Saturday, 21 October 2023

Honey Singh Comeback

90's के युवाओं का चहेता, सीडी के जमाने में वायरल होने वाला एक ऐसा सिंगर जिसे लोगों ने हमेशा दिल से स्वीकारा, उसका जादू आज भी उतना ही बरकरार है। ऐसा तभी संभव हो पाता है, जब आप वास्तव में कला को जीते हैं, संगीत आपके खून में बहता है। 9 साल के बाद संगीत के क्षेत्र में अपनी वापसी कर हनी सिंह ने हम सभी को जीवन की एक बड़ी सीख दे दी है और वो यह है कि परिस्थिति कितनी भी खराब क्यों न हो, अगर आप अपने प्रति ईमानदार हैं, खुद पर भरोसा रखते हैं, ऐसे में हर खराब परिस्थिति से लड़कर बाहर आ सकते हैं, कभी भी खुद को मजबूती से खड़ा कर सकते हैं। समय कैसा भी हो, लाख अड़चने बीच में क्यों न आए, आप अपनी प्रासंगिकता बनाए रख सकते हैं। 

एक समय था जब उनका गजब का क्रेज हुआ करता था, कोई उनके पासंग नहीं था। लेकिन पिछले 9 साल से वे गुमनामी का जीवन जीते रहे। इस अवधि में उन्हें ड्रग्स, शराब आदि की लत ने बुरी तरह से घेर लिया। सबने एक तरह से यही मान लिया था कि हनी सिंह नाम का उभरता सितारा अब डूब गया। लेकिन इन सब से लड़ते हुए आज 40 की उम्र में फिर से उनका संगीत की दुनिया में वापसी करना एक जादुई अहसास से भर देता है। संगीत की दुनिया में विरले ही ऐसी घटनाएं होती हैं। असल में हनी सिंह ने सबसे बड़ी लड़ाई खुद से लड़ी है और आज उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि उन्होंने जिंदगी से दो-दो हाथ किया और जब लगा कि अब वे फिर से उड़ान भरने को तैयार हैं तो पूरी विनम्रता के साथ जिंदगी को धन्यवाद देते हुए खुद को खड़ा किया। उनके हाव-भाव में भड़कीले कपड़े धारण करने के बावजूद एक किसी सूफी संत जैसी सौम्यता दिखती है, हनी सिंह पहले भी तुलनात्मक से कभी वैसे लाउड नहीं रहे, लेकिन अभी उनके व्यक्तित्व में क्या गजब का ठहराव है। 

जीवन के उतार-चढ़ाव के बीच अगर वापसी हो तो हनी सिंह जैसी होनी चाहिए। विपरित परिस्थितियों में भी खुद पर विजय पाने वाला एक ऐसा व्यक्ति जिसे हर कोई खुले मन से बांहे फैलाकर स्वीकार रहा है। हनी सिंह ने आते ही गाना भी ऐसा बनाया कि 6 दिन से लगातार नंबर 1 में ट्रेंड कर रहा है, यूट्यूब के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ है। क्या ही बीट्स हैं, क्या ही अहसास है, गजब का timlessness है। मतलब एक ही गाने से अपने समय के म्यूजिक/गाने बनाने वाले सभी लोगों को मानो क्लीन स्वीप दे दिया है। कला का ऐसा नमूना बड़े जतन से आता है, ऐसी चीजों को आप सुनकर बहुत जल्दी बोर नहीं होते हैं, इस इंसान के काम में हमेशा से एक अलग ही किस्म‌ का जादू रहा है, चाहे तो इसके 9-10 साल पुराने गाने ही सुन लिए जाएं, बंदा अपने काम से समां बांध लेता है। 

सफल होना एक प्रक्रिया है, और यह प्रक्रिया जीवन भर चलती रहती है। चमक-धमक वाले फेम की बात अलग है, उसकी उम्र बहुत लंबी नहीं होती है। हनी सिंह अब जाकर सही मायनों में एक सफल सिंगर बना है। दो अलग-अलग दशक के युवाओं के बीच अपना क्रेज बनाना मामूली काम नहीं है, ऐसा कर गुजरने वाला यह अपने समय का एकलौता सिंगर है, जिसने अभी के समय के संगीत परोसने वाले सभी लोगों के सामने एक नजीर पेश कर दी है कि गाने कैसे बनाए जाते हैं।

जियो देशी कलाकार। 🙌



Friday, 20 October 2023

And I visited Shredded...

The only restaurant in Raipur that i can suggest to my dear ones.

The best thing about this restaurant is undoubtedly the food. Nowadays, it is becoming very difficult to find healthy and nutritious food in a restaurant. People who have just killed their taste buds by having ample amount of unhealthy food may find it very difficult to accept such restaurant concept.

One more thing i liked about this place is the people behind the idea, I personally found them very likeminded, genuienly humble and generous. Just like any healthy food, it is rare nowadays to find such people who made your day just by having a small conversation. one can sense the good vibe or you can say the feel good factor after entering the restaurant. 

For me, sometimes its not just about the food or ambience, its more about the idea, its about the people behind it who wholeheartedly put their heart and blood in it with their purest intent, I have my own experience that people like these always get less recognition as compare to those who are cunning in nature, lacks humility and trick around people all the time, such people always carry profit/loss calculation in their head before uttering a word.

About the house of nutrition, I read the menu for more then ten minutes and i was completely blown by the varieties they had. Its not just a restaurant, its a piece of Art. In a nutshell, it's truly a one of a kind place in Raipur.

Places like these should be encouraged, what more can i say.



Wednesday, 18 October 2023

दाल, थप्पड़ और गणित का विषय -

इंजीनियरिंग कॉलेज के दिनों की बात है। तब मैं फर्स्ट ईयर में था और हॉस्टल में रहता था। एक दिन हॉस्टल के मेस में जहां टेबल में ही सबके लिए दाल की बाल्टियां रख दी जाती थी, वहां से मैंने उस बाल्टी से दाल निकाला, अब चूंकि वह टेबल सनमाइका का था और नीचे हल्का सा पानी था तो दाल की पूरी बाल्टी जिसमें लगभग 10 लीटर तक दाल आ सकती थी, वह आधा भरा हुआ था और जैसे ही मैं दाल निकालने के लिए चम्मच डालने लगा, दाल की पूरी बाल्टी गिर गई और फिर इसके बाद मेरे दोस्त यार हंसने लग गए, मेस का प्रबंधक जो साउथ इंडियन था वह यह सब देख रहा था, उसे यह लगा कि मैंने जानबूझकर दाल की बाल्टी गिराई। और उसने इस बात की कम्पलेन हाॅस्टल के सीनियर्स से कर दी। 

बताता चलूं कि जिस हाॅस्टल में मैं रहता था, या जिस काॅलेज में मैं पढ़ता था, उसे मिनी केरला कहा जाता था, उसका कारण यह था कि 50% मैनेजमेंट कोटा साउथ इंडियन मलयाली छात्रों के लिए आरक्षित रहता था, इस कारण से जो अधिकतर छात्र आते थे वह हॉस्टल में ही रहते थे और हॉस्टल का पूरा स्टाफ भी अधिकतर मलयाली ही था, और हमारे मेस का मेनू भी ऐसा था कि हमको लगता था कि हम केरल में ही रहते हैं। छत्तीसगढ़ के 20-30% छात्र ही हाॅस्टल में रहते थे। इन सब कारणों से न चाहते हुए भी एक तरह से छत्तीसगढ़ बनाम केरला का एक गुट बन जाता था, जो कई सालों से प्रासंगिक था। लेकिन जिसका बहुमत उसका दबदबा वाली चीज थी ही जो मैंने खुद भी कई बार महसूस किया।

उस मेस के प्रबंधक ने जिसने मुझे दाल गिराते देखा, उसने मेरी कम्पलेन साउथ इंडियन सीनियर्स से कर दी। उन्होंने मुझे बुलाया, चार-पांच लोग थे सारे के सारे मलयाली और मैं उनके सामने खड़ा था। तब तो मैं 18 साल का नौजवान था, दाढ़ी तक नहीं उगी थी, और मेरे सामने वे चार पांच साउथ इंडियन जो बकरा दाढ़ी रखे हुए थे, जिस कारण से वे काफी उम्रदराज और गुंडे की माफिक लगते थे। बताता चलूं कि मुझे हॉस्टल में आए बमुश्किल दो सप्ताह ही हुआ था, सीनियर्स के साथ क्या अलग तरह से व्यवहार करना है, कैसे फंडे हैं, कायदे कानून हैं, इसके बारे में भी बहुत जानकारी नहीं थी बस इतना पता था कि जब सीनियर्स दिखें उन्हें गुड मॉर्निंग गुड इवनिंग विश करना है। तो जब मैं उनके सामने गया, मैं सीधे खड़ा था, एक सीनियर से सीधे मेरे गाल में एक थप्पड़ रसीद कर दिया और मेरी गर्दन को पकड़ कर जोर देकर झुका दिया और कहने लगा कि मुझे सीनियर्स के सामने खड़े होने की तमीज नहीं है। तब तक मुझे थर्ड बटन रूल पता ही नहीं था, मैंने कहा कि मुझे नहीं पता सर, मैं नया आया हूं‌। इसके बाद जवाब देने की वजह से उन्होंने फिर मुझे चिल्लाकर डांटा कि मैं जवाब क्यों दे रहा हूं, एक ने कहा कि क्या मैं कहीं का नवाब हूं, उसने कहा कि सीनियर्स के सामने जवाब नहीं दिया जाता, चुप रहा जाता है। यह सब होने के बाद उन्होंने मुझ पर आरोप लगाया कि मैंने जानबूझकर दाल की बाल्टी गिराई, जिस पर मैंने कहा कि मैं खेती किसानी वाले परिवार से हूं, भोजन का सम्मान करता हूं, मैंने जानबूझकर दाल की बाल्टी नहीं गिराई, सनमाइका में पानी गिरा था, इस वजह से मुझसे स्लिप हो गया, जिसका मुझे खेद है। इसके बाद उन्होंने मुझे धमकाते हुए जाने कह दिया और सीनियर्स के सामने हमेशा झुक कर रहने और जवाब न देने की हिदायत दी, साथ ही यह भी कहा कि यह एक थप्पड़ तो कुछ भी नहीं है इसलिए इसे मैं इसे सजा के तौर पर ना लूं, यह सिर्फ एक सीख है। 

इसके बाद मैं अपने कमरे में आ गया, अपने गुस्से को पता नहीं क्यों उस दिन संभाल नहीं पा रहा था, कमरे मैं और भी दोस्त रहते थे जिन्होंने दाल की बाल्टी गिरने के बाद हंसने का अभूतपूर्व योगदान दिया था, वह मुझे सांत्वना दे रहे थे लेकिन उनकी सांत्वना काम नहीं कर रही थी। मैं इस बात को पचा नहीं पा रहा था कि बिना किसी गलती के मुझे क्यों थप्पड़ मारा गया। फिर एक साउथ इंडियन सीनियर मेरे कमरे में आया और मुझे समझाते हुए कहा की यह सामान्य सी बात है, और इस बात को मैं अपने मन में ना रखूं, यह सीनियर उस थप्पड़ मारने वाले सीनियर से अलग था। मैंने उस सीनियर की ओर देखा भी नहीं और पीठ करते हुए ही चुपचाप हां कहकर अपनी मौन असहमति जता दी। मेरा गुस्सा अभी तक बरकरार था जो शांत होने का नाम ही नहीं ले रहा था, मुझे किसी को फेस करने का मन नहीं कर रहा था, फिर मैं बाथरूम चला गया और खुद को बंद कर लिया, लोहे को उस दरवाजे को इतनी जोर से बंद किया कि शायद आधे हॉस्टल ने सुना होगा, फिर गुस्से की वजह से मेरे आंसू आ गए और इसके बाद बाथरूम में लगे टाइल्स को मैं इतना जोर से पंच मारा कि वह टूट कर नीचे बिखर गया।

फिर यह घटना मेरे स्मृति से हट गई और हम सब अपने काॅलेज में व्यस्त होने लगे। 4 साल पूरा हो चुका था और मैं काॅलेज से पास आउट हो चुका था। लेकिन जिस सीनियर ने मुझे बिना मेरी किसी गलती के थप्पड़ मारा था, उसका एक पेपर मैथ्स ( M-3 ) रूक गया, वह पढ़ाई में बहुत अच्छा था, उसके सारे पेपर क्लियर हो जाते लेकिन वही एक पेपर रूक जाने की वजह से वह एक साल पीछे हो गया। अब वह फाइनल ईयर में हमारे साथ पेपर दे रहा था। वह सीनियर बहुत ही ज्यादा टैलेंटेड आदमी था, एक तो कोई कार या ट्रक का प्रोटोटाइप उसने अपने इंजीनियरिंग के पांचवें सेमेस्टर में ही बना लिया था, जिसका ट्रायल वह पूरे काॅलेज कैम्पस में किया करता‌। स्पोर्ट्स, मंच संचालन और अन्य गतिविधियों में भी अव्व्ल। एक तरह से सबका चहेता था। लेकिन उस एक पेपर ने उसे पीछे कर दिया। फाइनल ईयर में जब उसके बैच के सारे लोग कालेज छोड़कर जा चुके थे, वह कैम्पस में अकेला घूमता, और जब भी मैं उसके सामने आता, वह पता नहीं क्यों हमेशा मुझसे खुद आकर हाथ मिलाता और गले मिलता, यह सिलसिला हमेशा चलता रहा। वह जब-जब मेरे से गले मिलता तो मुझे हमेशा उसका थप्पड़ याद आता, एक बार तो उसने शायद मुझसे माफी भी मांगी, मैंने कहा कि सर कोई बात नहीं, शर्मिंदा मत करिए। मुझे उससे मिलना अटपटा ही लगता कि आखिर क्यों ही मिल के घाव ताजा करना। 

फाइनल सेमेस्टर का पेपर हुआ। मैं पास हो गया और काॅलेज से मुक्त हो चुका था। काॅलेज खत्म होने के छह महीने बाद एक दिन जब मैं अपना टीसी लेने गया, तब मुझे वह सीनियर दिख गया और हमेशा की तरह फिर से मुझसे आकर गले मिलने लगा, और बहुत दुःखी होकर मुझे बताने लगा कि मैथ्स का‌ पेपर उसके लिए नासूर बन चुका है, और मैं कुछ उसे उपाय बताऊं, मुझे पता नहीं क्यों उस दिन उसके लिए बहुत खराब लगा, मैंने मन ही मन उसके पेपर क्लियर हो जाने की दुआ कर दी और इस बोझ से खुद को मुक्त कर लिया। 

कभी कभी सोचता हूं कि उसके साथ ऐसा क्यों हुआ। वह सीनियर जो इतना होनहार था, वह लगातार एक ही विषय में फेल होने के बाद जब एक साल पीछे होकर हमारे साथ आ गया, तब ही उसने मुझसे हाथ मिलाने और गले मिलने की औपचारिकता क्यों शुरू की। क्या वास्तव में कुदरत का कानून हम पर इतना हावी हो जाता है कि हम अपना अहं, अपनी क्षुद्रता त्याग देते हैं और उसके सामने खुद को सौंप देते हैं, क्या सचमुच सब के साथ ऐसा होता है ?

घूमने की कला

मार्च 2021 को भारत घूम के आने के बाद से कहीं अलग से घूमने गया ही नहीं हूं। लोग पेशेवर यात्री मानकर पूछते रहते हैं कि अब कहां जा रहे, तो ऐसा है कि मैं हमेशा घूमता नहीं हूं, जब तक भीतर से आवाज नहीं आती तब तक तो बिल्कुल भी नहीं। इसीलिए पिछले ढाई साल से अलग से ऐसे कहीं नहीं गया, काॅलिंग ही नहीं आई। इस बीच दूसरी बाइक भी आ गई, उसे भी आए 7 महीने हो चुके, लेकिन कहीं भी जाना नहीं हुआ। इन ढाई सालों में एक भी कोई लंबा ट्रैक नहीं किया, जिसका थोड़ा मलाल है ही। वैसे दूसरी जिम्मेदारियों में व्यस्त हूं और कहीं न जाकर भी उतना ही मजे में हूं, जितना भारत घूमते हुए था। एक दो दिन के लिए कहीं घूमने चले गये, कहीं रूक गये, इसे मैं घूमना मानता ही नहीं हूं, उल्टे इससे हरारत ही होती है, ये एक दो दिन में मन शरीर जस का तस ही रहता है, कुछ नयापन आता ही नहीं है। अभी के समय में वीकेंड और कुछ नहीं बस एक तिलिस्म मात्र है, जो मार्केट के परोसे गये फास्ट फूड से भी ज्यादा खतरनाक है। इंसान के लिए एक-एक दिन मानो जीने का तत्व न होकर काट कर खा जाने की वस्तु हो गई है, वह शांत नहीं बैठ सकता, वह उन दिनों को भी किसी भी हाल में मानो चबाकर खा लेना चाहता है।

वैसे भी हर चीज का अपना एक मूड होता है, और वो अपने आप जब नियति को मंजूर होता है, स्वयमेव बन जाता है, अपने आप अस्तित्व के यहां से जो चीजें आपके लिए तैयार होती है, उसका अपना अलग ही सुख है। इसलिए जबरदस्ती घूमने नहीं जाना चाहिए, और यह बात सिर्फ घूमने पर लागू नहीं होती है। 

Tuesday, 17 October 2023

आस्था के मायने

भारत से बाहर दो चार देश होकर आने वाले जब वापस भारत लौटते हैं तो अधिकतर लोगों के मन में एक चीज हमेशा आती है और वह है भारत को लेकर शिकायतें। समस्याओं की लंबी फेहरिस्त लेकर विवश होकर कहते है कि हमारे यहाँ ऐसा होना चाहिए, चाहे मामला सफाई का हो या शहरों गांवों की बसाहट का, वह अपनी नाराजगी जताते हैं। अगर सकारात्मक होकर कुछ बेहतर करने की दिशा में व्यक्ति यह मानसिकता रखता है तो इसमें कोई समस्या नहीं है। 

एक सज्जन हैं, बाहर रहते हैं, दूसरे देश की नागरिकता ले ली है। वे आए दिन अपने उस देश को बेहतर और भारत को कमतर बताते रहते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, मूलभूत सुविधाओं के नाम पर अपने देश को श्रेष्ठ बताते हुए भारत को छोटा दिखाते हैं। मैंने उनकी बात से सहमति जताते हुए एक बार पूछा - आप जिस देश में रहते हैं, माना कि वह देश उन्नत है, वहां बेहतर नागरिक सुविधाएं हैं, अच्छा मैनेजमेंट है, लेकिन कुछ चुनौतियाँ/समस्याएं तो आपके यहां भी होंगी। उन्होंने झुंझलाते हुए साफ मना कर दिया। मुझे अपना उत्तर मिल चुका था। वह जिस देश में रहते हैं, उसी देश के उसी प्रांत में तब एक काॅलेज की दोस्त भी रहती थी। कोविड के समय जब उन्होंने अपने देश के मैनेजमेंट का महिमामंडन किया तो मैंने‌ अपने दोस्त से पूछा कि तुम्हारे यहां तो अच्छा मैनेजमेंट है तो उसने उस देश को खूब लानतें भेजी और कहा इससे बेहतर तो भारत में स्थिति है, मिसमैनेजमेंट है, मूलभूत सुविधाओं की समस्याएं हैं मानती हूं, लेकिन इंसान के साथ इतना रोबोट की तरह तो कम से कम व्यवहार नहीं किया जाता। 

एक दिन एक बात निकल कर आई। अमुक सज्जन ने कहा कि जो देश विकसित हैं, प्रोग्रेसिव हो रहे हैं, उन देशों के लोग खासकर यूरोपीय मूल के, ये देश अब भगवान को नहीं मानते, धार्मिक स्थल बंद पड़े रहते हैं, ये एक तरह से नास्तिकता की ओर बढ़ रहे हैं। कुछ एक और लोगों को यह कहते सुना है कि ये विकसित देश भगवान आस्था इन सब को नहीं मानते हैं, इन सब से अब ऊपर उठ रहे हैं। यह गजब ही विडंबना है। एक सवाल मेरे मन में आता है कि इन्हीं देशों के लोग जो उन्नति के साथ नास्तिकता के मार्ग पर प्रशस्त हैं, ये जब एक एयरक्राफ्ट से आसमान से नीचे कूद रहे होते हैं या युध्द जैसी आपात स्थिति में होते हैं तो हाथों से क्राॅस बनाकर या अन्य ऐसा कोई ईशारा कर या आंख मूंद कर अपने ईष्ट को क्यों याद करते हैं?

Monday, 16 October 2023

सहनशक्ति

A - सहना बड़ी बात होती है, सबके बस का नहीं होता।
B - लेकिन क्यों ही सहें किसी को, गुस्सा भी तो आता है।
A - जो सह जाता है, वह जीत जाता है।
B - वह कैसे ?
A - सह जाओगे तो तुम्हारा सहना सामने वाले के लिए आग बन जाएगा।
B - मैं समझ गया लेकिन एक उलझन है।
A - पूछो।
B - इस सहने नहीं सहने के प्रक्रम से मैं क्यों हमेशा के लिए अलग नहीं हो जाता।
A - जीवन की शय का इतना ही फसाना है।
B - एक धुंध से आना है, एक धुंध में जाना है।

Friday, 13 October 2023

पिछड़े समाजों का विशेषाधिकार

पिछड़ों, वंचितों, शोषितों की समस्याओं से, उनके आंदोलनों से हमेशा सहानुभूति रही है, लंबे समय से उनकी पक्षधरता की है, आगे भी यह प्रक्रिया आजीवन जारी रहेगी। इस दौरान कई लोग बीच-बीच में यह कह जाते कि मैं गलत हूं, मुझे समझ नहीं है और फिर अपनी समस्या भी बताते कि जिन्हें समाज पिछड़े तबके का कहता है, जिन्हें विशेषाधिकार हासिल है, उस प्राप्त विशेषाधिकार का दुरूपयोग कर कुछ लोग बेहूदगी की हद पार कर गये जिनकी वजह से उन्होंने कितनी पीड़ा कितनी हिंसा झेली। ऐसे मामले होते रहते हैं, वह बात अलग है कि ऐसे मामलों को कई बार विशेष कवरेज नहीं मिल पाती है। एक सभ्य व्यक्ति चाहे वह किसी भी तबके का हो, वह कभी अपने आपको कोर्ट कचहरी में नहीं घसीटना चाहता है। इसमें भी सभ्यता का एकमात्र बड़ा पैमाना यह कि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के जीवन में कितना कम दखल देता है, कितनी कम हिंसा करता है। 

एक बार एक करीबी ने बताया कि उनके पड़ोस में एक विशेष जाति के लोगों ने अपने जातीय विशेषाधिकार से इतना आतंकित किया कि अंततः उन्हें वह जगह बेचकर कहीं और जाना पड़ा। जो साथी अपने अनुभव बताते हैं, उन्होंने शायद कभी मेरे अनुभव जानने की कोशिश नहीं की। उन्होंने कभी यह नहीं पूछा कि क्या मैंने कभी यह सब झेला है। जी हां, ऐसी हिंसाएं मैंने भी देखी है, खूब मानसिक तनाव झेला है, फिर भी कभी खिलाफ जाकर बात नहीं लिखी, उसके पीछे मेरे अपने कारण है। ऐसे मामलों में हमेशा मैंने चुप रहकर नजर अंदाज कर देने को ही प्राथमिकता दी है। क्योंकि मुझे मालूम रहता है कि अमुक व्यक्ति अपने जीवन के साथ कोई सुधार नहीं करना चाहता है, तो बेहतर है कि ऐसे लोगों के प्रभाव से खुद को अलग किया जाए भर उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाए। वैसे भी कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, पंथ, समुदाय का‌ क्यों न हो, सबका लेखा-जोखा अंततः यही होता है।

अंत में यही कि अधिकतर मैंने यह देखा कि व्यक्ति अपने कुल, अपनी जाति में व्याप्त विसंगतियों से आजीवन खुद को अलग नहीं कर पाता है। गेहूं में घुन पीस जाने की तर्ज पर आजीवन उन प्रवृतियों को, खराब तौर-तरीकों को ढोता रहता है। जो व्यक्ति इन विसंगतियों से पार पाकर बेहतरी की ओर आगे बढ़ता है, वह सबसे पहले अपने ही समाज से कट जाता है। क्योंकि वह जिस प्रगतिशील मानसिकता के साथ जीवन में आगे बढ़ रहा है उसी के समाज के अधिकांश लोग उसके ठीक विपरित दिशा में जीवन जी रहे होते हैं। 

इति।

Tuesday, 10 October 2023

हम भारतीयों की भोजन की संस्कृति

पिछले सप्ताह शहर की एक फूड ब्लागर मात्र 23 की उम्र में शांत हो गई। कारण रहा - हाई सुगर लेवल और उसके बाद निमोनिया। मैंने जब उनका प्रोफाइल देखा तो बहुत सारे खाने-पीने के वीडियो से प्रोफाइल भरा पड़ा था, एक भी चीज ऐसी नहीं मिली जिसे कहा जा सके कि यह अच्छा भोजन है, अपनी प्रकृति में लघु है और सुपाच्य है। खाने के लगभग जितने भी विकल्प देखे सब कुछ अपनी प्रकृति में दीर्घ यानि प्रोसेस किया हुआ खाना, फास्ट फूड जंक फूड जैसा आपको समझने में सहूलियत हो। आजकल इस तरह के खाने को लेकर लोगों में गजब की आसक्ति है। किसी नशे की तरह लोग बाहर थोक के भाव में यह सब खा लेते हैं, यह नहीं समझ पाते हैं कि ब्रांड स्पांसरशिप और फ्री में जो यह खाना आपको परोसा जा रहा है, वह आपको मुफ्त के खाने के साथ कुछ समय के लिए शोहरत तो दे देगा, लेकिन बदले में आपकी सेहत छीन लेगा। 

कुछ लोगों का लिवर बहुत कमजोर होता है, वहीं कुछ लोगों का पूरा इम्युन सिस्टम ही कमजोर होता है, ऐसी स्थिति में व्यक्ति को कई बार यह समझने में बहुत देर लग जाती है कि वह लंबे समय से अपने शरीर को आखिर क्या दे रहा है। मुझे लगता है कि इन फूड ब्लागर के साथ भी कुछ ऐसी ही स्थिति रही होगी। यह भी समझ आया कि ये उस खाने को पचाने के लिए पसीना बहाने जैसा कोई शारीरिक मेहनत भी न करती होंगी तभी शायद स्थिति इतनी गंभीर हो गई। एक कमजोर शरीर को इतना दीर्घ, इतना भारी खाना देना उसी तरह है कि एक पंक्चर हुई गाड़ी में ओवरलोडिंग की हद तक सामान लाद देना, इतना कि उस गाड़ी का इंजन बैठ जाए। 

फास्ट प्रोसेस फूड की शौकीन पीढ़ी को देखकर यही लगता है कि हमने अपने पेट को कूड़े का ढेर बना दिया है, जो मन में आया वहां बस फेंक आते हैं, वहां वो खाना जब सढ़े गले, हमारी चिंता नहीं है। हम अपनी परंपराओं, रीति-रिवाजों का निर्वहन करते हैं, अपनी सामाजिक सांस्कृतिक विरासत को संजोने के लिए प्रयासरत रहते हैं, अपना जीवन फूंक देते हैं लेकिन जहाँ बात भोजन की आती है, वहां हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को क्यों भूल जाते हैं यह समझ से परे है।

मेरे बहुत से दोस्त साथी जो विदेश रहकर आए हैं या दूसरे देशों में रहते हैं, उनमें से लगभग हर किसी ने हमेशा इस एक बात को कहा है कि भारतीय उपमहाद्वीप के खाने का पूरे विश्व में कोई तोड़ नहीं है, ऐसा स्वाद ऐसा फ्लेवर दुनिया के किसी खाने में नहीं है। भले विकसित कहे जाने वाले देशों ने कुछ भी हासिल कर रखा हो, जबरन खुद को बड़ा दिखाने के लिए अपने बेंचमार्क सेट किए हों और उसमें हमें तीसरी दुनिया की श्रेणी में रखा हो, लेकिन भोजन की विविधता के मामले में वे हमेशा पीछे रहेंगे। 

बहुत सोचने विचारने पर यह भी निष्कर्ष निकला कि हम भारतीयों ने अपने भोजन की संस्कृति में कभी अतिवादिता को हावी होने नहीं दिया। चीन जापान कोरिया और कुछ कुछ देशों में जैसे बिना मसालों के उबला हुआ भोजन खाने का रिवाज है, हमने इस संस्कृति को नहीं अपनाया, न ही हमने दीर्घ भोजन को स्वीकारा। हमने बीच का रास्ता चुना, हमने भोजन में तेल मसालों को जमकर जोड़ा और उसका ऐसा बेहतरीन माॅडल पेश किया कि हमे मसालेदार स्वाद भी मिलेगा और उसका नुकसान भी नहीं होगा। उदाहरण के लिए जैसे कभी हमें तेल में तली पूरी और छोले की सब्जी खानी है तो हमने पूरी में अजवाइन डाल दिया और छोले में हींग, काली मिर्च ताकि भोजन का स्वाद भी मिले और ये गुणकारी मसाले आसानी से भोजन को पचा लें और हमारी आंतों पर जोर भी न पड़े। विभिन्न प्रकार के मसाले हमेशा से हमारे भोजन का अभिन्न अंग रहे, जो हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ाते रहे हैं, सदियों से इस संस्कृति का हम‌ पालन करते आए हैं। भारतीय खाने‌ में भोजन को लेकर गजब का साम्य है, हमारे पास अपने स्वादांकुरों को संतुष्ट करने के लिए ढेरों विकल्प हैं, बावजूद इसके हम आज ऐसे भोजन के गुलाम बने बैठे हैं, जिसकी न तो अपनी कोई सांस्कृतिक पृष्ठभूमि है न ही उससे हमारे शरीर को कुछ पोषकतत्व मिलता है। अगर हमें सचमुच अपनी चिंता है, अपने सेहत की थोड़ी भी चिंता है तो भोजन के अपने परंपरागत तौर तरीकों में रस खोजना होगा वरना दुःखों का पहाड़ हमारे सामने है ही। गुलामी सिर्फ किसी बाहरी व्यक्ति के शासन‌ करने के तौर तरीकों से नहीं आती है, भोजन के गलत तौर तरीकों को अपनाने से भी आती है। 




Thursday, 5 October 2023

रायपुर का ध्वनि प्रदूषण

सन् 2015, ठीक गणेश नवरात्रि का समय था। इत्तफाक से मैं जहाँ रहता था, वो क्षेत्र ध्वनि प्रदूषण वाले जोन में ही आता था, जहां से अधिकतर पाॅवर डीजे वाली रैली निकलती थी। गणेश और खासकर नवरात्र के समय बहुत परेशानी होती थी। पता नही उतने शोर में लोगों को कैसे आनंद मिल सकता है, मुझे तो शादियों का डीजे जो एकदम सीने तक महसूस होता है, उससे भी अजीब बैचेनी होने लगती है। 2015 में ही ठीक यही समय रहा होगा, गणेश पूजा खतम होने को थी। तब दीदी राज्य सिविल सेवा परीक्षाओं की लिखित परीक्षा देने आई थी तो मेरे साथ थी, उस समय दीदी प्रेगनेंट थी, शायद पांचवां या छठा महीना होगा, प्रेगनेंसी में वैसे भी मूड स्विंग होता ही है। एक दिन शाम को मैं कहीं बाहर था, दीदी का रोते हुए फोन आया, कहने लगी कि डीजे की आवाज से बहुत दिक्कत हो रही, इस कदर रो रही थी मानो घर में कोई दैत्य घुस आया हो और वो वहां से जान बचाकर बाहर निकलना चाहती हो, मानो बचाओ-बचाओ की आवाज लगा रही हो। शुरूआत में स्थिति की गंभीरता को समझ ही नहीं पा रहा था, मुझे लगा कि सामान्य है, डीजे ही तो है, लेकिन आप कितना भी खिड़की दरवाजा बंद कर लीजिए, पाॅवर डीजे खिड़की तोड़कर आपके शरीर तक पहुंच जाता है, पूरा झकझोर देता है। और एक गर्भवती स्त्री को तो और अधिक प्रभावित करता है। उस दिन मैंने इस डीजे के प्रकोप को बहुत करीब से महसूस किया। तब आनन फानन में अपना काम छोड़कर तत्काल घर पहुंचा और दीदी को आधे एक घंटे के लिए बाहर एक शांत क्षेत्र में ले गया। जब जब डीजे गुजरता, कई दिनों तक शाम को हम यही करते, पास के एक शांत से इलाके में जहां एक पार्क था, कुछ देर वहां समय बिताने चले जाते। 

डीजे का यह प्रकोप अभी भी बदस्तूर जारी है। पाॅवर डीजे की आवाज (डेसिबल में) हर गुजरते साल पहले से अधिक बढ़ती ही जा रही है, क्योंकि इनकी प्रतियोगिता रहती है कि जिसकी आवाज सबसे कानफोड़ू हिला देने वाली होगी, वही रैली का विजेता घोषित होगा। एक ओर जहाँ इस डीजे से सैकड़ों हजारों लोगों का रोजगार जुड़ा है, वहीं दूसरी ओर हर साल अप्रत्याशित घटनाएं भी सामने आती है, जिसमें लोगों को अस्पताल में भर्ती तक होना पड़ा है, पता नहीं इसका क्या दूरगामी समाधान निकलेगा। वैसे डीजे से इतर रोजमर्रा के दिनों की भी बात करें तो आज के समय में रायपुर में ध्वनि प्रदूषण इतने चरम पर है कि इस शहर का भूस बन चुका है, थोड़ा बाहर निकलते ही मानसिक शारीरिक थकान हावी होने लगती है, भले लोगों को यह सब एक बार में महसूस नहीं होता है। हम कभी अलग से ध्वनि प्रदूषण को एक गंभीर समस्या के तौर पर देखते भी तो नहीं है। हां, इसमें हम यह जरूर कहते हैं कि शहर में समय का पता नहीं चलता, लेकिन इसमें यह नहीं समझ पाते कि यह सब ध्वनि प्रदूषण की वजह से होता है। खासकर गर्भवती महिलाओं, छोटे बच्चों और बुर्जुगों पर इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है लेकिन कौन इतनी पड़ताल करे। ध्वनि प्रदूषण युक्त शहर में रहने वाला एक व्यक्ति आपको ऐसा नहीं मिलेगा जो गांवों या शांत छोटे कस्बों की तर्ज पर यह कह दे कि समय ही नहीं कट रहा है, क्योंकि मन मस्तिष्क में प्रदूषण इतना हावी होता है कि उसे समझ ही नहीं आता है कि उसके पास समय है भी या नहीं, पूरी दैनिक जीवनचर्या आजीवन अस्त व्यस्त रहती है, कुछ न होके भी एक भागमभाग लगी रहती है, जी मचलता रहता है। और एक दिन किसी दीमक की तरह शहर रूपी दीवार में ही व्यक्ति मिट्टी बनकर खाक हो जाता है।