Tuesday, 28 September 2021

मेरी कुंठाएँ -

कोशिशें भरसक होती है,
लेकिन मैं इस सच को जानता हूं
कि मैं सुधर नहीं सकता।
मेरे भीतर कुंठाएँ भरपूर मात्रा में है,
जिसे मैं बराबर लोगों से बाँटता हूं।

ग्रामसचिव से लेकर केंद्रीय सचिव तक,
भृत्य से लेकर जिले के लंबरदार तक,
सबको गालियाँ देना चाहता हूं,
देश चलाने की जिम्मेदारी थामे ये लोग,
मेरा खून गर्म करते रहते हैं, 
मुझे मजबूर करते रहते हैं,
कि मैं इन पर सवाल खड़ा करूं,
और डंडे से पीटते हुए लाइन पर ले आऊं।
मेरी कुंठा की कोई सीमा नहीं है, 
ये मेरी पहली पंक्ति के कुंठा के शिकार लोग हैं,
मुझमें इन लोगों के प्रति इतनी नाउम्मीदी है, 
कि इन्हें नौकरी से बेदखल कर देना चाहता हूं।
फिर भी मेरी कुंठा शांत नहीं होती।
निराश, हताश, मायूस, आशाहीन से मुझ इंसान को,
दूसरी पंक्ति में इस देश के नेता मिलते हैं,
नेताओं को मुझे गाली देने का मन नहीं करता,
बल्कि हक से घसीटने का मन करता है,
इन्हें बेदखल करने का भी मन नहीं करता,
बल्कि इन पर राह चलते थूकने का मन करता है।
पहली पंक्ति वालों से इनका संबंध, 
मुझे इन्हें कोड़ों से पीटने के लिए विवश करता है।
इनकी सांठ-गांठ, इनका ढुल-मुल रवैया, 
मेरे खून के प्रवाह को बाधित करता है,
और फिर मैं इन्हें भी कोसता हूं,
पानी पी पीकर गरियाता हूं, 
तब भी मुझे कुछ बेहतर महसूस नहीं होता है।
मेरे कुंठा के अगले शिकार बनते हैं,
समाजसेवी, कवि, लेखक, पत्रकार आदि,
इनको मैं समाज का सच्चा दुश्मन मानता हूं,
इनकी बदनीयती देखने के बाद,
अपनी सारी तहजी़ब किनारे कर,
मैं इन्हें सरेआम दौड़ाना चाहता हूं,
इनके चेहरे पर कालिख पोतना चाहता हूं,
ताकि इनका वास्तविक चेहरा,
लोगों के सामने आ जाए।
मैं इनकी ऐसी खिदमत करना चाहता हूं,
कि इन्हें सोते हुए भी मेरा सपना आए।
इतना करने के बावजूद भी,
मुझे भीतर से राहत नहीं मिलती।
इतना मघमूम हो जाता हूं मैं और मुझे
चौथी पंक्ति में कारपोरेट मिलते हैं,
जो ऊपर लिखी पंक्ति के लोगों को चलाते हैं,
लोगों को सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक रूप से,
नियंत्रित कर लेने की शक्ति रखने वाले,
ऐसे सभी मेरी नजर में कारपोरेट हैं।
मुझे इनकी चमड़ी लाल करने का मन होता है,
इन पर मुझे कभी दया नहीं आती,
इनके लिए मेरा खून हमेशा खौलता रहता है,
इन्हें मैं मृत्युशैय्या में लेटे-लेटे गालियाँ दे सकता हूं।
देश का चौतरफा बंटाधार करने के लिए, 
इनको कोसे बिना मेरा खाना नहीं पचता,
इनके माथे पर मैं गद्दार लिखाना चाहता हूं।
फिर भी मेरे खून की गर्मी कम होती नहीं दिखती।
मेरी कुंठा खत्म होने का नाम ही नहीं लेती,
कि फिर मुझे जातिवादी कीड़े मिल जाते हैं,
पाँचवीं पंक्ति के ये बीमार मुझे रोज मिलते हैं,
इनसे मेरा रोज सामना हो जाता है।
व्यक्तिगत स्तर पर इनका प्रभाव इतना है,
इनके लिए भीतर इतना गुस्सा है,
कि इन्हें अब गाली देने का मन नहीं करता,
इन पर थूकना भी नहीं चाहता, 
इन पर लानतें भी नहीं भेजना चाहता, 
इनकी कुटाई करने का भी ख्याल नहीं आता,
मैं चाहता हूं कि इन रक्तपिपासु, नफरती कीड़ों का,
एक झटके में डीएनए ही बदल दूं।
मेरी कुंठा, मेरी गाली देने की प्रवृत्ति,
यहीं खत्म नहीं होती है।
जब इन तमाम तरीकों से मेरी कुंठा शांत नहीं होती,
फिर मैं अश्लील सामग्रियों का सेवन करता हूं,
ठुमके लगाने से लेकर योगा करने वाली स्त्रियाँ, 
हर कोई मेरी नजरों का शिकार बनती हैं।
यहाँ कुछ हद तक मेरी कुंठा शांत होती है, 
और मैं एक पल के लिए सब कुछ भूल जाता हूं।
मेरी ये तमाम कुंठाएँ,
मुझ पर इतनी ज्यादा हावी हैं,
कि मैं अपना सुधार नहीं कर सकता, 
और मुझे कोई उम्मीद भी नहीं दिखती,
कि मैं सुधर जाऊं, बेहतर इंसान बन पाऊं,
इसलिए सभ्य समाज के लोगों,
मुझ पर इतनी कृपा करना,
मुझसे सुधार की उम्मीद किए बिना,
मुझे मेरी कुंठाओं के साथ जीने देना।

Thursday, 23 September 2021

Highway to the Stars

He to She -

Its not possible for me to have a direct conversation with you, If i wish to do so i can but i understand my boundaries and i am happy with it. Nowadays, i keep thinking of you like anything, seriously you came like a storm in a desert. You know what, some emotions are so different in their root nature that its not possible for an human to explain through a language or any form of human expression.

I am still in search of an answer that why you came like a fairytale into a person's life which is full of mess, who is a kind of non-believer when it comes to fairytales, who is a irresponsible human being in the eyes of society when it comes to social practices. All this while, It makes me happy that you became a part of my imaginary world but also it left me with ample amount of curiousity and fear when i think of you. The reason behind my curiosity is plain and simple just like any other person who wants to know each and everything about the person he likes. And, the reason for my fear is that i dont want to spoil my side of affection which came into existence without knowing your name, without seeing your face, without having any single conversation with you, all i have with me is a childhood image of you, a sole positive vibe, aura whatever you may call, but it is affecting me, affecting in a good way, a Magical way which is sometimes impossible to believe in today's times. i still question myself how all this happened, i mean throughout the years i never felt anything like this for anyone, its so raw, so natural. You came like a beacon of light into a room full of darkness.

Last night, you were in my dream. We Surprisingly met for few minutes in the countryside, we talked, i was so happy that i saw you. It was unreal, but believe me it feels like i am talking with you in person. and then you left with a promise that tomorrow is your exam and we will surely meet after that. I woke up after seeing you in my dreams, and to relieve those emotions, to saw you smile, i slept again and was still waiting for you but you were not there. I started dreaming again but you were not there. The memory of my previous dream was fading very rapidly. the only thing i have in my mind right now is that i saw you in my dreams and still waiting for you. Finish your exams and we will meet again.

I am waiting for you in my dreams.


Friday | 24 Sep 2021

Sunday, 19 September 2021

My Expenses during all india solo winter ride -

This is the approximate data just for an idea. hope it helps.

Petrol - 35000+
Hotel Bill - 17000+
Dharamshala's - 3000+
Bike Servicing and washing - 5000+
Shopping ( Before and during this ride) - 20000+ ( Includes all riding gears - Gloves, Riding jacket, Winter jacket, sweater, Helmet, Bag cover, tank bag, tripod, Air seat and few clothes )
Hard disk (2 TB) - 6800
Paint Party Event - 1000
Paragliding - 2300
River Rafting - 500
X-Ray - 400
Contribution in Farmers Protest - 5000 
Miscellaneous expenses - 2000+
Food - This is the most difficult part to calculate, i mean if you take 200 rupees per day it is around 27000. Yes, You can take this data for a rough idea.
Total Expense - 125000 ( Approximate )
For me it was quite an expensive trip and there are some reasons behind it -
1. Riding solo for the first time in my life.
2. Most of my plans were spontaneous during the ride.
3. Going with the flow.
4. Didn't care much about saving money and doing a tight budget trip.
5. It was like " Ek hi zindagi mili hai, jee lete hain ".

Friday, 17 September 2021

Letter to the Unknown -

1.
तुम दूर रहना,
दूर ही बेहतर हो,
दूरी बनाना इस समाज से,
इसलिए मैं दूर हो रहा हूं,
ताकि मैं माध्यम ना बनूं,
दूर से ही देखूंगा,
एक आखिरी बार,
जब लगेगा कि
तुम करीब आने लगी,
तो दूर रहने कहूंगा,
दूर रह लेने की
अहमियत समझाऊंगा,
ताकि तुम बच सको,
खुद को बचा सको,
तुम्हारा पास आ जाने से कहीं ज्यादा,
दूर रह जाना जरूरी है।
क्योंकि अधिकतर अरैंज मैरिज,
अरैंज रेप के समान होते हैं।

2. 
तुम खास हो,
तुम बहुत खास हो,
यह मैं जानता हूं,
और तो और,
यह समाज भी जानता है,
इसीलिए हिस्सेदारी चाहता है,
समाज पा लेना चाहता है,
उपयोग कर लेना चाहता है,
छीन लेना चाहता है,
तुम्हें तुमसे,
वह छीनता है,
मीठे चाशनीनुमा शब्दों से,
रिश्तों के पवित्र बंधन से,
सामाजिक सुरक्षा से,
आर्थिक सुरक्षा से,
रीति-रिवाजों से,
मान्यताओं से,
परंपराओं से, 
संस्कारों से।
तुम खुद से पूछना,
कि तुम्हें क्या चाहिए,
पूछना खुद से कि क्या,
तुम्हारे हिस्से की आजादी,
तुम्हारे हिस्से का रिश्ता,
तुम्हारे हिस्से की ख्वाहिशें,
तुम्हारे हिस्से की सुरक्षा,
एक असुरक्षित समाज दे पाएगा?

3.
जहाँ किसी को बदलने की जिद होगी,
वहाँ अराजकता होगी।
जहाँ किसी को सुरक्षा देने की चाह होगी,
असुरक्षा का जन्म वहीं होगा।
जहाँ किसी को हासिल करने का हठ होगा,
निजता की हत्या वहीं होगी।


4.
होंगे तुम्हारे कई रंग,
लेकिन तैयारी यही होगी,
कि तुम एक‌ रंग में रंग जाओ,
क्या तुम सीमित हो जाओगी?
होंगी आसमान सी ख्वाहिशें,
लेकिन कहा यह जाएगा,
कि किस्मत में जो है वही होगा,
क्या तुम ऐसे ठगी जाओगी?
होगी तुम निडर और बेबाक
लेकिन संस्कार आकर कहेंगे,
कि सहना सुनना पड़ता है,
क्या तुम चुप रह जाओगी?

5.
होती है तुम्हें झुकाने की कोशिशें,
जिस दिन तुम जन्म लेती हो।
मिलते हैं परंपरा रूपी नियम कानून,
तुम्हें जन्म के तोहफे के रूप में।
तुम्हें खूब लाड़ प्यार दिया जाता है,
तुम्हें घर की लक्ष्मी कहा जाता है,
तुम्हें सृष्टि की रचयिता कहा जाता है,
बहुत सी महान उपमाएँ दी जाती है।
लेकिन हर एक उपमा के पीछे, 
छिपी होती है एक पतली चादर,
चादर एक अदृश्य स्वार्थ की,
धर्म की बेड़ियों की,
उससे जुड़ी आस्था की।
तुम्हें यह समाज गढ़ता है,
अपने साँचे में ढालता है, 
ऋचाएँ लिखी जाती है तुम‌ पर।
तुम्हारा भला कर लेने के लिए,
समाज गिध्द की तरह तैयार रहता है,
समाज की सारी खोजी इकाईयाँ,
तुम्हारे पीछे लगा दी जाती हैं,
ताकि तुम्हारी एक-एक गतिविधि,
उनकी नजर में रहे।
तुम्हें बनाया जाता है,
त्याग और समर्पण का प्रतीक,
ताकि तुम कभी सवाल न करो,
पीड़ा को भी बलिदान समझो,
कुछ इस तरह,
तुम्हें हर पल छला जाता है,
इन अघोषित नियमों से,
अदृश्य आस्थारूपी कानून से,
ऐसा कानून जिसके सामने,
लोकतंत्र रूपी कानून बौना है।
तुम कभी फुर्सत में पूछना कि यह समाज,
तुम्हें जस का तस क्यों नहीं स्वीकारता?

Sunday, 12 September 2021

मान्यताएँ - एक कविता

 मान्यताएँ नहीं देती तकलीफ,
अगर सिर्फ वे मान्यताएँ भर होती,
मान्यताओं के साथ जुड़ा होता है,
परंपराओं का निर्वहन,
स्वतंत्रता का हनन,
विचारों की बलि,
स्व की आहूति।
मान्यताएँ नहीं देती तकलीफ,
अगर वह सीमित होती,
वस्त्र धारण करने
या श्रृंगार के तरीकों तक,
लेकिन इनके साथ छुपी होती है,
प्रथा रूपी बेड़ियाँ,
संस्कार रूपी तलवार,
परिवार रूपी कड़ियाँ, 
समाज रूपी पहरेदार।
मान्यताएँ नहीं देती तकलीफ,
अगर वह यह समझती कि,
एक सोमवार का उपवास,
सिंदूर और माथे की बिंदिया,
एक जोड़ी पायल, कानों की बालियाँ,
या एक 5 मीटर कपड़े का टुकड़ा,
स्त्री को असहज नहीं कर सकता,
असहज करती है वे आँखें,
उनमें छिपे असंख्य भाव,
असहज करते हैं विचार,
और उनमें छिपी सूक्ष्म हिंसा,
असहज करती है शब्दों की प्रतिध्वनियाँ,
और उनमें छिपा बंधन का तत्व।
मान्यताएँ नहीं देती तकलीफ,
अगर वह बैचेन न करती,
मन का बोझ न बनती।
मान्यताएँ नहीं देती तकलीफ,
अगर उनमें छिपा सभ्य समाज,
हमें सोचने पर विवश न करता,
हममें भय का प्रवेश न होने देता।
मान्यताएँ नहीं देती तकलीफ,
अगर इनमें छिपा ईश्वरीय तत्व,
सोच को सीमित न करता,
आजादी के बीच न आता,
एक खाँचे में न बाँधता।
मान्यताएँ नहीं देती तकलीफ,
अगर उन्हें मानने की बाध्यता न होती,
लेकिन ये चंद भौतिक तरीके,
इनको किसी भी हाल में थोप देने के लिए,
की जाने वाली तमाम वैचारिक हिंसाएं,
सिर्फ शरीर को नहीं वरन्,
आत्मा तक को गुलाम बना डालती हैं।
और ऐसी मान्यताएँ उन्हें कभी तकलीफ नहीं देती,
जिनका सब कुछ भीतर से मर चुका होता है।


Friday, 10 September 2021

Interview - All India Solo Winter Ride

Interview by One of my friend, Its all about my all india solo ride.
Hope you like the conversation.

Q.1 अकेले बाइक से भारत घूमने का ये आइडिया कहाँ से आया?
A. ऐसी कोई तैयारी नहीं थी, कोरोना के बाद से सबकी तरह मैं भी घर में था, लाॅकडाउन की वजह से सब कुछ बंद था और कहीं जाना होता तो बस की सुविधा भी नहीं थी, फिर एक दिन अचानक मन में आया कि एक बाइक ले ली जाए। बाइक लेने की कहानी भी अजीब है, एक दिन शाम को एक शो रूम गया, वहाँ जाकर देखा, उसके बाद रात को उस बाइक के बारे में इंटरनेट में देखा और सुबह ही खरीद लिया। मेरे अधिकतर बड़े-बड़े फैसले ऐसे ही होते हैं। बाइक तो आ गई थी, तब तक इतना लंबा भारत घूमना है, ऐसी कोई तैयारी नहीं थी। 17 अक्टूबर 2020 को मैंने बाइक खरीदी और इसके दो सप्ताह बाद यानि 1 नवंबर को ही भारत घूमने निकल गया था। इन दो सप्ताह के अंदर ही मैं आसपास हजार किलोमीटर घूम लिया, क्योंकि पहली सर्विंसिंग करानी थी, और लंबी यात्रा पर निकलना था। जो कुछ हुआ इसी दो सप्ताह के अंदर ही हुआ, यूं कह सकते हैं कि अचानक एक दिन मन बन गया और सोच लिया कि चलो अब ठान लिया है तो कर ही लेते हैं। 
Q.2 अकेले निकलने के पहले कोई डर घबराहट चिंता? 
A. बिल्कुल नहीं। इससे पहले भी मैं खूब अकेले घूमा हूं। हाँ लेकिन जो पहला दिन होता है, वो बहुत मुश्किल भरा होता है, मन में बहुत से सवाल आते हैं, खुद पर शक होता है, ये सहज प्रतिक्रियाएँ है, क्योंकि हम जिस सामाजिक ढांचे में रहते हैं, जहाँ बँधे रहते हैं, वहाँ इन सब चीजों से हम वैसे भी रोज दो चार होते रहते हैं तो इतना चलता है। कुछ दिन जब हो जाते हैं, जब यह बंधन हटने का अहसास होता है, तब सब कुछ सामान्य लगने लगता है, तब जाकर यात्रा में मौज आनी शुरू होती है।
Q.3 आपने अपने यूट्यूब में खुद को "सोशल राइडर" लिखा हुआ है, ऐसा क्यों?
A. जी, इसका मतलब यह हुआ कि मैं बस सड़कें नापने या किसी खास जगह को देखने नहीं निकला था। जहाँ गया, वहाँ के लोगों से मिलना, बातें करना, और तो और उस स्थान विशेष के खान-पान के तौर तरीके, भाषा, स्थानीय बोली ये मेरे लिए सबसे जरूरी चीज रही। इस बात का कभी मलाल नहीं रहा कि फलां जगह जाकर वहाँ स्थित बहुत पुराने मंदिर या कोई पुरानी ईमारत या किसी प्रसिध्द जगह को नहीं देख पाया। मेरे लिए भारत ईमारतों में नहीं लोगों में बसता है। 135 दिनों में लगभग 80-90 दिन तो लोगों के घरों में ही रूकना हुआ।
Q.4 मुझे अपने घर के अलावा अपने रिश्तेदारों के घर में भी रहने में असहजता महसूस होती है, आप इतने दिन लोगों के घरों में रहे, कोई परेशानी नहीं हुई?
A. असहजता तो होती थी, ये समस्या थोड़ी बहुत मेरे साथ भी है, बहुत जल्दी लोगों से घुलना-मिलना नहीं हो पाता है, कुछ घंटों का समय लग ही जाता है। कुछ लोगों का अंतर्मुखी स्वभाव होता है, वहीं कुछ लोग बहिर्मुखी स्वभाव के होते हैं। मुझमें ये दोनों चीजे हैं, इनके बीच कहीं हूं। इसलिए समय, परिस्थिति के हिसाब से कभी स्वभाव अंतर्मुखी हो जाता है तो कभी बहिर्मुखी। बाकी जो मेरे परिचित रहे, मैं बहुत सोचता था कि कहाँ इनके यहाँ जाऊंगा, क्यों इन्हें परेशान करूं, कैसे रियेक्ट करेंगे, तमाम तरह के सवाल मन में आते। लेकिन मैंने देखा कि वे मुझे लेकर बहुत स्पष्ट रहते, उनकी स्पष्टता की वजह से भी मैं बहुत सहज हो जाता, लोगों का खूब प्यार मिला। मैंने यह भी महसूस किया कि सामने बात करने, साथ रहने से ही बहुत कुछ साफ होता है, चीजें स्पष्ट होती है, दूरी कम होती है, रिश्तों में मजबूती आती है।
Q.5 आप धर्मशालों गुरूद्वारों में भी रूके, मैंने बहुत लोगों को देखा है वे लंबी यात्रा में टेंट लेकर चलते हैं, आपने टेंट का आप्शन क्यों नहीं चुना?
A. टेंट का विकल्प मेरे मन में था लेकिन मैंने नहीं चुना क्योंकि मेरी यात्रा ठंड में हो रही थी, ठंड में टेंट लेकर चलेंगे, कैम्पिंग करेंगे तो फिर साथ में कंबल, चादर और तमाम तरह की अतिरिक्त चीजें भी आपको चाहिए, तो सामान बहुत अधिक हो जाता, असुविधा होती। मुझे बहुत कम सामान लेकर घूमना ज्यादा बेहतर लगा।
Q.6 मैंने देखा कि आप अपने सोशल मीडिया में यात्रा से अलग दलितों पिछड़ो, महिला अधिकारों, किसानों और समसामयिक मुद्दों पर कहीं अधिक मुखर रहते हैं, इस पर लोगों की क्या प्रतिक्रिया रहती है? एक यात्री के रूप में यह आपको कैसे प्रभावित करता है? 
A. मेरे लिए इन मुद्दों पर बात रखना जीने के लिए फ्यूल की तरह है, कहीं कुछ गलत हो रहा हो, उसे गलत न कहकर चुप हो जाना मन को कचोटता है, भीतर कहीं वो चीज परेशान करती है। अब किसी न किसी तो बात रखनी पड़ेगी, मैं इसमें यह भी कोशिश करता हूं कि बस प्रतिक्रियावादी बनकर ही न रह जाऊं। हममें से अधिकांश लोग हिंसा, अन्याय को देखकर अनदेखा कर देते हैं, इसका एक खतरा यह है कि एक समय के बाद हमें कुछ भी महसूस होना ही बंद हो जाता है। ऐसी स्थिति न आए इसका‌ मैं हमेशा ध्यान रखता हूं। एक यात्री के रूप में नुकसान यह होता है कि जो लोग मेरे इस पक्ष से इतर यात्री वाले पक्ष को नहीं देख पाते, उन्हें यह पक्ष परेशान करता है, वो इन दोनों पक्षों को अलग-अलग नहीं देख पाते हैं और इसी पूर्वाग्रह की वजह से दूरी बना लेते हैं। बहुत लोगों को मेरे लिखे से शिकायत भी रहती है, कि यात्रा पर ध्यान केंद्रित करें। अब उन्हें कैसे समझाया जाए कि यह सब जीवन का हिस्सा ही तो है, अलग कुछ भी नहीं है, एक अच्छा यात्री होना क्या तभी माना जाएगा जब वह बस दिन रात यात्रा के बारे में ही बात करे, नहीं बिल्कुल नहीं। ऐसा नहीं होता है। कम से कम मेरे साथ ऐसा नहीं है, लोग खफा रहते हैं कि मैं यात्राओं के बारे में कम और समसामयिक मुद्दों पर ज्यादा बात करना पसंद करता हूं। खैर, उनकी सोच का भी सम्मान है। 

Q.7 आप अपनी इस लंबी यात्रा में बहुत समय तक किसान आंदोलन में भी रहे, उसके बारे में बताएँ?
A. किसान आंदोलन को लेकर लोगों के अपने अलग-अलग विचार हैं, कोई इसका समर्थन करता है, कोई इसके विरोध में है, सबने अपनी क्षमतानुसार धारणा बना रखी है। मैं जब तक वहाँ नहीं गया था, मुझे भी यही लगा था कि ये बाकी आंदोलनों की तरह कुछ दिन के लिए सड़कों पर शोर मचा रहे हैं, फिर सब खत्म हो जाएगा। लेकिन वहाँ जाने के बाद समझ आया कि कहानी तो कुछ और ही है, वहाँ की आबोहवा से ही फर्क महसूस होने लगा। एक चीज मुझे समझ आई कि हमारे यहाँ टीवी देखकर या कहीं पढ़कर ही हम राय बनाने लग जाते हैं, जबकि खबरें अधिकांशतः वस्तुस्थिति के साथ उचित न्याय नहीं कर पाती है, यह मैंने किसान आंदोलन में जाकर महसूस किया। खुद वहाँ जाकर मुझे समझ आया कि दूर से किसी चीज को देखने और पास वहीं रहकर देखने में कितना आसमानी अंतर होता है।
वहाँ आंदोलन स्थल में मैंने जगह-जगह अलग-अलग जत्थों के लंगर देखे, स्लम के बच्चों के लिए क्लास देखे, ढेरों अलग-अलग लाइब्रेरी देखी, हर कोई अपनी कला अपनी क्षमता का प्रदर्शन कर रहा है, कोई केरल से आया व्यक्ति बच्चों को जुम्बा डांस सिखा रहा है, तो कोई आंध्रप्रदेश का युवा कैलीग्राफी के गुर सीखा रहा है तो कोई किसानों को थियेटर दिखा रहा है, तो कहीं वाद-विवाद प्रतियोगिता का मंच है, ऐसा ही बहुत कुछ। इतनी महत्वपूर्ण चीजें आज भी मेनस्ट्रीम मीडिया में खबर का रूप नहीं ले पाई है। सोचिए कितना कुछ हमसे छूट जाता है। वहाँ किसानों के बीच हमेशा घर जैसा ही लगता था।
Q.8 टीवी में जो मैंने देखा, पुलिस और किसानों के बीच की मुठभेड़ भी आए दिन होती थी, आपको कभी वहाँ डर नहीं लगा?
A. बिल्कुल नहीं। उल्टे मुझे वहाँ जाकर बहुत अधिक सुरक्षित महसूस होता था, किसान कोई आतंकवादी तो हैं नहीं, अपने ही देश के लोग हैं, अपने माँगों के लिए सड़कों पर रह रहे हैं, हमारे साथ यही तो समस्या है, हम टीवी मीडिया के हिसाब से सोचने लगते हैं, आंदोलन करने वाले लोग हमारे इसी देश के नागरिक हैं, ये जरूरी बात हम भूल जाते हैं। आप यकीन नहीं करेंगे जब मैं आंदोलन‌ स्थल में जाता था, कई बार तो ऐसा हुआ कि मैं गाड़ी का लाॅक लगाना तक भूल जाता, घंटों बाद लौटता, चाबी वहीं रहती। सोचिए आज आंदोलन को 9 महीने से अधिक हो गये, आंदोलन में अलग-अलग गाँव, ब्लाॅक, राज्यों के लोग हैं, कभी कोई चोरी जैसी घटना नहीं हुई है। सोचिए उनके बीच कैसा मजबूत भाईचारा बन रहा होगा, घर बैठे इसकी कल्पना करना भी संभव नहीं है।
Q.9 मेरे लिए ये सब बातें एकदम नई हैं, यकीन ही नहीं हो रहा। खैर, यात्रा पर वापस लौटते हैं, इस यात्रा के दौरान कभी आपको अकेलापन महसूस हुआ?
A. एक दो बार ऐसा हुआ है। हर दिन एक जैसा नहीं होता है, घूमने के दौरान आपको आए दिन नये-नये लोग मिलते रहते हैं, लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है जब आप नितांत अकेले पड़ जाते हैं, आपको कुछ भी करने का मन नहीं करता है, न घूमने का मन करता है न किसी से बात करने का मन करता है, ऐसा होता है, इसे स्वीकार करना चाहिए, इसे भी जस का तस पूरी ईमानदारी से जीना चाहिए। 
Q.10 यात्रा के दौरान कहीं ऐसा हुआ कि आपको कोई समस्या हुई हो और आपने कैसे उस समस्या का समाधान निकाला?
A. कुछ कुछ ऐसे अनुभव हैं। मैं एक बार एक बिल्कुल नई जगह में ट्रैकिंग के लिए गया था, सुबह के चार बजे ही ट्रैकिंग के लिए निकल गया था, पूरा जंगल था, घुप्प अंधेरा, दूर दूर तक एक भी इंसान नहीं, बहुत घबराहट हुई, वापस अपने कमरे में लौट आया, फिर पता नहीं कहाँ से हिम्मत आई, मैंने फैसला किया कि अब जो भी होगा देखा जाएगा, धड़कन तेज थी, फिर भी हिम्मत करके मैं ट्रैक के लिए निकल गया, हाथ में एक डंडा था, मैंने यहाँ तक सोच लिया था, कि ठीक है जो होगा देख लिया जाएगा, कोई जंगली जानवर भी आएगा तो सामना कर लूंगा। इस स्तर का हौसला पैदा हो गया था।
Q.11 इतनी लंबी ट्रिप, इसमें घरवालों का क्या रिएक्शन था?
A. घरवालों को अभी तक इस बारे में नहीं पता है, मैं बिना बताए ही निकल गया था, लेकिन हर दूसरे दिन घरवालों से बातचीत होती रहती थी, उनसे हमेशा संपर्क में रहा, लेकिन उन्हें मैं कभी अपना सही पता नहीं देता था, कई बार क्या होता है, हमें पूरा सच नहीं बताना होता है, सबके घरवाले पूरा सच समझने लायक होते भी नहीं है, और जब हमें लगता है कि पूरा सच नहीं पचा पाएंगे तो आधे सच के साथ काम चलाना चाहिए। मैं ऐसा करते हुए ही भारत घूमकर आ गया। 
Q.12 इतनी हिम्मत कहाँ से आती है? 
A. सारा खेल मन का है, एक बार मन बन गया तो सब हो जाता है, कोई समस्या नहीं टिक पाती है।
Q.13 इतना लंबा समय, लगातार बाइक चलाते हुए तकलीफ नहीं हुई?
A. अब मैं उसका जवाब दूंगा तो आपको यकीन नहीं होगा। जब मैंने शुरुआत की थी, कुछ दिन हुआ था तब पूरे शरीर में खूब दर्द होता, कमर और जोड़ों में दर्द हुआ। फिर कुछ दिनों के बाद आदत सी हो गई। तब तो ऐसा होने लगा कि जिस‌ दिन मैं गाड़ी नहीं चलाता था, उस दिन मुझे अजीब सी बैचेनी होने लगती थी, बाइक चलाकर आता तब जाकर ठीक लगता, ऐसी आदत हो गई थी, शरीर और मन कुछ इस तरह से ढल गया था।
Q.14 क्या बात है, तो अगली ट्रिप कब शुरू होगी क्योंकि नार्थ ईस्ट तो शायद बचा हुआ है?
A. अगली ट्रिप इसी ठंड में शुरू हो जाएगी, भारत की जिस तरह की जलवायु है, उसमें मुझे ठंड के मौसम में घूमना ज्यादा सही लगता है, आपको बहुत अधिक भीड़ भी नहीं मिलती है। संभवतः मानसून के खत्म होते ही अक्टूबर में निकल जाऊंगा, इस बार थोड़ा अलग होगा, पिछले बार के बहुत से अनुभव काम आएंगे। 
Q.15 अगली ट्रिप के लिए बहुत शुभकामनाएँ, अपडेट्स का इंतजार रहेगा।
A. जरूर, बहुत बहुत धन्यवाद।।

Tuesday, 7 September 2021

One night in sand dunes, Jaisalmer



जैसलमेर के एक गाँव की तस्वीर है। कैमल सफारी के लिए गया था। रात के एक बजे थे, लोमड़ी और हिरण आसपास चहलकदमी कर रहे थे उनकी वजह से नींद खुल गई। यहीं खुले में सोया था, ऊंट वाले भाई 500 मीटर दूर ऊंट के साथ थे। ऊंट वाले दो अलग-अलग जो भाई रहे, खाना पकाने के समय उन्होंने एक गजब की बात कही, मुझे भी एकदम बाहर का टूरिस्ट समझकर अंग्रेजी बोले जा रहे थे, जबकि मैं उनकी हर बात का हिन्दी में ही जवाब दे रहा था। फिर मैंने कहा - यार भाई मुझसे तो तुम लोग हिन्दी में ही बात करो, अंग्रेजी को साइड ही कर लो, फिर उन्होंने हिन्दी में बात की। उसमें से एक लड़के ने दूसरे की ओर इशारा करते हुए कहा - आपको पता है, हम दोनों बचपन से साथ पढ़े हैं, साथ घूमते हैं,  मैं राजपूत हूं और ये ST है फिर भी हम साथ रहते हैं, साथ खाते-पीते हैं, कभी भेदभाव नहीं मानते। मैं मन ही मन सोच रहा था कि क्या दूसरा लड़का भी इतने गर्व से ऐसा बोल पाएगा। 
मुझे पता नहीं उसने मुझे ये सब क्यों बताया। बताते वक्त वह ऐसा महसूस कर रहा था कि मानो कोई बहुत बड़ी उपलब्धि गिना रहा हो, कोई महान चीज बता रहा हो। और ये सच है उनके लिए ये महान चीज है। ऐसे ईमानदार प्रयासों को सलाम।
श्रीकृष्ण जी की मुद्रा में मैं ही लेटा हुआ हूं, इस तस्वीर के लिए ठीक ऐसे ही टाइमर लगाकर 30-40 सेकेण्ड स्थिर एक मुद्रा में रहना पड़ता है, फोन से तारों वाली फोटोग्राफी तभी संभव हो पाती है। उम्मीद है थोड़े बहुत तारे दिख रहे होंगे।

Ramcharitmanas Book Review -

 1. कुछ दिनों से रामचरितमानस का पारायण चल रहा था। पढ़ते-पढ़ते मुझे एक‌ दोस्त याद आ गया, उसकी एक प्रेमिका रही, अच्छा लंबे समय तक रिश्ता चला, खूब झगड़े भी हुआ करते। लड़के को फोन पर ज्यादा बात करना पसंद ना होता, तो फोन बंद कर दिया करता तो वह लड़की आडियो मैसेज छोड़ दिया करती और पता है उस आडियो मैसेज में एक‌ दिन क्या था - दबंग फिल्म का "दगाबाज रे" गाना। तो ऐसा रिश्ता था। उसने फोन बंद किया, ज्यादा मिलने नहीं जाता, कम बात करता लेकिन वह कभी अपनी प्रेमिका की स्वतंत्रता में बाधा नहीं बना, उसकी परीक्षा नहीं ली, नोंक-झोंक होती लेकिन परीक्षा लेने के नाम पर कभी प्रताड़ित नहीं किया, प्रेम के नाम‌ पर कभी ढोंग और खोखले आदर्श को नहीं जिया। प्यारे दोस्त, भले तुम लापरवाह थे, तुम्हें भाषा का शऊर नहीं था, तुममें कितनी खराबियाँ थी, लेकिन तुम एक ऐसे इंसान थे जो स्वीकार करते थे कि मैं भी एक इंसान हूं और इंसान गलतियों का पुतला है। तुम इस नावेल में गढ़े गये राम से बेहतर ही हो मेरे भाई।

2. रामचरितमानस में बहुत सी चीजें कुछ ज्यादा ही ओवररेटेड हैं। अभी वो ढोल गंवार वाले विवादित कथन को ठंडे बस्ते में डाल देते हैं। राम‌ जी भाई साब के चरित्र को ही ले लिया जाए, इनको आदर्शवादिता और मर्यादा की चाशनी में बार-बार डुबाया गया है। इतना जबरदस्त चाशनी फैलाया गया कि कहीं कहीं राम का चिर प्रतिद्वंदी रावण भी इस चाशनीकरण से अछूता नहीं है। वास्तविकता में ऐसे फिक्शन से प्रेरित होकर इस तरह आदर्शों को थोपना, देखकर चर्चा करना, तुलना करना, गलत चीजें सिखाने जैसा ही है, बहुत नकारात्मक प्रभाव सामने आते हैं, जो जैसा है नहीं, आप जबरन उसे वैसा ढाल रहे होते हैं, ऐसा करते हुए एक पूरी पीढ़ी को मानसिक विकलांगता की ओर ढकेल रहे होते हैं, उसके सहज सुकोमल भावों की तिलांजलि दे रहे होते हैं।


अभी तक जो मैंने देखा कि स्कूल में जो मित्र बिल्कुल आदर्श के रूप में प्रायोजित होते रहे, आगे जाकर उन्होंने ऐसे करम काण्ड किए कि जेल तक गये। काॅलेज के दिनों में जिन मित्रों की मदद से युगदृष्टा विवेकानन्द की किताबें पढ़ना नसीब हुआ, उन्हीं मित्रों के ऊपर छेड़छाड़ के आरोप तक लगे। जो एक समय तक सेलिबेट बनने की प्रतिज्ञा लेते रहे, योग साधना विपश्यना का आवरण ओढ़कर चलते रहे, मर्यादा पुरूष बनते रहे, आजीवन अकेले रहने का प्रण लेते रहे, दो-तीन गर्लफ्रेंड बनाकर ही उन्होंने दम‌ लिया। ऐसे कितने ही विरोधाभास हैं। जोर जबरदस्ती लादे गये आदर्शों की एक समय सीमा होती है, उसके बाद वे बोझ बन जाते हैं, और एक‌ दिन धड़ाम‌ से जमीन पर गिर आते हैं, तब जाकर हमें ऐसे अनेक चौंका देने वाले उदाहरण देखने को मिलते हैं। रामचरितमानस से कहीं बेहतर फिक्शन हैरी पाॅटर सीरीज है, कम से कम वहाँ खोखले आदर्शों की जकड़न तो नहीं है। मसाला वहाँ भी है लेकिन अंतर यह है कि यहाँ धर्म का मसाला है और वहाँ विज्ञान का। आप निर्धारित कीजिए किसमें दिमागी कैंसर होने के खतरे ज्यादा हैं।

सरकार द्वारा किसान आंदोलन को कुचलने के लिए अपनाए गये तरीके -

भौतिक तरीके -
1. बैरिकेटिंग, कंटीले तार बिछाना, रोड खोदना
2. वाटन कैनन की बौछार, वज्र की गाड़ियाँ और सरकारी बसें
3. हजारों की पुलिस फोर्स, आर्म फोर्स द्वारा हिंसा
4. बिजली और पानी की सप्लाई बंद करना
5. आंदोलन स्थल को क्षति पहुंचाना, किसानों के टैंट जलाना

मनोवैज्ञानिक तरीके -
1. इंटरनेट बैन
2. मीडिया द्वारा बदनाम करना ( खलिस्तानी आतंकवादी आदि)
3. किसानों से बातचीत बंद करना
4. जाति धर्म और क्षेत्रीय आधार पर बाँटने की कोशिश करना
5. किसानों को जलील करना, उनकी पीड़ा का, उनकी मौत का मजाक बनाना

जिन लोगों को इस आंदोलन के बारे में अभी तक समझ नहीं बन पाई है, उनको बताता चलूं कि इनमें से एक भी तरीका अभी तक पिछले 9 महीनों में काम नहीं आया है, आगे भी काम नहीं आएगा, हमेशा बैकफायर ही करेगा। फिर भी सरकार रिपीट मोड में इन्हीं तरीकों को अपनाते हुए बार-बार अपनी फजीहत करवा रही है और किसान आंदोलन को और मजबूत बना रही है। 
#farmersprotest

Saturday, 4 September 2021

Few Updates about my next trip -

कल बहुत से लोगों ने पूछा कि कब जा रहे फिर से घूमने। लोग जन्मदिन में अमूमन यह पूछते हैं कि आज क्या खास कर रहे, कहाँ पार्टी कर रहे लेकिन इस बार का मामला एकदम‌ अलग रहा। इसके बदले मुझे बहुत से दोस्तों ने यह पूछा कि - कब जा रहे नार्थ ईस्ट। तो जवाब ये है कि सब कुछ ठीक रहा तो ठंड शुरू होते ही निकल जाना है। पहले की तरह घरवालों को बिना बताए अकेले ही जाऊंगा, इस बार का सफर वैसे काफी अलग होने वाला है, उसके बारे में उसी समय पता चल जाएगा। 
एक चीज मैंने नोटिस किया कि बहुत लोगों को इस बात पर यकीन ही नहीं होता है कि घरवालों को बिना बताए मैं इतने दिन घूमकर आया। उनको लगता है कि ऐसा संभव ही नहीं है। बता दूं कि अभी भी मेरे घरवालों को पता नहीं है कि मैं भारत भ्रमण के लिए निकला था, जबकि पिछले छह महीने से माता-पिता के साथ ही हूं। कोई घरवालों को आकर बता देगा तो भी वे नहीं मानेंगे। तो ये पूरा पूरा स्किल का मामला है, बताऊंगा तो भी आपको समझ नहीं आना है, सबके अलग-अलग जीने के तरीके होते हैं। कोई बहुत साहस वाला काम नहीं है, बस खुद को अपनी स्वतंत्रता को वरीयता क्रम में सबसे ऊपर रखने की बात है। 
कुछ एक‌ मित्र थे जो मेरे पीछे खूब बातें किया करते क्योंकि सामने से तो कुछ कह नहीं सकते इसलिए पीठ पीछे चुगली करते। बातें भी क्या करते कि - "हाँ भाई उसका सही है कोई टेंशन कोई जिम्मेदारी नहीं, हमारी तो अपनी घर परिवार की जिम्मेदारियाँ होती है, माता-पिता को देखना होता है, उनकी सेवा करनी होती है।" अबे यार भाई इतना क्यों खार खाते हो सीधे कहा करो कि चीजें मैनेज करना नहीं जानते। 
छह महीनों से घर पर हूं, बाई की तरह घर पर सारे काम देखता आया हूं, एक‌ महीने तो अस्पतालों के ही चक्कर लगाए हैं, एक दो महीने तो गाँव में खेतों का काम देखा है, इन छह महीनों के अंदर दर्जनों शादियाँ, दशकर्म सबमें शिरकत करना। वह सब कुछ जिया है जैसा एक आम इंसान जीता है। अलग कुछ नहीं है बे, अलग कुछ है तो मेरे लिए आपकी सोच।
अगली ट्रिप में निकलने से पहले बहुत मुश्किलें हैं, हर तरह की मुश्किले हैं, ये समझिए कि ऐसा फँसा हूं‌ कि पिछले छह महीने से घर से निकल नहीं पाया हूं। क्या होगा, कैसे सब मैनेज होगा, कुछ नहीं पता, सब कुछ हमेशा की तरह अस्तित्व के सहारे। अब जब हम कुछ सोच लेते हैं तो फिर कर ही लेने वाले हुए। समय कीमती है, बाद में पैसे आ जाएंगे, सुविधाएँ इकट्ठी हो जाएंगी, लेकिन ऐसा उत्साह नहीं रहेगा, ऐसा जुनून दुबारा पैदा नहीं होगा, इसलिए जो जब मन करे उसी समय कर लेना चाहिए। 

चार जन्मतिथियाँ -

बहुत लोगों के साथ ऐसा होता है कि उनके दो अलग-अलग जन्मदिन होते हैं, अमूमन एक उसमें से स्कूल वाला होता है, जिसमें हमारे भारतीय माता-पिता एक दो साल कम कराकर एंट्री करा देते हैं, और एक होता है असली वाला, जिस दिन वह पैदा हुआ होता है। मेरे साथ भी यही दोनों हैं, लेकिन इसके अलावा भी दो और हैं। असल में मुझे अपनी असली जन्मतिथि पता ही नहीं है। अभी तक सब तुक्के में ही चल रहा है। बहुत छोटी उम्र से ही इसलिए धार्मिक कर्मकांड, ग्रह नक्षत्र दिशा कुंडली आदि सब आड़े हाथों ही लेता हूं। अपनी जरूरत के सारे पूजा मंत्रजाप वाले काम खुद ही निपटा लेता हूं, वाहन‌ पूजा भी खुद ही किया था।

चार जन्मतिथियाँ होने की कहानी भी गजब है। जो बच्चे गाँव में पैदा होते हैं, उनके साथ यह हुआ होता है कि घरों में कोई पेन पकड़कर रजिस्टर में लिख देता है, जैसे किसी उधार लेने वाले का नाम लिख दिया जाता है, बिल्कुल उसी तरह, मतलब कोई गंभीरता नहीं। तब तो समय ऐसा था कि कैलेण्डर भी गिने चुने घरों में होता था। तो जिस रजिस्टर में मेरी जन्मतिथि लिखी गई। उसमें लिखा है कि मेरा जन्म सोमवार को हुआ, शुक्ल पक्ष को हुआ। माताजी कहती हैं कि कृष्ण पक्ष को मैं पैदा हुआ। माताजी से जब यह कहा जाता है कि 4 सितंबर का दिन आपके अनुसार तो बुधवार हुआ, तो उनका तर्क यह रहता है कि मैं तुझे पैदा की हूं, तू मुझसे ज्यादा जानेगा क्या? तो इस तरह से एक शुक्ल पक्ष वाला जन्मदिन अलग, एक कृष्ण पक्ष वाला अलग बन जाता है, और ये दोनों की माध्यिका ये 4 सितंबर जिसे असली जन्मदिन मानकर काम चलाया जा रहा है, अव इसे जिन्होंने एंट्री की थी वे अब दुनिया में नहीं है तो उनके साथ ही सच चला गया और इसके अलावा एक आखिरी स्कूल वाला है। कुछ इस तरह हो गये टोटल चार जन्मदिन। जब-जब चार सितंबर आता है, ये सारा कुछ याद आ जाता है। 😀

Wednesday, 1 September 2021

पूर्वाग्रह से मुठभेड़ -

बहुत साल पुरानी बात है, पढ़ाई के दिनों में एक लड़के के साथ रूम शेयर करना हुआ। दो लोगों के उस शेयरिंग वाले कमरे में कुछ महीनों तक मैं अकेला ही रहा। फिर एक दिन एक लड़का आया। कमरे में अपना सामान रखा फिर मेरे से उसका परिचय हुआ, परिचय क्या हुआ आते ही कहता है - भैया आदिवासी हूं, शराब पीता हूं, लेकिन पीने के बाद मेरा मुंह बंद रहता है तो आप बता दीजिए अगर आपको दिक्कत है तो, कहीं और रह लूंगा। अपना नाम बताने से पहले ही उसकी ये बात सुनकर, उसकी इस साफगोई से मैं हैरान हो गया। मैंने कहा - कोई समस्या नहीं, आजकल हर कोई पीता है, शराब को अपनी पहचान बनाकर तुम्हें अलग से यह बताने की जरूरत नहीं कि तुम आदिवासी हो। 
कई महीनों तक भाई की तरह हम‌ साथ रहे। साथ खाना बनाते, वह जिस दिन शराब पीता, अपने मित्रों के यहाँ खाना खाने सोने चला जाता ताकि मुझे असुविधा ना हो। कई बार मैं मजे लिया करता कि कभी हमारे साथ भी पार्टी कर लिया करो यार प्रभु, लेकिन उसे तो अपने देशी मसाला गैंग से ही फुर्सत नहीं मिलती थी।
धीरे-धीरे क्या हुआ। मेरी अपनी कंडिशनिंग भी हिलोरे मारने लगी। मैं उसकी जीवनशैली से चिढ़ने लगा, परेशान होने लगा। उसका शराब पीना, अपनी बारी में समय से खाना नहीं बनाना आदि छोटे-छोटे कारण रहे जिसे मुझ तथाकथित सभ्य व्यक्ति ने बड़ा मुद्दा बनाया। अब मैं उसे ताने देने लगा, डांटने लगा, सही गलत समझाने लगा, ज्ञान प्रवचन देने लगा, उसने हमेशा नजर अंदाज किया, मैंने बुरा बर्ताव भी किया, गुस्सा किया तो भी उसने कभी नाराजगी नहीं जताई, हमेशा खामोश रहा। 
अचानक से क्या हुआ, वह बहुत चुप रहने लगा, उसने अपने खाने‌-पीने का भी सिस्टम अलग कर लिया, भले मेरे साथ कमरा शेयर करता था लेकिन दिन में भी कमरे में नहीं रहता था, कटा-कटा सा रहने लगा, मेरे से न बातचीत न आँख मिलाना, कुछ भी नहीं। मैं भी सोचने लग गया कि ऐसा क्या हो गया। मैं भी पता नहीं क्यों उससे आगे से बात करने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। फिर एक दिन मैंने कहा - भाई मुझसे गलती हुई तो माफी चाहता हूं, लेकिन अब तो खामोशी तोड़ दे, क्यों ऐसे बर्ताव कर रहा है बता भी दे भाई। उसने जो कहा वह सुनकर मैं सोच में पड़ गया। उसने कहा - भैया, मैंने देखा कि मैं आपके लिए परेशानी का सबब बन रहा हूं, इसलिए मैं सोचा मेरे थोड़ा दूर हो जाने से आपकी परेशानी कम हो जाएगी।
असल में मेरी जिद, मेरे भीतर की कुंठा यह कहती थी कि वह लड़का जैसा जीवन जीता है, वह बहुत ही घटिया जीवनशैली है, निकृष्ट है, उसकी मित्र मंडली संगति सब कुछ बेकार है, निचले दर्जे का है आदि आदि। और वहीं उसके ठीक उलट मैं जैसा जीवन जीता हूं, वही आदर्शवादी जीवन है, उसे भी ऐसा जीवन जीना चाहिए और मुझसे सीखना चाहिए, अपनी यही सोच मैं उस पर थोपने का ही काम कर रहा था। मैं उसे अपने बने बनाए सही गलत के खाँचे में फिट करने चला था, लेकिन ऐसी हिमाकत करने वाला मैं होता कौ‌न हूं ये सवाल भी मैंने थोड़ा समय गुजर जाने के बाद खुद से किया।
आज भी उसकी वह बातें याद करता हूं तो सोचता हूं, ऐसे साफ मन के लोग और कितने होंगे। बहुत से अलग-अलग लोगों के साथ काॅलेज के दिनों में भी रहा, लेकिन वैसी साफगोई वैसी सहजता वैसा सौंदर्यबोध कहीं और महसूस नहीं हुआ।
मैंने उसके साथ रहते हुए एक चीज सीखी कि हम भारतीयों को अमूमन अपने आसपास अपने जैसे ही लोग चाहिए होते हैं। हम उनके बीच ही सहज और सुरक्षित महसूस करते हैं। हमें अपने से अलग चरित्र का, सोच-विचार का, बिल्कुल अलग तरीके से जीवन यापन करने वाला कोई मिल जाता है, और उसमें भी जहाँ हमें सामाजिक और जातिगत तरीके से ऊँच नीच वाला एंगल मिल जाता है तो भले ही हम कितने भी सामाजिक न्याय के पुरोधा बनते हों, हमारे भीतर कहीं छुपा हुआ एक हिंसक जातिवादी प्रतिक्रिया देने लग जाता है।