Tuesday, 24 December 2024

अस्तित्व का खेल

अस्तित्व का खेल

स्कूल के दिनों का समय बच्चों के लिए ग़लतियाँ करते रहने और सीखने का समय होता है। ग़लतियाँ करना और उनसे सीखना ये प्रक्रिया अपने चरम पर होती है। कुछ ऐसी ही एक मामूली सी बात की वजह से एक बार कुछ लड़के जो मेरे से उम्र में और क़द काठी में बड़े थे, वो मेरे घर दोस्त की तरह मिलने आए और मुझे बाहर बुलाया, तब मेरी उम्र क़रीब 10-11 साल रही होगी। उन्होंने कहा कि कुछ बात करनी है और मुझे पास के एक ग्राउंड में ले गए और मुझे और मेरे परिवार को बुरा भला कहते हुए मारपीट किए। उनमें से एक लड़का बाहरी था उसी ने मारपीट की और दूसरे लड़के ने केवल खबरी का काम किया था। मैं उस उम्र में कई-कई दिनों तक तनाव में रहने लगा कि ऐसा भी मैंने क्या किया कि मुझे ऐसे मारा गया, ख़ुद को भी कोसने लग गया कि ऐसा क्या पाप कर दिया कि ऐसे मुझे ज़लील किया गया। भोलापन इतना हावी था, इतना आत्मविश्वास कमजोर हो गया, इतना आघात पहुँचा था। यह भी ख़याल आया कि अपनी इहलीला समाप्त कर दूँ। बालमन था, बहुत गुस्सा भी आ रहा था कि कब क़द काठी से थोड़ा बड़ा हो जाऊँ, इनको जरूर ठिकाने लगाऊँगा।

समय बीत गया, बात आई-गई हो गई। कुछ साल बाद उस खबरी लड़के की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई, लोहे का सरिया उसके शरीर के आर-पार चला गया था। उसकी मौत में जब स्कूल में मौन रखा गया तो मुझे बस बतौर खबरी के रूप में उसका चेहरा याद आ रहा था और मुझे बेहद तकलीफ़ हुई। जिस लड़के ने मारपीट की, उसका बाप कई साल बाद जब मुझसे मिला तो मेरे से उस बेटे के लिए नौकरी के जुगाड़ की बात करने लगा, उस दिन भी मुझे उसकी मारपीट याद आई। अस्तित्व ने शायद उसे जीवन की विद्रूपताएं भोगने के लिए बचा रखा हो। मुझे बहुत समय तक अस्तित्व का खेल समझ नहीं आता था। आगे फिर जीवन में ऐसी और घटनाएँ हुई, जिससे एक चीज़ समझ आई कि पता नहीं कैसे मुझे किसी भी प्रकार से नुक़सान पहुँचाने वालों से अस्तित्व ने उनका सब कुछ छीन लिया। इसलिए अब से हमेशा मैं बार-बार लोगों को नुक़सान पहुँचाने से रोकता हूँ, वो बात अलग है की इस सबसे मुझे ख़ुद बहुत नुक़सान उठाना पड़ जाता है, अस्तित्व ने इसके लिए भले कुछ ना दिया हो, एक मज़बूत रीढ़ तो दी ही है।

मुझे नहीं मालूम

देखता हूँ रोज़ अपने सामने मौत को, 

होते हैं रोज़ आँखों के सामने कत्लेआम, 

लेकिन कहाँ करनी है शिकायत, 

मुझे नहीं मालूम।


सबूत है मेरी आँखें, सबूत है मेरा ये पूरा शरीर, 

जिसने उस कत्लेआम को महसूस किया।

लेकिन कहाँ करना है मुक़दमा, 

मुझे नहीं मालूम।


लोग तड़प-तड़प कर मरते रहते हैं,

और खोजते हैं रास्ते जल्दी से मर जाने के,

आख़िर कहाँ होगी इसकी पैरवी, 

मुझे नहीं मालूम।


शरीर बाद में शून्य होता है, 

पहले मरता है आपका स्वाभिमान,

कहाँ होगी इसकी शिकायत, कौन लेगा अर्जियाँ, 

मुझे नहीं मालूम।


शरीर गल जाने से कहीं पहले, 

मार दी जाती है आपकी सारी कोमल भावनायें,

कौन रखेगा इसका हिसाब, 

मुझे नहीं मालूम।


सबके भीतर होती है अमर हो जाने की लालसा, 

लेकिन उसे एक दूसरा इंसान देता है तनाव और करता है परेशान,

यहाँ तो भीतर से मर चुके इंसान की भी,

किश्तों में मारी जाती हैं कोशिकाएं, 

कहाँ होगा इसका हिसाब, कहाँ करूँ फ़रियाद,

मुझे नहीं मालूम।


साँसों की गति रुक जाने से कहीं पहले, 

साँस चलाने वाले तत्वों पर लगा दिया जाता है लगाम,

दिखाया जाता है आपको नीचा, 

छीन लिया जाता है आत्मविश्वास,

किया जाता है आपका अपमान,

कौन करेगा इसकी सुनवाई,

मुझे नहीं मालूम। 


एक इंसान को झटके से मारने के लिए हैं कुछ सीमित उपाय, 

लटका दो, जला दो या काट दो इस शरीर को,

लेकिन इसी इंसान को किश्तों में मारने के लिए, 

लोग जीवन भर ईजाद करते हैं हिंसा के अनगिनत तरीक़े,

कौन देखेगा यह सब गहराई में जाकर, 

और कैसे तय होगी मृत्यु की परिभाषा,

मुझे नहीं मालूम।


बुद्ध ने निराश होकर दुःख तकलीफ़ को मृत्यु से भी बताया बड़ा,

और ख़ुद ही उससे निपटने के लिए बताए उपाय,

ना कोई दण्ड विधान काम आया, 

न कोई न्याय संहिता सामने आई, 

किश्तों में मिलते दुःखों की पैरवी कहीं कभी होगी भी या नहीं,

उसे भी नहीं मालूम, मुझे भी नहीं मालूम।

Tuesday, 3 December 2024

भ्रष्टाचार - एक तपस्या

भ्रष्टाचार को या एक भ्रष्टाचार करने वाले को हमेशा हिकारत की नजर से देखा जाता है लेकिन वास्तव में देखा जाए तो ये बहुत मेहनत का काम है। अच्छे बड़े स्तर का भ्रष्टाचार करने के लिए कड़ी तपस्या लगती है, बहादुरी लगती है, बड़ा जिगर चाहिए होता है, दिन रात खपना पड़ता है, एक व्यवस्था बनानी पड़ती है, अपना एक इकोसिस्टम बनाना होता है, उसे अनवरत सींचना होता है, इसलिए बहुत कम ही लोग ये काम कर पाते हैं, ये बिल्कुल भी हंसी मजाक की बात नहीं है, बहुत गंभीर होकर ये बात कही जा रही है।

एक सफल भ्रष्टाचारी बेहद स्किल्ड और मेहनती होता है, खूब जोखिम उठाता है, सबसे संपर्क साधकर चलता है, खूब सारे दुनियावी रिश्ते सम्भालता है, लोगों की आर्थिक मदद करने के साथ उनका रुका हुआ काम जल्दी कराने में भी महती भूमिका निभाता है। व्यवस्था की सारी चीज़ों की गहराइयाँ उसे मालूम होती है, उसे जानकारी रखनी पड़ती है क्यूंकि बिना उसके न तो उसका काम बजेगा न ही अपनी सुरक्षा हो पायेगी। हममें से लगभग हर किसी को कभी ना कभी जीवन में कहीं एक सुलझे हुए भ्रष्टाचारी की आवश्यकता पड़ती ही है। क्यूंकि वो हमारी जीवन रूपी दुश्वारियां कम करने में सहयोग करता है।

एक सफल भ्रष्टाचारी चाहे वह किसी भी ओहदे में क्यों ना हो, उसका दायरा बड़ा हो ही जाता है। व्यवस्था का सुचारू रूप से संचालन होता रहे, उसके लिए ऐसे तमाम तपस्वी भ्रष्टाचारियों का होना बेहद जरूरी है।

लोकतंत्र क्या है ?

A - सरकार को कम से कम बच्चों को बख्श देना चाहिए।

B - बच्चों के साथ ऐसा क्या हुआ ?

A - केंद्रीय शासकीय स्कूलों को अपने इवेंट का हिस्सा बना रही।

B - जैसे ?

A - कोई भी शासकीय आयोजन होता है, शासकीय कर्मचारी तो भोगते हैं, स्कूलों को भी उक्त विषय में कार्यक्रम करने कहा जाता है और बच्चों पर खूब दबाव बनाया जाता है।

B - क्या ऐसा पहले नहीं होता था ?

A - मुझे नहीं पता लेकिन बच्चों को इतना परेशान पहले कभी नहीं देखा।

B - एक बात बताओ, क्या पहले आम लोगों को इतना परेशान कभी देखा है?

A - सरकारी प्राइवेट व्यापारी हर कोई परेशान हैं, मुद्रा से संचालित युग है तो हस्तक्षेप बढ़ना है, यह समझता हूँ, लेकिन बच्चों को इससे कम से कम दूर रखना चाहिए ?

B - कैसे दूर रखेंगे, लगेगी आग तो आँच सब तक पहुंचेगी।

A - ये भी ठीक है।

B - यही लोकतंत्र है।

जीवन के प्रति पागलपन

हर किसी के जीवन में एक दो कोई चीज़ ऐसी होती है, जो वह बड़ी शिद्दत से करना पसंद करता है, यूँ कहें कि जिसे वह जान निकलते तक कर सकता है, उस एक चीज़ के लिए किसी भी हद तक जा सकता है, उसका वह एक शौक़ जीने के लिए साँस की तरह ज़रूरी हो जाता है। लेकिन ये वाली साँसें तपकर हासिल करनी पड़ती है, इसलिए इसमें भी एक अपवाद यह कि ज़रूरी नहीं कि जीवन को हर कोई इतनी शिद्दत से जिए।

अभी कुछ दिन पहले कॉलेज का जूनियर अभिनव, जो दोस्त अधिक है वो मैराथन दौड़ने राजधानी आया। इसी बीच हमें साथ में कुछ समय बिताने का मौका मिल गया। अभिनव जो हाल फ़िलहाल में सरकारी अफ़सर बना है, उसने जीवन में ये पहली बार 42 किलोमीटर मैराथन 4 घंटे से कम समय में ही पूरा कर लिया, वह भी बिना सोए रात के 3 बजे गाड़ी चलाकर पहुँचा और बिना किसी ख़ास ट्रेनिंग के यह कर दिखाया।

मैराथन पूरा करने के बाद उसने अपने अनुभव बताए और एक बात कही जो अभी तक मेरे कानों में गूंज रही है। उसने कहा - “ मैंने शारीरिक रूप से अपने आप को पूरी तरह तोड़ लिया, इससे अधिक मैंने कभी अपने आपको इतना इस स्तर तक नहीं थकाया, इससे ज़्यादा मैं कर भी नहीं सकता था। मेरे शरीर में थकान तो है, लेकिन मैं मानसिक रुप से एक ग़ज़ब की अनुभूति अपने भीतर महसूस कर रहा हूँ, मेरा आत्मविश्वास बढ़ा है, ऐसा लगा जैसे मेरे भीतर अभी तक जीवन को लेकर जितना अपराधबोध भरा हुआ था, वह आज ख़त्म हुआ है।”

लोग नौकरी लगने के बाद पार्टी करते हैं, अलग-अलग तरीक़े से ख़ुशी मनाते हैं। लेकिन कुछ विरले ही सिरफिरे लोग होते हैं, जो अपने जुनून को हर पल पागलपन की हद तक जीते हैं, जीवन के प्रति ऐसी सनक जिसके सामने देस काल परिस्थिति कभी बाधा नहीं बनती है। बात सिर्फ़ 42 किलोमीटर दौड़ लगाने की नहीं है, वह तो महज़ एक माध्यम है। बात है उस बहाने ख़ुद के भीतर तक गहरे झाँक लेने की, ख़ुद को उस हद तक तपा ले जाने की जितना कभी किसी और माध्यम में संभव नहीं हो सकता है, बात है पूरे मन शरीर को उस अवस्था में ले जाने की, जहाँ भीतर सब कुछ शांत हो जाता है, आँखें बंद हो जाती है, इंसान अपने अस्तित्व के सबसे क़रीब होता है।

अभिनव ने जो मन हल्का हो जाने की अनुभूति को लेकर बात कही उससे मुझे अपना अकेले मोटरसाइकिल से ठंड में सीमित साधन में भारत घूमना याद आ गया। साथ ही वो दिन भी याद आया जब दिल्ली से रायपुर 1100 किलोमीटर का सफ़र 22 घंटे में ही 150 cc की मोटरसाइकिल में दिसम्बर की कड़कड़ाती ठंड में पूरा किया था। इतनी यातना सही, ख़ुद को इतना तपाया, जितना किसी और माध्यम से नहीं तपा सकता था। इन सबसे ख़ुद की चीज़ों को लेकर मेरी अपनी आस्था दृढ़ हुई।

मैराथन के बाद से हम दोनों थके हुए थे। मैंने कहा कि भाई मुझसे अब एक किलोमीटर भी चला नहीं जाएगा, लेकिन अभी अगर मुझे कोई सुबह से शाम बाइक चलाने को कहे तो वो मैं ख़ुशी-ख़ुशी सब दर्द भूल के कर जाऊँगा। अभिनव ने कहा कि वह भी इस थकान में दौड़ लगा सकता है, आपका माध्यम बाइक है, मेरा माध्यम ये जूते हैं। ठीक इसी तरह शायद किसी का कुछ और भी हो सकता है, कोई पागलपन की हद तक किताबें पढ़ता है, कोई कुछ और करता है। लेकिन एक बहुत बड़ी आबादी ऐसी होती है, जिसके पास जीवन के प्रति अपने भीतर के पागलपन को परिभाषित करने के लिए कोई माध्यम नहीं होता है, कोई रास्ता नहीं होता है। वैसे जिनके पास जीने के लिए अपने हिस्से का पागलपन होता है, उन्हें किसी और के बुने रास्ते पर चलने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

संवेदनशील प्रजाति के मनुष्यों का जीवन और उनकी समस्याएँ-

जो बहुत अधिक संवेदनशील लोग होते हैं, उन पर हमेशा नैतिक मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक दबाव तुरंत असर करता है। उनकी संवेदनशीलता पर ये तीनों दबाव बड़ी आसानी से हावी हो जाते हैं। ऐसे लोगों को अमूमन इनकी उम्र से बड़ा व्यक्ति चाहे वह रिश्ते में इनका कुछ भी लगता हो, वह इन्हें अपना बाप बना लेता है और ख़ुद बेटा बन जाता है, अमुक व्यक्ति पर बाप जैसा मनोवैज्ञानिक दबाव तत्काल बन जाता है।

भारतीय समाज में यह एक ऐसी समस्या है जिसे अगर समय रहते आपने नहीं समझा तो आप शोषित होते रहेंगे और इस चक्कर में अपनी संवेदनशीलता गिरवीं रख जाएँगे।

बहुत अधिक संवेदनशील बच्चों को इस शोषण से बचाने के लिए माता-पिता को चाहिए कि इससे पहले कोई दूसरा आपके बच्चे को बाप के संबोधन का इस्तेमाल कर उसे दिग्भ्रमित करे, उसके कंधों पर बोझ लादे, इससे बेहतर माता-पिता स्वयं अपने बच्चे को माता/पिता बना लें ताकि उसकी नैतिक मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक सुरक्षा हो सके।

अपने आसपास ही परिवार में भी आप देखेंगे तो पाएंगे कि हमेशा एक व्यक्ति ऐसा होता है, जिस पर हर कोई हक से दुनिया जहाँ की जिम्मेदारियों को लाद देता है। किसी का स्कूल कॉलेज आदि में एडमिशन कराना हो, किसी को अस्पताल में भर्ती कराना हो, पैसे उधार देना हो, पारिवारिक कलह का निबटारा करना हो, मौसा फूफा मामा या ऐसे तमाम तरह के दूर के रिश्तेदारों के हर तरह के काम की जिम्मेदारी लेना हो या अन्य इस तरह के ढेरों काम हों, सामाजिक दायित्व हों। यह सब कुछ अमूमन एक किसी महा संवेदनशील टाइप के सिरफिरे व्यक्ति के ऊपर थोप दिया जाता है। अधिकांशतः आप पाएंगे कि ऐसे लोगों में पाचन और नींद की समस्या आजीवन बनी रहती है और यह स्वाभाविक भी है क्यूंकि जब आप एक सीमा और अपनी क्षमता से अधिक जिम्मेवारियों का वहन करते हैं, एक समय के बाद आपके साथ यह समस्या होती ही है।

ईश्वरीय अवधारणा के आधार पर देखें तो इस तरह के लोग ईश्वर को अपनी जेब में लेकर घूमते हैं, क्यूंकि पूरी दुनिया इनका इस्तेमाल कर रही होती है, फिर भी ये किसी को कभी महसूस नहीं करा पाते हैं कि उनके साथ ग़लत हुआ। ये भोगता भाव से ईश्वर की लीला मानते हुए सब कुछ सह जाते हैं।

वहीं तार्किकता के धरातल पर देखें तो वे लोग जो अपने ही व्यक्तित्व की सुरक्षा नहीं करते हैं, घेराबंदी नहीं करते हैं, दुनिया ऐसे लोगों का अपने हित साधने के लिए जमकर इस्तेमाल करती है और महानता का चोगा पहनाकर इन्हें हमेशा नज़रबंद करके रखती है ताकि शोषण की प्रक्रिया अनवरत जारी रहे।

इति।

टाटा कंपनी और हमारी फैंटेसी

टाटा कंपनी की जब भी बात आती है, सबके मन के भीतर से एक सम्मान का भाव उद्वेलित हो जाता है। या यूँ कहें की एक भरोसा कायम हो चुका है, मान्यता स्थापित हो चुकी है यह भाव विस्फोटित होता है। इस एक भरोसे को अमलीजामा पहनाने के लिए, इस मान्यता को इस छवि को स्थापित करने के लिए कंपनी ने खूब निवेश किया है। साथ ही सरकार से हमेशा समय पर फंडिंग और रियायत मिली है जिसने टाटा को एक श्रीमान भरोसेमंद कंपनी की तरह लोगों के बीच स्थापित कर दिया। जब भी इस कंपनी का नाम ज़हन में आता है, आम लोग इसे एक प्राइवेट कंपनी के रूप में नहीं देखते है बल्कि लगातार मिल रहे शासकीय समर्थन से टाटा ने विगत दशकों से ख़ुद को जिस एक लोककल्याणकारी सहकारी संस्था वाली छवि से अंगीकृत किया, वही लोगों को पहले दिखता है। भले वह अपने मूल में एक प्राइवेट कंपनी है लेकिन भावना के स्तर पर वह सहकारिता का तिलिस्म लिए दिखाई पड़ता है। टाटा ने इस तिलिस्म को बनाए रखने के लिए निःसंदेह खूब मेहनत की है।

बतौर कंपनी टाटा के काम का विश्लेषण किया जाए तो पहली नज़र में ही यह दिखाई पड़ता है कि यह एक तरह से सरकार और लोगों के बीच एक सेफ्टी वाल्व का काम करता है। तभी कंपनी बहुत घाटे में भी रही तब भी उसे बड़े-बड़े प्रोजेक्ट मिलते रहे। एक ओर कोई प्राइवेट कंपनी होती है जो खूब मेहनत कर आगे बढ़ती है, लगातार नवाचार करते हुए अपने लिए संसाधन जुटाती है, लेकिन टाटा की कार्यशैली बहुत अलग रही, यहाँ आपको वैसी मेहनत वैसा नवाचार कम ही दिखता है जिस पर विस्तार से आगे इस लेख पर बात करते हैं।

1.सबसे पहले टाटा की अपनी आई टी फर्म टीसीएस की बात करते हैं, इंजीनियरिंग बैकग्राउंड का होने के नाते अभी तक जितने भी दोस्तों को देखा है, उनमें से शायद ही कोई होगा जिनकी प्राथमिकता में ये कंपनी रही है, क्यूंकि इनका वर्क कल्चर बाकी कंपनियों की तुलना में बहुत अच्छा नहीं है, तनख़्वाह भी तुलनात्मक रूप से कम ही देते हैं।

2.टाटा की बहुचर्चित कार नैनो के बारे में हम सब जानते हैं। कार के नाम पर अगर “क्या बवासीर बना कर दिया है” हम कह दें तो यह बिल्कुल भी ग़लत नहीं होगा, आज की तारीख़ में शायद ही कोई होगा जो नैनो जैसी कार में बैठना चाहेगा। इस कार का प्रोजेक्ट ही बुरी तरह से फेल रहा लेकिन चूँकि सरकारी समर्थन प्राप्त है, पीआर मजबूत है, इसलिए घाटे के बावजूद छवि जस की तस बनी रही। यह कार तो रोड में देखने तक को नहीं मिलती है।

3.टाटा की ट्रक और बाकी कार के बारे में संयुक्त रूप से बात कर लेते हैं। सबसे पहली बात यह की इनकी गाड़ियों में कम्फर्ट नाम की चीज़ होती ही नहीं है, दूसरा आवाज़ बहुत करता है, कूड़ा है तो शोर करेगा ही। इसके अलावा इनकी बाक़ी कार में भी हैंडलिंग बहुत ही ज़्यादा ख़राब है, लोग मूर्खता की हद पार कर मजबूती के नाम पर ख़रीदते रहते हैं। इसमें एक सबसे मजेदार बात यह की ख़राब हैंडलिंग के कारण इसके एक्सिडेंट के मामले सर्वाधिक हैं। टाटा की गाड़ियों की आफ्टर सर्विस का हाल सबको मालूम है। सेल्स डिपार्टमेंट की झूठी रिपोर्ट्स भी अब तो सामने ही है।

4.अब अस्पताल पर आते हैं। टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल सरकारी जमीनों पर बने होते है। अस्पताल को ग्रांट भारत सरकार के Department of Atomic Energy द्वारा मिलती है। इसके बाद भी यहां इलाज का खर्च किसी दूसरे प्राइवेट हॉस्पिटल से कम नहीं है। ऐसा क्यों है कि एम्स पीजीआई जैसे हॉस्पिटल की जगह प्राइवेट हॉस्पिटल्स सरकारी जमीन और अनुदान पर खोले जाए।

5.हम सबके घरों में रसोई में सबसे जरूरी चीज़ होती है - नमक।वहाँ भी टाटा का एकाधिकार है। ऐसा क्यों किया गया कि नमक जैसी मूलभूत जरूरत जैसी चीज को एक कंपनी का एकाधिकार बना दिया गया और जो चीज लगभग फ्री में उपलब्ध होनी चाहिए थी उसके दाम निरंतर बढ़ते रहे। इसके साथ ही किसी और को बढ़ने भी नहीं दिया गया।

6.अडानी अंबानी सरकार से मिलीभगत करके अपने बिजनेस में कमाई करते है, कानूनों को अपने हिसाब से उलटते पलटते है तो सबको बुरा लगता है लेकिन यही काम टाटा कंपनी ने किया तो क्यों नहीं यहां पर कोई कार्यवाही हुई या क्यों नहीं किसी को खटका।

7.कोई व्यक्ति छोटा भी बिजनेस शुरू करना चाहता हो उसे लोन आदि के लिए इतने पापड़ बेलने पड़ जाते है कि वह अपना आइडिया ड्रॉप करना बेहतर समझता है लेकिन दूसरी और यही सब लाखों करोड़ों के फंड जमीनें तरह तरह के रास्ते निकाल कर इन सब को उपलब्ध कराए जाते है। इस बिनाह पर न कि देश में छोटे बिजनेस का कल्चर पनप ही न पाए।

8.फिर भी मेरी समझ से बाहर है कि टाटा कंपनी को पब्लिक में इतनी मान्यता किस बात की वजह से है। जबकि अधिकतर लोग टाटा का कोई सामान जल्दी से खरीदते भी नहीं है। और मान्यता भी ऐसी की जैसे टाटा प्राइवेट कंपनी न हो कर सरकारी कंपनी हो। पारसी लोगो का पहनावा सादगी भरा होता है। लेकिन क्या केवल कोई ढीली शर्ट पेंट पहनता हो केवल इसलिए देश का भला करने वाला हो जाता है?

9.यह बात मान लेते है कि उद्योग वाला विकास हमें पसंद है तो बाकी उद्योग कि जैसे घड़ी बनाना, सरिया, स्टील बनाना तो यह सब काम तो और बहुत लोग भी बहुत बढ़िया से करते आ रहे। वैसे ही जैसे टाटा मोटर्स के सामने और कई कंपनियां है जो टाटा से बहुत बेहतर कार आदि बनाती है और लोगों को भी ज्यादा पसंद है। फिर भी देश का भगवान टाटा ही है, आखिर हमें भगवान पालने का इतना शौक क्यों ?

फिर भी कोई बताना चाहे तो बता सकता है कि उसके मन में टाटा को लेकर क्या मान्यता है और उस मान्यता का क्या कारण है। मान्यता का कोई कारण न भी हो तब भी चलेगा।

समय ही भगवान है

135 दिन लगातार भारत घूमने को जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि वह सिर्फ घूमना मात्र नहीं था, बल्कि जिंदगी से मैंने वो 135 दिन अपने लिए चुराए थे, छीन के लिए थे उतने दिन खुद के साथ बिताने के लिए, अपने मन की चीजें करने के लिए, अपनी स्वतंत्रता को जीने के लिए। यह भी समझ आया कि समय का क्या महत्व होता है। उस दौरान बहुत से लोग मिले जो महीनों से घूम रहे थे लेकिन साथ में कुछ काम भी करते रहते थे, लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं था, मैं नौकरी छोड़ के सिर्फ और सिर्फ घूम रहा था, उस एक काम के अलावा मैं कोई भी दूसरा काम नहीं कर रहा था। मुझे अपने जैसा स्वतंत्र तरीके से घूमने वाला एक भी इंसान नहीं मिला, हर कोई कुछ न कुछ अपने साथ लादकर ही घूम रहा था।

एक चीज यह भी समझ आई कि अच्छे से अच्छे दिमागदार और दौलतमंद इंसान के पास भी दुनियावी सुविधाओं और वस्तुओं के नाम पर सब कुछ है लेकिन जीने लायक पर्याप्त समय नहीं है।

उस लंबे सफर ने यही सिखाया कि समय ही भगवान है‌।

गुटखा और लोकतंत्र

लोकतंत्र को चलायमान रखने के लिए बहुत से कामकाजी तत्व होते हैं उनमें गुटखा महत्वपूर्ण अवयवों में से एक है। जिस तरह नदी में पानी के बहाव को रोकने के लिए बांध की आवश्यकता होती है, उसी तरह गुटखा लोकतांत्रिक प्रक्रिया में एक चेक डेम की भांति कार्य करता है। एक ओर जहां पनबिजली का काम हो जाता है, यहां फाइलें निराकृत होती हैं। गुटखा का इस्तेमाल अधिकतर वही व्यक्ति करता है जिसे खामोश रहना होता है, जो यह समझ जाता है कि जुबान खोलने के अपने जोखिम अधिक हैं, वह व्यक्ति गुटखे को अपने व्यक्तित्व में शामिल कर लेता है।

इसके ठीक उलट एक बिरादरी ऐसी भी होती है जो गुटखे से दूर रहती है या यूं कह सकते हैं कि उन्हें इसकी जरुरत नहीं पड़ती है, यह जरुर है कि उनकी वजह से नीचे पायदान का व्यक्ति गुटखा खाता है। अमूमन होता यह है कि तनाव देने वाले को हमेशा जुबान नामक छुरी चलानी होती है, इसलिए वे गुटखा चबा ही नहीं सकते। गुटखा वही चबाता है जिन्हें निरंतर मिल रहे तनाव को सुपारी की तरह चबा कर पचाना होता है।

What is more dangerous then antigen ?

एक बार मेडिकल छात्रों की कोचिंग में एक अध्यापक antigen antibody की कार्यशैली के बारे में पढ़ा रहे थे। उन्होंने antigen को समझाने के लिए तुलना करते हुए कहा कि परित्यक्त, विधवा और एकल महिलाएं antigen से अधिक खतरनाक हो जाती हैं। इस पर कोचिंग में बैठी बहुत सी लड़कियों ने घोर आपत्ति जताई। उन्होंने जवाब में कहा कि आप इसे अन्यथा न लें, वस्तुस्थिति समझने का प्रयास करें। फिर वे कहने लगे कि उनकी इस परिस्थिति के पीछे अन्यान्य कारण निहित हो सकते हैं लेकिन अमूमन इस तरह की अधिकांश महिलाएं चिढ़चिढ़ेपन और अवसाद की भेंट चढ़ जाती हैं और अपने आसपास के लोगों को इसका शिकार बनाती हैं, प्रेमपूर्वक व्यवहार नहीं कर पाती हैं, जीवन के प्रति सहज नहीं होती हैं। इस पर छात्राएं फिर से विरोध करने लगीं। उन्होंने छात्राओं को समझाते हुए कहा कि भले आप इस यथार्थ को मत स्वीकारिए लेकिन हकीकत यही है।