोध करने वालों को मैं भी इसी केटेगरी का ही मानता हूं। 

3. तीसरे वे लोग हैं जिनको मैं बहुत मासूम मानता हूं, इनमें खूब पढ़े-लिखे प्रबुध्द लोग हैं, ये किसी के अंध समर्थक नहीं होते हैं लेकिन ये हर बात में विशेषज्ञ बनते रहते हैं, भले मानुष लोग होते हैं, देश का समाज का भला हो, यही मानसिकता रखते हैं, इस पर काम भी करते रहते हैं। इन प्रबुध्दजनों को लगता है कि घर बैठे दो चार आर्टिकल पढ़ के, टीवी या वीडियो देख के उन्होंने जो समझ विकसित की है, वही दुनिया का आखिरी सच है, इनके साथ एक सहूलियत यह रहती है कि इनसे आप बहस चर्चा कर सकते हैं। मजे की बात देखिए कि इन मासूम लोगों को 11 महीने से चला आ रहा यह अहिंसक आंदोलन कांग्रेसियों या अन्य किसी पार्टी या विचारधारा द्वारा प्लांट किया हुआ आंदोलन लगता है। 

4. चौथी केटेगरी उन लोगों की है, जिन्हें मैं एक शब्द में धूर्त कहता हूं, महाधूर्त और महामूर्ख जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाए तो भी गलत नहीं होता। ये केटेगरी उन लोगों की है जो देश चलाते हैं, ये वे लोग हैं जिन्होंने इन काले कानूनों को अमलीजामा पहनाया। ये समाज के दुश्मन लोग हैं, ये समाज का भला चाह लें इनसे आप भूलकर भी ऐसी उम्मीद नहीं कर सकते हैं। ये कैटेगरी नौकरशाहों की है, पिछले 11 महीनों से किसान आंदोलन को लेकर कुछ एक वरिष्ठ नौकरशाहों से बातचीत हुई। मुझे लगता था कि जो लोग जिला, राज्य से लेकर केन्द्र स्तर तक प्रशासनिक व्यवस्था देखते हैं, उनमें कुछ तो समझ का स्तर होगा ही। अब चूंकि ये सबसे ज्यादा विशेषज्ञ कहा जाने वाला वर्ग है, तो ये अपनी एक कविता, कहानी या कोई भी बात कुछ विशेष शब्द या भारी भरकम बात कहते हुए रखता है ताकि आमजन से अलग इनकी छवि बने, इसलिए आप देखिएगा कि इनकी सामान्य सी बात में भी आपको आमजन वाली भाषा का पुट नहीं मिलता है, वो बात अलग है कि भाषाई मकड़जाल के पीछे अधिकतर लोग बहुत ही सतही बात ही कर रहे होते हैं। अब इनमें से अधिकतर लोगों की सोच यह है कि किसान आंदोलन बड़े किसानों जमींदारों का आंदोलन है, और वे छोटे किसानों का और शोषण करेंगे इसलिए इस कानून का विरोध कर रहे हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि अगर इस नौकरशाही को किसानों की इतनी ही चिंता होती तो इस कानून का ड्राफ्ट ही तैयार न करते। छोटा किसान बनाम बड़ा किसान जैसा छिछला बचकाना तर्क दे रहे हैं, इनसे कहीं ज्यादा समझदार तो ऊपर की बाकी तीनों कैटेगरी के लोग लगते हैं। 

#farmersprotest

Highway to the stars - 6

Came home with mother. She was in black dress.

4 pm 

17 Oct 2021

Monday, 11 October 2021

Highway to the stars - 5

Heard her voice after a long time, she was yelling at someone and then starts sobbing. 


4 PM

11 Oct 2021

Tuesday, 5 October 2021

लखीमपुर जैसी घटनाओं के लिए सबसे बड़े जिम्मेदार आप और हम हैं -

जब भी हमारे देश में हिंसा की कोई भी घटना घटित होती है, उसमें हम एक समाज के रूप में सबसे पहले न्याय की माँग करते हैं, आरोपियों के लिए सजा की माँग करते हैं, लेकिन हम यहाँ से आगे नहीं बढ़ पाते हैं। हिंसा क्यों हुई, इस पर कभी ईमानदारी से नहीं सोचते हैं।
हिंसा की कोई भी घटना कैसे होती है, इस पर बात करने के लिए लखीमपुर की घटना को उदाहरण के तौर पर लेते हैं, एक गाड़ी ने लोगों को दिन दहाड़े कुचल दिया, 8 से अधिक लोग ( किसान, स्थानीय लोग और एक पत्रकार ) मारे गये। एक पल के लिए भूल जाते हैं कि कुचलने वाले कौन थे और जो कुचले गये वो कौन थे, बस ऐसे देखते हैं कि एक रसूख गाड़ी वाले ने सड़क पर खड़े आम लोगों पर गाड़ी चढ़ा दी। आज आप और हम खुद से सवाल करें कि उस गाड़ीचालक को इतनी अधिक हिम्मत आखिर आई कहाँ से? 
किस हिम्मत से उसने लोगों पर गाड़ी चढ़ा दी?
असल में उसे हिम्मत देने वाला कोई और नहीं बल्कि आप और हम हैं, कोर्ट और कानून को अभी किनारे में रखते हैं, हममें सामर्थ्य पैदा होगा, हममें नियत होगी तो कभी भी डंके की चोट पर अपने लिए बेहतर कानून और कोर्ट की व्यवस्था तैयार कर लेंगे। अभी उन आरोपियों पर आते हैं, इस देश में ऐसे तमाम हिंसा करने वाले लोगों को आज भरोसा हो चुका है कि इस देश के आम नागरिक मुर्दे हो चुके हैं, उनको यह लगता है कि हमारा खून सूख चुका है इसलिए हम कुछ दिन‌ मोमबत्ती जलाकर मौन धारण कर लेंगे, तभी ऐसी घटनाओं को चौड़े होकर अंजाम दे जाते हैं। उनको विश्वास रहता है कि आप और हम उनका कुछ भी नहीं कर पाएंगे, वे सोचते हैंं कि वे कुचल कर मार देंगे फिर भी हम एक कान‌ से सुनकर भूल जाएंगे। उनको इतना साहस, ऐसी घटनाओं को अंजाम देने का हौसला आप और हम ही देते हैं। किसी पार्टी, विचारधारा या व्यक्ति से कहीं पहले उन्हें समाज से ताकत मिलती है।
हम छोटी छोटी घटनाओं को ही उदाहरण के तौर पर लेते हैं। हम सड़क में, बाजार में राह चलते छोटी सी बात के लिए अपने से कमजोर निरीह किसी व्यक्ति को डराकर धमकाकर आनंद का अनुभव करते हैं, क्योंकि हमें भरोसा होता है कि सामने वाला हमारे इस हिंसक रवैये के खिलाफ खड़ा नहीं हो पाएगा, खड़ा हो भी गया तो उसका साथ देने कोई नहीं आएगा। देखे लेने और सबक सीखाने जैसी धमकियाँ हम थोक के भाव में देते रहते हैं। इसी मानसिकता को हम निरंतर जीते रहते हैं, कभी हम हिंसा करते हैं, तो कभी हम हिंसा के शिकार होते हैं, हिंसा के इस चैन से हम खुद को आजीवन अलग नहीं कर पाते हैं। 
यहाँ पर एक सवाल आता है कि जब एक समाज के रूप में हिंसा को हम आए रोज इतनी बड़ी मात्रा में जीते हैं, फिर उसी देश में अहिंसा परमो धर्म: जैसे सुविचारों का इतना महिमामंडन कैसे होता है, इतना बड़ा विरोधाभास कैसे। इसके पीछे भी कारण है। असल में हममें से अधिकांश लोग हिंसक हैं, अब चूंकि समाज में गहराई के स्तर तक हिंसा व्याप्त है, ऐसे में अहिंसा जैसी चीज एक सहज जीवनशैली का अंग न होकर एक आदर्श के रूप में प्रचारित कर दिया जाता है, अहिंसा के नाम पर इसलिए हमारे सामने खूब प्रतियोगिताओं, सेमिनार, कथापाठ, संगीत, कविता, सूक्ति आदि का मंचन किया जाता है, हम बड़े जोरशोर से एक एवेंट की तरह इसे सेलिब्रेट करते हैं, ठीक उसी तरह हम इसका आनंद उठाते हैं, जैसे हम हिंसा वाली तमाम घटनाओं को एक एवेंट के रूप में देखकर भुला देते हैं। अहिंसा जैसा सहज मानवीय भाव कभी हमारे जीवन का मूलभूत अंग रहा ही नहीं, अगर होता तो हमें इसे इतना अधिक महिमामंडित करने की आवश्यकता नहीं होती।
अभी कुछ दिन पहले ही हम अहिंसा के पुजारी की बातें कर रहे थे, उनके सुविचारों की बात की हमने, उनके नाम‌ पर सेमिनार किया, लंबे लंबे गद्य लिखे, कविताएँ लिखी, असल में हम यह सब इसलिए करते हैं ताकि हम अपना बचाव कर सकें, इसका हमारे जीवन में अहिंसा से कोई लेना देना नहीं होता है। हम बहुत अधिक क्रूर हिंसक होते हुए भी यह ढोंग कर सकते हैं। अहिंसा नामक बुलेटप्रूफ जैकेट पहन कर आप और हम भरपूर हिंसा कर सकते हैं, करते भी हैं। अब इससे बड़ा दुर्भाग्य हमारे लिए और क्या होगा कि इतने सहज से भाव को जीने के लिए हमें बार-बार एक व्यक्ति का सहारा लेना पड़ता है। असल में गाँधी के विचार या फिर अहिंसा को जीवन में उतार लेने की सबसे जरूरी शर्त तो यही होनी चाहिए कि हम अपने आसपास ही हिंसा और नफरत के खिलाफ खड़े हो जाएं। लेकिन जब हम खुद हिंसक हैं, हिंसा और नफरत को आए दिन जीते हैं तो हम आखिर कैसे ऐसी घटनाओं के खिलाफ आवाज उठाएंगे।
अभी पिछले एक साल को ही एक बार हम मुड़कर देखते हैं। पिछले साल कोरोना की वजह से लाॅकडाउन में हजारों लाखों मजदूरों का जीवन एक झटके में नरक बना दिया गया, कीड़े मकोड़ों से बदतर पैदल हजारों किलोमीटर पैदल चलकर घर लौटने को विवश हो गये, ट्रकों में दास गुलाम की तरह भूखे प्यासे निकल गये एक अंतहीन सफर के लिए, सीमेंट के मिक्सर तक में लोगों ने सफर किया, माँओं ने सड़कों पर बच्चे पैदा किए, कई बच्चे पैदल चल चलकर भूख से ही मर गये, कुछ को तथाकथित आपातकालीन रेलगाड़ियों ने कुचल दिया, यह सब सोच के ही दिल दहल जाता था, ये सब कुछ हमारी आँखों के सामने हो रहा था। वहीं पर्दे के दूसरी तरफ एक बड़ी आबादी इस हिंसा को मनोरंजन कार्यक्रम की तरह देखते हुए या तो थाली बजा कर सकारात्मकता का नंगा नाच कर रही थी या पकोड़े समोसे तलकर अपने जीवन को सार्थक बनाने में जुटी थी। हम सब भूल गये, एक झटके में भूल गये, हम इतने हिंसक रहे कि हमने नहीं सोचा कि हमारे अपने देश के लोगों की हालत आज जानवरों से भी बदतर हो गई है। एक तरफ लोग मर रहे थे, दूसरी तरफ लोग बड़ी बेशर्मी से उनकी मौत पर सवाल खड़ा कर रहे थे कि किसने कहा था तुम्हें मरने को, ये नीच मरेंगे और देश को बदनाम भी करेंगे, इस स्तर की भी हिंसा देखने को मिली। हमने अपने ही देश के लोगों को बर्बरता से मरने के लिए छोड़ दिया। 
समय बीत गया, फिर दूसरी लहर आई, लाशों का अंबार लग गया, लोग आॅक्सीजन की कमी और अव्यवस्था की वजह से तड़प तड़प कर इस दुनिया को अलविदा कह गये। फिर भी हमने व्यवस्था का महिमामंडन करना, सकारात्मकता का नंगा नाच करना नहीं छोड़ा। हमारे आसपास हमारे कितने अपने हमें छोड़कर चले गये, फिर भी हमारे भीतर इतनी भी नैतिक ईमानदारी नहीं रही कि हम बीमारी से हुई मौत को मौत की तरह देख पाएं। हमने वहाँ भी लाशों पर सवाल खड़ा किया, महानता का ऐसा चश्मा लगा रखा था कि दूसरे देशों से मौत के आंकड़ों की तुलना करते रहे, हमारा बस चलता हम लाशों को उठाकर पूछते कि बताओ कोरोना से मरे थे या किसी दूसरी बीमारी से? हमने कुछ समय के बाद यह सब एक झटके में भुला दिया। हमने अपने भीतर की कुंठा को, हिंसा को जीवन से निकाल फेंकने का नहीं सोचा, अगर किया होता तो आज थोड़ी बहुत संवेदनशीलता की झलक दिखाई देती, लेकिन नहीं हमने उफ्फ तक नहीं किया। हम हिंसा के प्रति इस हद तक सहज हो चुके हैं कि आज एक देश, एक समाज के रूप में हम एक मुर्दाघर बनते जा रहे हैं।
हमारी चुप्पी, हमारी खामोशी, हमारा मौन यूं ही हिंसा को खाद पानी देता रहेगा, कार के नीचे कुचला जाना ही हिंसा का शिकार होना नहीं होता है, हिंसा के खिलाफ न बोलना भी हिंसा का शिकार होना है, तमाम अव्यवस्थाएँ देखकर भी आँख मूंद लेना भी हिंसा का शिकार होना है, वे तमाम लोग हिंसा के शिकार हैं जिन्हें आज भी यह लगता है कि वे कभी भी हिंसा के शिकार नहीं हो सकते।