Sunday, 3 July 2016

A LIFT TO REMEMBER

आज मेरे पास आपके लिए कहानी तो है लेकिन शीर्षक नहीं है इसलिए जो भी लिखा है,आप को सौंपता हूं।
मेरा एक मात्र प्रदर्शनी स्थल यही है मेरे पेंटिंग रूपी शब्दों को जब आप निहार देते हैं इतना मेरे लिए काफी होता है।
ये सब इसलिए कह रहा हूं क्योंकि आज बहुत लंबा लिखा है उम्मीद है आप पढ़ेंगे।

शाम ढल चुकी थी,पता नहीं वो फिर कहां से आ गया था दुगुनी ऊर्जा लिए,उसने मुझे खूब खरी-खोटी सुनाई।
कहने लगा-
तू बस सौंदर्य चित्रण करते रह,इन प्रेम कहानियों और यात्रा वृतांत में ही लिप्त हो जा।
थोड़ी सी प्रशंसा पाकर सब भूल जाना चाहता है।
याद कर उस बुढ़िया माई की कुटिया को जहां तू बचपन में जाया करता था।
नहीं याद आ रहा होगा न,अभी याद कर हाल ही में तुने तीन अलग-अलग लोगों को अपनी मोटरसाइकल में लिफ्ट दिया था याद है कि वो भी भूल गया।
सोच वो तीनों तुझे ही क्यों मिले।
चेतनाशून्य हो गया न तू..
मुझे पता था तू इस लायक है ही नहीं मैंने गलत हाथों में कलम थमा दी।
अभी भी समय है याद कर उस बूढ़े की उन दो आंखों को जिसको तुने सबसे आखिरी में लिफ्ट दिया था।वो लोग तुझे बस इसलिए नहीं मिले थे कि तू बस उन्हें उनके गंतव्य तक छोड़ दे।
मुझे लगता था कि तू उन सब का मान रखेगा लेकिन तुझे तो महिमागान करने से फुर्सत नहीं है।तू इसी में रम गया है अन्य लोगों की तरह कुत्सित विचारों का हो गया है।बस लुभावनी बातें कर सकता है।
मैं मूर्ख था जो कयास लगाये बैठा था,सोचता था कि तू मरहम का काम करेगा लेकिन तू तो चेतनाविहिन लोगों के बीच रहकर उन्हीं के जैसा हो गया है।
तू दरिद्रता की परिभाषा लिखने के लायक भी नहीं है।कहां गया तेरा कर्तव्यबोध जाकर ढूंढ ला उसे।मुझे तेरे इस रूपक से अब घृणा होने लगी है।
याद कर वो दिन जब तेरे हंसने में भी गंभीरता का अलंकरण हुआ करता था।
नाचने गाने में भी भोग-विलास के बदले आनंद और उमंग की अभिव्यक्ति थी।
तु जिन अध्यापकों को गुरू की तरह पूजता है वो अध्यापक की शक्ल में आज एक व्यापारी हैं।तुझे दिखाई नहीं देता कि वो कार बंगला ऐशो-आराम के लिए ट्यूशन की गुलामी करते हैं।स्वार्थ के लिए नाक रगड़ते हैं।तू हमेशा के लिए इनसे दूरी क्यों नहीं बना लेता।नहीं अलग हो पा रहा है मोहपाश में बंध गया है ना।
उन गुरूजनों को भी याद कर जो आज गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं जो स्वार्थ से अलग,लोभ से दूर,सात्विक जीवन के आदर्श,अपने काम के उपासक हैं।
और कैसे दोस्तों के साथ तू दोस्ती के स्वांग भरता है क्या ये वो नहीं हैं जो वासना और लोभ से भरे हैं, माल,गैजेट्स,मदिरालय से घिरे हैं जो सिर्फ मसखरी करना जानते हैं और जिनकी शराफत और हमदर्दी मर चुकी है।
आप भी सोच रहे होगे किसी ने मुझे इतना सुना दिया मैंने जवाब तक नहीं दिया।
कैसे जवाब देता सपने में कोई मुझे डांट लगा रहा था रौद्र रूप लिए हुए, हां वो मेरी अपनी आत्मा की फटकार थी।
जो मुझे उस बुढ़िया माई के कुटिया तक ले आई थी जो मुझे उस तीन लोगों की ओर भी खींच रही थी जिन्हें अभी कुछ दिन पहले मैंने लिफ्ट दिया था।
चलिए अब मैं आपको लिफ्ट वाली कहानी बताता हूं।
उस रोज सुबह से बारिश हो रही थी अभी कुछ दिन पहले की ही बात है मैं रोजगार पंजीयन के काम से अपने जिले की ओर रवाना हो गया अपने मोटरसाइकल में।
रास्ते में एक आदमी ने लिफ्ट मांगा मैंने हमेशा की तरह गाड़ी रोक दी फिर क्या बातें होने लगी कहां रहते हो क्या करते हो वगैरह वगैरह।
मेरी आदत है कि मैं लिफ्ट वालों से आगे होकर बात नहीं करता।
फिर कुछ कि.मी. दूर गये ही होंगे उसने कहा बस ये यही रोक दो यार।
उतरने हुए उसने भेंट स्वरूप "धन्यवाद" भाई कहा।
अब इस धन्यवाद शब्द को आगे के लिए स्मरण में रखिएगा।
अब मैं चल निकला अपनी धुन में फिर कुछ दूर गया ही था एक दूसरा मिल गया हाथ हिलाता हुआ मैं मन ही मन सोचा चलो आ जाओ तुम भी क्या याद रखोगे..हाहाहा
उसे कुछ दूर में उतार दिया..उसके साथ भी थोड़ा बहुत संवाद हुआ..बातों से किसान या दुकानदार जैसा मालूम हुआ..पता है उसने गाड़ी से उतरते हुए क्या कहा..
उसने कहा - ले ठीक हे! आराम से जाबे भाई!
अब मैं चल निकला आगे..कुछ देर पश्चात एक धोती वाले वृध्द मिले ,होंगे 60 साल के आसपास के, जीर्ण-शीर्ण लग रहे थे, हाथ भी मार रहे थे वो भी संकोच करते हुए..वो तो अच्छा हुआ कि मेरी 100 CC की कामचलाऊ मोटरसाइकल थी..नहीं तो इतिहास गवाह है गरीब मर जाएगा लेकिन बुलेट R1 ऐसे गाड़ी वालों से कभी लिफ्ट न मांगेगा।
हां तो मैं उस वृध्द को बिठाकर चल निकला आगे कुछ देर बाद उसे उसके गंतव्य में उतार दिया..
पता है उसने रास्ते भर एक शब्द बात नहीं की।
उतरते हुए भी कुछ नहीं कहा।
मैं पीछे मुड़ा तो देखा उसका एक हाथ नमस्ते करने को उठ रहा था ठीक वैसा छोटा सा प्यारा सा नमस्ते जो गांवों में हुआ करता है।
खैर मैंने भाव एवं इशारों में उनके नमस्ते को अस्वीकार कर चुका था..
मैं उस नमस्ते को अस्वीकार करने के लिए "कोई बात नहीं"जैसा कहने ही वाला था कि मानों जुबान ऐसे चिपक गई जैसे किसी ने सील दी हो।
और इन कुछ सेकेंड में ही मैंने उनकी आंखें देखी करूणा से भरी थी।
इतना सरल इतना सहज इतना सौम्य इतना शीतल।
हां मैं थोड़े समय के लिए भूल गया था कि पहले दो लोगों में से एक ने मुझे धन्यवाद कहा दूसरे ने अपनेपन से मुझे आराम से जाना कहा।
उस बूढ़े की आंखों ने तो कुछ न कहकर भी बहुत कुछ कह दिया था।
हां वो एक सामान्य इंसान ही थे परंतु उनके पास जो था वो सबके पास नहीं होता..
उन्होंने मुझे अपने स्नेह से भीगो दिया
सचमुच उनके इस स्नेह ने मुझे गौरवान्वित कर दिया था और उनकी आंखों ने मुझे मर्मस्थल तक पहुंचा दिया था।
पोस्ट लंबा हुआ जा रहा है अब बुढ़िया माई की कहानी कल बताऊंगा...
क्रमशः.....!

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