Sunday, 12 September 2021

मान्यताएँ - एक कविता

 मान्यताएँ नहीं देती तकलीफ,
अगर सिर्फ वे मान्यताएँ भर होती,
मान्यताओं के साथ जुड़ा होता है,
परंपराओं का निर्वहन,
स्वतंत्रता का हनन,
विचारों की बलि,
स्व की आहूति।
मान्यताएँ नहीं देती तकलीफ,
अगर वह सीमित होती,
वस्त्र धारण करने
या श्रृंगार के तरीकों तक,
लेकिन इनके साथ छुपी होती है,
प्रथा रूपी बेड़ियाँ,
संस्कार रूपी तलवार,
परिवार रूपी कड़ियाँ, 
समाज रूपी पहरेदार।
मान्यताएँ नहीं देती तकलीफ,
अगर वह यह समझती कि,
एक सोमवार का उपवास,
सिंदूर और माथे की बिंदिया,
एक जोड़ी पायल, कानों की बालियाँ,
या एक 5 मीटर कपड़े का टुकड़ा,
स्त्री को असहज नहीं कर सकता,
असहज करती है वे आँखें,
उनमें छिपे असंख्य भाव,
असहज करते हैं विचार,
और उनमें छिपी सूक्ष्म हिंसा,
असहज करती है शब्दों की प्रतिध्वनियाँ,
और उनमें छिपा बंधन का तत्व।
मान्यताएँ नहीं देती तकलीफ,
अगर वह बैचेन न करती,
मन का बोझ न बनती।
मान्यताएँ नहीं देती तकलीफ,
अगर उनमें छिपा सभ्य समाज,
हमें सोचने पर विवश न करता,
हममें भय का प्रवेश न होने देता।
मान्यताएँ नहीं देती तकलीफ,
अगर इनमें छिपा ईश्वरीय तत्व,
सोच को सीमित न करता,
आजादी के बीच न आता,
एक खाँचे में न बाँधता।
मान्यताएँ नहीं देती तकलीफ,
अगर उन्हें मानने की बाध्यता न होती,
लेकिन ये चंद भौतिक तरीके,
इनको किसी भी हाल में थोप देने के लिए,
की जाने वाली तमाम वैचारिक हिंसाएं,
सिर्फ शरीर को नहीं वरन्,
आत्मा तक को गुलाम बना डालती हैं।
और ऐसी मान्यताएँ उन्हें कभी तकलीफ नहीं देती,
जिनका सब कुछ भीतर से मर चुका होता है।


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