अगस्त 2016, मैं मुनस्यारी में था। रोज सुबह मैं डानाधार में स्थित नंदा देवी मंदिर परिसर जाता और वहाँ से दूर बहती हुई गोरीगंगा नदी को देखता। हर रोज यही होता, मैं सुबह नदी को देखता और यही सोचता कि आज नहीं तो कल इस नदी को पास से देखने जाना है। पहले मैं अपने कुछ दोस्तों से कहता कि चलो कभी चलते हैं नदी की तरफ। पर कोई राजी न होता क्योंकि नदी तक जाने में या वहाँ आसपास कोई देखने लायक जगह न थी। फिर मैंने एक सुबह सोचा कि अकेले ही पैदल निकल लूंगा।
फिर उस रात मुझे गोरी नदी का सपना आया। मैं उसी दिन अगले सुबह बैग में पानी की बोतल लिए पैदल गोरी नदी की ओर निकल गया।सुबह के 9 बजे थे, मैं डानाधार के रास्ते से तेजी से पगडंडियों से होते-होते पैदल उतरने लगा। हल्की धूप थी, पहाड़ों में धूप सीधी लगती है तो थोड़ी धूप भी असहनीय हो जाती है। मैं लगातार बिना रूके चला जा रहा था। उन रास्तों में कोई भी दिखाई न देता, अब चूंकि ये रास्ता मेरे लिए नया था तो समझ नहीं आता कि कब किस पगडंडी से आगे जाना है और कौन सी पगडंडी से कम चलना पड़ेगा।
मैं सांप, बिच्छू और जंगली जानवरों से भयमुक्त होकर बस चला जा रहा था कि अचानक एक दस फीट लंबे सांप ने मेरा रास्ता घेर लिया। मैं दौड़कर पीछे हटा, कुछ मिनट पश्चात जब वो सांप वहाँ से गया तब मैं आगे बढ़ा। आगे ऐसा हुआ कि एक जगह रास्ता बंद हो गया। मैं फिर लगभग आधा किलोमीटर पीछे लौटा जहां दो तीन पगडंडियां थी। वहाँ किस्मत से मुझे एक दादी मिल गयी। दादी बकरियाँ चराने आई थी। मैंने उनसे गोरी नदी तक जाने का रास्ता पूछा तो उन्होंने फिर मुझे बताया। मैं उनके बताये रास्ते पर चलता गया। एक जगह नहीं रूका, लगातार चलते एक घंटे से ज्यादा हो चुका था। अब मैं संकरी घास से लदी पगडंडियों से गुजर रहा था तो मेरे हाथों में बहुत बार बिच्छू घास लग गया जिससे जलन होने लगी। मैं ये सब नजरअंदाज कर बस चलता गया।मन में सिर्फ वो बहती हुई नदी थी जिसे मैं रोज सुबह दूर से निहारता आया हूं। वहाँ से आगे निकला तो फिर से रास्ता ब्लाक, आगे पगडंडी का कोई नामोनिशान नहीं। वो तो मेरी किस्मत अच्छी रही कि वहाँ पास में एक घर था और बाहर में एक अंकल बैठे हुए थे मैंने उनसे आगे गोरी नदी की ओर जाने का रास्ता पूछा तो पता चला कि वे गूंगे हैं, फिर भी उन्होंने मुझे इशारों से रास्ता बताया, उनके बताये रास्ते पर जब मैं आगे बढ़ा तो फिर रास्ता ब्लाक। या तो उन्होंने मुझे गलत रास्ता बताया या मैं शायद ठीक से समझ नहीं पाया। अब जब मैं उस गूंगे अंकल के पास वापस लौटा तो वहाँ एक और आंटी थी, मैं उन्हें देखकर थोड़ा खुश हुआ कि चलो अब ये मुझे सही रास्ता बता देंगी। जब मैंने उन्हें पूछा तो वो पहाड़ी में बताने लगी, उन्हें असल में हिन्दी नहीं आती थी और उस समय तक मुझे पहाड़ी समझ नहीं आती थी। पर मरता क्या नहीं करता। मैंने उनकी बातों को ध्यान से सुना और उनके बताये रास्ते पर आगे निकला। आगे एक थोड़ी समतल जगह आई वहाँ एक बड़ा सा खेत था, एक दीदी वहाँ फसल की कटाई कर रही थी। मैंने उन्हें नमस्ते किया, वो दीदी मुझे घूरकर देख रही थी(मानो वह सोच रही होंगी कि आखिर जंगल के इन रास्तों से आखिर ये कौन आया, क्यों आया) खैर मैंने उनसे रास्ता पूछा और तेजी से आगे बढ़ता गया।
ठीक कुछ ऐसी ही घटना आगे भी हुई। मैं अब जिस रास्ते से गुजर रहा था, वहाँ दो अलग-अलग पगडंडियां आई, वहां पास में एक घर भी था, घर के बाहर एक मां अपनी पंद्रह साल की बिटिया के साथ कुछ काम कर रही थी। मैंने उनके पास जाकर जब रास्ता पूछा तो उन्होंने उत्सुकतावश मुझसे पूछा कि कहाँ से आये हो? मैंने कहा मुनस्यारी से पैदल आया हूं। अब दोनों मां-बेटी मुझे बड़े आश्चर्य से देख रहे थे फिर उन्होंने कहा - गोरी नदी क्यों जा रहे हो?
मैंने कहा - ऐसे ही। फिर उन्होंने हंसते हुए कहा - हम तो वहाँ अर्थियों को ले जाते हैं बेटा पता नहीं तुम इतना दूर क्यों जा रहे हो।
मैंने कहा - अम्माजी गोरी नदी का बुलावा आया है।और फिर उन्होंने कुछ नहीं पूछा और मैं आगे बढ़ा।
मैं लगातार पगडंडियों पर चलकर पसीने से भीग चुका था। अब थोड़ी थकान भी होने लगी थी। मैं लगभग आधी दूरी तय कर चुका था। अब मैं रोड की तलाश करने लगा कि कहीं से गोरी नदी तक जाने वाली रोड मिल जाए, फिर तेजी से सीधे चलता जाऊंगा। और कुछ देर चलने के बाद मुझे रोड मिल गई। पगडंडियों पर दो घंटे से लगातार चलने के बाद जब रोड मिल गई तो खुशी का ठिकाना न रहा। मैं अब दुगुनी तेजी से चलने लगा।
सुबह के 11 बज चुके थे और अब मैं दरांती गांव तक पहुंच चुका था।अब यहाँ से एकएक या डेढ़ घंटे का रास्ता बच गया था। मैं थोड़ा थोड़ा पानी पीकर लगातार चलता गया। पहाड़ों में रहकर मैंने एक चीज सीख ली कि लंबी चलाई में एक जगह रूककर ज्यादा देर आराम नहीं करना चाहिए, दो-चार मिनट से ज्यादा नहीं वरना फिर आगे चलने में दुगुनी मेहनत लगती है, आप समय से पहले थक जाएंगे और चल नहीं पाएंगे। चढ़ाई में ट्रैकिंग करते समय तो इस बात का बखूबी ख्याल रखना चाहिए अन्यथा समस्या को बुलावा है।
दोपहर के 12:30 बजे थे। मैं गोरी नदी पहुंच चुका था। आखिरकार मेरी मुलाकात नदी से हो गई। मैं वहाँ कुछ देर बैठकर बहती नदी की आवाज सुनने लगा, फिर उसका पानी पीया और वापस पैदल दरांती गांव तक आया।
दोपहर के दो बज चुके थे। मैं बुरी तरह से थक चुका था। अब मुझे भूख भी लग रही थी। मैंने दरांती में एक होटल में नास्ता किया फिर लगभग एक किलोमीटर तक पैदल चला। उसके बाद वहाँ कुछ मिनट आराम किया, उसके बाद जब लगा कि और पैदल चलने की हिम्मत नहीं रही तब मैं मदकोट से मुनस्यारी आने वाली गाड़ी में बैठकर मुनस्यारी वापस आ गया। गोरीगंगा नदी का ये सफरनामा यहीं समाप्त हुआ.
फिर उस रात मुझे गोरी नदी का सपना आया। मैं उसी दिन अगले सुबह बैग में पानी की बोतल लिए पैदल गोरी नदी की ओर निकल गया।सुबह के 9 बजे थे, मैं डानाधार के रास्ते से तेजी से पगडंडियों से होते-होते पैदल उतरने लगा। हल्की धूप थी, पहाड़ों में धूप सीधी लगती है तो थोड़ी धूप भी असहनीय हो जाती है। मैं लगातार बिना रूके चला जा रहा था। उन रास्तों में कोई भी दिखाई न देता, अब चूंकि ये रास्ता मेरे लिए नया था तो समझ नहीं आता कि कब किस पगडंडी से आगे जाना है और कौन सी पगडंडी से कम चलना पड़ेगा।
मैं सांप, बिच्छू और जंगली जानवरों से भयमुक्त होकर बस चला जा रहा था कि अचानक एक दस फीट लंबे सांप ने मेरा रास्ता घेर लिया। मैं दौड़कर पीछे हटा, कुछ मिनट पश्चात जब वो सांप वहाँ से गया तब मैं आगे बढ़ा। आगे ऐसा हुआ कि एक जगह रास्ता बंद हो गया। मैं फिर लगभग आधा किलोमीटर पीछे लौटा जहां दो तीन पगडंडियां थी। वहाँ किस्मत से मुझे एक दादी मिल गयी। दादी बकरियाँ चराने आई थी। मैंने उनसे गोरी नदी तक जाने का रास्ता पूछा तो उन्होंने फिर मुझे बताया। मैं उनके बताये रास्ते पर चलता गया। एक जगह नहीं रूका, लगातार चलते एक घंटे से ज्यादा हो चुका था। अब मैं संकरी घास से लदी पगडंडियों से गुजर रहा था तो मेरे हाथों में बहुत बार बिच्छू घास लग गया जिससे जलन होने लगी। मैं ये सब नजरअंदाज कर बस चलता गया।मन में सिर्फ वो बहती हुई नदी थी जिसे मैं रोज सुबह दूर से निहारता आया हूं। वहाँ से आगे निकला तो फिर से रास्ता ब्लाक, आगे पगडंडी का कोई नामोनिशान नहीं। वो तो मेरी किस्मत अच्छी रही कि वहाँ पास में एक घर था और बाहर में एक अंकल बैठे हुए थे मैंने उनसे आगे गोरी नदी की ओर जाने का रास्ता पूछा तो पता चला कि वे गूंगे हैं, फिर भी उन्होंने मुझे इशारों से रास्ता बताया, उनके बताये रास्ते पर जब मैं आगे बढ़ा तो फिर रास्ता ब्लाक। या तो उन्होंने मुझे गलत रास्ता बताया या मैं शायद ठीक से समझ नहीं पाया। अब जब मैं उस गूंगे अंकल के पास वापस लौटा तो वहाँ एक और आंटी थी, मैं उन्हें देखकर थोड़ा खुश हुआ कि चलो अब ये मुझे सही रास्ता बता देंगी। जब मैंने उन्हें पूछा तो वो पहाड़ी में बताने लगी, उन्हें असल में हिन्दी नहीं आती थी और उस समय तक मुझे पहाड़ी समझ नहीं आती थी। पर मरता क्या नहीं करता। मैंने उनकी बातों को ध्यान से सुना और उनके बताये रास्ते पर आगे निकला। आगे एक थोड़ी समतल जगह आई वहाँ एक बड़ा सा खेत था, एक दीदी वहाँ फसल की कटाई कर रही थी। मैंने उन्हें नमस्ते किया, वो दीदी मुझे घूरकर देख रही थी(मानो वह सोच रही होंगी कि आखिर जंगल के इन रास्तों से आखिर ये कौन आया, क्यों आया) खैर मैंने उनसे रास्ता पूछा और तेजी से आगे बढ़ता गया।
ठीक कुछ ऐसी ही घटना आगे भी हुई। मैं अब जिस रास्ते से गुजर रहा था, वहाँ दो अलग-अलग पगडंडियां आई, वहां पास में एक घर भी था, घर के बाहर एक मां अपनी पंद्रह साल की बिटिया के साथ कुछ काम कर रही थी। मैंने उनके पास जाकर जब रास्ता पूछा तो उन्होंने उत्सुकतावश मुझसे पूछा कि कहाँ से आये हो? मैंने कहा मुनस्यारी से पैदल आया हूं। अब दोनों मां-बेटी मुझे बड़े आश्चर्य से देख रहे थे फिर उन्होंने कहा - गोरी नदी क्यों जा रहे हो?
मैंने कहा - ऐसे ही। फिर उन्होंने हंसते हुए कहा - हम तो वहाँ अर्थियों को ले जाते हैं बेटा पता नहीं तुम इतना दूर क्यों जा रहे हो।
मैंने कहा - अम्माजी गोरी नदी का बुलावा आया है।और फिर उन्होंने कुछ नहीं पूछा और मैं आगे बढ़ा।
मैं लगातार पगडंडियों पर चलकर पसीने से भीग चुका था। अब थोड़ी थकान भी होने लगी थी। मैं लगभग आधी दूरी तय कर चुका था। अब मैं रोड की तलाश करने लगा कि कहीं से गोरी नदी तक जाने वाली रोड मिल जाए, फिर तेजी से सीधे चलता जाऊंगा। और कुछ देर चलने के बाद मुझे रोड मिल गई। पगडंडियों पर दो घंटे से लगातार चलने के बाद जब रोड मिल गई तो खुशी का ठिकाना न रहा। मैं अब दुगुनी तेजी से चलने लगा।
सुबह के 11 बज चुके थे और अब मैं दरांती गांव तक पहुंच चुका था।अब यहाँ से एकएक या डेढ़ घंटे का रास्ता बच गया था। मैं थोड़ा थोड़ा पानी पीकर लगातार चलता गया। पहाड़ों में रहकर मैंने एक चीज सीख ली कि लंबी चलाई में एक जगह रूककर ज्यादा देर आराम नहीं करना चाहिए, दो-चार मिनट से ज्यादा नहीं वरना फिर आगे चलने में दुगुनी मेहनत लगती है, आप समय से पहले थक जाएंगे और चल नहीं पाएंगे। चढ़ाई में ट्रैकिंग करते समय तो इस बात का बखूबी ख्याल रखना चाहिए अन्यथा समस्या को बुलावा है।
दोपहर के 12:30 बजे थे। मैं गोरी नदी पहुंच चुका था। आखिरकार मेरी मुलाकात नदी से हो गई। मैं वहाँ कुछ देर बैठकर बहती नदी की आवाज सुनने लगा, फिर उसका पानी पीया और वापस पैदल दरांती गांव तक आया।
दोपहर के दो बज चुके थे। मैं बुरी तरह से थक चुका था। अब मुझे भूख भी लग रही थी। मैंने दरांती में एक होटल में नास्ता किया फिर लगभग एक किलोमीटर तक पैदल चला। उसके बाद वहाँ कुछ मिनट आराम किया, उसके बाद जब लगा कि और पैदल चलने की हिम्मत नहीं रही तब मैं मदकोट से मुनस्यारी आने वाली गाड़ी में बैठकर मुनस्यारी वापस आ गया। गोरीगंगा नदी का ये सफरनामा यहीं समाप्त हुआ.
Goriganga River
Wah yaad aa gayi wo wadiya aur wo raste ��
ReplyDeletehaan Bhai..shukriya shukriya
ReplyDelete👍🏻👌🏻
ReplyDeletethanku ji aara
DeleteAdbhoot
ReplyDeletethnku so much love
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