Tuesday, 28 September 2021

मेरी कुंठाएँ -

कोशिशें भरसक होती है,
लेकिन मैं इस सच को जानता हूं
कि मैं सुधर नहीं सकता।
मेरे भीतर कुंठाएँ भरपूर मात्रा में है,
जिसे मैं बराबर लोगों से बाँटता हूं।

ग्रामसचिव से लेकर केंद्रीय सचिव तक,
भृत्य से लेकर जिले के लंबरदार तक,
सबको गालियाँ देना चाहता हूं,
देश चलाने की जिम्मेदारी थामे ये लोग,
मेरा खून गर्म करते रहते हैं, 
मुझे मजबूर करते रहते हैं,
कि मैं इन पर सवाल खड़ा करूं,
और डंडे से पीटते हुए लाइन पर ले आऊं।
मेरी कुंठा की कोई सीमा नहीं है, 
ये मेरी पहली पंक्ति के कुंठा के शिकार लोग हैं,
मुझमें इन लोगों के प्रति इतनी नाउम्मीदी है, 
कि इन्हें नौकरी से बेदखल कर देना चाहता हूं।
फिर भी मेरी कुंठा शांत नहीं होती।
निराश, हताश, मायूस, आशाहीन से मुझ इंसान को,
दूसरी पंक्ति में इस देश के नेता मिलते हैं,
नेताओं को मुझे गाली देने का मन नहीं करता,
बल्कि हक से घसीटने का मन करता है,
इन्हें बेदखल करने का भी मन नहीं करता,
बल्कि इन पर राह चलते थूकने का मन करता है।
पहली पंक्ति वालों से इनका संबंध, 
मुझे इन्हें कोड़ों से पीटने के लिए विवश करता है।
इनकी सांठ-गांठ, इनका ढुल-मुल रवैया, 
मेरे खून के प्रवाह को बाधित करता है,
और फिर मैं इन्हें भी कोसता हूं,
पानी पी पीकर गरियाता हूं, 
तब भी मुझे कुछ बेहतर महसूस नहीं होता है।
मेरे कुंठा के अगले शिकार बनते हैं,
समाजसेवी, कवि, लेखक, पत्रकार आदि,
इनको मैं समाज का सच्चा दुश्मन मानता हूं,
इनकी बदनीयती देखने के बाद,
अपनी सारी तहजी़ब किनारे कर,
मैं इन्हें सरेआम दौड़ाना चाहता हूं,
इनके चेहरे पर कालिख पोतना चाहता हूं,
ताकि इनका वास्तविक चेहरा,
लोगों के सामने आ जाए।
मैं इनकी ऐसी खिदमत करना चाहता हूं,
कि इन्हें सोते हुए भी मेरा सपना आए।
इतना करने के बावजूद भी,
मुझे भीतर से राहत नहीं मिलती।
इतना मघमूम हो जाता हूं मैं और मुझे
चौथी पंक्ति में कारपोरेट मिलते हैं,
जो ऊपर लिखी पंक्ति के लोगों को चलाते हैं,
लोगों को सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक रूप से,
नियंत्रित कर लेने की शक्ति रखने वाले,
ऐसे सभी मेरी नजर में कारपोरेट हैं।
मुझे इनकी चमड़ी लाल करने का मन होता है,
इन पर मुझे कभी दया नहीं आती,
इनके लिए मेरा खून हमेशा खौलता रहता है,
इन्हें मैं मृत्युशैय्या में लेटे-लेटे गालियाँ दे सकता हूं।
देश का चौतरफा बंटाधार करने के लिए, 
इनको कोसे बिना मेरा खाना नहीं पचता,
इनके माथे पर मैं गद्दार लिखाना चाहता हूं।
फिर भी मेरे खून की गर्मी कम होती नहीं दिखती।
मेरी कुंठा खत्म होने का नाम ही नहीं लेती,
कि फिर मुझे जातिवादी कीड़े मिल जाते हैं,
पाँचवीं पंक्ति के ये बीमार मुझे रोज मिलते हैं,
इनसे मेरा रोज सामना हो जाता है।
व्यक्तिगत स्तर पर इनका प्रभाव इतना है,
इनके लिए भीतर इतना गुस्सा है,
कि इन्हें अब गाली देने का मन नहीं करता,
इन पर थूकना भी नहीं चाहता, 
इन पर लानतें भी नहीं भेजना चाहता, 
इनकी कुटाई करने का भी ख्याल नहीं आता,
मैं चाहता हूं कि इन रक्तपिपासु, नफरती कीड़ों का,
एक झटके में डीएनए ही बदल दूं।
मेरी कुंठा, मेरी गाली देने की प्रवृत्ति,
यहीं खत्म नहीं होती है।
जब इन तमाम तरीकों से मेरी कुंठा शांत नहीं होती,
फिर मैं अश्लील सामग्रियों का सेवन करता हूं,
ठुमके लगाने से लेकर योगा करने वाली स्त्रियाँ, 
हर कोई मेरी नजरों का शिकार बनती हैं।
यहाँ कुछ हद तक मेरी कुंठा शांत होती है, 
और मैं एक पल के लिए सब कुछ भूल जाता हूं।
मेरी ये तमाम कुंठाएँ,
मुझ पर इतनी ज्यादा हावी हैं,
कि मैं अपना सुधार नहीं कर सकता, 
और मुझे कोई उम्मीद भी नहीं दिखती,
कि मैं सुधर जाऊं, बेहतर इंसान बन पाऊं,
इसलिए सभ्य समाज के लोगों,
मुझ पर इतनी कृपा करना,
मुझसे सुधार की उम्मीद किए बिना,
मुझे मेरी कुंठाओं के साथ जीने देना।

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