अगस्त 2015 की बात है। मैं दोपहर को दिल्ली हजरत निजामुद्दीन रेल्वे स्टेशन में था। दिल्ली से मेरी ट्रेन रायपुर के लिए थी। मैंने पहले ही गोंडवाना एक्सप्रेस की स्लीपर क्लास की टिकट करा ली थी। ट्रेन आने में अभी एक घंटे का समय बचा था। मैं एटीएम की तलाश में इधर से उधर भटक रहा था। उतने में ही घर से फोन आया कि आज सारे बैंक बंद हैं। अब कल पैसे डाल देंगे तेरे एकाउंट में। मेरे तो पांव तले जमीन खिसक गई। जेब और बैग खंगाला तो पता चला कि अब मेरे पास मात्र पच्चीस रुपए रह गये हैं।
घरवालों से भी मुझे उसे दिन पैसे डलवाने थे। मैंने पहले किसी को कहा भी नहीं कि पैसे खत्म होने को है। जो दोस्त मुझे स्टेशन तक छोड़ने आया था, मैंने उससे भी पैसे उधार नहीं लिए। मेरा स्वाभिमान अपने चरम पर था और अब सामने मेरी परीक्षा होनी थी। 22 घंटे का लंबा सफर और हाथ में मात्र पच्चीस रुपए। ट्रेन छूटने में पंद्रह मिनट रह गया था, मैं अब यह सोचने लग गया कि इस पच्चीस रुपए का कैसे सदुपयोग किया जाए। क्योंकि अब पैसे मिलने की लगभग सारी संभावनाएँ समाप्त हो चुकी थी। जिन दोस्तों से नेट-बैंकिग रूपी बची-खुची संभावनाएँ थी उसे भी मेरे स्वाभिमान ने खत्म कर दिया। अब अगले दिन सुबह ग्यारह बजे बैंक खुलने का इंतजार करना ही आखिरी रास्ता था। दोपहर तीन बजे से अगले दिन के सुबह ग्यारह बजे का ये पूरा समय, आखिर कटे तो कटे कैसे। आखिर इन पच्चीस रूपयों का क्या किया जाए। मैंने थोड़ी देर सोचा फिर उस पच्चीस रुपए में से दस रुपए का एक लोकल पानी बोतल खरीदा और उसमें से सारी पानी फेंककर रेल्वे स्टेशन में नल से मिलने वाला पीने योग्य पानी भर लिया। और फिर मैं रास्ते भर यही करता रहा। ठीक-ठाक गर्मी थी। इसलिए पानी की जरुरत भी बढ़ गई थी। जब भी कोई स्टेशन आता मैं दौड़कर उतरता और पानी भरता।
शाम के पांच बज चुके थे। ट्रेन को चले अभी बमुश्किल दो घंटा भी नहीं हुआ था कि मुझे भूख लगने लगी। मुसीबत ऐसी कि उस दिन मेरे बैग में खाने का कुछ भी सामान नहीं था, अब जो कुछ भी था उस पच्चीस रुपए के सहारे था। उसमें से भी तो अब पंद्रह रूपये बच गये थे। गोंडवाना में पेंट्रीकार नहीं रहती। पर फिर भी चाय समोसे वाले गुजर रहे थे। मैंने हमेशा की तरह इन चीजों से खुद को दूर रखा। और फिर कुछ देर में एक चने वाला आया मैंने उससे दस रुपए का चने खरीद लिए और पांच रूपये बचा लिए। दस रुपए का जो मैंने चना खरीदा था वो मैंने आधा खाया, पेट में कुछ गया नहीं गया पता ही नहीं चला। अब ये ट्रेन का मेरा सफर एक नया मोड़ लेने जा रहा था। शाम के छ: या सात बजे के बीच का समय रहा होगा। उसी समय मथुरा से एक पूरा परिवार चढ़ा। महिलाएँ, बच्चे और एक दादी। सारी की सारी छः सीट मेरे बर्थ के आसपास। साइड अपर में एक कोई बुजुर्ग थे और मैं अपर बर्थ में। बाकी की छः सीट उन परिवार वालों की थी। मैं अब अपर बर्थ में जाकर लेट गया और बाकी बचे चने भी खा लिया। और पानी पीकर लेट गया।
अपर बर्थ में कुछ देर लेटा रहा, फिर नीचे उतरकर ट्रेन के दरवाजे के पास जाकर थोड़ी हवा खाई और फिर नीचे लोवर बर्थ में आकर बैठ गया। मथुरा से जो परिवार चढ़ा था। उनके साथ एक बच्चा था, जो लगभग पांच साल का रहा होगा वो मेरे साथ खेलने लग गया। मैं भी उसके साथ कुछ देर खेल लिया। अब चूंकि उस बर्थ में मैं अकेला ही था तो उस बच्चे की दादी से मेरी हल्की फुल्की बातें शुरु हो गई। उन्होंने बताया कि वे गोंदिया वापस अपने घर लौट रहे हैं। दादी ने बताया कि वे काशी, हरिद्वार, ऋषिकेश, वृंदावन, मथुरा आदि जगहों से घूम कर आ रहे हैं। पंद्रह दिन की यात्रा के बाद वे अपने घर गोंदिया(महाराष्ट्र) लौट रहे थे।
जो दादी थीं उनसे मेरी अच्छी खासी बात हो गई, क्योंकि वे भी उत्तराखंड की यात्रा से लौट रहे थे, और मैं भी तो महीने भर पहले वहीं था,इस एक वजह से हमारी काफी बातें मिल गई। और ये पहली बार ऐसा हुआ कि मैंने ट्रेन के सफर में किसी से इतनी बात की हो। अब उन्होंने कुछ खाने-पीने की चीजें निकाली और शायद कुछ मिठाइयाँ खाने लगे। उन्होंने मुझसे भी पूछा तो मैंने मना कर दिया। जब वे जिद करने लगे तो मैं भी सोचा कि ये सब क्या हो रहा है। फिर मैंने उन्हें कहा कि नहीं आंटीजी मेरा उपवास है। तभी उस पांच साल के बच्चे ने जो मेरे साथ खेल रहा था, वो बड़ा तेज बच्चा निकला। उसने तुरंत चिल्लाकर कहा कि मम्मी अभी कुछ देर पहले भैया ऊपर बैठ के चना खा रहे थे। उस बच्चे ने तो मुझे धर्मसंकट में डाल दिया। मेरा झूठ पकड़ा चुका था, उस बच्चे की बात से मैं झेंप सा गया। वो आंटी हंसने लगी और कहा लो बेटा अब तो खा ही लो। लंबा सफर है. मेरे पास अब बोलने के लिए कुछ भी नहीं था, मना करता तो भी कैसे, विवश होकर मैंने उनकी दी हुई मिठाई खा ली और पेट भर पानी पी लिया। मीठा खाने के कारण मेरी भूख थोड़ी शांत हुई। अब मुझे कुछ खाने का मन भी नहीं कर रहा था। लेकिन अब नींद आने की समस्या थी। बड़ी मशक्कत के बाद रात के 11 बजे के आसपास मैं सो गया।
अगले दिन सुबह 5 बजे मेरी नींद खुल गई। सुबह ब्रश करने के बाद जो भूख लगी उसकी कोई सीमा न थी। एक-एक मिनट काटना मुश्किल हो रहा था। जैसे-तैसे तीन घंटे बीत गये। 8 बजे उस परिवार के लोगों ने फिर मिठाई निकाली और फिर मुझे मिठाई खिलाई। दादी ने मुझसे एकदम पूछ ही लिया कि बेटा तुम रात को खाना खाए कि नहीं, मैंने तो अभी तक तुम्हें कुछ खाते देखा नहीं। मैंने उन्हें कहा कि रात को ट्रेन रूकी थी तब बाहर जाकर कुछ-कुछ खा लिया था।कुछ इस तरह गोल-गोल घुमाकर मैंने गेंद फेंक दी और दादी ने लपक ली और मुझे दादी के सवालों से मुक्ति मिली। सुबह के 11 बज चुके थे, मेरे फोन में पैसे आने का मैसेज आ चुका था। अब मैं ट्रेन रुकने के इंतजार में था कि अब कोई स्टेशन आए और मैं पैसे निकालकर कुछ खाऊं।
एक कोई स्टेशन आया मैं खुशी-खुशी उतरा पर वहाँ एक भी एटीएम नहीं था। फिर कुछ देर बाद एक और स्टेशन आया वहाँ एटीएम था। मैं दौड़कर गया, पता चला कि एटीएम से पैसे नहीं निकल नहीं रहे थे। उसके बाद फिर एक स्टेशन आया वहाँ एटीएम से पैसे निकल गये। मेरा ट्रेन के सफर का ये संघर्ष अब अपने आखिरी पड़ाव को पार कर सुकून से बैठ गया।
अब मैं सोचने लगा कि चलो अब कुछ खाने-पीने की चीजें खरीद ली जाए। पर मैंने कुछ नहीं खरीदा। मेरी भूख शांत हुई या क्या हुआ पता नहीं पर पैसे आने के पश्चात भी मैंने उस दिन कुछ भी नहीं खरीदा। सफर में अभी तीन घंटे और बचे थे। मैंने पानी की बोतल भर ली और मुस्कराकर अपने बर्थ में आकर सो गया। शायद उपवास या रोजा रखने वालों की तरह मैं भीतर तक शांत हो चुका था।
फिर से दिल को छू लेने वाली यात्रा वृत्तांत👌👌👌👌😊😊😊😊😊
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया मैडम। 😊😊
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