Interview by One of my friend, Its all about my all india solo ride.
Hope you like the conversation.
Q.1 अकेले बाइक से भारत घूमने का ये आइडिया कहाँ से आया?
A. ऐसी कोई तैयारी नहीं थी, कोरोना के बाद से सबकी तरह मैं भी घर में था, लाॅकडाउन की वजह से सब कुछ बंद था और कहीं जाना होता तो बस की सुविधा भी नहीं थी, फिर एक दिन अचानक मन में आया कि एक बाइक ले ली जाए। बाइक लेने की कहानी भी अजीब है, एक दिन शाम को एक शो रूम गया, वहाँ जाकर देखा, उसके बाद रात को उस बाइक के बारे में इंटरनेट में देखा और सुबह ही खरीद लिया। मेरे अधिकतर बड़े-बड़े फैसले ऐसे ही होते हैं। बाइक तो आ गई थी, तब तक इतना लंबा भारत घूमना है, ऐसी कोई तैयारी नहीं थी। 17 अक्टूबर 2020 को मैंने बाइक खरीदी और इसके दो सप्ताह बाद यानि 1 नवंबर को ही भारत घूमने निकल गया था। इन दो सप्ताह के अंदर ही मैं आसपास हजार किलोमीटर घूम लिया, क्योंकि पहली सर्विंसिंग करानी थी, और लंबी यात्रा पर निकलना था। जो कुछ हुआ इसी दो सप्ताह के अंदर ही हुआ, यूं कह सकते हैं कि अचानक एक दिन मन बन गया और सोच लिया कि चलो अब ठान लिया है तो कर ही लेते हैं।
Q.2 अकेले निकलने के पहले कोई डर घबराहट चिंता?
A. बिल्कुल नहीं। इससे पहले भी मैं खूब अकेले घूमा हूं। हाँ लेकिन जो पहला दिन होता है, वो बहुत मुश्किल भरा होता है, मन में बहुत से सवाल आते हैं, खुद पर शक होता है, ये सहज प्रतिक्रियाएँ है, क्योंकि हम जिस सामाजिक ढांचे में रहते हैं, जहाँ बँधे रहते हैं, वहाँ इन सब चीजों से हम वैसे भी रोज दो चार होते रहते हैं तो इतना चलता है। कुछ दिन जब हो जाते हैं, जब यह बंधन हटने का अहसास होता है, तब सब कुछ सामान्य लगने लगता है, तब जाकर यात्रा में मौज आनी शुरू होती है।
Q.3 आपने अपने यूट्यूब में खुद को "सोशल राइडर" लिखा हुआ है, ऐसा क्यों?
A. जी, इसका मतलब यह हुआ कि मैं बस सड़कें नापने या किसी खास जगह को देखने नहीं निकला था। जहाँ गया, वहाँ के लोगों से मिलना, बातें करना, और तो और उस स्थान विशेष के खान-पान के तौर तरीके, भाषा, स्थानीय बोली ये मेरे लिए सबसे जरूरी चीज रही। इस बात का कभी मलाल नहीं रहा कि फलां जगह जाकर वहाँ स्थित बहुत पुराने मंदिर या कोई पुरानी ईमारत या किसी प्रसिध्द जगह को नहीं देख पाया। मेरे लिए भारत ईमारतों में नहीं लोगों में बसता है। 135 दिनों में लगभग 80-90 दिन तो लोगों के घरों में ही रूकना हुआ।
Q.4 मुझे अपने घर के अलावा अपने रिश्तेदारों के घर में भी रहने में असहजता महसूस होती है, आप इतने दिन लोगों के घरों में रहे, कोई परेशानी नहीं हुई?
A. असहजता तो होती थी, ये समस्या थोड़ी बहुत मेरे साथ भी है, बहुत जल्दी लोगों से घुलना-मिलना नहीं हो पाता है, कुछ घंटों का समय लग ही जाता है। कुछ लोगों का अंतर्मुखी स्वभाव होता है, वहीं कुछ लोग बहिर्मुखी स्वभाव के होते हैं। मुझमें ये दोनों चीजे हैं, इनके बीच कहीं हूं। इसलिए समय, परिस्थिति के हिसाब से कभी स्वभाव अंतर्मुखी हो जाता है तो कभी बहिर्मुखी। बाकी जो मेरे परिचित रहे, मैं बहुत सोचता था कि कहाँ इनके यहाँ जाऊंगा, क्यों इन्हें परेशान करूं, कैसे रियेक्ट करेंगे, तमाम तरह के सवाल मन में आते। लेकिन मैंने देखा कि वे मुझे लेकर बहुत स्पष्ट रहते, उनकी स्पष्टता की वजह से भी मैं बहुत सहज हो जाता, लोगों का खूब प्यार मिला। मैंने यह भी महसूस किया कि सामने बात करने, साथ रहने से ही बहुत कुछ साफ होता है, चीजें स्पष्ट होती है, दूरी कम होती है, रिश्तों में मजबूती आती है।
Q.5 आप धर्मशालों गुरूद्वारों में भी रूके, मैंने बहुत लोगों को देखा है वे लंबी यात्रा में टेंट लेकर चलते हैं, आपने टेंट का आप्शन क्यों नहीं चुना?
A. टेंट का विकल्प मेरे मन में था लेकिन मैंने नहीं चुना क्योंकि मेरी यात्रा ठंड में हो रही थी, ठंड में टेंट लेकर चलेंगे, कैम्पिंग करेंगे तो फिर साथ में कंबल, चादर और तमाम तरह की अतिरिक्त चीजें भी आपको चाहिए, तो सामान बहुत अधिक हो जाता, असुविधा होती। मुझे बहुत कम सामान लेकर घूमना ज्यादा बेहतर लगा।
Q.6 मैंने देखा कि आप अपने सोशल मीडिया में यात्रा से अलग दलितों पिछड़ो, महिला अधिकारों, किसानों और समसामयिक मुद्दों पर कहीं अधिक मुखर रहते हैं, इस पर लोगों की क्या प्रतिक्रिया रहती है? एक यात्री के रूप में यह आपको कैसे प्रभावित करता है?
A. मेरे लिए इन मुद्दों पर बात रखना जीने के लिए फ्यूल की तरह है, कहीं कुछ गलत हो रहा हो, उसे गलत न कहकर चुप हो जाना मन को कचोटता है, भीतर कहीं वो चीज परेशान करती है। अब किसी न किसी तो बात रखनी पड़ेगी, मैं इसमें यह भी कोशिश करता हूं कि बस प्रतिक्रियावादी बनकर ही न रह जाऊं। हममें से अधिकांश लोग हिंसा, अन्याय को देखकर अनदेखा कर देते हैं, इसका एक खतरा यह है कि एक समय के बाद हमें कुछ भी महसूस होना ही बंद हो जाता है। ऐसी स्थिति न आए इसका मैं हमेशा ध्यान रखता हूं। एक यात्री के रूप में नुकसान यह होता है कि जो लोग मेरे इस पक्ष से इतर यात्री वाले पक्ष को नहीं देख पाते, उन्हें यह पक्ष परेशान करता है, वो इन दोनों पक्षों को अलग-अलग नहीं देख पाते हैं और इसी पूर्वाग्रह की वजह से दूरी बना लेते हैं। बहुत लोगों को मेरे लिखे से शिकायत भी रहती है, कि यात्रा पर ध्यान केंद्रित करें। अब उन्हें कैसे समझाया जाए कि यह सब जीवन का हिस्सा ही तो है, अलग कुछ भी नहीं है, एक अच्छा यात्री होना क्या तभी माना जाएगा जब वह बस दिन रात यात्रा के बारे में ही बात करे, नहीं बिल्कुल नहीं। ऐसा नहीं होता है। कम से कम मेरे साथ ऐसा नहीं है, लोग खफा रहते हैं कि मैं यात्राओं के बारे में कम और समसामयिक मुद्दों पर ज्यादा बात करना पसंद करता हूं। खैर, उनकी सोच का भी सम्मान है।
Q.7 आप अपनी इस लंबी यात्रा में बहुत समय तक किसान आंदोलन में भी रहे, उसके बारे में बताएँ?
A. किसान आंदोलन को लेकर लोगों के अपने अलग-अलग विचार हैं, कोई इसका समर्थन करता है, कोई इसके विरोध में है, सबने अपनी क्षमतानुसार धारणा बना रखी है। मैं जब तक वहाँ नहीं गया था, मुझे भी यही लगा था कि ये बाकी आंदोलनों की तरह कुछ दिन के लिए सड़कों पर शोर मचा रहे हैं, फिर सब खत्म हो जाएगा। लेकिन वहाँ जाने के बाद समझ आया कि कहानी तो कुछ और ही है, वहाँ की आबोहवा से ही फर्क महसूस होने लगा। एक चीज मुझे समझ आई कि हमारे यहाँ टीवी देखकर या कहीं पढ़कर ही हम राय बनाने लग जाते हैं, जबकि खबरें अधिकांशतः वस्तुस्थिति के साथ उचित न्याय नहीं कर पाती है, यह मैंने किसान आंदोलन में जाकर महसूस किया। खुद वहाँ जाकर मुझे समझ आया कि दूर से किसी चीज को देखने और पास वहीं रहकर देखने में कितना आसमानी अंतर होता है।
वहाँ आंदोलन स्थल में मैंने जगह-जगह अलग-अलग जत्थों के लंगर देखे, स्लम के बच्चों के लिए क्लास देखे, ढेरों अलग-अलग लाइब्रेरी देखी, हर कोई अपनी कला अपनी क्षमता का प्रदर्शन कर रहा है, कोई केरल से आया व्यक्ति बच्चों को जुम्बा डांस सिखा रहा है, तो कोई आंध्रप्रदेश का युवा कैलीग्राफी के गुर सीखा रहा है तो कोई किसानों को थियेटर दिखा रहा है, तो कहीं वाद-विवाद प्रतियोगिता का मंच है, ऐसा ही बहुत कुछ। इतनी महत्वपूर्ण चीजें आज भी मेनस्ट्रीम मीडिया में खबर का रूप नहीं ले पाई है। सोचिए कितना कुछ हमसे छूट जाता है। वहाँ किसानों के बीच हमेशा घर जैसा ही लगता था।
Q.8 टीवी में जो मैंने देखा, पुलिस और किसानों के बीच की मुठभेड़ भी आए दिन होती थी, आपको कभी वहाँ डर नहीं लगा?
A. बिल्कुल नहीं। उल्टे मुझे वहाँ जाकर बहुत अधिक सुरक्षित महसूस होता था, किसान कोई आतंकवादी तो हैं नहीं, अपने ही देश के लोग हैं, अपने माँगों के लिए सड़कों पर रह रहे हैं, हमारे साथ यही तो समस्या है, हम टीवी मीडिया के हिसाब से सोचने लगते हैं, आंदोलन करने वाले लोग हमारे इसी देश के नागरिक हैं, ये जरूरी बात हम भूल जाते हैं। आप यकीन नहीं करेंगे जब मैं आंदोलन स्थल में जाता था, कई बार तो ऐसा हुआ कि मैं गाड़ी का लाॅक लगाना तक भूल जाता, घंटों बाद लौटता, चाबी वहीं रहती। सोचिए आज आंदोलन को 9 महीने से अधिक हो गये, आंदोलन में अलग-अलग गाँव, ब्लाॅक, राज्यों के लोग हैं, कभी कोई चोरी जैसी घटना नहीं हुई है। सोचिए उनके बीच कैसा मजबूत भाईचारा बन रहा होगा, घर बैठे इसकी कल्पना करना भी संभव नहीं है।
Q.9 मेरे लिए ये सब बातें एकदम नई हैं, यकीन ही नहीं हो रहा। खैर, यात्रा पर वापस लौटते हैं, इस यात्रा के दौरान कभी आपको अकेलापन महसूस हुआ?
A. एक दो बार ऐसा हुआ है। हर दिन एक जैसा नहीं होता है, घूमने के दौरान आपको आए दिन नये-नये लोग मिलते रहते हैं, लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है जब आप नितांत अकेले पड़ जाते हैं, आपको कुछ भी करने का मन नहीं करता है, न घूमने का मन करता है न किसी से बात करने का मन करता है, ऐसा होता है, इसे स्वीकार करना चाहिए, इसे भी जस का तस पूरी ईमानदारी से जीना चाहिए।
Q.10 यात्रा के दौरान कहीं ऐसा हुआ कि आपको कोई समस्या हुई हो और आपने कैसे उस समस्या का समाधान निकाला?
A. कुछ कुछ ऐसे अनुभव हैं। मैं एक बार एक बिल्कुल नई जगह में ट्रैकिंग के लिए गया था, सुबह के चार बजे ही ट्रैकिंग के लिए निकल गया था, पूरा जंगल था, घुप्प अंधेरा, दूर दूर तक एक भी इंसान नहीं, बहुत घबराहट हुई, वापस अपने कमरे में लौट आया, फिर पता नहीं कहाँ से हिम्मत आई, मैंने फैसला किया कि अब जो भी होगा देखा जाएगा, धड़कन तेज थी, फिर भी हिम्मत करके मैं ट्रैक के लिए निकल गया, हाथ में एक डंडा था, मैंने यहाँ तक सोच लिया था, कि ठीक है जो होगा देख लिया जाएगा, कोई जंगली जानवर भी आएगा तो सामना कर लूंगा। इस स्तर का हौसला पैदा हो गया था।
Q.11 इतनी लंबी ट्रिप, इसमें घरवालों का क्या रिएक्शन था?
A. घरवालों को अभी तक इस बारे में नहीं पता है, मैं बिना बताए ही निकल गया था, लेकिन हर दूसरे दिन घरवालों से बातचीत होती रहती थी, उनसे हमेशा संपर्क में रहा, लेकिन उन्हें मैं कभी अपना सही पता नहीं देता था, कई बार क्या होता है, हमें पूरा सच नहीं बताना होता है, सबके घरवाले पूरा सच समझने लायक होते भी नहीं है, और जब हमें लगता है कि पूरा सच नहीं पचा पाएंगे तो आधे सच के साथ काम चलाना चाहिए। मैं ऐसा करते हुए ही भारत घूमकर आ गया।
Q.12 इतनी हिम्मत कहाँ से आती है?
A. सारा खेल मन का है, एक बार मन बन गया तो सब हो जाता है, कोई समस्या नहीं टिक पाती है।
Q.13 इतना लंबा समय, लगातार बाइक चलाते हुए तकलीफ नहीं हुई?
A. अब मैं उसका जवाब दूंगा तो आपको यकीन नहीं होगा। जब मैंने शुरुआत की थी, कुछ दिन हुआ था तब पूरे शरीर में खूब दर्द होता, कमर और जोड़ों में दर्द हुआ। फिर कुछ दिनों के बाद आदत सी हो गई। तब तो ऐसा होने लगा कि जिस दिन मैं गाड़ी नहीं चलाता था, उस दिन मुझे अजीब सी बैचेनी होने लगती थी, बाइक चलाकर आता तब जाकर ठीक लगता, ऐसी आदत हो गई थी, शरीर और मन कुछ इस तरह से ढल गया था।
Q.14 क्या बात है, तो अगली ट्रिप कब शुरू होगी क्योंकि नार्थ ईस्ट तो शायद बचा हुआ है?
A. अगली ट्रिप इसी ठंड में शुरू हो जाएगी, भारत की जिस तरह की जलवायु है, उसमें मुझे ठंड के मौसम में घूमना ज्यादा सही लगता है, आपको बहुत अधिक भीड़ भी नहीं मिलती है। संभवतः मानसून के खत्म होते ही अक्टूबर में निकल जाऊंगा, इस बार थोड़ा अलग होगा, पिछले बार के बहुत से अनुभव काम आएंगे।
Q.15 अगली ट्रिप के लिए बहुत शुभकामनाएँ, अपडेट्स का इंतजार रहेगा।
A. जरूर, बहुत बहुत धन्यवाद।।