मैंने बहुत पहले एक बार अपने दादा (जो टीचर थे)से पूछा था..कि आप तो पंडित नेहरू से मिले हैं आप ही बताइए क्या नेहरू के कपड़े सच में लंदन धुलने जाते थे?
दादा ने हंसते हुए कहा- तेरे परदादा इटली से तेल मंगाते थे और इस बात पर सबको विश्वास भी था। पता है कहानियां उन्हीं की बनती है जिन्होंने कुछ किया होता है। अब तू ही फैसला कर लेना क्या सही क्या गलत।
दादा का व्यक्तित्व इस्पात की तरह, न पुराने गानों का शौक..न ही बच्चों को गोद में खिलाने का शौक। हां पत्र व्यवहार के बड़े शौकीन थे। पेशे से वे एक अध्यापक थे। एक अच्छे अध्यापक की सारी खूबी उनमें थी। रिटायर होने के बाद समाज की कार्यकारिणी के सदस्य बन गये। समाज के कर्ताधर्ता क्या बने उन्होंने तो लोगों की खुशियां ही छीन ली। जिनका परिवार हंसी खुशी चल रहा है उनके जमीन जायदाद को अपनी कुशाग्र बुद्धि से हेरफेर करना,भाई-भाई में लड़ाई करवा देना। अपनी कूटनीति से किसी किसी का तलाक भी करवा दिया।वे बहुत ही चालाक थे लेकिन उनकी सत्यनिष्ठा खत्म हो चुकी थी। वे जिस महात्मा गांधी के बारे में मुझे बताते थे वो तो उन्हीं के उलट चलने लगे थे। नाम और प्रतिष्ठा की आड़ में वे यह भूल गए कि गांधी जितने चतुर थे उतने ही ईमानदार भी थे।
अब जो बताने जा रहा हूं उस पर ध्यान देना - हुआ ये कि अभी कुछ महीने पहले दादाजी गुजर गए,84 साल की उम्र में। आप सोच रहे होंगे बढ़िया कमाया खाया शान से रहा होगा,लोगों का इतना नुकसान भी किया फिर भी बढ़िया इतने साल जिया। नहीं,बात कुछ और है जिसे समझना जरूरी है।
दादा जी मौत के पहले के वो कुछ महीने मैं नहीं भूल पाता.उनको लकवा हुआ वो भी सिर में.जिस दिमाग का इतना दुरूपयोग किया उन्होंने,आज वही दिमाग लकवाग्रस्त हो चुका था। उन्होंने बहुत से अच्छे काम भी किए लेकिन उनकी बुराइयों के सामने वो अच्छे काम भी छोटे पड़ गये। वो उनके जीवन के आखिरी कुछ महीने थे चेक अप के बाद हास्पिटल से जब मैं उनको घर ले जा रहा था उस समय वो ज्यादा बोल भी नहीं पा रहे थे..मैंने उनके चेहरे की लकीरें देखी इतने सारे भाव। मानों वो अपने सारे पापों का प्रायश्चित करना चाहते हों और सारे मौके गंवा दिए हों। मृत्युशैय्या को पाने के लिए मानों व्याकुल हो रहे हों।
काश..मैं उनके लिए एक मौके की व्यवस्था कर पाता।
काश..काश...काश....!
अपने प्राणों की आहूति देने को लालायित उनका वो चेहरा आज भी याद आता है तो लगता है कि किसी दुश्मन क्या, किसी अपराधी की भी ऐसी हालत न हो।
उस दिन ये बात समझ आ गई कि अगर जिंदगी में आपने कहीं भी हराम किया है तो उसका फल तो भोगना ही पड़ेगा वो भी इसी जन्म में।चाहे आप जीवन भर सुख से जिएं लेकिन उसी जिंदगी में वो कुछ आखिरी दिन वो इतने भारी होंगे कि आप मृत्युलोक में जाने को तड़प उठेंगें लेकिन आपको वो इतनी आसानी से नसीब नहीं होगा।
इसलिए तो दादाजी की मृत्यु के बाद कुछ लोगों के मुंह से मैंने ये तक सुना - "अच्छा हुआ मर गया"। इससे दुःखद किसी के लिए और क्या हो सकता है कि मृत्यु के बाद भी कर्मों के फल के रूप में ये मिला। जब उनकी मौत हुई मैंने उतना शोक नहीं जताया न ही आंसू बहाया। मैं बस शांत था। मैंने तो हास्पिटल के बाहर उस दिन ही उनको मृत्यु के कितने करीब से देख लिया था।
दादा ने हंसते हुए कहा- तेरे परदादा इटली से तेल मंगाते थे और इस बात पर सबको विश्वास भी था। पता है कहानियां उन्हीं की बनती है जिन्होंने कुछ किया होता है। अब तू ही फैसला कर लेना क्या सही क्या गलत।
दादा का व्यक्तित्व इस्पात की तरह, न पुराने गानों का शौक..न ही बच्चों को गोद में खिलाने का शौक। हां पत्र व्यवहार के बड़े शौकीन थे। पेशे से वे एक अध्यापक थे। एक अच्छे अध्यापक की सारी खूबी उनमें थी। रिटायर होने के बाद समाज की कार्यकारिणी के सदस्य बन गये। समाज के कर्ताधर्ता क्या बने उन्होंने तो लोगों की खुशियां ही छीन ली। जिनका परिवार हंसी खुशी चल रहा है उनके जमीन जायदाद को अपनी कुशाग्र बुद्धि से हेरफेर करना,भाई-भाई में लड़ाई करवा देना। अपनी कूटनीति से किसी किसी का तलाक भी करवा दिया।वे बहुत ही चालाक थे लेकिन उनकी सत्यनिष्ठा खत्म हो चुकी थी। वे जिस महात्मा गांधी के बारे में मुझे बताते थे वो तो उन्हीं के उलट चलने लगे थे। नाम और प्रतिष्ठा की आड़ में वे यह भूल गए कि गांधी जितने चतुर थे उतने ही ईमानदार भी थे।
अब जो बताने जा रहा हूं उस पर ध्यान देना - हुआ ये कि अभी कुछ महीने पहले दादाजी गुजर गए,84 साल की उम्र में। आप सोच रहे होंगे बढ़िया कमाया खाया शान से रहा होगा,लोगों का इतना नुकसान भी किया फिर भी बढ़िया इतने साल जिया। नहीं,बात कुछ और है जिसे समझना जरूरी है।
दादा जी मौत के पहले के वो कुछ महीने मैं नहीं भूल पाता.उनको लकवा हुआ वो भी सिर में.जिस दिमाग का इतना दुरूपयोग किया उन्होंने,आज वही दिमाग लकवाग्रस्त हो चुका था। उन्होंने बहुत से अच्छे काम भी किए लेकिन उनकी बुराइयों के सामने वो अच्छे काम भी छोटे पड़ गये। वो उनके जीवन के आखिरी कुछ महीने थे चेक अप के बाद हास्पिटल से जब मैं उनको घर ले जा रहा था उस समय वो ज्यादा बोल भी नहीं पा रहे थे..मैंने उनके चेहरे की लकीरें देखी इतने सारे भाव। मानों वो अपने सारे पापों का प्रायश्चित करना चाहते हों और सारे मौके गंवा दिए हों। मृत्युशैय्या को पाने के लिए मानों व्याकुल हो रहे हों।
काश..मैं उनके लिए एक मौके की व्यवस्था कर पाता।
काश..काश...काश....!
अपने प्राणों की आहूति देने को लालायित उनका वो चेहरा आज भी याद आता है तो लगता है कि किसी दुश्मन क्या, किसी अपराधी की भी ऐसी हालत न हो।
उस दिन ये बात समझ आ गई कि अगर जिंदगी में आपने कहीं भी हराम किया है तो उसका फल तो भोगना ही पड़ेगा वो भी इसी जन्म में।चाहे आप जीवन भर सुख से जिएं लेकिन उसी जिंदगी में वो कुछ आखिरी दिन वो इतने भारी होंगे कि आप मृत्युलोक में जाने को तड़प उठेंगें लेकिन आपको वो इतनी आसानी से नसीब नहीं होगा।
इसलिए तो दादाजी की मृत्यु के बाद कुछ लोगों के मुंह से मैंने ये तक सुना - "अच्छा हुआ मर गया"। इससे दुःखद किसी के लिए और क्या हो सकता है कि मृत्यु के बाद भी कर्मों के फल के रूप में ये मिला। जब उनकी मौत हुई मैंने उतना शोक नहीं जताया न ही आंसू बहाया। मैं बस शांत था। मैंने तो हास्पिटल के बाहर उस दिन ही उनको मृत्यु के कितने करीब से देख लिया था।
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