Wednesday, 27 July 2016

~ शहरों में मरती इंसानियत ~

अभी-अभी, मेरे कमरे से लगभग 300 मीटर दूर एक चीखती हुई आवाज आई, एक तो इतनी तेज बारिश और लाइट भी चली गई थी।
कालोनी के बीच रोड में वो आंटी बचाओ पकड़ो जैसा कुछ-कुछ चिल्ला रही थी। हम दोस्त लोग कुछ सेकेंड के लिए सोचने लगे,फिर आव देखा न ताव दौड़ते चले गये। एक पल को आवाज सुन के लगा कि कहीं मर्डर तो नहीं हो गया।हम लोग थोड़ा घबरा भी रहे थे। रात के 9:30 का समय रहा होगा। जो आंटी वहां चिल्ला रही थी उसके पास जाकर पूछे तो बताई कि उनकी बेटी का बैग चोरी हो गया।वे लोग कहीं से लौट कर आ रहे थे.बैग में पैसा,फोन वगैरह बहुत सा कीमती सामान था। शायद कल पेपर में पूरी बात आ जायेगी।

अभी वो चोर गली में भागा है और आंटी बोली कि उनकी बेटी भी चोर के पीछे भागी है।हम लोग भी दौड़ भाग करने लगे। चोर तो मिला नहीं लेकिन उनकी 18 साल की बेटी चोर के पीछे दौड़ते चली गई थी अब उसको लेकर घबराहट होने लगी.आखिरकार वो कुछ देर बाद सुरक्षित मिल गई। उस आंटी की आवाज इतनी तेज थी इतना कंपन था उस आवाज में कि हमको इतनी दूर तक सुनाई दे दिया.लेकिन आसपास के घरवालों को नहीं सुनाई दिया।किसी का दरवाजा तक नहीं खुला। एक घर का गेट खुला था.एक लड़की बाहर थी.मैंने उनको कहा कि 100 नंबर में कृपा करके फोन लगा दो।वो भी दो बार लगाई फिर बोली कि नहीं लग रहा है भैया।मैं बोला कि जब लगे तब बता देना ये घटना।
कुछ देर के बाद पुलिस पूछताछ के लिए आई थी। ये तो हुई पूरी घटना.जो शायद शहरों में अब आम बात हो गई है।

अब सवाल आता है इसका जिम्मेदार कौन?
पुलिस?
नहीं बिल्कुल नहीं ।
लेकिन उस कालोनी में अब कुछ दिन पेट्रोलिंग जरूर होनी चाहिए।और शायद होगी भी।10 मिनट में पुलिस का वारदात की जगह पर आ जाना वाकई अच्छा लगा।

लेकिन जिम्मेदार कौन?
कालोनी के वो लोग ?
हां ये वही लोग हैं जिन्हें अच्छी कालोनी चाहिए,रोड चाहिए..मार्निंग वाक के लिए ठीक-ठीक जगह चाहिए..लेकिन मुसीबत में कोई चिल्लाये तो अनसुना कर देना, इतनी घोर असंवेदनशीलता।
हां इन्हीं लोगों के कारण एक चोर आज पकड़ाते पकड़ाते रह गया।
हम तीन दोस्तों के अलावा और वहां कोई नहीं था।मुझे सच में विश्वास नहीं हो रहा है कि कोई और बाहर क्यों नहीं निकला। अरे सही गलत की बात हटा दो एक मिनट के लिए उसका तो बाद में पता चल जाएगा..लेकिन बाहर निकल के लिए एक मिनट देख तो लेते कि क्या हुआ।
मेरा ये शहर इतना असंवेदनशील कैसे हो सकता है?
आज मेरी उस धारणा को बल मिल रहा है कि जितना बड़ा शहर उतना ज्यादा अपराध।
कम से कम इस मामले में छोटे कस्बे और गांव बहुत अच्छे हैं लोग भले ही जल्दी सो जाते हैं लेकिन रात के दो बजे भी कोई घटना हो तो बस एक आवाज की देर है लोग मदद के लिए उठकर आ जाते हैं। खैर.. कल जाके आप अपने-अपने नुक्कड़ में बहस करके मुझे बताना कि शहर में क्राइम रेट क्यों बढ़ रहा है। और एक बात मैं दावे के साथ कहता हूं कि सामाजिक ताना-बाना टूट रहा है, हम ही लोग तोड़ रहे हैं आज वो आंटी का पूरा परिवार इस समाज से,कालोनी से कटाव महसूस कर रहा होगा।
मैं तो ये सब देख रहा हूं और इन शहरवासियों के मिजाज से आज अच्छा खासा नाराज हूं। खुश हूं उनके लिए जो दो लोग मेरे साथ थे.. मेरे वो दोस्त इतनी तेज बारिश में पहले ही दौड़ते नंगे पांव चले गये..और मैं उनके पीछे चप्पल पहनकर। हां मैं अपने दोस्तों के साथ मिलकर ये कह सकता हूं कि हम लोगों ने आज खुद के साथ न्याय किया है हम तो आज चैन की नींद सोयेंगे।
आप देख लो आप खुद को कहां रखते हो???

~ अच्छा हुआ मर गया ~

मैंने बहुत पहले एक बार अपने दादा (जो टीचर थे)से पूछा था..कि आप तो पंडित नेहरू से मिले हैं आप ही बताइए क्या नेहरू के कपड़े सच में लंदन धुलने जाते थे?

दादा ने हंसते हुए कहा- तेरे परदादा इटली से तेल मंगाते थे और इस बात पर सबको विश्वास भी था। पता है कहानियां उन्हीं की बनती है जिन्होंने कुछ किया होता है। अब तू ही फैसला कर लेना क्या सही क्या गलत।

दादा का व्यक्तित्व इस्पात की तरह, न पुराने गानों का शौक..न ही बच्चों को गोद में खिलाने का शौक। हां पत्र व्यवहार के बड़े शौकीन थे। पेशे से वे एक अध्यापक थे। एक अच्छे अध्यापक की सारी खूबी उनमें थी। रिटायर होने के बाद समाज की कार्यकारिणी के सदस्य बन गये। समाज के कर्ताधर्ता क्या बने उन्होंने तो लोगों की खुशियां ही छीन ली। जिनका परिवार हंसी खुशी चल रहा है उनके जमीन जायदाद को अपनी कुशाग्र बुद्धि से हेरफेर करना,भाई-भाई में लड़ाई करवा देना। अपनी कूटनीति से किसी किसी का तलाक भी करवा दिया।वे बहुत ही चालाक थे लेकिन उनकी सत्यनिष्ठा खत्म हो चुकी थी। वे जिस महात्मा गांधी के बारे में मुझे बताते थे वो तो उन्हीं के उलट चलने लगे थे। नाम और प्रतिष्ठा की आड़ में वे यह भूल गए कि गांधी जितने चतुर थे उतने ही ईमानदार भी थे।

अब जो बताने जा रहा हूं उस पर ध्यान देना - हुआ ये कि अभी कुछ महीने पहले दादाजी गुजर गए,84 साल की उम्र में। आप सोच रहे होंगे बढ़िया कमाया खाया शान से रहा होगा,लोगों का इतना नुकसान भी किया फिर भी बढ़िया इतने साल जिया। नहीं,बात कुछ और है जिसे समझना जरूरी है।
दादा जी मौत के पहले के वो कुछ महीने मैं नहीं भूल पाता.उनको लकवा हुआ वो भी सिर में.जिस दिमाग का इतना दुरूपयोग किया उन्होंने,आज वही दिमाग लकवाग्रस्त हो चुका था। उन्होंने बहुत से अच्छे काम भी किए लेकिन उनकी बुराइयों के सामने वो अच्छे काम भी छोटे पड़ गये। वो उनके जीवन के आखिरी कुछ महीने थे चेक अप के बाद हास्पिटल से जब मैं उनको घर ले जा रहा था उस समय वो ज्यादा बोल भी नहीं पा रहे थे..मैंने उनके चेहरे की लकीरें देखी इतने सारे भाव। मानों वो अपने सारे पापों का प्रायश्चित करना चाहते हों और सारे मौके गंवा दिए हों। मृत्युशैय्या को पाने के लिए मानों व्याकुल हो रहे हों।
काश..मैं उनके लिए एक मौके की व्यवस्था कर पाता।
काश..काश...काश....!

अपने प्राणों की आहूति देने को लालायित उनका वो चेहरा आज भी याद आता है तो लगता है कि किसी दुश्मन क्या, किसी अपराधी की भी ऐसी हालत न हो।
उस दिन ये बात समझ आ गई कि अगर जिंदगी में आपने कहीं भी हराम किया है तो उसका फल तो भोगना ही पड़ेगा वो भी इसी जन्म में।चाहे आप जीवन भर सुख से जिएं लेकिन उसी जिंदगी में वो कुछ आखिरी दिन वो इतने भारी होंगे कि आप मृत्युलोक में जाने को तड़प उठेंगें लेकिन आपको वो इतनी आसानी से नसीब नहीं होगा।
इसलिए तो दादाजी की मृत्यु के बाद कुछ लोगों के मुंह से मैंने ये तक सुना - "अच्छा हुआ मर गया"। इससे दुःखद किसी के लिए और क्या हो सकता है कि मृत्यु के बाद भी कर्मों के फल के रूप में ये मिला। जब उनकी मौत हुई मैंने उतना शोक नहीं जताया न ही आंसू बहाया। मैं बस शांत था। मैंने तो हास्पिटल के बाहर उस दिन ही उनको मृत्यु के कितने करीब से देख लिया था।

Wednesday, 20 July 2016

गुरू को पत्र -

मेरे लिए अभी भी यकीन करना मुश्किल हो रहा है, आपने इतना प्रोत्साहित किया इसके लिए बहुत बहुत शुक्रिया सर, साथ ही गुरू पूर्णिमा की बधाई।
आज मैं वही लिखूंगा जो नहीं लिखा गया।
पता नहीं आपको याद है कि नहीं लेकिन आप जब इतिहास पढ़ा रहे थे तो आपने एक बार गांधीजी का उद्धरण दिया था कि गांधीजी दातौन करने के बाद उस दातौन को एक जगह साल भर इकट्ठा करते थे फिर उससे खाना पकाने लायक लकड़ी इकट्ठा हो जाती थी।
ये बात इसलिए याद है क्योंकि मैंने इस बात को दिल में उतार लिया।
आगे चलते हैं, आपने नेपोलियन के बारे में एक प्रसंग बताया था कि वो क्यों अकेले एक बंद कमरे में खाना खाता था, उस प्रसंग से भी मैंने बहुत कुछ अपनी जरूरत के मुताबिक समेट लिया। और ये काफी हद तक सच है कि किसी के साथ खाना खाने बैठ जाओ तो उसके घर के संस्कार मालूम हो जाते हैं।
आगे-
उस समय हमारा कारवां महाजनपद काल में था,उन दिनों प्रधानमंत्री का एपिसोड काफी चर्चित हुआ करता था,आपने कहा था कि चाणक्य भी देख लिया कीजिए..मैंने शुरू से देखना शुरू किया..ईमानदारी से कहता हूं 38 एपिसोड तक लगातार देखा हूं, विष्णुगुप्त का जीवंत किरदार आज भी आंखों में झूलता है।
अब बात आती है मैप की- याद होगा आपको,दीवार में कोई मैप चिपका है तो वो दीवार के कोनों के समानांतर/लंबवत् ना हो तो कितना अटपटा लगता है, हां आपकी तरह मुझे भी बिल्कुल यही लगता है।
ये छोटी सी बात सिर्फ मैप ठीक करने तक की ही नहीं बल्कि परफेक्शन की है।जिसे हम जिंदगी के हर पड़ाव में लेकर चलना जरूरी समझते हैं।
इतिहास की पहली क्लास पहला टापिक पहला पेज..शुरूआत हुई थी वो भी रेनेशां से।
आज मैं अंत भी इसी शब्द से करता हूं,मेरे लिए ये सारे उध्दरण ही रेनेशां है।

Tuesday, 19 July 2016

~ सोचो लड़कियों को कैसे लगता होगा ~

सन 2012,
ठंड का महीना,
मैं रोज की तरह सरस्वती नगर से लोकल ट्रेन पकड़ के कालेज के लिए निकला...वो लड़का हमेशा की तरह आज फिर मिला, कितना चपल था वो, वो लोकल ट्रेन में लोगों से मिलता हर किसी से बात कर लेता कुछ मिनटों में ही घुल-मिल जाता आसपास के लोगों का ध्यान न चाहते हुए भी उसकी बातों में चला जाता...मैं तो बस यही देखता रह जाता था कि आज तो इसके आसपास सब शांत लोग बैठे हैं आज देखता हूं कैसे सबसे बातचीत करता है।
अचानक से एक वृध्द ने जोर से छींक मारी उसमें उसने इतना बेजोड़ संवाद स्थापित कर दिया..छींक मारने का वो ऐसा वर्णन करेगा मैंने सोचा भी नहीं था..मैं आज फिर उससे पराजित हो चुका था और मेरी उससे दोस्ती भी हो गयी थी।
वो अपने संवाद से सबका दिल जीत लेता था लेकिन आज, आज पता नहीं क्या हुआ उसके चेहरे की आभा गायब थी।
आज वो शांत समुद्र की भांति प्रतीत हुआ।
मैं ये सब देख रहा था जब नहीं रहा गया तो पूछ लिया- क्या भाई आज बड़े सीरियस मोड में हो ?
उसने कहा -कुछ नहीं सर बस ऐसे ही।
मैंने कहा - ऐसा क्या हो गया मैं भी जानूं।
वो - क्या बताऊं कुछ समझ नहीं आ रहा है।
मैं - बता दे दोस्त मैं कौन सा तेरे कालेज का हूं वो - चलो ठीक अपने तक ही ये बात रखना।
मैं - ठीक है बता तो क्या हुआ?
वो - आप कल 4:35 वाली लोकल से आये क्या?
मैं - हां भाई क्यों क्या हुआ?
वो - कल मेरी ट्रेन छूट गयी थी।
मैं - अबे हां कल लोकल टाइम पे थी।
वो - हां तो मैं पावर हाउस से लिफ्ट लेके आया रायपुर।
मैं - अच्छा।
वो - कल गजब हो गया सर एकदम दिमाग फ्यूज हो गया है।
मैं - बोल क्या हुआ।
वो - मैं एक कालेज के अपने सीनियर के साथ चरोदा तक आया.वहां से एक अंकल से लिफ्ट लिया.उम्र होगी 40-50.एक्टिवा में था।
अपना क्या है सफर में लोगों से बात करने की आदत है वो अंकल पूछने लगे कि कहां पढ़ते हो क्या करते हो?
मैं बता दिया।
फिर पता है वो क्या बोले,
बोलते हैं और लड़की नहीं है क्या क्लास में।
मैं बोला कि अपने ब्रांच में लड़कियां ना के बराबर रहती हैं।
फिर वो बोला कालेज में कोई गर्लफ्रेंड नहीं है क्या तुम तो अभी यंग हो यार।
मैं बोला - नहीं अंकल नहीं है,दोस्ती यारी है बस कुछ लोगों से।
अरे आजकल तो फ्रेंड्स में ही हो जाता है।
वो अंकल ऐसा बोला और साथ में गाड़ी चलाते हुए मेरे जांघ को सहलाने/थपथपाने लगा।
मेरा तो दिमाग खराब हो गया।
एक तो वो बाइपास में चला रहा था.कुम्हारी पहुंचने वाले थे.
उसका हाथ बार बार मेरी जांघ में और फिर अजीब अजीब सवाल 'कभी किए हो किसी के साथ' ये वो..।
मैं कुछ भी कुछ बोलके टालने लगा।
फिर मैं बोला कि अंकल रूको तो जोर से लग रही है।
वो रोका मैं फिर बाइपास से इधर रोड पे आ गया,अपना पानी का बोटल हल्का सा खोला और गालियों के साथ उसके मुंह पे दे मारा जोर का।
फिर कुम्हारी से बस पकड़ के रायपुर आया।
वो इतना बताने के बाद थोड़ा रूका,
आज मैंने उस लड़के को हारते देखा,संवाद में भी और जीवन के अनछुए इन पहलुओं से भी।
लोकल ट्रेन की सरसरहाट की आवाज तो मेरे कानों से गायब ही हो गयी थी, मैं उस लड़के की बातों में लीन था।
मैं मन में सोच रहा था कि आज उसके आत्मविश्‍वास को गहरी ठेस पहुंची है।
लेकिन अब उसने जो कहा वो सुनके मैं पूरी तरह से सन्न रह गया।
उसने कहा- अब सोचिए सर ये सब मैं आपको बताया कैसे अजीब लगा न आपको,हां मेरे को भी रात भर यही लगा..सो भी नहीं पाया रातभर..लेकिन पता है एक बात है..सोचो मेरा एक लड़का होते हुए ये हाल है आपका ये सब सुनते हुए ये हाल है.
"सोचो लड़कियों को कैसे लगता होगा"।
मैं भावविभोर हो उठा, उसके ये शब्द, कितना वजन था उन शब्दों में,
मेरा रोम रोम पिघल गया।
वो दिन है और आज का दिन है मैं आज भी उन शब्दों का वजन संभाल रहा हूं।

-Good and Evil-

एक शहर में पांच इंजीनियर लड़के साथ रहते थे..पांचो ठेठ उदण्ड अधर्मी प्रवृति के..सब के सब पक्के शोहदे..नशा बराबर करते थे और तो और गंदगी से खासा लगाव रखते थे..उनके कमरे में गालियां सर्वत्र गुंजायमान होती थी।
कुल मिलाकर कहा जाए तो पांचों लड़के बुरे थे।
एक दिन अचानक एक लड़के का हृदय परिवर्तन हुआ..सालों तक बुराई करके वो ऐसा टूटा कि अब उसमें अच्छाई का जन्म हुआ..अब वो सफाई से रहने लगा..नशा पानी कम करने लगा..बाकी चारों लड़के भी उससे प्रभावित हुए..वो भी उसकी राह में च...लने को आतुर हो उठे।
धीरे से ऐसा हुआ कि पांचों लड़के एकदम सीधे हो गये..संयमित जीवन जीने लगे।
गुस्सा गाली नशा दुर्व्यवहार सारी कुरीतियां त्याग दी।
प्रेम से परिपूर्ण एक-दूसरे के प्रति त्याग समर्पण की भावना,जो देखता इनके भाईचारे का कायल हो जाता.
कई साल गुजर गये..
एक दिन उनमें से एक लड़के को एक आइडिया सूझा कि सब तो सीधे हैं मैं इनके थोड़ेे पैसे चुरा लेता हूं और उसने चारों लड़कों के जेब से थोड़े थोड़े पैसे चुरा लिए।
चारों लड़कों में से किसी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी क्योंकि सब सीधे-साधे लोग थे।
अब उस पांचवें लड़के ने सोचा कि ये तो बहुत अच्छा हुआ और चोरी करता हूं ये लोग तो सब अभी भले आदमी हैं।
उसकी विलासेंद्रियां जागृत होने लगी थी और वह अब धीरे-धीरे उन पर हावी होने लगा..चोरी के साथ कूटनीति भी करने लगा..वो सबको अपने कंट्रोल में रखने लगा..उनके खून पसीने की कमाई को बैठकर मजे से लूटता और उन्हीं को आपस में लड़ाता।
चारों लड़के धीरे से हालात समझने लगे,अब वे नाराज होने लगे..गुस्सा करना भी सीखने लगे..और धीरे-धीरे बुराई का जन्म हो चुका था।

Sunday, 3 July 2016

-अधूरा सपना -

ट्रेन छूटने ही वाली थी..हम दोनों जल्दी से स्टेशन पहुंचे..वहां से हम दोनों साथ में चले पड़े और आगे फिर एक जगह ट्रेन रूकी वहां हम दोनों उतर गये..
पता नहीं वो कैसी जगह थी..अलग अलग तरह के लोग..अलग ही सौन्दर्य था उस जगह का..शायद सपने में ऐसी जगह मैं इसलिए देख रहा था..क्योंकि वो सिर्फ एक सपना ही था..
और फिर हम जहां जहां गये वहां वहां वो मेरे साथ चलते गयी मेरा हाथ थामे हुए....
वहां किसी रेस्तरां में भी जाते..वहां के अलग अलग तौर तरीके ..वहां के गार्डन्स की खूबसूरती..समझ नहीं आ रहा मैं सब कुछ कैसे बयां करूं ..ऐसा लग रहा है जैसे अभी की बात है और वो मेरा हाथ थामे हुए है पकड़ थोड़ी ढीली पड़ने पर फिर जोर से पकड़ लेती थी..अब हुआ यूं कि उस जगह को छोड़कर हमें कहीं और जाना था..इतने देर से याद कर कर के लिख रहा हूं लेकिन एक भी जगह का नाम याद नहीं कर पा रहा हूं..अब कुछ देर के लिए हम थोड़े अलग हुए..वो कहीं बैठी थी..मैं कुछ काम से इधर-उधर हुआ..और जब मैं काम निपटा के वापस लौटा तो कुछ लड़के आसपास आ ही रहे थे..शायद उस जगह पर कोई नहीं था..इसलिए वो आराम से उसकी ओर बढ़ रहे थे..वो दौड़ के मेरे पास आई और मुझे गले लगा लिया..ये सफर भी मेरे लिए पहला था और उसका गले मिलना भी मैंने भी आंख बंद कर गले लगा लिया..फिर हम दोनों और कहीं चले गये...और रास्ते में हम लोग चलते-चलते रूक गये..उसने मेरी ओर सर उठाकर कहा कि "पता है आप न खास हो".और उसने अपनी नजरें झुका ली और हम आगे बढ़ने लगे।

हम दोनों एक-दूसरे को कैसे जानते हैं कब मिले कैसे मिले कैसे एक साथ सफर पे आये..कहां जा रहे क्यों जा रहे..सब एक रहस्य ही रह गया सपने के साथ क्योंकि इसके अलावा और कुछ याद नहीं आ रहा।
लेकिन मजे की बात ये है कि जिसे मैंने सपने में देखा..उसे मैं हकीकत में जानता हूं और ये बात मुझे इस सपने के साथ दफन करनी पड़ेगी और मैं वही करूंगा.
अभी सोके उठा हूं और बिना देरी किए लिख रहा हूं बेहोश की तरह..चूंकि सपना देखने के तुरंत बाद हम भूलते जाते हैं इसलिए लिखते लिखते भूल भी रहा हू इसलिए लिखना छोड़के आडियो रिकार्डिंग कर रहा हूं और बस बोले जा रहा हूं पीछे जाकर जितना हो सके याद करने की कोशिश कर रहा हूं चूंकि सपना ज्यादा याद नहीं आ पा रहा है और होता भी यही है कि
सपने की शुरूआत को हम याद नहीं रख पाते।
अभी तक लाइट भी आन नहीं किया हूं बस इस उम्मीद के साथ कि ये अंधेरा फिर से मुझे सपने में ढकेल दे.इस बीच ये भी भूल गया कि मुझे अपने फोन को फ्लाइट मोड में डाल देना था लेकिन मैं तो बेहोश की तरह लगा हुआ था रिकार्डिंग और टाइपिंग में इससे एक नुकसान ये हुआ कि एक दो फोन आ गया. मैं जो थोड़ा बहुत और याद कर सकता था वो अब गया।
मैं अभी क्या महसूस कर रहा हूं अगर ये लिखने लगा तो पता नहीं ये पोस्ट कितनी लंबी हो जायेगी इसलिए ये सब नहीं लिखूंगा।
सुबह नाश्ता करने के बाद अभी तक कुछ खाया भी नहीं है मैं कुछ देर के लिए भूल जाना चाहता हूं कि मुझे बाहर जाके मुझे भरपेट नाश्ता करना है हां सच में मेरी भूख मिट चुकी है हां मैं अभी भी उस सपने मैं हूं।
मेरी अपनी ही आवाज मुझे रुलाने पे तुली है पता नहीं मेरी आवाज में इतना भारीपन कैसे आ गया.अच्छा तो यही होगा कि मैं अब इस रिकार्डिंग को डिलिट कर दूं क्योंकि मेरा दिल और दिमाग अब एक-दूसरे से लड़ने पर उतारू हो चुके हैं दिल कहता है कि कुछ देर और ठहर जा इस ख्याल में थोड़ा और जी ले,और दूसरी ओर दिमाग कह रहा है कि उठ जा सात बज गये.अब तुझे कुछ खा लेना चाहिए।
और मैं दिमाग की सुनके उठ चुका हूं।

आखिरकार एक शहर का नाम याद आ गया..सपने में हमने इंदौर से ट्रेन पकड़ी थी..लेकिन क्यों..मैं तो यहां कभी गया भी नहीं था..।अब उसके बाद हम लोग कहां निकल गये..नहीं पता।और हम इंदौर कैसे पहुंचे ये भी नहीं पता।
लेकिन हम लोग जहां भी गये वैसी जगह मैंने कभी कहीं नहीं देखी..।क्या अद्भुत खिंचाव था उन सारी जगहों में जहां होते हुए हम जा रहे थे।मैं उसे चाह के भी भुला नहीं पा रहा हूं सपने वाली लड़की को जिसे मैं हकीकत में भी करीब से जानता हूं आज इस एक सपने ने उसके लिए मेरा पूरा नजरिया ही बदल दिय...ा है।
कितना कुछ घट रहा है..सच में।मैंने सपने में उसकी खूबसूरती देखी है..उसके लहराते होंठ जो मेरे से कह रहे थे कि "पता है,पता है आप न खास हो"
उसने सपने में आकर मुझे कितना खास बना दिया..मुझे कितना हल्का कर दिया..उसने सपने में मुझे एक ऐसी दुनिया में ढकेला..जहां हकीकत मुझे खोखला लगने लगा था।
शायद मैं उसका नाम लिख पाने की हिम्मत जुटा पाता...
सब कुछ कितना अधूरा सा लग रहा है..
दीवार में सर फोड़ने का मन कर रहा है..
सपना छूट रहा है...
आंखे फिर से बंद होना चाहती है किसी लड़की को याद करने के लिए नहीं बल्कि उस सपने में लौटने के लिए।
क्योंकि मुझे पता है कि वो सपना पूरा नहीं हो सकता इसलिए इस सपने में लौट जाना चाहता हूं।
कोशिश कर रहा हूं कि अभी रात को सोने के पहले तक सिर्फ ये सपना दिलों दिमाग में बना रहे..ताकी रात को फिर से इसी सपने में वापस जा सकूं।
और हां आज भूख नहीं लग रही है,रीति में जो रम गया हूं।

- हिमालय से भी ज्यादा खिंचाव -

मैं बिना टिकट स्लीपर कोच में चढ़ गया था..
टीटीई को पैसे देकर स्लीपर की टिकट बनवा ली।मैंने कहा कोई सीट है उसने हाथ खड़े कर दिए.कहा कि आज रात तो टिकट मिलना मुश्किल है सुबह मिलेगी सीट, स्लीपर एसी सब फुल चल रहा है भाई खाली होगी तो न दूं।
मैं सोचा आज तो तपस्या है एक तो 22 घंटे का लंबा सफर।
रात के दस बज चुके थे.बाथरूम के पास वाली जगह में भी लोग सो गये थे।
अब बोगी में आने-जाने वाले रास्ते के अलावा और कोई जगह नहीं थी जहां मैं सो सकूं।
मैं चादर बिछा के वहीं सो गया।
साइड लोवर बर्थ में एक यंग कपल थे.शायद कहीं से घूम के आ रहे थे या कहीं जा रहे थे।
वो रात भर बात करते रहे.एक सीट में शायद उन्हें भी नींद नहीं आ रही थी।
और मेरी झपकी जैसे ही लगती..कोई न कोई रास्ते से गुजरने वाले पैर मार देते।
नींद पूरी मर चुकी थी.अब मैं उनकी बात ध्यान से सुनने लगा।
क्योंकि उनकी बातें दिलचस्प लग रही थी,बड़े प्यार से बहस कर रहे थे।
उनकी बातें सुनके लगा कि नया नया रिश्ता होगा।
लड़की - तुम सच में मेरे लिए स्पेशल हो पता है क्यों?
लड़का - क्यों
लड़की - तुमने कभी रिश्ते में रहते हुए मुझे जान,शोना चांदी ऐसा कुछ नहीं कहा..कसम से जिंदगी भर तुम्हारी आभारी रहूंगी हेहे।
लड़का- हाहाहा..थैंक्यू।
ऐसे कुछ देर वो हंसी मजाक करते रहे फिर कुछ सीरियस बातें होने लगी।
लड़का बार-बार कह रहा था मैं हमेशा तुम्हारे नजरों के सामने नहीं रह सकता।
प्लीज तुम नाराज मत होना न मैं जहां भी जाता हूं तुमसे बात तो करता ही हूं।मुझे सच में यहां अब ऊबाउपन सा लगने लगा है।तुम तो जानती हो मुझे एक जगह रहना नहीं पसंद।
लड़की टोकते हुए- अच्छा बच्चू क्या पसंद है तुम्हें?
लड़का- मुझे पहाड़ पसंद है..मुझे मैदान अब अच्छे नहीं लगते।हां मुझे पहाड़ों में चढ़ना पसंद है वहां रहना पसंद है।
लड़की - जाओ भागो, बस जाओ हिमालय में।
लड़का - नहीं न बबा "तुममें तो हिमालय से भी ज्यादा खिंचाव है।"
लड़की - तो फिर इतनी रात को ऐसी बहकी-बहकी-बहकी बातें मत बनाओ..देखो बच्चे तुम्हारी नियत कुछ ठीक नहीं लग रही मुझे..वहां जाके संत टाइप मत हो जाना।
लड़का -अरे नहीं ना मैं ठंड होते ही वापस आ जाऊंगा वादा।
लड़की -ओये! ये मौसमी रिश्ता नहीं चलेगा.प्लीज क्यों तंग करते हो ये सब बोलके,तुम्हें नहीं पता मैं कितना परेशान हो जाती हूं।
बस ये बात चल ही रही थी एक मोटी आंटी ने मानों मेरे हाथ को कुचल ही दिया था।लेकिन मैं सब गुस्सा भूल के कपल की बातें सुनने लगा।
अब उतनी रात को क्या गुस्सा करता,हाथ में तो बुलडोजर चल चुका था अब क्या फायदा।
हां तो फिर लड़की कहती है कि यार पता है ये जो तुम इधर-उधर जाने की बात करते हो इसी से तुम मेरे और पास आ जाते हो।
तुम मेरे से कहीं दूर जाने की बात करो,आखिर मैं इसमें कैसे खुश होऊं बताओ ना।
लड़का - तुम्हें तो पता है न मेरा सपना क्या है?
लड़की झुंझलाते हुए- प्लीज मुझे नहीं जानना।
लड़का उसे प्यार से समझाते हुए कहता है -
देखो मैं चाहता हूं कि गर्मियों में पहाड़ों में रहूं वहां के उन बंद पड़े स्कूलों में जान फूंक कर आऊं।फिर ठंड के कुछ महीने यहां तुम्हारे शहर में आ जाऊंगा..यहां कुछ काम कर लूंगा।
लड़की - तुम ठंड में भी मेरे शहर मत आना कहीं और चले जाना.तुम्हें तो वैसे मेरे से मतलब है नहीं। क्या मिलेगा तुम्हें ये सब से.तुम्हारा ये फलसफा मुझे फौज की नौकरी से भी बेकार लग रहा।कभी सोचा है कि तुम्हारे इस खयाल में मेरी जगह है भी कि नहीं।अगर मैं तुम्हारे इस पागलपन में शामिल हो भी जाऊं तो कैसे रखोगे मुझे।कल जाके मेरी शादी हो गई तो कैसे करोगे.करते रहना फिर पहाड़ मैदान.तड़पते रहना फिर।जबरन पागल प्रेमी क्यों बनना चाहते हो।तुम्हें कैसे समझाऊं कि पैसा कितना जरूरी है जीने के लिए,खुद ही देखो न महंगाई कितनी है।
तुम हो कि बस अपने सपने की बात करके चुप करा देते हो।
बताओ न कैसे करूंगी मैं ?
और इस बीच तुम्हें कुछ हो गया तो..मैं तो देख भी नहीं पाउंगी।
लड़का इतना सब सुनके भावविभोर हो उठता है।
वो कहता है - मुझे कुछ नहीं होगा,इस पागलपन के साथ मेरे अनुभव हैं अब जो कुछ भी होगा मेरा चाहा हुआ ही होगा।
तुम्हारी दुआ तो है न,भला कैसे कोई अनहोनी होगी मेरे साथ।
लड़की - मुझे नहीं समझना ..तुम मेरे बिना रह सकते हो मुझे पता है।हटाओ अब मुझे दुखी नहीं होना इतनी रात को।बहुत गंदे हो तुम तुम्हारे सपने में कहीं भी मैं नहीं हूं।
लड़का- ऐसा नहीं है प्लीज।
लड़की - क्या प्लीज मुझे रख लो न साथ तुम्हें अधूरा भी नहीं लगेगा..चलो न एक प्लान करते हैं कायदे से भाग चलते हैं वहीं जहां तुम जाने की बात करते हो।बाद में धीरे से सब ठीक हो जायेगा।शुरूआती दिनों के लिए दोनों का बैंक बैलेंस तो है ही।
इससे पहले कि लड़का कुछ कहता जोर से हार्न बजा..गाड़ी किसी स्टेशन पे रूकी थी।

A LIFT TO REMEMBER

आज मेरे पास आपके लिए कहानी तो है लेकिन शीर्षक नहीं है इसलिए जो भी लिखा है,आप को सौंपता हूं।
मेरा एक मात्र प्रदर्शनी स्थल यही है मेरे पेंटिंग रूपी शब्दों को जब आप निहार देते हैं इतना मेरे लिए काफी होता है।
ये सब इसलिए कह रहा हूं क्योंकि आज बहुत लंबा लिखा है उम्मीद है आप पढ़ेंगे।

शाम ढल चुकी थी,पता नहीं वो फिर कहां से आ गया था दुगुनी ऊर्जा लिए,उसने मुझे खूब खरी-खोटी सुनाई।
कहने लगा-
तू बस सौंदर्य चित्रण करते रह,इन प्रेम कहानियों और यात्रा वृतांत में ही लिप्त हो जा।
थोड़ी सी प्रशंसा पाकर सब भूल जाना चाहता है।
याद कर उस बुढ़िया माई की कुटिया को जहां तू बचपन में जाया करता था।
नहीं याद आ रहा होगा न,अभी याद कर हाल ही में तुने तीन अलग-अलग लोगों को अपनी मोटरसाइकल में लिफ्ट दिया था याद है कि वो भी भूल गया।
सोच वो तीनों तुझे ही क्यों मिले।
चेतनाशून्य हो गया न तू..
मुझे पता था तू इस लायक है ही नहीं मैंने गलत हाथों में कलम थमा दी।
अभी भी समय है याद कर उस बूढ़े की उन दो आंखों को जिसको तुने सबसे आखिरी में लिफ्ट दिया था।वो लोग तुझे बस इसलिए नहीं मिले थे कि तू बस उन्हें उनके गंतव्य तक छोड़ दे।
मुझे लगता था कि तू उन सब का मान रखेगा लेकिन तुझे तो महिमागान करने से फुर्सत नहीं है।तू इसी में रम गया है अन्य लोगों की तरह कुत्सित विचारों का हो गया है।बस लुभावनी बातें कर सकता है।
मैं मूर्ख था जो कयास लगाये बैठा था,सोचता था कि तू मरहम का काम करेगा लेकिन तू तो चेतनाविहिन लोगों के बीच रहकर उन्हीं के जैसा हो गया है।
तू दरिद्रता की परिभाषा लिखने के लायक भी नहीं है।कहां गया तेरा कर्तव्यबोध जाकर ढूंढ ला उसे।मुझे तेरे इस रूपक से अब घृणा होने लगी है।
याद कर वो दिन जब तेरे हंसने में भी गंभीरता का अलंकरण हुआ करता था।
नाचने गाने में भी भोग-विलास के बदले आनंद और उमंग की अभिव्यक्ति थी।
तु जिन अध्यापकों को गुरू की तरह पूजता है वो अध्यापक की शक्ल में आज एक व्यापारी हैं।तुझे दिखाई नहीं देता कि वो कार बंगला ऐशो-आराम के लिए ट्यूशन की गुलामी करते हैं।स्वार्थ के लिए नाक रगड़ते हैं।तू हमेशा के लिए इनसे दूरी क्यों नहीं बना लेता।नहीं अलग हो पा रहा है मोहपाश में बंध गया है ना।
उन गुरूजनों को भी याद कर जो आज गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं जो स्वार्थ से अलग,लोभ से दूर,सात्विक जीवन के आदर्श,अपने काम के उपासक हैं।
और कैसे दोस्तों के साथ तू दोस्ती के स्वांग भरता है क्या ये वो नहीं हैं जो वासना और लोभ से भरे हैं, माल,गैजेट्स,मदिरालय से घिरे हैं जो सिर्फ मसखरी करना जानते हैं और जिनकी शराफत और हमदर्दी मर चुकी है।
आप भी सोच रहे होगे किसी ने मुझे इतना सुना दिया मैंने जवाब तक नहीं दिया।
कैसे जवाब देता सपने में कोई मुझे डांट लगा रहा था रौद्र रूप लिए हुए, हां वो मेरी अपनी आत्मा की फटकार थी।
जो मुझे उस बुढ़िया माई के कुटिया तक ले आई थी जो मुझे उस तीन लोगों की ओर भी खींच रही थी जिन्हें अभी कुछ दिन पहले मैंने लिफ्ट दिया था।
चलिए अब मैं आपको लिफ्ट वाली कहानी बताता हूं।
उस रोज सुबह से बारिश हो रही थी अभी कुछ दिन पहले की ही बात है मैं रोजगार पंजीयन के काम से अपने जिले की ओर रवाना हो गया अपने मोटरसाइकल में।
रास्ते में एक आदमी ने लिफ्ट मांगा मैंने हमेशा की तरह गाड़ी रोक दी फिर क्या बातें होने लगी कहां रहते हो क्या करते हो वगैरह वगैरह।
मेरी आदत है कि मैं लिफ्ट वालों से आगे होकर बात नहीं करता।
फिर कुछ कि.मी. दूर गये ही होंगे उसने कहा बस ये यही रोक दो यार।
उतरने हुए उसने भेंट स्वरूप "धन्यवाद" भाई कहा।
अब इस धन्यवाद शब्द को आगे के लिए स्मरण में रखिएगा।
अब मैं चल निकला अपनी धुन में फिर कुछ दूर गया ही था एक दूसरा मिल गया हाथ हिलाता हुआ मैं मन ही मन सोचा चलो आ जाओ तुम भी क्या याद रखोगे..हाहाहा
उसे कुछ दूर में उतार दिया..उसके साथ भी थोड़ा बहुत संवाद हुआ..बातों से किसान या दुकानदार जैसा मालूम हुआ..पता है उसने गाड़ी से उतरते हुए क्या कहा..
उसने कहा - ले ठीक हे! आराम से जाबे भाई!
अब मैं चल निकला आगे..कुछ देर पश्चात एक धोती वाले वृध्द मिले ,होंगे 60 साल के आसपास के, जीर्ण-शीर्ण लग रहे थे, हाथ भी मार रहे थे वो भी संकोच करते हुए..वो तो अच्छा हुआ कि मेरी 100 CC की कामचलाऊ मोटरसाइकल थी..नहीं तो इतिहास गवाह है गरीब मर जाएगा लेकिन बुलेट R1 ऐसे गाड़ी वालों से कभी लिफ्ट न मांगेगा।
हां तो मैं उस वृध्द को बिठाकर चल निकला आगे कुछ देर बाद उसे उसके गंतव्य में उतार दिया..
पता है उसने रास्ते भर एक शब्द बात नहीं की।
उतरते हुए भी कुछ नहीं कहा।
मैं पीछे मुड़ा तो देखा उसका एक हाथ नमस्ते करने को उठ रहा था ठीक वैसा छोटा सा प्यारा सा नमस्ते जो गांवों में हुआ करता है।
खैर मैंने भाव एवं इशारों में उनके नमस्ते को अस्वीकार कर चुका था..
मैं उस नमस्ते को अस्वीकार करने के लिए "कोई बात नहीं"जैसा कहने ही वाला था कि मानों जुबान ऐसे चिपक गई जैसे किसी ने सील दी हो।
और इन कुछ सेकेंड में ही मैंने उनकी आंखें देखी करूणा से भरी थी।
इतना सरल इतना सहज इतना सौम्य इतना शीतल।
हां मैं थोड़े समय के लिए भूल गया था कि पहले दो लोगों में से एक ने मुझे धन्यवाद कहा दूसरे ने अपनेपन से मुझे आराम से जाना कहा।
उस बूढ़े की आंखों ने तो कुछ न कहकर भी बहुत कुछ कह दिया था।
हां वो एक सामान्य इंसान ही थे परंतु उनके पास जो था वो सबके पास नहीं होता..
उन्होंने मुझे अपने स्नेह से भीगो दिया
सचमुच उनके इस स्नेह ने मुझे गौरवान्वित कर दिया था और उनकी आंखों ने मुझे मर्मस्थल तक पहुंचा दिया था।
पोस्ट लंबा हुआ जा रहा है अब बुढ़िया माई की कहानी कल बताऊंगा...
क्रमशः.....!

~ "हां मैं कोशिश करूंगी"~

बातों बातों में उसने बताया कि वो कैसे अकेले स्कूटी में ही 7 घंटे सफर करके हरिद्वार,ऋषिकेश गयी थी।
मुझे एक पुरानी बात याद आ गई।
मैं तो ठीक एक साल पहले आज ही के दिन उत्तराखण्ड में था..मैंने उसे बताया भी था कि मैं अकेले आया,बहुत से नये-नये अनुभवों से गुजरा।जो ठीक ठाक मिला खा लिया..कहीं भी रूक गया लेकिन होटल नहीं किया।...
फिर मैंने उसे कहा था कि जून के आखिरी सप्ताह में आना..पहाड़ के सारे रंग देखने को मिलते हैं ठंडी गर्मी बरसात और इसके अलावा और भी बहुत कुछ।
उसने कहा था - "हां मैं कोशिश करूंगी"।
उसने इतना कहा मैं समझ गया था ये कभी न कभी अकेले निकल जायेगी घूमने।
मैं ये भी सोच रहा था कि क्या इस देश में अभी भी एक लड़की एक लड़के की तरह कहीं भी कभी भी घूम सकती है घूमना तो चलो ठीक है लेकिन रात को कहीं भी सो जाना ये कहीं से भी आसान नहीं होता एक लड़की के लिए।

लेकिन अब जो मैं कहने जा रहा हूं उसको आप ध्यान लगा के सुनना।
उसने वो सब कर दिखाया..जिसका मैंने ऊपर जिक्र किया है, जून का आखिरी सप्ताह वो और उसकी स्कूटी..।
हाल ही में वो तैरना भी सिख चुकी है।
उसने बताआ कि कैसे ऋषिकेश में उस लड़की ने स्थानीय लड़कों की मदद से ही झरने से झलांग लगाना सीखा।
उसने आगे जो बताया वो सच में अद्भुत था उसने कहा कि मैं रोज रात गंगा घाट में सोती थी।
मैं अब थोड़े देर के लिए ठहर गया..मुझे अब मिरांडा हाउस कालेज की शतरंज चैंपियन याद आ रही थी जिसने अपने दम पे अकेले यूरोप घूमा वो हरियाणा के एक गांव की लड़की थी उसने लिखा था कि मैं यहां यूरोप में कहीं भी कभी भी बेखौफ घूम सकती हूं।मुझे यहां कोई बंधन महसूस नहीं होता लड़के-लड़की के बीच का फर्क बहुत कम है.और हां मुझे यहां किसी तरह का डर नहीं लगता।
अब स्कूटी वाली लड़की पर वापस आते हैं उसने कहा कि उसे थोड़ा डर तो लग रहा था कि उसने बिना सोचे समझे ये प्लान कर लिया।
मैं बता नहीं सकता वो किन मनोवैज्ञानिक चुनौतियों से गुजर रही होगी।
लेकिन अब वो इस डर से आगे निकल चुकी थी..मैं समझ गया हूं कि अकेले में उसे इस पूरे सफर में क्या मिला है शायद ही उन सारे अनुभवों को वो शब्दों में बता पाए।
एक लड़की होने के नाते जब वो इन यात्राओं से होकर गुजरती है तो वो उन सारी लड़कियों में साहस भी जगाती है..लड़कियों की दिशा और दशा पर एक विमर्श खड़ा करती है।
शायद मैं उन लड़कियों तक अपनी बात पहुंचा पाऊं जो कभी घर से कहीं निकली ही नहीं।
खैर..
अकेले सफर करने वाले तो अपने साथ कुछ खास लेकर चलते हैं (वो खास क्या है मैं नहीं बताऊंगा)और जब लौटते हैं तो ढेर सारा आत्मविश्वास लेकर आते हैं।