हम मुनस्यारी तहसील के गोरीपार क्षेत्र के चिलकोटधार गाँव से शाम को निकलकर रात होते तक पैदल ढलाननुमा रास्ते से बादनी पहुंच चुके थे। हम जिस दोस्त के साथ बादनी आये, उन्हीं के कोई परिचित थे जिनके यहां बादनी में हमने रात्रि विश्राम किया। बादनी में हम जिनके यहाँ रूके हुए थे वहाँ हमने घर के घी से सने हुए पराठे खाए और उनके यहां के गौशाला का गाढ़ा दूध पिया। उस दूध का स्वाद आज भी भुलाया नहीं जाता, वो दूध इतना गाढ़ा था कि मैदान का आदमी नहीं पचा पाएगा, जो रोजाना अपना शारीरिक बल आजमाता हो ऐसे ही लोग इतना गाढ़ा दूध पचा सकते हैं।
अब ऐसा हुआ कि सुबह होते ही मैंने पूरा प्लान बदल लिया। जिस दोस्त के साथ हम बादनी पहुंचे थे उन्हें मैंने वहां से अलविदा किया और अपना आगे का रास्ता बदलने का सोचा। इत्तफाक से किस्मत भी ऐसी कि बादनी में हमने जिनके यहां रात्रि विश्राम किया था उन्हें मदकोट जाना था और फिर वहां से वे मुनस्यारी जाने वाले थे। मुझे भी मुनस्यारी वापस लौटना था। तो मैं उन्हीं के साथ सुबह 6 बजे पैदल चिलकोटधार की पहाड़ियों के रास्ते होते हुए मदकोट की ओर निकल गया। बादनी से मदकोट की यह दूरी लगभग 12 से 15 किलोमीटर की थी। हमने जो बादनी से चलना शुरू किया लगातार चलते रहे और लगभग 5 किलोमीटर की दूरी नाप लिए। शुरूआत में रास्ता सीधा-सपाट था, ज्यादा चढ़ाई नहीं थी। हम जब चल रहे थे तो मेरे जूते बार-बार पत्तियों के संपर्क में आकर फिसल रहे थे और मैं खुद को संभालते हुए आगे बढ़ रहा था, असल में मेरे जूतों की तली घिस चुकी थी। महीनों तक पहाड़ों में चल-चलकर मैंने इस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया।
चिलकोट की पहाड़ियों को पार करते हुए हम तेजी से आगे बढ़ रहे थे। सुबह ठीक-ठाक ठंड थी फिर भी लगातार चलते रहने की वजह से हमें पसीना आने लगा था। मैं आगे-आगे चल रहा था और हमारे जो दोस्त थे वे मेरे पीछे चल रहे थे। अचानक से उन्होंने मुझे कहा यार रूकते हैं थोड़ी देर। मैंने कहा - ठीक है। वे थोड़े से थक गये थे। पर मुझे पता नहीं क्या हो गया था, चलने का एक अलग ही धुन सवार था। मुझे उतनी थकान महसूस नहीं हुई जितनी होनी थी। अब हम जब शांत पहाड़ी में बैठे थे तो मैंने उनसे कुछ-कुछ सवाल पूछे कि--
- यार दाज्यू मैं मिलम ग्लेशियर तक चले जाऊंगा न? 70 किलोमीटर की दूरी है तीन दिन का समय लगता है, रास्ता भी काफी दुर्गम है जान का खतरा है, सुना है बहुत पत्थर गिरते हैं वहाँ ऊपर पहाड़ियों से। और पता नहीं मैंने एक सांस में कितने सारे सवाल कर लिए उनसे।
उन्होंने कहा- यार आप तो मुझसे भी अच्छा चल रहे हो। इस तरह से चलोगे तो तीन दिन क्या दो दिन में ही पहुंच जाओगे। बिल्कुल पहाड़ी लोगों की तरह चल रहे, आप मुझे सच में कहीं से भी मैदान के नहीं लग रहे। अब उन्होंने मेरे जूतों को देखकर कहा- आपका जूते का तली देख के तो मुझे डर लग रहा है, मैं ये जूता पहन के अभी चल रहा होता तो कब का खाई में गिर गया होता, पता नहीं आप इन जूतों में कैसे चल ले रहे हो। उनकी ये बातें मेरे लिए किसी पुरुस्कार से कम नहीं थी और फिर मेरा चलने का हौसला दुगुना होता गया।
मैं जिनके साथ मदकोट जा रहा था उन्हें चिलकोट की पहाड़ियों में ही बकरी वालों तक भांग/गांजा/माल पहुंचाना था। उन्होंने आवाज लगाई और बकरी वालों को ढूंढकर उन तक सामान पहुंचा दिया। जब वे बकरी वालों से मिलकर वापस आ गये तो उन्होंने एक घटना का जिक्र किया कि बकरी वाले बता रहे थे कि कल चिलकोट की पहाड़ी से पत्थर गिरने की वजह से उनकी दो बकरियां खाई में गिरकर मर गई। अब उन्होंने बताया कि यहाँ से पत्थर गिरते ही रहता था, हर साल ऐसी घटनाएँ आम है। अब मुझे थोड़ी घबराहट होने लगी क्योंकि हम अभी उसी रास्ते से गुजर रहे थे जहाँ एक दिन पहले बकरियों की जान चली गई थी। हमारे दोस्त ने कहा - आगे थोड़ा संभल के चलना, पगडंडियां अब थोड़ी जर्जर हालत में मिलेगी। मैं मन ही मन सोच रहा था कि आगे का रास्ता और दुर्गम होगा फिर मैंने सोचना छोड़ दिया और इस बारे में उनसे ज्यादा कुछ पूछा भी नहीं और हम बस चलते गये।
हमारे दोस्त ने बकरी वालों के बारे में यानि गड़रियों के बारे में एक गजब की बात बताई। उन्होंने कहा कि बकरी वाले पैदल ही बकरियों को चराते हुए मुनस्यारी से मैदानों क्षेत्रों तक यानि रामनगर तक ले जाते हैं। चूंकि पहाड़ों में ठंड के समय चारे की समस्या होती है तो वे ठंड शुरू होने से पहले ही मैदानों का रूख कर लेते हैं। लगभग 300 किलोमीटर के इस पहाड़ी रास्ते को वे तीन महीने में पूरा करते हैं और फिर वापसी में तीन महीने। यानि छः महीने के एक लंबे सफर के बाद वापस मुनस्यारी लौटते हैं। तब तक पहाड़ों में भरपूर चारागाह उपलब्ध हो जाता है।
मैं उनकी बातें कहानी की तरह सुनते जा रहा था, हमारी दायीं ओर मदकनी(मदकन्या) नदी की कल-कल धारा थी, यह नदी पंचाचूली ग्लेशियर से निकलती है और बायीं ओर गोरीगंगा नदी अपने पूरे प्रवाह में बह रही थी जिसका उद्गम स्थल मिलम ग्लेशियर है। और बीच में हम चल रहे थे। बातें करते-करते कब 11 बज गये पता ही नहीं चला, हम 5 घंटे की पैदल यात्रा कर मदकोट पहुंच चुके थे। हमने सुबह से कुछ भी नहीं खाया था, चूंकि इस 5 घंटे की चलाई के दौरान हमने पानी की एक बूंद भी नहीं पी थी, तो अब हमने आखिरकार मदकोट पहुंच कर ही पानी पिया और रोटियां खाई। घंटे भर में मदकोट में तहसील कार्यालय का काम निपटाकर अब हम मुनस्यारी जाने की तैयारी करने लगे।
Chilkotdhar Range |
Me and my friend from baadni village |
Group of Sheeps |
My friend with the shephard |
Goriganga River |
Sheeps All the way |
Madkot- Munsyari road |
A Wide view of Khulliya Top from chilkotdharTREKKING THROUGH CHILKOTDHAR RANGES |
Wow
ReplyDeleteI also love trekking
oh...then lets plan for upper Himalayas..what say?
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