1. कुछ दिनों से रामचरितमानस का पारायण चल रहा था। पढ़ते-पढ़ते मुझे एक दोस्त याद आ गया, उसकी एक प्रेमिका रही, अच्छा लंबे समय तक रिश्ता चला, खूब झगड़े भी हुआ करते। लड़के को फोन पर ज्यादा बात करना पसंद ना होता, तो फोन बंद कर दिया करता तो वह लड़की आडियो मैसेज छोड़ दिया करती और पता है उस आडियो मैसेज में एक दिन क्या था - दबंग फिल्म का "दगाबाज रे" गाना। तो ऐसा रिश्ता था। उसने फोन बंद किया, ज्यादा मिलने नहीं जाता, कम बात करता लेकिन वह कभी अपनी प्रेमिका की स्वतंत्रता में बाधा नहीं बना, उसकी परीक्षा नहीं ली, नोंक-झोंक होती लेकिन परीक्षा लेने के नाम पर कभी प्रताड़ित नहीं किया, प्रेम के नाम पर कभी ढोंग और खोखले आदर्श को नहीं जिया। प्यारे दोस्त, भले तुम लापरवाह थे, तुम्हें भाषा का शऊर नहीं था, तुममें कितनी खराबियाँ थी, लेकिन तुम एक ऐसे इंसान थे जो स्वीकार करते थे कि मैं भी एक इंसान हूं और इंसान गलतियों का पुतला है। तुम इस नावेल में गढ़े गये राम से बेहतर ही हो मेरे भाई।
2. रामचरितमानस में बहुत सी चीजें कुछ ज्यादा ही ओवररेटेड हैं। अभी वो ढोल गंवार वाले विवादित कथन को ठंडे बस्ते में डाल देते हैं। राम जी भाई साब के चरित्र को ही ले लिया जाए, इनको आदर्शवादिता और मर्यादा की चाशनी में बार-बार डुबाया गया है। इतना जबरदस्त चाशनी फैलाया गया कि कहीं कहीं राम का चिर प्रतिद्वंदी रावण भी इस चाशनीकरण से अछूता नहीं है। वास्तविकता में ऐसे फिक्शन से प्रेरित होकर इस तरह आदर्शों को थोपना, देखकर चर्चा करना, तुलना करना, गलत चीजें सिखाने जैसा ही है, बहुत नकारात्मक प्रभाव सामने आते हैं, जो जैसा है नहीं, आप जबरन उसे वैसा ढाल रहे होते हैं, ऐसा करते हुए एक पूरी पीढ़ी को मानसिक विकलांगता की ओर ढकेल रहे होते हैं, उसके सहज सुकोमल भावों की तिलांजलि दे रहे होते हैं।
अभी तक जो मैंने देखा कि स्कूल में जो मित्र बिल्कुल आदर्श के रूप में प्रायोजित होते रहे, आगे जाकर उन्होंने ऐसे करम काण्ड किए कि जेल तक गये। काॅलेज के दिनों में जिन मित्रों की मदद से युगदृष्टा विवेकानन्द की किताबें पढ़ना नसीब हुआ, उन्हीं मित्रों के ऊपर छेड़छाड़ के आरोप तक लगे। जो एक समय तक सेलिबेट बनने की प्रतिज्ञा लेते रहे, योग साधना विपश्यना का आवरण ओढ़कर चलते रहे, मर्यादा पुरूष बनते रहे, आजीवन अकेले रहने का प्रण लेते रहे, दो-तीन गर्लफ्रेंड बनाकर ही उन्होंने दम लिया। ऐसे कितने ही विरोधाभास हैं। जोर जबरदस्ती लादे गये आदर्शों की एक समय सीमा होती है, उसके बाद वे बोझ बन जाते हैं, और एक दिन धड़ाम से जमीन पर गिर आते हैं, तब जाकर हमें ऐसे अनेक चौंका देने वाले उदाहरण देखने को मिलते हैं। रामचरितमानस से कहीं बेहतर फिक्शन हैरी पाॅटर सीरीज है, कम से कम वहाँ खोखले आदर्शों की जकड़न तो नहीं है। मसाला वहाँ भी है लेकिन अंतर यह है कि यहाँ धर्म का मसाला है और वहाँ विज्ञान का। आप निर्धारित कीजिए किसमें दिमागी कैंसर होने के खतरे ज्यादा हैं।
No comments:
Post a Comment