Friday, 27 October 2017

~ सभ्यता की निशानी ~

- पहले लोग मिलकर चर्चाएँ करते थे आज आनलाइन ग्रुप चैट होता है ये सभ्यता की निशानी है।

- पहले लोग दुकानों में जाकर पहले बातचीत करते एक दूसरे का हाल पूछते, फिर खरीददारी करते, आज वे व्यस्त हैं अपने खोखलेपन में, अब वे क्लिक कर अपने पसंद की चीजें मंगाते हैं और थोड़ा सस्ता पाकर एक पूरे समाज से अलग-थलग हो जाते हैं ये सभ्यता की निशानी है।

- पहले लोग अपने मनोरंजन के लिए मिल-जुलकर इकट्ठे होकर मेलों में जाते, जादू का शो देखते, सर्कस की कलाबाजियां देखते, आज सब अकेले यूट्यूब देखते हैं, ये तो सभ्यता की ऊंचाइयां हैं।

- पहले लोग अगर थोड़ी सी पढ़ाई कर ज्ञान अर्जित करते तो उसका उपयोग देश, परिवार, समाज की भलाई में लगा देते। आज खूब सारी पढ़ाई कर, डिग्री एवं उपाधियां लेकर भी ज्ञान की उपयोगिता शून्य है, ये सभ्यता की निशानी है।

- पहले लोग वर्तमान अव्यवस्थाओं को ठीक करने के प्रयास हेतु पढ़ाई-लिखाई करने का फैसला लेते, आज किताबों के सहारे व्यक्तिगत बुलंदियां हासिल की जाती है। ये सभ्यता की निशानी है।

- पहले लोग मिट्टी और पेड़-पौधों के संपर्क में रहते थे,  उनका जीवन सरल हुआ करता था, आज कांच से घिरे चिकने मार्बल के घरों में रहते हैं। शरीर का मिट्टी से कोई संपर्क ही नहीं। ये सभ्यता की निशानी है।

- पहले लोग महीनों तक पैदल यात्राएं करते थे और अपनों को समय भी देते थे, आज घंटे भर में हजार किलोमीटर की यात्रा कर लेते हैं फिर भी समय का अभाव है, ये सभ्यता की निशानी है।

- पहले लोग अधिक से अधिक खुली हवा में रहते, घरों में भी हवा के आने-जाने के लिए खुली जगह होती। आज लोग सीलपैक कमरों में खुद को बंद कर खुश हो लेते हैं। ये तो सभ्यता की निशानी है।

- पहले लोगों में अपने मत को लेकर कोई मनमुटाव होता तो वे एक दूसरे का चेहरा न देखते, बातचीत खत्म कर देते, आज लोगों में मनमुटाव या खींचातानी होती है तो वे एक-दूसरे को आज जगह-जगह से ब्लाक करते हैं। क्योंकि देखना, मिलना, बातें करना, इन सब चीजों की संभावनाएँ ही मर चुकी हैं। ये तो सभ्यता की चोटी मानी गई है।

- पहले लोगों के पास गांव में बड़ा घर होता था, आंगन और चौपाल होता था, लोगों का हूजूम इकट्ठा होता था, आज लोग बंद माचिस के डिब्बे जैसे घरों में रहकर खुद को ज्यादा सभ्य मान लेते हैं। ये तो सभ्यता की ऊंचाइयां हैं।

- पहले लोग अकेलेपन से या अभावग्रस्त जीवन में रहकर भी कुछ नया आविष्कार कर लेते, आज तमाम सुविधाओं के बावजूद तनाव के शिकार हैं। ये सभ्यता की निशानी है।

- पहले जब लोग कुछ नया सीखते, जानते तो वे प्राप्त मूल्यवान तत्व को लोगों में बांटकर अपने हिस्से का आत्मिक सुख पा लेते और फिर से किसी नयी खोज में लग जाते। आज पहले पैटेंट और कापीराइट किया जाता है ये सभ्यता की निशानी है।

- पहले जब लोग अपने मनोरंजन के लिए कोई खेल खेलते तो वह खेल मिट्टी, पानी,पेड़-पौधों से जुड़ा हुआ रहता, वे इसी के इर्द-गिर्द बने रहते लेकिन आज खेलने के लिए पैसा चुकाया जाता है, आत्मा का सौदा होता है, ये सभ्यता की निशानी है।

- पहले जब लोग कुछ हासिल करने की जद्दोजहद में खुद को लगाते तो वे अपने मूल को बचाकर संजोकर रखते, आज अपनी आत्मा बेचकर सफलता नामक दीमक का स्वाद लिया जाता है। ये तो सभ्यता की निशानी है।

Thursday, 26 October 2017

~ देवी दर्शन ~

                 अप्रैल 2017 की बात है। दोपहर के तीन बजे थे। मैं उस रोज कुछ एक कारणों से बहुत परेशान सा था। इतना परेशान कि मैं सब कुछ नष्ट कर देना चाहता था। हिमनगरी मुनस्यारी में मेरी खिड़की के सामने हिमालय का अद्भुत दृश्य था, फिर भी वो मुझे सुकून नहीं दे रहा था। कोई भी चीज, सुख-सुविधाएं, मनोरंजन के साधन कुछ भी मुझे राहत नहीं दे पा रहे थे। फिर मैं, जो अब तक अपने कमरे में बंद था, बाहर रोड की ओर निकला और अपने दोस्त की दुकान पर चला गया। मैं वहाँ दुकान के बाहर खड़ा हुआ था। ठीक उसी वक्त विवेकानन्द विद्या मंदिर की छुट्टी हुई थी, बच्चे पैदल अपने घर को लौट रहे थे। इतने में एक बच्ची मुझे देखकर रूक गई और मुझे बड़े आश्चर्य से एकटक देखने लग गई।
                 वो बच्ची मुझे कुछ इस तरह देखे जा रही थी कि मैंने अपनी नजरें फेर ली। फिर कुछ सेकेण्ड बाद मैंने उस बच्ची को देखा, वो अभी भी मुझे वैसे ही देखे जा रही थी, फिर मैंने अपनी नजरें दूसरी ओर कर ली। लगभग मिनट भर उसने मुझे देखा फिर वो नजरें झुकाकर निराशा का भाव लिए वहाँ से चली गई। मुझे एक पल के लिए समझ नहीं आया कि मेरे साथ आखिर ये हो क्या रहा है?
उस बच्ची की उम्र चार या पांच साल रही होगी फिर भी वो मुझे ऐसे देख रही थी मानो वो मुझे समझ रही हो।
मेरे मन में तरह-तरह के सवाल आने लगे कि वो बच्ची आखिर क्यों मेरे पास आकर रुकी, क्यों मुझे इस तरह आश्चर्य से देखकर चली गई।
उस बच्ची के वहाँ से जाने के बाद उसके देखे जाने का प्रभाव थोड़ा कम होने के बाद मुझे ऐसा लगा कि वो कोई सामान्य बच्ची नहीं थी, वो कोई और ही थी, कोई और जो मुझे उस बच्ची के सहारे देख रही थी। और जब मेरा ये एहसास मजबूत हुआ, मैं भागते हुए इधर-उधर गलियां छानने लगा, मैं उस बच्ची को खोजने लगा, पर वो कहीं नहीं दिखी। वो शायद अपने घर जा चुकी होगी।
अब मैं उस बच्ची की आंखों को देखने के लिए तड़प रहा था, मैं उससे बात करना चाहता था, बहुत कुछ पूछ लेना चाहता था। पर उस दिन के बाद वो बच्ची मुझे कभी नहीं दिखी।
                 और इन सब के बीच जो सबसे अद्भुत था वो ये कि मैं पूरी तरह से भूल चुका था कि मुझे कोई परेशानी थी। ऐसा लगा जैसे किसी ने आहिस्ते से मेरे माथे पर और आंखों पर हाथ फेरकर मुझे शांत कर दिया हो। ऐसा लगा जैसे किसी ने एक झटके में ही कोई जादू कर सब ठीक कर दिया हो। आज भी जब उस बच्ची की आंखे मुझे याद आती है तो मेरा विश्वास और मजबूत हो जाता है कि वो एक सामान्य बच्ची नहीं थी। वैसे भी उतने छोटे उम्र के बच्चों में ऐसी दृष्टि और आंखों में इतनी गहराई का होना असाधारण ही कहा जाएगा।

Maa Nanda Mandir, Munsyari

Wednesday, 25 October 2017

~ A trekk to Goriganga River ~

                    अगस्त 2016, मैं मुनस्यारी में था। रोज सुबह मैं डानाधार में स्थित नंदा देवी मंदिर परिसर जाता और वहाँ से दूर बहती हुई गोरीगंगा नदी को देखता। हर रोज यही होता, मैं सुबह नदी को देखता और यही सोचता कि आज नहीं तो कल इस नदी को पास से देखने जाना है। पहले मैं अपने कुछ दोस्तों से कहता कि चलो कभी चलते हैं नदी की तरफ। पर कोई राजी न होता क्योंकि नदी तक जाने में या वहाँ आसपास कोई देखने लायक जगह न थी। फिर मैंने एक सुबह सोचा कि अकेले ही पैदल निकल लूंगा।
                    फिर उस रात मुझे गोरी नदी का सपना आया। मैं उसी दिन अगले सुबह बैग में पानी की बोतल लिए पैदल गोरी नदी की ओर निकल गया।सुबह के 9 बजे थे, मैं डानाधार के रास्ते से तेजी से पगडंडियों से होते-होते पैदल उतरने लगा। हल्की  धूप थी, पहाड़ों में धूप सीधी लगती है तो थोड़ी धूप भी असहनीय हो जाती है। मैं लगातार बिना रूके चला जा रहा था। उन रास्तों में कोई भी दिखाई न देता, अब चूंकि ये रास्ता मेरे लिए नया था तो समझ नहीं आता कि कब किस पगडंडी से आगे जाना है और कौन सी पगडंडी से कम चलना पड़ेगा।
                    मैं सांप, बिच्छू और जंगली जानवरों से भयमुक्त होकर बस चला जा रहा था कि अचानक एक दस फीट लंबे सांप ने मेरा रास्ता घेर लिया। मैं दौड़कर पीछे हटा, कुछ मिनट पश्चात जब वो सांप वहाँ से गया तब मैं आगे बढ़ा। आगे ऐसा हुआ कि एक जगह रास्ता बंद हो गया। मैं फिर लगभग आधा किलोमीटर पीछे लौटा जहां दो तीन पगडंडियां थी। वहाँ किस्मत से मुझे एक दादी मिल गयी। दादी बकरियाँ चराने आई थी। मैंने उनसे गोरी नदी तक जाने का रास्ता पूछा तो उन्होंने फिर मुझे बताया। मैं उनके बताये रास्ते पर चलता गया। एक जगह नहीं रूका, लगातार चलते एक घंटे से ज्यादा हो चुका था। अब मैं संकरी घास से लदी पगडंडियों से गुजर रहा था तो मेरे हाथों में बहुत बार बिच्छू घास लग गया जिससे जलन होने लगी। मैं ये सब नजरअंदाज कर बस चलता गया।मन में सिर्फ वो बहती हुई नदी थी जिसे मैं रोज सुबह दूर से निहारता आया हूं। वहाँ से आगे निकला तो फिर से रास्ता ब्लाक, आगे पगडंडी का कोई नामोनिशान नहीं। वो तो मेरी किस्मत अच्छी रही कि वहाँ पास में एक घर था और बाहर में एक अंकल बैठे हुए थे मैंने उनसे आगे गोरी नदी की ओर जाने का रास्ता पूछा तो पता चला कि वे गूंगे हैं, फिर भी उन्होंने मुझे इशारों से रास्ता बताया, उनके बताये रास्ते पर जब मैं आगे बढ़ा तो फिर रास्ता ब्लाक। या तो उन्होंने मुझे गलत रास्ता बताया या मैं शायद ठीक से समझ नहीं पाया। अब जब मैं उस गूंगे अंकल के पास वापस लौटा तो वहाँ एक और आंटी थी, मैं उन्हें देखकर थोड़ा खुश हुआ कि चलो अब ये मुझे सही रास्ता बता देंगी। जब मैंने उन्हें पूछा तो वो पहाड़ी में बताने लगी, उन्हें असल में हिन्दी नहीं आती थी और उस समय तक मुझे पहाड़ी समझ नहीं आती थी। पर मरता क्या नहीं करता। मैंने उनकी बातों को ध्यान से सुना और उनके बताये रास्ते पर आगे निकला। आगे एक थोड़ी समतल जगह आई वहाँ एक बड़ा सा खेत था, एक दीदी वहाँ फसल की कटाई कर रही थी। मैंने उन्हें नमस्ते किया, वो दीदी मुझे घूरकर देख रही थी(मानो वह सोच रही होंगी कि आखिर जंगल के इन रास्तों से आखिर ये कौन आया, क्यों आया) खैर मैंने उनसे रास्ता पूछा और तेजी से आगे बढ़ता गया।
                        ठीक कुछ ऐसी ही घटना आगे भी हुई। मैं अब जिस रास्ते से गुजर रहा था, वहाँ दो अलग-अलग पगडंडियां आई, वहां पास में एक घर भी था, घर के बाहर एक मां अपनी पंद्रह साल की बिटिया के साथ कुछ काम कर रही थी। मैंने उनके पास जाकर जब रास्ता पूछा तो उन्होंने उत्सुकतावश मुझसे पूछा कि कहाँ से आये हो? मैंने कहा मुनस्यारी से पैदल आया हूं। अब दोनों मां-बेटी मुझे बड़े आश्चर्य से देख रहे थे फिर उन्होंने कहा - गोरी नदी क्यों जा रहे हो?
मैंने कहा - ऐसे ही। फिर उन्होंने हंसते हुए कहा - हम तो वहाँ अर्थियों को ले जाते हैं बेटा पता नहीं तुम इतना दूर क्यों जा रहे हो।
मैंने कहा - अम्माजी गोरी नदी का बुलावा आया है।और फिर उन्होंने कुछ नहीं पूछा और मैं आगे बढ़ा।
मैं लगातार पगडंडियों पर चलकर पसीने से भीग चुका था। अब थोड़ी थकान भी होने लगी थी। मैं लगभग आधी दूरी तय कर चुका था। अब मैं रोड की तलाश करने लगा कि कहीं से गोरी नदी तक जाने वाली रोड मिल जाए, फिर तेजी से सीधे चलता जाऊंगा। और कुछ देर चलने के बाद मुझे रोड मिल गई। पगडंडियों पर दो घंटे से लगातार चलने के बाद जब रोड मिल गई तो खुशी का ठिकाना न रहा। मैं अब दुगुनी तेजी से चलने लगा।
सुबह के 11 बज चुके थे और अब मैं दरांती गांव तक पहुंच चुका था।अब यहाँ से एकएक या डेढ़ घंटे का रास्ता बच गया था। मैं थोड़ा थोड़ा पानी पीकर लगातार चलता गया। पहाड़ों में रहकर मैंने एक चीज सीख ली कि लंबी चलाई में एक जगह रूककर ज्यादा देर आराम नहीं करना चाहिए, दो-चार मिनट से ज्यादा नहीं वरना फिर आगे चलने में दुगुनी मेहनत लगती है, आप समय से पहले थक जाएंगे और चल नहीं पाएंगे। चढ़ाई में ट्रैकिंग करते समय तो इस बात का बखूबी ख्याल रखना चाहिए अन्यथा समस्या को बुलावा है।
दोपहर के 12:30 बजे थे। मैं गोरी नदी पहुंच चुका था। आखिरकार मेरी मुलाकात नदी से हो गई। मैं वहाँ कुछ देर बैठकर बहती नदी की आवाज सुनने लगा, फिर उसका पानी पीया और वापस पैदल दरांती गांव तक आया।
दोपहर के दो बज चुके थे। मैं बुरी तरह से थक चुका था। अब मुझे भूख भी लग रही थी। मैंने दरांती में एक होटल में नास्ता किया फिर लगभग एक किलोमीटर तक पैदल चला। उसके बाद वहाँ कुछ मिनट आराम किया, उसके बाद जब लगा कि और पैदल चलने की हिम्मत नहीं रही तब मैं मदकोट से मुनस्यारी आने वाली गाड़ी में बैठकर मुनस्यारी वापस आ गया। गोरीगंगा नदी का ये सफरनामा यहीं समाप्त हुआ.

Goriganga River

Thursday, 19 October 2017

~ कश्मीर केसर शिलाजीत Trilogy ~

                             2014 की बात है। फरवरी का महीना था। हम चार दोस्त दिल्ली से वैष्णो देवी दर्शन के लिए जम्मू रवाना हो चुके थे। हम शाम को जम्मू पहुंचे और रात को वैष्णो देवी मंदिर के दर्शन कर अगले दिन सुबह श्रीनगर की ओर अपनी कार से निकल गये। हमने कटरा (जम्मू) से एक लोकल टूर आपरेटर से पांच दिन का टूर पैकेज ले लिया था। जम्मू से जैसे-जैसे आगे बढ़ते गये, ठंड भी बढ़ती गई। जवाहर टनल आ चुका था, उससे पहले हमारी गाड़ी की चैकिंग हुई। जवाहर टनल दो किलोमीटर लंबा टनल है जो विश्व के सबसे महंगे नेशनल हाईवे 1-A पर बना है, यही श्रीनगर को शेष भारत से जोड़ता है। असल में जवाहर टनल के पहले एक जगह पुलिस की एक छोटी सी टुकड़ी थी जो बड़ी सख्ती से हमारी गाड़ी की चैकिंग कर रही थी, क्योंकि गाड़ी जम्मू की थी तो श्रीनगर प्रवेश करने से पहले जबरन आंखें दिखा-दिखाकर चैकिंग करना आम बात है। पुलिसवालों ने हम सब को लाइन से खड़े कर चैक किया, हमारे एक दोस्त से उन्हें सिगरेट का पैकेट मिला वो उन्होंने रख लिया फिर हम सबको थोड़े सख्त अंदाज में पूछा- दारू रखे हो तो दे दो। हमने कहा - नहीं है। फिर उन्होंने हमें वहाँ से जाने दे दिया।
                             श्रीनगर के पुलिसवालों की सख्ती को कुछ इस तरह समझा जाए कि वे गाड़ियों से शराब जब्त करते हैं और अपना मजे से पीते हैं। हमारे ड्राइवर ने पहले ही हमको समझा दिया था कि सख्त चैकिंग होगी अपनी जुबान से पलटना मत, सब एक सा जवाब देना कि हमारे पास शराब नहीं है। और हमारे ड्राइवर ने रम की बोतल पता नहीं किसी कोने में छुपा कर रख दिया था। हमारे चार दोस्तों में दो लोग पीते थे तो हमने जम्मू से ही रम की बोतल ले ली क्योंकि श्रीनगर में उसी बोतल की कीमत दुगुनी हो जाती है। पुलिसवालों ने जो हमारे दोस्त का सिगरेट का पैकेट रख लिया था वो उन्होंने बाद में वापस कर दिया। और हम श्रीनगर की ओर बढ़ने लगे।
                              अब चारों ओर हमें दूर-दूर तक बर्फ ही बर्फ दिखाई देने लगा। हमारा ड्राइवर जम्मू का ही था, वो भी चार साल बाद श्रीनगर जा रहा था। वो कह रहा था कि श्रीनगर बिल्कुल नहीं पसंद, हां खूबसूरती के नाम पर तो जन्नत हुआ पर यहां का असली रंग हमें पता है, यहाँ का माहौल हमारे लिए ठीक नहीं, इसलिए मैं इधर ज्यादा नहीं आता। हमने कहा- लगता है आपको श्रीनगर से वहाँ के लोगों से बहुत समस्या है। ड्राइवर बोला - नहीं समस्या वाली कोई बात नहीं है। मैं ऐसा क्यों बोल रहा हूं आपको श्रीनगर पहुंचने पर समझ आ जाएगा।
हम सुबह 7 बजे जम्मू से निकले थे श्रीनगर पहुंचते अंधेरा हो चुका था, बारिश भी होने लगी थी। बढ़ते ठंड की वजह से हमें पेशाब लगी तो हमने गाड़ी किनारे लगाई और जैसे ही पेशाब के लिए उतरे, उतने में ही आर्मी वाले चिल्लाने लगे और दौड़ते हुए हमारी ओर आने लगे। हम दौड़कर वापस गाड़ी में बैठ गए। और हम वहाँ से निकल गये। असल में श्रीनगर में हाईवे में गाड़ी खड़े करना मना है इसलिए ऐसा हुआ। खैर हम श्रीनगर प्रवेश कर चुके थे। हमें अगले तीन दिन डल झील के बोटहाउस में ठहरना था। ठंड काफी बढ़ चुकी थी शायद तीन या चार डिग्री के आसपास तापमान होगा, मैदान के मौसम से इस बर्फीले ठंड में प्रवेश करना, हम चारों दोस्तों के लिए ऐसे मौसम में आना एक नया अनुभव था। जैसे ही हमने बोटहाउस में प्रवेश किया, हम तो अंदर की कारीगरी देखकर ही खुश हो गये। बोटहाउस शानदार था। अब हमने इलेक्ट्रिक बैड चालू किया और जो हम सोये अगले दिन सुबह दस बजे उठे।
                              आज सुबह हमें गुलमर्ग घूमने जाना था। लगभग 12 बजे हम गुलमर्ग के लिए निकले। रास्ते में एक होटल में हम चाय नाश्ता करने रुके। वहाँ हमें आर्मी के कुछ जवान मिल गये। उनमें से एक सरदार जी थे उन्होंने हमसे कहा- यार ये कहाँ घूमने आ गये हो, हम तो परेशान हैं यहाँ की ठंड से और यहाँ के माहौल से भी। हमने उनकी बात को नजरअंदाज करते हुए उनके साथ फोटो खिंचवा ली। अब हम गुलमर्ग पहुंच चुके थे। तापमान शून्य से नीचे जा चुका था। इतनी भयंकर बर्फबारी हो रही थी कि सामने दस फीट से आगे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था।
                              हमने वहाँ स्लेज की सवारी की और स्केटिंग भी किया और शाम तक वापस अपने बोटहाउस आ गये। इलेक्ट्रिक बैड आन किया और कंबल में घुसने के बाद हम सब पेट पकड़-पकड़कर हंसने लगे। असल में आज हम चारों दोस्त बेवकूफ बने थे। चाहे वो स्लेज हो,स्केटिंग हो या ऊपर गुलमर्ग तक जाने के लिए दस किलोमीटर के रास्ते के लिए वो अलग से हमारा 1400 रुपए चुकाना और उस नाममात्र सी गाड़ी में बैठने वाले व्यक्ति का गाइड बनकर जबरन नाक रगड़ के हमसे 600 रुपए ले लेना। कुल मिलाकर हमें बुरी तरीके से ठग लिया गया और हममें से कोई उस वक्त इस बात पर ध्यान नहीं दे पाए। हम ये सब याद करके हंस रहे थे तभी किसी ने हमारे कमरे का दरवाजा खटखटाया, बोटहाउस में काम करने वाले ने कहा कि एक कोई व्यक्ति आया है शिलाजीत जड़ी बूटियां वगैरह लेकर, अगर आप देखना चाहें तो। हमने हां कर दी। जो सामान बेचने आया था उसके हावभाव देखकर ही हमने मना कर दिया कि भैया हमें नहीं लेना। फिर उसने कहा- ठीक है पर देख तो लीजिए, दिखाने के पैसे नहीं लूंगा सर। फिर उसने शिलाजीत निकाला और फिर उसकी मार्केटिंग शुरू हो गई।
                               हमारे जो दो दोस्त पीने वाले थे, वे रम पीकर नीचे ही बैठे हुए थे। मैं और एक और दोस्त हम दोनों कंबल में घुसे हुए थे। तो फिर उस विक्रेता ने बताया कि साहब खास आपके लिए लाया हूं, ये शिलाजीत मामूली नहीं है, लद्दाख से लेकर आया हूं। वहीं के पहाड़ों का जो पसीना है उसी का ये बना है। बाकी जगह के पहाड़ों के पसीने से बने शिलाजीत से कहीं अलग। और ऐसी तरह-तरह की लुभावनी बातें। हमारे रम पीने वाले दोस्त अब उसकी बातों में दिलचस्पी लेने लगे। अब उन दोनों को अपने दादा याद आ गये कि मेरी दादाजी को कमजोरी है, ढंग से आजकल चल नहीं पाते हैं, उनके लिए लेना ही है वगैरह वगैरह। अब पता नहीं उन्हें अपने लिए चाहिए था या अपने दादाजी के लिए पर वे तो अपने दादा के नाम पर दो-दो सौ रुपए का शिलाजीत खरीद लिए। फिर जब उस विक्रेता को लगा कि शिलाजीत का मामला खत्म तो अब वो इत्र दिखाने लगा।
                              उसने बताया कि श्रीनगर के फूलों को बाहर ईरान और अरब भेजा जाता है, वहाँ से ये बनकर वापस श्रीनगर आता है, देख लीजिए एक बार क्योंकि आपको ये कहीं और नहीं मिलेगा। इत्र की खुशबू अच्छी थी लेकिन कीमत थी 600 रुपए।  कीमत की वजह से हमारे दोस्त पीछे हटे वरना वे इत्र भी खरीद लेते। अब जब उस विक्रेता को लगा कि और मेरी बिक्री नहीं होगी तो वो जाने की तैयारी करने लगा।जाते-जाते उसने कंबल में लेटे हम दोनों  को देखकर कहा कि आप भी कुछ ले लो, कश्मीर आए हो, हमने साफ मना कर दिया। जैसे ही वो गया, हमने दरवाजा बंद किया और फिर से पेट पकड़ के हंसने लग गये।
                              जो दोस्त मेरे साथ लेटा हुआ था, उसने अन्य दो लोगों को कहा कि तुम लोग को समझ नहीं आया क्या बे, वो बेवकूफ बना के चला गया, मेरे को तो उसे देख के ही शक हो रहा था। शिलाजीत खरीदने वाले ने भी तुनककर कहा- साले उस टाइम बोल नहीं सकता था। और फिर हम सब शिलाजीत की सत्यता प्रमाणित करने में लग गये। हमने पहले नेट में असली शिलाजीत पहचानने के तरीके देखे और उसी तरीके से जांच शुरू कर दी। एक दोस्त ने विधि अनुसार अपने हथेली में शिलाजीत के छोटे टुकडों को लिया और कुछ बूंद पानी डालकर रगड़ना शुरू किया। अगर रंग नहीं छोड़ता तो असली वरना नकली। वो नेट में वीडियो देख शिलाजीत मलता और हम हंस-हंस कर लोट-पोट हो जाते। क्योंकि समय बीतता जा रहा था और हम किसी निष्कर्ष पर पहुंच नहीं पा रहे थे कि असली है या नकली। और फिर हमने उस समस्या को वहीं छोड़ दिया और सो गये।
                               अगले दिन हम 11 बजे उठे आज हमें डल झील का मार्केट घूमने जाना था। चूंकि मार्केट डल झील में ही था तो हम 12 बजे शिकारा(बोट) की सवारी करते हुए मार्केट की ओर निकले, मार्केट यानि फिर से खरीददारी और हमारा पिछला दो बार का ठगे जाने का अनुभव। रास्ते में हमें चिप्स और बिस्किट बेचने वाले मिले, साथ ही केसर बेचने वाले भी मिले पर हमने मार्केट जाने से पहले कुछ भी नहीं खरीदा। हम सबने मार्केट जाकर अपने घरवालों के लिए कश्मीरी कपड़े शाल वगैरह खरीदे। साथ ही एक केसर की दुकान थी, चूंकि यह मार्केट सरकार द्वारा बसाई हुई थी तो गुणवत्ता में कमी या नकली होने का खतरा नहीं था। इसलिए मैंने और मेरे एक दोस्त ने उस दुकान से एक-एक ग्राम केसर तीन सौ रुपए में खरीद लिया।
                               अब हम वापस मार्केट से अपने बोटहाउस की ओर लौट रहे थे। जब हम मार्केट से वापस लौट रहे थे। तो केसर बेचने वाले एक के बाद मिलने लगे। पहले एक मिला उसने 200 रुपए प्रति ग्राम बताया। दिखने में हूबहू वैसा का वैसा उस 300 रुपए ग्राम वाले केसर की तरह। हमारे एक दोस्त ने तो एक ग्राम खरीद भी लिया। फिर हम आगे बड़े, एक और बोट वाला आया, उसने 200 रुपए और 100 रुपए प्रति ग्राम वाले दो अलग तरह के केसर दिखाए। जो  दोस्त अभी कुछ मिनट पहले 200 रुपए प्रति ग्राम के केसर खरीदा था उसके होश उड़ गये। अब हम तीन दोस्तों ने तो केसर खरीद  लिया था, बच गया एक, उसने भी 100 रुपए देकर एक ग्राम केसर खरीद लिया। हम फिर से हंसने लग गये। अब कुछ देर बाद एक और बोट वाला आया, उसने तो हदें पार कर दी। कहने लगा एक ग्राम 50 रुपए,  टिन का डिब्बा खुला और केसर दिखने में बिल्कुल असली सा। हम चारों दोस्त एक दूसरे को देखकर हंसने लग गये। और फिर हम सब ने मिलकर उस 50 रुपए वाले से चार ग्राम केसर लिया वो भी 100 रुपए में।
                               आज जब शाम को बोटहाउस पहुंचे तो हमने अपना सामान किनारे रख केसर के पैकेट को निकाला। 25,100,200,300 रूपए, सभी तरह के केसर हमने निकाले और फिर पोस्टमार्टम शुरू। चूंकि केसर और शिलाजीत को जांचने की क्रियाविधि एक सी थी। तो हम सबने वही केसर का रेशा लिया और पानी की बूंदे डालकर मलना शुरू कर दिया। 5 मिनट, 10 मिनट, 15 मिनट समय बीतता गया। हम फिर एक दूसरे को देख हंसने लगते, हंसी ऐसी कि रुकने का नाम न ले। फिर जब लगा कि ये हमारे समझ से बाहर की चीज है तो हमने हाथ धोया और सो गये।
                                आप हम चारों की हरकतों के बारे में जानकर ये सोच रहे होंगे कि हम लोगों का दिमाग कहाँ था या हम लोग क्यों इतनी बेवकूफी किए जा रहे थे। असल में हर रात बोटहाउस पहुंच कर खाना खाकर कंबल ओढ़कर हम भी यही सोचते थे कि हम चार बदमाश इंजीनियर्स को कोई कैसे ठग सकता है। आखिरकार पैसे व्यर्थ में जाने की चिंता हमें भी थी। असल में हम चारों पहली बार इतनी ठंड झेल रहे थे,हमारे लिए सब कुछ नया था। बाद में समझ आया कि कश्मीर की उस ठंड में हम हाइपोथर्मिया का शिकार हुए थे।


 Gulmarg-1


 Gulmarg-2


 Gulmarg-3


 Gulmarg-4




 Gulmarg-5


Dal lake


Traffic jam at Gulmarg Road


Passing through Anantnag district


Majestic view Before entering jawahar tunnel


Repose & Gulshan gulshan-  Two Beautiful shikaras(boat) at my left side.


Our Ride


Inside Boathouse- 1




Inside Boathouse- 2


 Boating at dal lake


With army people at a tea stall

Snowfall in Gulmarg

 

Tuesday, 17 October 2017

~ बादनी - मदकोट ट्रैकिंग ~

                            हम मुनस्यारी तहसील के गोरीपार क्षेत्र के चिलकोटधार गाँव से शाम को निकलकर रात होते तक पैदल ढलाननुमा रास्ते से बादनी पहुंच चुके थे। हम जिस दोस्त के साथ बादनी आये, उन्हीं के कोई परिचित थे जिनके यहां बादनी में हमने रात्रि विश्राम किया। बादनी में हम जिनके यहाँ रूके हुए थे वहाँ हमने घर के घी से सने हुए पराठे खाए और उनके यहां के गौशाला का गाढ़ा दूध पिया। उस दूध का स्वाद आज भी भुलाया नहीं जाता, वो दूध इतना गाढ़ा था कि मैदान का आदमी नहीं पचा पाएगा, जो रोजाना अपना शारीरिक बल आजमाता हो ऐसे ही लोग इतना गाढ़ा दूध पचा सकते हैं।
                           अब ऐसा हुआ कि सुबह होते ही मैंने पूरा प्लान बदल लिया। जिस दोस्त के साथ हम बादनी पहुंचे थे उन्हें मैंने वहां से अलविदा किया और अपना आगे का रास्ता बदलने का सोचा। इत्तफाक से किस्मत भी ऐसी कि बादनी में हमने जिनके यहां रात्रि विश्राम किया था उन्हें मदकोट जाना था और फिर वहां से वे मुनस्यारी जाने वाले थे। मुझे भी मुनस्यारी वापस लौटना था। तो मैं उन्हीं के साथ सुबह 6 बजे पैदल चिलकोटधार की पहाड़ियों के रास्ते होते हुए मदकोट की ओर निकल गया। बादनी से मदकोट की यह दूरी लगभग 12 से 15 किलोमीटर की थी। हमने जो बादनी से चलना शुरू किया लगातार चलते रहे और लगभग 5 किलोमीटर की दूरी नाप लिए। शुरूआत में रास्ता सीधा-सपाट था, ज्यादा चढ़ाई नहीं थी। हम जब चल रहे थे तो मेरे जूते बार-बार पत्तियों के संपर्क में आकर फिसल रहे थे और मैं खुद को संभालते हुए आगे बढ़ रहा था, असल में मेरे जूतों की तली घिस चुकी थी। महीनों तक पहाड़ों में चल-चलकर मैंने इस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया।
                           चिलकोट की पहाड़ियों को पार करते हुए हम तेजी से आगे बढ़ रहे थे। सुबह ठीक-ठाक ठंड थी फिर भी लगातार चलते रहने की वजह से हमें पसीना आने लगा था। मैं आगे-आगे चल रहा था और हमारे जो दोस्त थे वे मेरे पीछे चल रहे थे। अचानक से उन्होंने मुझे कहा यार रूकते हैं थोड़ी देर। मैंने कहा - ठीक है। वे थोड़े से थक गये थे। पर मुझे पता नहीं क्या हो गया था, चलने का एक अलग ही धुन सवार था। मुझे उतनी थकान महसूस नहीं हुई जितनी होनी थी। अब हम जब शांत पहाड़ी में बैठे थे तो मैंने उनसे कुछ-कुछ सवाल पूछे कि--
- यार दाज्यू मैं मिलम ग्लेशियर तक चले जाऊंगा न? 70 किलोमीटर की दूरी है तीन दिन का समय लगता है, रास्ता भी काफी दुर्गम है जान का खतरा है, सुना है बहुत पत्थर गिरते हैं वहाँ ऊपर पहाड़ियों से। और पता नहीं मैंने एक सांस में कितने सारे सवाल कर लिए उनसे।
उन्होंने कहा- यार आप तो मुझसे भी अच्छा चल रहे हो। इस तरह से चलोगे तो तीन दिन क्या दो दिन में ही पहुंच जाओगे। बिल्कुल पहाड़ी लोगों की तरह चल रहे, आप मुझे सच में कहीं से भी मैदान के नहीं लग रहे। अब उन्होंने मेरे जूतों को देखकर कहा- आपका जूते का तली देख के तो मुझे डर लग रहा है, मैं ये जूता पहन के अभी चल रहा होता तो कब का खाई में गिर गया होता, पता नहीं आप इन जूतों में कैसे चल ले रहे हो। उनकी ये बातें मेरे लिए किसी पुरुस्कार से कम नहीं थी और फिर मेरा चलने का हौसला दुगुना होता गया।
                            मैं जिनके साथ मदकोट जा रहा था उन्हें चिलकोट की पहाड़ियों में ही बकरी वालों तक भांग/गांजा/माल पहुंचाना था। उन्होंने आवाज लगाई और बकरी वालों को ढूंढकर उन तक सामान पहुंचा दिया। जब वे बकरी वालों से मिलकर वापस आ गये तो उन्होंने एक घटना का जिक्र किया कि बकरी वाले बता रहे थे कि कल चिलकोट की पहाड़ी से पत्थर गिरने की वजह से उनकी दो बकरियां खाई में गिरकर मर गई। अब उन्होंने बताया कि यहाँ से पत्थर गिरते ही रहता था, हर साल ऐसी घटनाएँ आम है। अब मुझे थोड़ी घबराहट होने लगी क्योंकि हम अभी उसी रास्ते से गुजर रहे थे जहाँ एक दिन पहले बकरियों की जान चली गई थी। हमारे दोस्त ने कहा - आगे थोड़ा संभल के चलना, पगडंडियां अब थोड़ी जर्जर हालत में मिलेगी। मैं मन ही मन सोच रहा था कि आगे का रास्ता और दुर्गम होगा फिर मैंने सोचना छोड़ दिया और इस बारे में उनसे ज्यादा कुछ पूछा भी नहीं और हम बस चलते गये।
                            हमारे दोस्त ने बकरी वालों के बारे में यानि गड़रियों के बारे में एक गजब की बात बताई। उन्होंने कहा कि बकरी वाले पैदल ही बकरियों को चराते हुए मुनस्यारी से मैदानों क्षेत्रों तक यानि रामनगर तक ले जाते हैं। चूंकि पहाड़ों में ठंड के समय चारे की समस्या होती है तो वे ठंड शुरू होने से पहले ही मैदानों का रूख कर लेते हैं। लगभग 300 किलोमीटर के इस पहाड़ी रास्ते को वे तीन महीने में पूरा करते हैं और फिर वापसी में तीन महीने। यानि छः महीने के एक लंबे सफर के बाद वापस मुनस्यारी लौटते हैं। तब तक पहाड़ों में भरपूर चारागाह उपलब्ध हो जाता है।
                            मैं उनकी बातें कहानी की तरह सुनते जा रहा था, हमारी दायीं ओर मदकनी(मदकन्या) नदी की कल-कल धारा थी, यह नदी पंचाचूली ग्लेशियर से निकलती है और बायीं ओर गोरीगंगा नदी अपने पूरे प्रवाह में बह रही थी जिसका उद्गम स्थल मिलम ग्लेशियर है। और बीच में हम चल रहे थे। बातें करते-करते  कब 11 बज गये पता ही नहीं चला, हम 5 घंटे की पैदल यात्रा कर मदकोट पहुंच चुके थे। हमने सुबह से कुछ भी नहीं खाया था, चूंकि इस 5 घंटे की चलाई के दौरान हमने पानी की एक बूंद भी नहीं पी थी, तो अब हमने आखिरकार मदकोट पहुंच कर ही पानी पिया और रोटियां खाई। घंटे भर में मदकोट में तहसील कार्यालय का काम निपटाकर अब हम मुनस्यारी जाने की तैयारी करने लगे।

Chilkotdhar Range


Me and my friend from baadni village


Group of Sheeps


My friend with the shephard

Goriganga River

Sheeps All the way


Madkot- Munsyari road

A Wide view of Khulliya Top from chilkotdhar


TREKKING THROUGH CHILKOTDHAR RANGES

Monday, 16 October 2017

~ 25 रुपए में 1200 किलोमीटर का सफर ~

                                अगस्त 2015 की बात है। मैं दोपहर को दिल्ली हजरत निजामुद्दीन रेल्वे स्टेशन में था। दिल्ली से मेरी ट्रेन रायपुर के लिए थी। मैंने पहले ही गोंडवाना एक्सप्रेस की स्लीपर क्लास की टिकट करा ली थी। ट्रेन आने में अभी एक घंटे का समय बचा था। मैं एटीएम की तलाश में इधर से उधर भटक रहा था। उतने में ही घर से फोन आया कि आज सारे बैंक बंद हैं। अब कल पैसे डाल देंगे तेरे एकाउंट में। मेरे तो पांव तले जमीन खिसक गई। जेब और बैग खंगाला तो पता चला कि अब मेरे पास मात्र पच्चीस रुपए रह गये हैं।
                                घरवालों से भी मुझे उसे दिन पैसे डलवाने थे। मैंने पहले किसी को कहा भी नहीं कि पैसे खत्म होने को है। जो दोस्त मुझे स्टेशन तक छोड़ने आया था, मैंने उससे भी पैसे उधार नहीं लिए। मेरा स्वाभिमान अपने चरम पर था और अब सामने मेरी परीक्षा होनी थी। 22 घंटे का लंबा सफर और हाथ में मात्र पच्चीस रुपए। ट्रेन छूटने में पंद्रह मिनट रह गया था, मैं अब यह सोचने लग गया कि इस पच्चीस रुपए का कैसे सदुपयोग किया जाए। क्योंकि अब पैसे मिलने की लगभग सारी संभावनाएँ समाप्त हो चुकी थी। जिन दोस्तों से नेट-बैंकिग रूपी बची-खुची संभावनाएँ थी उसे भी मेरे स्वाभिमान ने खत्म कर दिया। अब अगले दिन सुबह ग्यारह बजे बैंक खुलने का इंतजार करना ही आखिरी रास्ता था। दोपहर तीन बजे से अगले दिन के सुबह ग्यारह बजे का ये पूरा समय, आखिर कटे तो कटे कैसे। आखिर इन पच्चीस रूपयों का क्या किया जाए। मैंने थोड़ी देर सोचा फिर उस पच्चीस रुपए में से दस रुपए का एक लोकल पानी बोतल खरीदा और उसमें से सारी पानी फेंककर रेल्वे स्टेशन में नल से मिलने वाला पीने योग्य पानी भर लिया। और फिर मैं रास्ते भर यही करता रहा। ठीक-ठाक गर्मी थी। इसलिए पानी की जरुरत भी बढ़ गई थी। जब भी कोई स्टेशन आता मैं दौड़कर उतरता और पानी भरता।
                              शाम के पांच बज चुके थे। ट्रेन को चले अभी बमुश्किल दो घंटा भी नहीं हुआ था कि मुझे भूख लगने लगी। मुसीबत ऐसी कि उस दिन मेरे बैग में खाने का कुछ भी सामान नहीं था, अब जो कुछ भी था उस पच्चीस रुपए के सहारे था। उसमें से भी तो अब पंद्रह रूपये बच गये थे। गोंडवाना में पेंट्रीकार नहीं रहती। पर फिर भी चाय समोसे वाले गुजर रहे थे। मैंने हमेशा की तरह इन चीजों से खुद को दूर रखा। और फिर कुछ देर में एक चने वाला आया मैंने उससे दस रुपए का चने खरीद लिए और पांच रूपये बचा लिए। दस रुपए का जो मैंने चना खरीदा था वो मैंने आधा खाया, पेट में कुछ गया नहीं गया पता ही नहीं चला। अब ये ट्रेन का मेरा सफर एक नया मोड़ लेने जा रहा था। शाम के छ: या सात बजे के बीच का समय रहा होगा। उसी समय मथुरा से एक पूरा परिवार चढ़ा। महिलाएँ, बच्चे और एक दादी। सारी की सारी छः सीट मेरे बर्थ के आसपास। साइड अपर में एक कोई बुजुर्ग थे और मैं अपर बर्थ में। बाकी की छः सीट उन परिवार वालों की थी। मैं अब अपर बर्थ में जाकर लेट गया और बाकी बचे चने भी खा लिया। और पानी पीकर लेट गया।
                              अपर बर्थ में कुछ देर लेटा रहा, फिर नीचे उतरकर ट्रेन के दरवाजे के पास जाकर थोड़ी हवा खाई और फिर नीचे लोवर बर्थ में आकर बैठ गया। मथुरा से जो परिवार चढ़ा था। उनके साथ एक बच्चा था, जो लगभग पांच साल का रहा होगा वो मेरे साथ खेलने लग गया। मैं भी उसके साथ कुछ देर खेल लिया। अब चूंकि उस बर्थ में मैं अकेला ही था तो उस बच्चे की दादी से मेरी हल्की फुल्की बातें शुरु हो गई। उन्होंने बताया कि वे गोंदिया वापस अपने घर लौट रहे हैं। दादी ने बताया कि वे काशी, हरिद्वार, ऋषिकेश, वृंदावन, मथुरा आदि जगहों से घूम कर आ रहे हैं। पंद्रह दिन की यात्रा के बाद वे अपने घर गोंदिया(महाराष्ट्र) लौट रहे थे।
                              जो दादी थीं उनसे मेरी अच्छी खासी बात हो गई, क्योंकि वे भी उत्तराखंड की यात्रा से लौट रहे थे, और मैं भी तो महीने भर पहले वहीं था,इस एक वजह से हमारी काफी बातें मिल गई। और ये पहली बार ऐसा हुआ कि मैंने ट्रेन के सफर में किसी से इतनी बात की हो। अब उन्होंने कुछ खाने-पीने की चीजें निकाली और शायद कुछ मिठाइयाँ खाने लगे। उन्होंने मुझसे भी पूछा तो मैंने मना कर दिया। जब वे जिद करने लगे तो मैं भी सोचा कि ये सब क्या हो रहा है। फिर मैंने उन्हें कहा कि नहीं आंटीजी मेरा उपवास है। तभी उस पांच साल के बच्चे ने जो मेरे साथ खेल रहा था, वो बड़ा तेज बच्चा निकला। उसने तुरंत चिल्लाकर कहा कि मम्मी अभी कुछ देर पहले भैया ऊपर बैठ के चना खा रहे थे। उस बच्चे ने तो मुझे धर्मसंकट में डाल दिया। मेरा झूठ पकड़ा चुका था, उस बच्चे की बात से मैं झेंप सा गया। वो आंटी हंसने लगी और कहा लो बेटा अब तो खा ही लो। लंबा सफर है. मेरे पास अब बोलने के लिए कुछ भी नहीं था, मना करता तो भी कैसे, विवश होकर मैंने उनकी दी हुई मिठाई खा ली और पेट भर पानी पी लिया। मीठा खाने के कारण मेरी भूख थोड़ी शांत हुई। अब मुझे कुछ खाने का मन भी नहीं कर रहा था। लेकिन अब नींद आने की समस्या थी। बड़ी मशक्कत के बाद रात के 11 बजे के आसपास मैं सो गया।
                            अगले दिन सुबह 5 बजे मेरी नींद खुल गई। सुबह ब्रश करने के बाद जो भूख लगी उसकी कोई सीमा न थी। एक-एक मिनट काटना मुश्किल हो रहा था। जैसे-तैसे तीन घंटे बीत गये। 8 बजे उस परिवार के लोगों ने फिर मिठाई निकाली और फिर मुझे मिठाई खिलाई। दादी ने मुझसे एकदम पूछ ही लिया कि बेटा तुम रात को खाना खाए कि नहीं, मैंने तो अभी तक तुम्हें कुछ खाते देखा नहीं। मैंने उन्हें कहा कि रात को ट्रेन रूकी थी तब बाहर जाकर कुछ-कुछ खा लिया था।कुछ इस तरह गोल-गोल घुमाकर मैंने गेंद फेंक दी और दादी ने लपक ली और मुझे दादी के सवालों से मुक्ति मिली। सुबह के 11 बज चुके थे, मेरे फोन में पैसे आने का मैसेज आ चुका था। अब मैं ट्रेन रुकने के इंतजार में था कि अब कोई स्टेशन आए और मैं पैसे निकालकर कुछ खाऊं।
एक कोई स्टेशन आया मैं खुशी-खुशी उतरा पर वहाँ एक भी एटीएम नहीं था। फिर कुछ देर बाद एक और स्टेशन आया वहाँ एटीएम था। मैं दौड़कर गया, पता चला कि एटीएम से पैसे नहीं निकल नहीं रहे थे। उसके बाद फिर एक स्टेशन आया वहाँ एटीएम से पैसे निकल गये। मेरा ट्रेन के सफर का ये संघर्ष अब अपने आखिरी पड़ाव को पार कर सुकून से बैठ गया।
                            अब मैं सोचने लगा कि चलो अब कुछ खाने-पीने की चीजें खरीद ली जाए। पर मैंने कुछ नहीं खरीदा। मेरी भूख शांत हुई या क्या हुआ पता नहीं पर पैसे आने के पश्चात भी मैंने उस दिन कुछ भी नहीं खरीदा। सफर में अभी तीन घंटे और बचे थे। मैंने पानी की बोतल भर ली और मुस्कराकर अपने बर्थ में आकर सो गया। शायद उपवास या रोजा रखने वालों की तरह मैं भीतर तक शांत हो चुका था।

Saturday, 14 October 2017

रफ कॅापी Part - 3

महीने भर के बाद अनिरुद्ध फिर शालिनी को फोन लगाता है।

अनिरुद्ध - शालिनी प्लीज फोन मत काटना, दो मिनट के लिए मुझे सुन लो कि मैं क्या कहना चाहता हूं फिर तुम्हारी मर्जी। विनती कर रहा हूं बस एक बार के लिए मुझे अपनी बात पूरी करने दो।

शालिनी - ठीक है बोलो।

अनिरुद्ध - तुम मेरे सपने में आई थी। पता है सपने में तुम बहुत खूबसूरत लग रही थी। तुमने गुलाबी और सफेद रंग का कोई ड्रेस पहना हुआ था।  हम दोनों साथ में कहीं घूमने निकले थे, हम किसी बड़े से झरने के आसपास थे, वहाँ हम दोनों बैठकर बातें कर रहे थे, तुम बार-बार पलकें झपकाकर मुस्कुरा रही थी, तुम बहुत खुश थी मुझसे बात करके। अब ऐसा हो रहा था कि तुम बार-बार झरने को देखकर और उसकी आवाज को सुनकर आंखें बंद कर लेती थी और मैं फिर तुम्हें चुपके से देख रहा था, जो सुकून तुम्हें उस झरने से मिल रहा था, वो मुझे तुम्हें देखकर मिला। एक पल के लिए लगा कि कोई तितली किसी फूल पर बैठी हुई है और हिलने का नाम तक नहीं ले रही। मेरा मन कर रहा था कि धीरे से उस तितली को छू लूं और हमेशा के लिए अपने पास रख लूं।
सपने के दरम्यान मैं बार-बार प्रभु से यह प्रार्थना कर रहा था कि काश ये सिर्फ एक सपना मात्र न हो। लेकिन उठा तो समझ आया कि मैं एक दूसरी ही मायावी दुनिया का हिस्सा था।
इस सपने में आकर तुमने मेरे जहन में ऐसे भाव भर दिए हैं कि मुझे अभी तुम्हारे अलावा कुछ भी नहीं सूझ रहा। समस्त रिक्तियों को भरकर मानो तुम्हारे प्रेम ने मुझे अपने अंतर में रोक कर रख लिया है। सारी उर्जा, मन के सारे भाव और संवेदनाएँ हर जगह तुम अपना अधिकार जता रही हो। ऐसा लगता है कि तुमने मुझे एक ठहराव की ओर खींच लिया है, और उस ठहराव में सिर्फ तुम और मैं।
शालिनी तुम अभी भी मेरी आंखों के सामने झूल रही हो। मुझे नहीं पता कि भाग्य को क्या मंजूर है लेकिन मैं तुम्हें अपनाकर ही रहूंगा।

शालिनी - तो अपना लीजिए न मुझे किसने रोक रखा है। और एक बात याद रखिएगा आपके ऐसे सपनों से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। मैं इन सब मामलों में अब नहीं बहने वाली, इन सब बातों से मेरा ह्रदय नहीं  पिघलने वाला, बल्कि मुझे तो तकलीफ होती है। आप सपनों की ऐसी बातें कर मुझे कमजोर कर देते हैं, मेरा मन छोटा हो जाता है। ऐसे सपनों का जिक्र कर मुझे एक खोखली उम्मीद की ओर ना धकेलें तो इसी में मेरी  भलाई है। आप बिना कुछ कहे मुझे अपना लें मैं सिर्फ इतना ही तो चाहती हूं।

अनिरुद्ध - ठीक है। पर मैंने जो सपने में देखा वही बात तुम्हारे सामने रखी है। मैं खुद को रोक नहीं पाया। मैं अगर तुम्हें बताता नहीं तो मेरे अंदर ये बातें रह-रहकर मुझे परेशान करती, इसलिए मैंने तुम्हें बताना जरूरी समझा। मैं नहीं कहता कि तुमसे अपनापन मिलने की उम्मीद में ये सब कह रहा हूं। जब लगा कि दिल भारी हो गया है नहीं बता पाया तो मन मसोस कर रह जाऊंगा। इसलिए मैंने बता दिया।

शालिनी - बहुत अच्छा किया आपने। आपको तो मानो एक मौका मिल गया और इस सपने के माध्यम से आपने अपनी भावनाएँ मेरे सामने रख दी। आप बड़े हिम्मतवाले जान पड़ते हैं तभी आप इतना कुछ कर लेते हैं पर क्या आप कभी ये सोचते हैं कि मेरे मन में कितने भाव उमड़ते होंगे, कितनी ऐसी बातें हैं जो मुझे तंग करती है, कितने ऐसे मौके आते हैं जहाँ लगता है कि काश आप पल भर के लिए मेरे पास होते तो क्या हो जाता, मैं कितनी परेशान होती हूं, मुझे कितनी पीड़ा होती होगी ये तो मैं आपकी तरह बोलकर बता भी नहीं सकती। स्त्री हूं, सब झेल लूंगी मैं, मेरे प्रभु ने मुझे इतनी ताकत दी है।

अनिरुद्ध - ठीक है मान लिया कि मैं तुम्हारी पीड़ा समझ पाने में असमर्थ हूं। पर रोज तुमसे बात करने की जिद भी तो नहीं करता। और अगर मैं सप्ताह में या महीने में कभी बात कर लेता हूं तो इसमें क्या बुराई है।  माना कि हम दोनों के जीवन में अभी अधूरापन है और हमारे बीच दूरियां हैं। पर इस एक बात को लेकर हम दोनों एक-दूसरे को और कितनी चोट पहुंचाएंगे। इसीलिए मैं बात कर लेता हूं कि हम दोनों को थोड़ी खुशी मिले।

शालिनी - खुशी? क्या अब आप मुझे रूलाना चाहते हैं। मुझे नहीं पता आप ऐसा क्यों कर रहे हैं। अब सुनिए मुझे आपसे बात करके खुशी नहीं मिलती, उल्टे मेरा मनोबल टूटता है। आप मेरे से दूर हैं, मुझसे बात नहीं करते हैं, ये मेरी ताकत है। मैं उम्मीद करती हूं आप समझेंगे। अब आप फोन रख सकते हैं। मुझे कुछ काम है।

अनिरुद्ध - सुनो, एक आखिरी बात। फिर फोन रख लेना। आज ब्लाक मत करना, प्लीज।
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और फिर हमेशा की तरह शालिनी फोन काट देती है। नंबर ब्लाक कर शालिनी फिर से अपनी दुनिया में वापस लौट जाती है।

क्रमशः .....

Friday, 13 October 2017

अकेले रहने से बचें -

                            अकेले रहना और अकेले चलना दो बहुत अलग चीजें हैं। आप अकेले अपनी राह में चलने के लिए कुछ समय के लिए खुद को अकेला रखते हैं सो ठीक है पर एक समय से ज्यादा अकेले रहना नुकसान ही करता है। हां इस मामले में कुछ एक अपवाद हो सकते हैं जिन्हें सालों तक अकेले रहकर फायदा पहुंचा हो। पर घर परिवार दोस्त यार यानि लोगों के बीच बने रहने में ही सच्चा सुख है।

एक लंबे अरसे से अकेले रहने के बाद अब यही जान पड़ता है कि---

- तकलीफदेह हो जाता है अकेले रहना जब आप अपने ही हाथ के बनाये गये खाने से ऊबने लगते हैं।
- एक कठोर तपस्या के समान हो जाता है अकेले रहना जब आप बीमार पड़ जाते हैं और आपकी खबर लेने वाला कोई नहीं होता।
- जब कभी आप पर दुःखों का पहाड़ आ जाता है तो एक भी व्यक्ति आपको सुनने समझने के लिए पास नहीं होता।
- इन सब के बीच एक तकलीफ ये कि आप खुद को ही भूल जाते हैं और दूसरों को ही भगवान मान लेते हैं और बिना कुछ सोचे-समझे उनकी सारी समस्याएं अपने कांधों पर उठाने लगते हैं।
- आपको जब किसी चीज की आवश्यकता होती है फिर उसके ना होने पर आप खुद को छोटा करने लगते हैं। ऐसा करते हुए आप जीवन के प्रति कुछ हद तक नीरस होते हुए पाए जाते हैं।
- चूंकि आपने लंबे समय तक अकेले रहकर बहुत कुछ हासिल किया होता है लेकिन कई बार वो जमाने के बनाए खांचो के अनुकूल नहीं होता। इसलिए आप बहुत कुछ अच्छा कर रहे होते हैं फिर भी आप को दुत्कारा जाता है।
- अकेले रहने से इस सच को घुट्टी बनाकर पी जाना होता है कि हमने ये रास्ता चुना है अब जो भी समस्या आएगी उसके जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ हम होंगे।

आखिरी बात ये कि अकेले रहने के लिए एक अलग ही स्तर की मानसिक कंडिशनिंग और हिमालय सा हौसला चाहिए होता है जो सबमें नहीं होता है।

Monday, 2 October 2017

~ आंकड़े ~

आंकड़े,
आंकड़े जिनसे हो जाता है शहर स्वच्छ,
आंकड़े जिनसे गांव के गांव शौचमुक्त हो जाते हैं,
आंकड़े जो कर देते हैं खेतों की सिंचाई और उन्नत पैदावार,
कुछ यूं आंकड़े ही हमारा पेट भर जाते हैं।
महंगाई, गरीबी को कम करते ये आंकड़े,
शिक्षा को जन-जन तक पहुंचाते आंकड़े,
रोजगार का सृजन करते ये आंकड़े,
आय की असमानता दूर करते ये आंकड़े,
अमीर-गरीब का फर्क मिटाते ये आंकड़े,
दंगों, हिंसाओं का सच बताते ये आंकड़े,
नदियों की सफाई का ब्यौरा देते आंकड़े,
विकास का लक्ष्य साधते ये आंकड़े,
आंकड़ों से, इन्हीं आंकड़ों से ही तो देश का भविष्य(जीडीपी) तैयार हो जाता है।
सौ बड़े झूठ मिलकर भी जहाँ छोटे पड़ जाते हैं ऐसे बलवान होते हैं ये आंकड़े।