बहुत साल पुरानी बात है, पढ़ाई के दिनों में एक लड़के के साथ रूम शेयर करना हुआ। दो लोगों के उस शेयरिंग वाले कमरे में कुछ महीनों तक मैं अकेला ही रहा। फिर एक दिन एक लड़का आया। कमरे में अपना सामान रखा फिर मेरे से उसका परिचय हुआ, परिचय क्या हुआ आते ही कहता है - भैया आदिवासी हूं, शराब पीता हूं, लेकिन पीने के बाद मेरा मुंह बंद रहता है तो आप बता दीजिए अगर आपको दिक्कत है तो, कहीं और रह लूंगा। अपना नाम बताने से पहले ही उसकी ये बात सुनकर, उसकी इस साफगोई से मैं हैरान हो गया। मैंने कहा - कोई समस्या नहीं, आजकल हर कोई पीता है, शराब को अपनी पहचान बनाकर तुम्हें अलग से यह बताने की जरूरत नहीं कि तुम आदिवासी हो।
कई महीनों तक भाई की तरह हम साथ रहे। साथ खाना बनाते, वह जिस दिन शराब पीता, अपने मित्रों के यहाँ खाना खाने सोने चला जाता ताकि मुझे असुविधा ना हो। कई बार मैं मजे लिया करता कि कभी हमारे साथ भी पार्टी कर लिया करो यार प्रभु, लेकिन उसे तो अपने देशी मसाला गैंग से ही फुर्सत नहीं मिलती थी।
धीरे-धीरे क्या हुआ। मेरी अपनी कंडिशनिंग भी हिलोरे मारने लगी। मैं उसकी जीवनशैली से चिढ़ने लगा, परेशान होने लगा। उसका शराब पीना, अपनी बारी में समय से खाना नहीं बनाना आदि छोटे-छोटे कारण रहे जिसे मुझ तथाकथित सभ्य व्यक्ति ने बड़ा मुद्दा बनाया। अब मैं उसे ताने देने लगा, डांटने लगा, सही गलत समझाने लगा, ज्ञान प्रवचन देने लगा, उसने हमेशा नजर अंदाज किया, मैंने बुरा बर्ताव भी किया, गुस्सा किया तो भी उसने कभी नाराजगी नहीं जताई, हमेशा खामोश रहा।
अचानक से क्या हुआ, वह बहुत चुप रहने लगा, उसने अपने खाने-पीने का भी सिस्टम अलग कर लिया, भले मेरे साथ कमरा शेयर करता था लेकिन दिन में भी कमरे में नहीं रहता था, कटा-कटा सा रहने लगा, मेरे से न बातचीत न आँख मिलाना, कुछ भी नहीं। मैं भी सोचने लग गया कि ऐसा क्या हो गया। मैं भी पता नहीं क्यों उससे आगे से बात करने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। फिर एक दिन मैंने कहा - भाई मुझसे गलती हुई तो माफी चाहता हूं, लेकिन अब तो खामोशी तोड़ दे, क्यों ऐसे बर्ताव कर रहा है बता भी दे भाई। उसने जो कहा वह सुनकर मैं सोच में पड़ गया। उसने कहा - भैया, मैंने देखा कि मैं आपके लिए परेशानी का सबब बन रहा हूं, इसलिए मैं सोचा मेरे थोड़ा दूर हो जाने से आपकी परेशानी कम हो जाएगी।
असल में मेरी जिद, मेरे भीतर की कुंठा यह कहती थी कि वह लड़का जैसा जीवन जीता है, वह बहुत ही घटिया जीवनशैली है, निकृष्ट है, उसकी मित्र मंडली संगति सब कुछ बेकार है, निचले दर्जे का है आदि आदि। और वहीं उसके ठीक उलट मैं जैसा जीवन जीता हूं, वही आदर्शवादी जीवन है, उसे भी ऐसा जीवन जीना चाहिए और मुझसे सीखना चाहिए, अपनी यही सोच मैं उस पर थोपने का ही काम कर रहा था। मैं उसे अपने बने बनाए सही गलत के खाँचे में फिट करने चला था, लेकिन ऐसी हिमाकत करने वाला मैं होता कौन हूं ये सवाल भी मैंने थोड़ा समय गुजर जाने के बाद खुद से किया।
आज भी उसकी वह बातें याद करता हूं तो सोचता हूं, ऐसे साफ मन के लोग और कितने होंगे। बहुत से अलग-अलग लोगों के साथ काॅलेज के दिनों में भी रहा, लेकिन वैसी साफगोई वैसी सहजता वैसा सौंदर्यबोध कहीं और महसूस नहीं हुआ।
मैंने उसके साथ रहते हुए एक चीज सीखी कि हम भारतीयों को अमूमन अपने आसपास अपने जैसे ही लोग चाहिए होते हैं। हम उनके बीच ही सहज और सुरक्षित महसूस करते हैं। हमें अपने से अलग चरित्र का, सोच-विचार का, बिल्कुल अलग तरीके से जीवन यापन करने वाला कोई मिल जाता है, और उसमें भी जहाँ हमें सामाजिक और जातिगत तरीके से ऊँच नीच वाला एंगल मिल जाता है तो भले ही हम कितने भी सामाजिक न्याय के पुरोधा बनते हों, हमारे भीतर कहीं छुपा हुआ एक हिंसक जातिवादी प्रतिक्रिया देने लग जाता है।
कई महीनों तक भाई की तरह हम साथ रहे। साथ खाना बनाते, वह जिस दिन शराब पीता, अपने मित्रों के यहाँ खाना खाने सोने चला जाता ताकि मुझे असुविधा ना हो। कई बार मैं मजे लिया करता कि कभी हमारे साथ भी पार्टी कर लिया करो यार प्रभु, लेकिन उसे तो अपने देशी मसाला गैंग से ही फुर्सत नहीं मिलती थी।
धीरे-धीरे क्या हुआ। मेरी अपनी कंडिशनिंग भी हिलोरे मारने लगी। मैं उसकी जीवनशैली से चिढ़ने लगा, परेशान होने लगा। उसका शराब पीना, अपनी बारी में समय से खाना नहीं बनाना आदि छोटे-छोटे कारण रहे जिसे मुझ तथाकथित सभ्य व्यक्ति ने बड़ा मुद्दा बनाया। अब मैं उसे ताने देने लगा, डांटने लगा, सही गलत समझाने लगा, ज्ञान प्रवचन देने लगा, उसने हमेशा नजर अंदाज किया, मैंने बुरा बर्ताव भी किया, गुस्सा किया तो भी उसने कभी नाराजगी नहीं जताई, हमेशा खामोश रहा।
अचानक से क्या हुआ, वह बहुत चुप रहने लगा, उसने अपने खाने-पीने का भी सिस्टम अलग कर लिया, भले मेरे साथ कमरा शेयर करता था लेकिन दिन में भी कमरे में नहीं रहता था, कटा-कटा सा रहने लगा, मेरे से न बातचीत न आँख मिलाना, कुछ भी नहीं। मैं भी सोचने लग गया कि ऐसा क्या हो गया। मैं भी पता नहीं क्यों उससे आगे से बात करने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। फिर एक दिन मैंने कहा - भाई मुझसे गलती हुई तो माफी चाहता हूं, लेकिन अब तो खामोशी तोड़ दे, क्यों ऐसे बर्ताव कर रहा है बता भी दे भाई। उसने जो कहा वह सुनकर मैं सोच में पड़ गया। उसने कहा - भैया, मैंने देखा कि मैं आपके लिए परेशानी का सबब बन रहा हूं, इसलिए मैं सोचा मेरे थोड़ा दूर हो जाने से आपकी परेशानी कम हो जाएगी।
असल में मेरी जिद, मेरे भीतर की कुंठा यह कहती थी कि वह लड़का जैसा जीवन जीता है, वह बहुत ही घटिया जीवनशैली है, निकृष्ट है, उसकी मित्र मंडली संगति सब कुछ बेकार है, निचले दर्जे का है आदि आदि। और वहीं उसके ठीक उलट मैं जैसा जीवन जीता हूं, वही आदर्शवादी जीवन है, उसे भी ऐसा जीवन जीना चाहिए और मुझसे सीखना चाहिए, अपनी यही सोच मैं उस पर थोपने का ही काम कर रहा था। मैं उसे अपने बने बनाए सही गलत के खाँचे में फिट करने चला था, लेकिन ऐसी हिमाकत करने वाला मैं होता कौन हूं ये सवाल भी मैंने थोड़ा समय गुजर जाने के बाद खुद से किया।
आज भी उसकी वह बातें याद करता हूं तो सोचता हूं, ऐसे साफ मन के लोग और कितने होंगे। बहुत से अलग-अलग लोगों के साथ काॅलेज के दिनों में भी रहा, लेकिन वैसी साफगोई वैसी सहजता वैसा सौंदर्यबोध कहीं और महसूस नहीं हुआ।
मैंने उसके साथ रहते हुए एक चीज सीखी कि हम भारतीयों को अमूमन अपने आसपास अपने जैसे ही लोग चाहिए होते हैं। हम उनके बीच ही सहज और सुरक्षित महसूस करते हैं। हमें अपने से अलग चरित्र का, सोच-विचार का, बिल्कुल अलग तरीके से जीवन यापन करने वाला कोई मिल जाता है, और उसमें भी जहाँ हमें सामाजिक और जातिगत तरीके से ऊँच नीच वाला एंगल मिल जाता है तो भले ही हम कितने भी सामाजिक न्याय के पुरोधा बनते हों, हमारे भीतर कहीं छुपा हुआ एक हिंसक जातिवादी प्रतिक्रिया देने लग जाता है।
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